
प्रायश्चित प्रक्रिया से भागिये मत
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रसौली (एक प्रकार उभरी हुई गांठ की बीमारी) की मरीज एक स्त्री एक बार श्रीमती जे.सी. ट्रस्ट के पास गईं और अपने रोग की चिकित्सा के लिए कोई औषधि देने की प्रार्थना करने लगीं। श्रीमती ट्रस्ट अमेरिका की विश्व विख्यात सन्त हैं जिन्होंने धर्म और अध्यात्म को वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न ही नहीं किया, अपितु अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों से सैकड़ों पीड़ित और पतित लोगों का भला भी किया है। उनके प्रवचन और आध्यात्मिक गवेषणाएं सुनने के लिए बड़े-बड़े वैज्ञानिक तक पहुंचते थे।
ट्रस्ट ने उस महिला को बहुत ध्यान से देखा और कहने लगीं—आप नहीं समझ सकती, पर जिन्हें प्रकाश की गति और अवस्था का ज्ञान होता है वे यदि कोई न भी बताये तो भी, किसी के भी अन्तरंग की बात जान लेते हैं। आप के शरीर में मुझे कुछ काले रंग के अणु दिखाई देते हैं जो इस बात के प्रतीक हैं कि आपके जीवन में कहीं कोई त्रुटि, विकृति या ऐसी अनैतिक प्रवृत्तियां हैं जो आप दूसरों से छिपाती रहती हैं। आप प्रायश्चित्त का साहस कर सकें तो हम विश्वास दिलाते हैं कि आपका यह छोटे से छोटा रोग तो क्या भविष्य में अवश्यम्भावी कठिन रोगों का निवारण भी उससे हो सकता है।
स्त्री बोली—माता जी! मैं आपके पास चिकित्सा के लिए आई हूं उपदेश तो बहुतेरे पादरियों, सन्त और धार्मिक व्यक्तियों से सुन चुकी। औषधि दे सकती हैं, तो दीजिए, अन्यथा हम यहां से जायें।
उस महिला की तरह सैकड़ों लोगों के जीवन विकार ग्रस्त होते हैं, मन में दूषित—काम क्रोध, लोभ, मद मत्सर आदि विकार उठते रहते हैं, उनसे प्रेरित जीवन से जो पाप सम्भव हैं उन्हें लोग एक सामान्य ढर्रे की तरह अपना लेते हैं। काम वासना से पीड़ित व्यक्ति किसी भी नारी को देखकर उत्तेजित हो उठता है, क्रोधी व्यक्ति हर किसी को दुश्मन की तरह देखता और वैसा ही कटु व्यवहार करता है लोभी व्यक्ति ही चोरी से लेकर रिश्वत, छल, कपट, और मिलावट तक करते हैं भले ही उससे समाज का कितना ही अहित क्यों न हो? जब उससे यह कहा जाता है कि पाप और विकारों का कर्म भोग भोगना पड़ेगा, यह पाप ही आधि-व्याधि, रोग, शोक और बीमारियों के रूप में फूटते हैं इन्हें सभी सुधार लो, अभी प्रायश्चित कर पाप के बोझ से मन को हलका कर लो। तब वह इन विचारों को दकियानूसी पिछड़ापन कहता है और तर्क देता है कि विकास के लिये संघर्ष प्राकृतिक सत्य है। प्रकृति यही सब कर रही है, मनुष्य क्यों न करे? वह कर्मफल के सिद्धान्त को मानने को तैयार नहीं होता। विकारों को वह शारीरिक आवश्यकताएं मानता है और उनकी किसी भी उपाय से पूर्ति—धर्म। इन मान्यताओं के कारण ही आज न केवल सामाजिक व्यवस्थायें विश्रृंखलित हुईं, वरन् लोगों के जीवन रोग शोक से भरते चले जा रहे हैं। पाप और मनोविकार सचमुच रोग और भविष्य के लिए अंधकार उत्पन्न करते हैं यह बात अब न केवल तर्क संगत रही वरन् विज्ञान सम्मत भी हो गई है।
श्रीमती ट्रस्ट के समझाने से उस महिला पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने अपने जीवन के सारे दोष स्वीकार किये और बताया कि उसे क्रोध बहुत आता है इसी दुर्भाव के कारण वह अनेकों पाप कर चुकी है। उसने कई बार चोरी भी की है और झूठ-मूठ कहकर लोगों को लड़ाया भी। उसने अपने सारे ऐब स्वीकार कर लिये इसके बाद ट्रस्ट के कहने से उसने कुछ दिन तक उपवास किया, उससे उसकी गांठ भी अच्छी हो गई और मन की अशान्ति भी दूर हो गई। श्रीमती ट्रस्ट ने इसी तरह एक नवजात शिशु के रोग उसकी मां से प्रायश्चित कराकर ठीक किये। उन्होंने ऐसे सैकड़ों व्यक्तियों से निष्कासन तप कराकर उन्हें शरीर और मन से शुद्ध बनाया वह सब उपरोक्त वैज्ञानिक सत्य का ही प्रतिफल था।
एकबार इंग्लैंड के डाक्टरों ने एक प्रयोग किया। एक बन्दर के एड्रिनल में ‘‘ऐडुलरी भाग’’ में हल्की-सी विद्युत करेंट प्रवाहित करके देखा कि उससे ‘‘एड्रिलीन’’ हारमोन के स्राव की मात्रा बहुत बढ़ गई उस समय बन्दर की मुख मुद्रा में भयानक क्रोध के लक्षण उभर आये। फिर उन्होंने कुछ तीव्र रसायनों द्वारा उस भाग को ‘‘शून्य’’ कर दिया और तब फिर विद्युत करेंट प्रवाहित किया तब ‘‘एड्रिलीन’’ बहुत थोड़ा निकला। बन्दर उस समय कुछ ज्यादा क्रोधित भी नहीं हुआ। इसके साथ एक ऐसे व्यक्ति का परीक्षण किया गया जिसने किसी महिला के पर्स की चोरी करली थी। उस समय वह अत्यन्त भयभीत था कि कहीं पुलिस पकड़ न ले और उसे पीटा न जाये। डाक्टरों ने उसकी जांच की तो पाया कि उसका सारा केन्द्रीय नाड़ी संस्थान उत्तेजित है और उससे शरीर के पूरे यन्त्र (मेटाबॉलिज्म) पर असर पड़ रहा है ऐसे समय तीव्र असर वाली बीमारियां होने की सम्भावना डाक्टरों ने भी स्वीकार कीं। चिन्ता व शोक की स्थिति में ‘‘थैलमस फोलिकल स्टेमुलेटिंग हारमोन रिलीजिंग फैक्टर’’ में कमी हो जाने आदि के उदाहरण से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि बुरी भावनायें मनुष्य शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव निश्चित रूप से डालती हैं। वही रोग के रूप में उत्पन्न होते हैं इसलिये यदि रोग से स्थायी बचाव करना है तो अपने मनोमय संस्थान को शुद्ध रखना ही पड़ेगा। साथ ही साथ अब तक जो मलिनतायें मन में भर गई हैं उन्हें प्रायश्चित्त द्वारा परिमार्जित करना ही होगा। जब तक मनुष्य इन्हें स्वीकार नहीं करता वह अन्तर्दहन से बच नहीं सकता।
‘‘हारमोन्स क्या हैं’’ और उनका मनुष्य शरीर से क्या सम्बन्ध है, यह समझने से उक्त तथ्य की गहराई में प्रवेश किया जा सकता है। मनुष्य शरीर में दो प्रकार की ग्रन्थियां (ग्लैण्ड्स) होती हैं। ग्रन्थियां एक ऐसे कोशों (सेल्स) के समुदाय को कहते हैं जो किसी गांठ की शक्ल में बदल जाते हैं और जिनसे तरल रासायनिक स्राव निकलता रहता है इस स्राव को ही ‘‘हारमोन्स’’ कहते हैं। एक ग्रन्थियां वह होती हैं जिनका सम्बन्ध नलिकाओं द्वारा शरीर से होता है दूसरी नलिका विहिन (डक्टलेस ग्लैण्ड्स) वह होती हैं जिनका सम्बन्ध नलिकाओं से नहीं होता वे स्राव मस्तिष्क की गति-विधि के अनुसार निकालती और मनुष्य शरीर पर प्रभाव डालती हैं। यही सर्वाधिक महत्व की हैं। अभी वैज्ञानिक इनके बारे में पूर्णतया नहीं जान पाये। जब जानेंगे तब पूर्व जन्मों के संस्कार, पुनर्जन्म आदि के कितने ही आश्चर्यजनक तथ्य सामने आयेंगे ऐसा अनुमान है। हम नहीं जानते पर अब विज्ञान यह बताने लगा है कि मनुष्य की इच्छी बुरी भावनाओं के द्वारा ही अच्छे या बुरे हारमोन्स शरीर में स्रवित होकर रासायनिक सन्तुलन या विकृति उत्पन्न करते हैं।
भारतीय दर्शन और जीवन पद्धति में स्थूलता को कम महत्व दिया गया और देव भाग को अधिक। यह यहां की सर्वोपरि विज्ञानवादिता थी। अब शरीर-विद्या विशारद भी इन मान्यताओं पर उतरने लगे हैं कि वस्तुतः शरीर का सारा संचालन अधिकांश इन देव शक्तियों—ग्रहों-उपग्रहों या सूक्ष्म आकाश भाग से ही होता है। ‘‘ओकाल्ट एनाटामी एण्ड दि बाइबिल’’ पुसतक में डा. कोराहन हेलिन ने—कोलम्बिया विश्व-विद्यालय के डा. लुहस वर्मन के निबन्ध—व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाली ग्रन्थियां (ग्लैण्ड्स रेगुलेटिंग परसनैलिटी) के हवाले से बताया है कि मनुष्य के शरीर में कुछ ऐसी ग्रन्थियां हैं जो देखने में छोटी होती हैं, पर उनका महत्व असाधारण है। पाचन क्रिया से लेकर मनोवेगों तक का सारा नियन्त्रण इन ग्रन्थियों से ही होता है इन्हें वाहिनी हीन (डक्ट लेस) ग्रन्थियां (ग्लैण्ड्स) कहा जाता है अन्तःस्रावी हारमोन्स इन ग्रन्थियों से ही स्रवित होकर शारीरिक उतार-चढ़ाव, घटना-बढ़ना, बुढ़ापा मृत्यु आदि का कारण बनते हैं।
एनाटामी मेडिकल कालेज कर्नेल विश्व-विद्यालय के प्रोफेसर डा. चार्ल्स आर स्टार्क यार्ड ने इन ग्रन्थियों के आधार पर मनुष्य जीवन की एक नई धारणा प्रस्तुत की है जो भारतीय आध्यात्मिक शोधों से शत-प्रतिशत मेल खाती है। डा. स्टाकर्ड लिखते हैं कि आन्तरिक स्राव वाली ग्रन्थियां एक महान् शासक के रूप में गर्भ धारण से लेकर मृत्यु तक स्त्रियों पुरुषों तथा समस्त रीढ़ की हड्डी वाले जीवों तक का नियन्त्रण करती हैं। ‘‘फिजियोलॉजी’’ तथा सोशलाजी की मान्यतायें भी अब ‘‘अन्तराकाश’’ के अस्तित्व और उसके प्रचण्ड प्रभाव को स्वीकार करने लगी हैं। गौ ‘‘ग्लैण्ड्स आफ डेस्टिनी’’ के लेखक डा. ईबो गैको काब ने तो यहां तक मान लिया है कि अन्तःस्रावी (इन्डोक्राइन ग्लैण्ड्स) ग्रन्थियों पर नियन्त्रण रखने वाले लोगों ने ही इतिहास पर अधिकार रखा है और जमाने को कहां से कहां बदल दिया है। नेपोलियन बोनापार्ट का उदाहरण देते हुये उन्होंने लिखा है कि यदि वाटरलू के युद्ध के समय नेपोलियन बोनापार्ट की ‘‘पिचुट्री ग्लैण्ड’’ (पीयूष ग्रन्थि) में खराबी नहीं आ जाती तो वह हारता नहीं। जो नेपोलियन अत्यन्त दूरदर्शी निर्णय भी तुरन्त ले लेने की क्षमता रखता था उसकी विवेक बुद्धि बुरी तरह लड़खड़ा गई। जिस समय वह एल्बा में निर्वासित था उस समय लेगर्ड ग्रन्थि लड़खड़ा गई। यह सारी बातें तब प्रकाश में आईं जब सेंट हेलेना में उसके शव की अन्त्य परीक्षा (पोस्ट मार्टम) की गई। जब तक उसने इन ग्रन्थियों पर नियन्त्रण रखा, जब तक उसकी अन्तःस्रावी ग्रन्थियां सशक्त रहीं नेपोलियन सारी दुनिया को जीतता रहा पर जैसे ही वह इन शक्तियों से वंचित हुआ वह नष्ट ही हो गया।
योग साधनायें इन देव-शक्तियों के विकास का ही वैज्ञानिक उपक्रम हैं। आने वाले दिनों में जबकि अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के पदार्थ (मैटर) की खोज होगी और उसकी तुलना ग्रहों के पदार्थ से की जायगी तो लोग आश्चर्य करेंगे कि मनुष्य शरीर में आकाश तत्व किस विलक्षणता के साथ उपस्थिति है और कितने आश्चर्यजनक ढंग से मनुष्य को अपनी इच्छा से बांधे हुए है।
‘‘ओकाल्ट एनाटामी एण्ड दि बाइबिल’’ पुस्तक के वैज्ञानिक लेखक ने उस तरह का तुलनात्मक अध्ययन, जिस तरह ‘‘कुण्डलिनी तन्त्र’’ में भारतीय योगियों ने किया है वैसा तो नहीं किया पर उसने माना है कि इन ग्रन्थियों का सम्बन्ध निश्चित रूप से नक्षत्रों (स्टार्स) से है। उन्होंने इन्हें ‘‘आन्तर्नक्षत्र’’ (इन्टोरियर स्टार्स) लिखा है और बताया है कि सूर्य और हरिग्रह पीलियल ग्लैण्ड से सम्बन्ध रखते हैं इसी तृतीय नेत्र ग्रन्थि भी कहा जाता है उससे भ्रूमध्य में ‘‘आज्ञाचक्र’’ का ही स्पष्ट प्रमाण मिलता है आज्ञा-चक्र जागृत करने वाला ‘‘ऊँ’’ ध्वनि सुन सकता है।
सब तरफ की दूरवर्ती घटनायें देख सुन सकता है। यह सूर्य शक्ति का प्रभाव है। वरुण और चन्द्र का सम्बन्ध, पिचुट्री ग्रन्थि से है। चन्द्रमा के उतार चढ़ाव से मन पर उतार चढ़ाव होता है यह इन दोनों तत्वों की एकता का प्रमाण है। बृहस्पति उपवृक्क (एड्रिनल) पर, प्रजनन ग्रन्थि (गोनाड्स) पर मंगल बुद्ध का गल ग्रन्थि (थायराइड्स) सूर्य का पैरा थायराइड्स (उपगल ग्रन्थि) से सम्बन्ध है इन ग्रहों के उतार चढ़ाव इन ग्रन्थियों को प्रभावित करते हैं।
सूक्ष्म अवयवों का विज्ञान
सामान्य शरीर विज्ञान के अनुसार यह जाना—माना जाता है कि देह के इंजन को चलाने के लिए हृदय, फुफ्फुस, आमाशय, आंतें, जिगर, गुर्दे, वृक्क, मस्तिष्क आदि अंगों का क्रिया कलाप ही प्रमुख उत्तरदायित्व वहन करता है। उनकी बनावट और क्रिया-पद्धति शब्दच्छेद आदि द्वारा समझी समझाई जाती है और बीमार पड़ने पर इन्हीं में कहीं खराबी कमजोरी तलाश की जाती है। रक्त की गतिशीलता एवं शुद्धता इन्हीं प्रमुख अंगों की स्थिति पर निर्भर रहती है। ज्वर, खांसी, दस्त, व्रण दर्द, सूजन, शिथिलता, अशक्तता आदि रोगों के वाह्य लक्षण भीतरी अवयवों में विकार आने के फलस्वरूप ही दृष्टिगोचर होते हैं।
विज्ञान के अन्य क्षेत्रों की भांति शरीर विज्ञान के अन्तरंग में जितनी गहराई के साथ प्रवेश किया जाता है, उतने ही अधिक महत्वपूर्ण रहस्य प्रकट होते चले जाते हैं प्राचीन काल में पंच तत्वों को सृष्टि का आदि कारण माना जाता था। पर नवीन शोधें परमाणु, प्रकाश, चुम्बक, ईथर, गैस, ताप आदि तत्वों के कण कम्पनों को पदार्थ का मूल कारण सिद्ध करती हैं। स्थूल पंच तत्व तो इन्हीं सूक्ष्म तत्वों के मिश्रण मात्र हैं। उनका अब कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं माना जाता।
शरीर विज्ञान में अब हृदय आमाशय आदि को यन्त्र, इंजन आदि मानता है। उसके मूल संचालन में दूसरे तत्वों एवं सूक्ष्म अवयवों का हाथ बताया जाता है। इन्हीं पर हमारे स्वास्थ्य का बहुत कुछ आधार निर्भर रहता है।
सूक्ष्म अवयवों में ‘हारमोन’ अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनकी सक्रियता, निष्क्रियता का हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति पर भारी प्रभाव पड़ता है। शरीर में दो प्रकार की ग्रन्थियां हैं। एक प्रकार की ग्रन्थियां पसीना आदि मलों के विसर्जन की प्रक्रिया सम्पन्न करती हैं। दूसरी प्रकार की एक रस विशेष का स्राव करती हैं जो रक्त में मिलकर समस्त शरीर को प्रभावित करता है। यह रस विशेष ही हारमोन है।
शरीर की आकृति कैसी ही हो उसकी प्रकृति के निर्माण में हारमोन रसों का भारी हस्तक्षेप रहता है। कई बार तो वे मनःस्थिति, स्वभाव, रुचि को भी आश्चर्यजनक रीति से प्रभावित करते हैं। स्वसंचालित नाड़ी संस्थान की गतिशीलता तक में इनकी स्थिति के कारण भारी हेर-फेर उत्पन्न होते हैं। इन हारमोन रसों को जीवन रस कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।
हारमोन प्रवाहित करने वाली ग्रन्थियां यों कितनी ही हैं पर उनमें पांच मुख्य हैं। यथा—
(1) थराइड (चुल्लिका)—यह ग्रन्थि गले की घण्टी के पास स्थित है। इसका वजन आधी छटांक से भी कम होता है। इससे निकलने वाले रस को थराइक्सन कहते हैं। इसमें 65 प्रतिशत आयोडीन रहता है। इसके अतिरिक्त आइड्रोजन, आक्सीजन और नाईट्रोजन आदि भी रहते हैं।
इसका विकास बचपन में ही रुक जाय तो शरीर और मन का पर्याप्त विकास नहीं होता, प्रौढ़ावस्था में विकास रुक जाने पर चुस्ती और स्फूर्ति रुक जाती है। शरीर की गिरावट होने लगती है। वृद्धावस्था में विकास रुक जाने पर मनुष्य का शरीर एकदम गिर जाता है और मृत्यु जल्दी ही आ जाती है। इस ग्रन्थि को रस इन्जेक्शन द्वारा देने पर इसका अभाव दूर हो जाता है भेड़ की ग्रन्थि खिलाने पर तो शरीर तेजी से बढ़ने लगता है।
इसी ग्रन्थि पर मनुष्य की कार्यक्षमता निर्भर करती है। यदि यह ग्रन्थि तेजी से काम करने लगे तो कार्यक्षमता में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। इतना ही नहीं तेजी, क्रोध, चिड़चिड़ापन, जल्दबाजी, भागदौड़ की वृद्धि अधिक बढ़ जाती है। यदि यह थोड़ा अधिक कार्य करें तो मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए उत्तम है। इससे गम्भीरता, मस्ती, कार्य-शीलता, प्रसन्नता प्राप्त होती है।
(2) पिच्यूटरी—यह प्रमुख ग्रंथि है जो अन्य सभी ग्रन्थियों पर शासन करती है। यह अंगूर की शक्ल की मस्तिष्क के नीचे एक नली से लटकी रहती है। इसकी स्वस्थता पर ही अस्थिपंजर की वृद्धि, शरीर का विकास निर्भर करता है। इसकी विकृति से पीलापन, समय के पूर्व बुढ़ापा, अस्थिपंजर की कमजोरी आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं। (3) पीनियल—यह मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित होती है। इसकी तेजी पर अवस्था से पहले कामवासना की तीव्रता और असाधारण प्रतिभा का होना निर्भर करता है। (4) अड्रनिल्स—गुर्दों के ऊपरी सिरों पर दो ग्रन्थियां स्थित होती हैं। इनसे कार्टन नाम का रस निसृत होता है। इस रस के नष्ट हो जाने पर मृत्यु हो जाती है। इन ग्रन्थियों की बाह्य प्रतिक्रिया के फलस्वरूप पुरुषत्व की वृद्धि होती है। आन्तरिक क्षेत्र में भय, क्रोध, चिन्ता आदि का सम्बन्ध इसी ग्रन्थि से होता है। इन ग्रन्थियों पर प्रतिक्रिया होने से रक्तचाप बढ़ जाता है। स्नायुओं में तेजी आ जाती है। भय, क्रोध, उत्तेजना की अवस्था में सामर्थ्य से अधिक काम कर बैठना, ऊंचे से कूद जाना, घातक हमला कर देना, तेजी से दौड़ना इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होता है। इसका रस एड्रीनलीन इन्जेक्शन से देने पर उत्तेजना पैदा हो जाती है।
(5) गोनेड—यह लिंग सम्बन्धी प्रमुख ग्रन्थि है। इसके ऊपर लिंग सम्बन्धी विकास निर्भर करता है। यदि विपरीत लिंगी रस दिया जाय तो वैसी ही प्रतिक्रिया होने लगती है। वैज्ञानिकों ने परीक्षण के तौर पर मुर्गे की गोनेड ग्रन्थि का रस एक मुर्गी के शरीर में छोड़ा। कुछ ही समय बाद मुर्गी ने अण्डे देना बन्द कर दिया। और मुर्गे की तरह बांग देना शुरू कर दिया। लिंग परिवर्तन के मूल कारण में इस ग्रन्थि का परिवर्तन भी मुख्य होता है। जिन स्त्रियों में यह ग्रन्थि अधिक विकसित होने लगती है उनमें पुरुषत्व के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।
इस तरह की शरीर में अनेकों ग्रन्थियां होती हैं। किन्तु प्रमुख ग्रन्थियां ये ही हैं जिनके आधार पर शरीर की स्थिति निर्भर करती है।
हारमोन स्रावों के सम्बन्ध में विशेष अनुसंधानकर्त्ता डा. क्रुक शेंक ने इन्हें जादुई रेन्ड कहा है और बताया है कि बाहर की शारीरिक बनावट या स्थिति कैसे ही क्यों न प्रतीत हो, उनकी वास्तविक स्थिति जाननी हो तो इन स्रावों के सन्तुलन और क्रियाकलाप का परीक्षण करके ही यह जाना जा सकेगा कि मनुष्य का वास्तविक स्तर और व्यक्तित्व क्या है? हारमोन न केवल अंग-प्रत्यंगों की समर्थता असमर्थता के आधार हेतु हैं वरन् व्यक्तित्व के निर्माण में भी उनका गहरा हाथ है।
मनःशास्त्री एडलर ने काम प्रवृत्ति की शोध करते हुए बड़े विलक्षण तथ्य प्राप्त किये। बाहर से अत्यधिक सुन्दर, आकर्षक और कमनीयता की मूर्ति दीखते हुए भी कई महिलाओं को उन्होंने काम शक्ति से सर्वथा रहित पाया। न उनमें रमणी प्रवृत्ति थी न नारी सुलभ उमंग। उन्हें दाम्पत्य स्रोलड़े जैसे दुर्बल काय खिलाड़ी, ग्लामेविजउड जैसी बोनी नर्तकी की इन विशेषताओं के रहस्य का आधार उनके हारमोन रसों में सन्निहित पाया गया। कितने ही अपौष्टिक आहार मिलने पर भी स्थूल काय देखे जाते हैं और कितनों की मक्खन, मलाई का बाहुल्य रहने पर भी देह पतली ही बनी रहती है। कुछ लोग रोगों के दबाव को इतना सह लेते हैं कि जितने में सामान्यतः मृत्यु हो ही जानी चाहिए। इसके विपरीत कुछ भीतरी खोखलेपन के कारण जरा-सी अस्वस्थता में ही बोल जाते हैं। बौनापन अथवा लम्बा होना इन हारमोन रसों पर निर्भर रहता है। मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक स्थिति में जो आकाश-पाताल जैसा अन्तर पाया जाता है, उसका कारण उनका आहार विहार, संस्कार वातावरण, शिक्षण, संकल्प भी हो सकता है। पर अनजाने और अनचाहे प्रवाह में मनुष्य को कहीं से कहीं बहा ले जाने और कुछ से कुछ बना देने का श्रेय इस जीवन की न उमंग थी न क्षमता। इसी प्रकार उन्होंने कितने ही युवकों को देखा, जिनकी शारीरिक स्थिति मर्दानगी और वैवाहिक जीवन की आवश्यकता प्रतिपादित करती थी पर वे वस्तुतः नपुंसक थे। न उनके मन में उमंग थी न जननेन्द्रिय में उत्तेजना। इसका कारण तलाश करने पर काम तत्व को प्रभावित करने वाले हारमोन रस का ही अभाव पाया गया। इसके विपरीत उन्हें ऐसे नर-नारी भी मिले जो अल्प वयस्क एवं वयोवृद्ध होते हुए भी काम पीड़ित रहते थे। शरीर से रुग्ण रहने पर भी कितने ही व्यक्ति ऐसे पाये गये जो अतिशय कामसेवन में प्रवृत्त थे। इसके बिना उन्हें असह्य, बेचैनी अनुभव होती थी। इस विचित्र असन्तुलन का कारण उन्हें हारमोन ग्रन्थियों के स्राव में अवांछनीय हेर-फेर होना ही प्रतीत हुआ।
वीथोवन जैसे बहरे प्रखर संगीतज्ञ, डीमास्थ नीज जैसे हकलाने वाले धुरन्धर वक्ता, डेनियल बोर्न जैसे मन्द दृष्टि चित्रकार, विशेष रस स्राव की मात्रा पर ही निर्भर हैं। नर से नारी और नारी से नर बनने के जो कितने ही उदाहरण सामने आये हैं, इन लिंग परिवर्तन की स्थिति हारमोन की गतिशीलता में मोड़ आ जाने के कारण ही, बनी बताई गई है।
स्वसंचालित नाड़ी संस्थान की सक्रियता मनुष्य के नियन्त्रण से बाहर बताई जाती है। अचेतन मस्तिष्क के क्रिया-कलापों को जीवन कोषों के परम्परागत विकास क्रम से संचालित बताया जाता है। यह भी मानवी प्रयत्नों से अप्रभावित संस्थान समझा जाता है। हारमोन रसों के बारे में भी ऐसी ही मान्यता है कि उनकी न्यूनाधिकता को घटाया बढ़ाया जाना कठिन है। प्राणिज हारमोन निकाल कर उनके इन्जेक्शनों द्वारा उस कमीवेशी को संतुलित करने का प्रयत्न किया जा रहा है पर वह उधार का अनुदान क्षणिक लाभ देकर समाप्त हो जाता है। अपने निज के हारमोन स्राव उत्तेजित या शिथिल करने में स्थायी प्रभाव उत्पन्न करने वाले उपचारों में अभी चिकित्सा विज्ञान को यत्किंचित् ही सफलता मिली है। हारमोन स्राव इतने महत्वपूर्ण किन्तु इतने अनियन्त्रित होने के कारण मनुष्य के लिए अभी भी एक पहेली बने हुए हैं। सूक्ष्म विज्ञान वहां से आरम्भ होता है, जहां स्थूल की समाप्ति होती है। भौतिक प्रयत्न जहां तक काम दे सकें उसी को भौतिक क्षेत्र माना जाता है। इससे आगे की परिधि को समाप्त समझ लेना उचित नहीं। आधि भौतिक से आगे भी दो विशाल काय क्षेत्र पड़े हैं आध्यात्मिक और आधि दैविक। इन क्षेत्रों में संव्याप्त विज्ञान—आधि भौतिक क्षेत्र में उपलब्ध सामर्थ्य एवं सफलता से किसी भी प्रकार कम नहीं है।
हारमोन स्राव सर्वथा स्वेच्छाचारी हैं, उन पर मानव चेतना का कोई अधिकार नहीं, यह मान बैठना ठीक नहीं। औषधि विद्या और शल्य प्रक्रिया ही सम्भव है वहां तक पहुंच नहीं, पर यह समझा जाना चाहिए कि शरीर के क्षेत्र में चल रही गतिविधियों पर शरीरगत आत्मा का कोई नियन्त्रण हस्तक्षेप नहीं। आत्मिक शक्ति बढ़ा कर हृदय जैसे यन्त्र को रोक देना और फिर इच्छानुसार संचालित कर देना योग विद्या द्वारा सम्भव हो गया है। इसे वैज्ञानिक परीक्षणों में प्रमाणित किया जा चुका है। स्वसंचालित नाड़ी संस्थान को मन्द, बन्द या तीव्र करने में प्राचीन काल के योगाभ्यासी तो निष्णात थे ही अब भी सिद्धान्त प्रतिपादन की दृष्टि से उसे प्रमाणित किया जा चुका है। हर हारमोन रसों में ही क्या अनोखापन है जो आत्मबल के प्रहार से उन्हें घटाया बढ़ाया जाना सम्भव न हो सके।
शरीर पर सर्वतोभावेन नियंत्रण शासन संचालन करने की क्षमता जब मनुष्य योगाभ्यास द्वारा प्राप्त कर लेगा तब हारमोन रसों जैसे अद्भुत स्रावों का सदुपयोग करके व्यक्तित्व को इच्छानुसार ढालना, बदलना, सुधारना सम्भव हो जायगा। योग और अध्यात्म विद्या के माध्यम से व्यक्तित्व में इन्हीं बीजों का आरोपण किया जाता है। आत्म साधना का विज्ञान व्यक्तित्व के विकास में बाधा पहुंचाने वाले कारणों, कषाय-कल्मषों और पिछले जन्मों के विकारों को दूर कर व्यक्तित्व को विकास की दिशा में अग्रसर करता है। इसके लिए अपने पिछले कर्मों का दंड भुगतने और प्रायश्चित प्रक्रिया से गुजरने के लिए हर घड़ी हर पल तैयार रहना चाहिए।
ट्रस्ट ने उस महिला को बहुत ध्यान से देखा और कहने लगीं—आप नहीं समझ सकती, पर जिन्हें प्रकाश की गति और अवस्था का ज्ञान होता है वे यदि कोई न भी बताये तो भी, किसी के भी अन्तरंग की बात जान लेते हैं। आप के शरीर में मुझे कुछ काले रंग के अणु दिखाई देते हैं जो इस बात के प्रतीक हैं कि आपके जीवन में कहीं कोई त्रुटि, विकृति या ऐसी अनैतिक प्रवृत्तियां हैं जो आप दूसरों से छिपाती रहती हैं। आप प्रायश्चित्त का साहस कर सकें तो हम विश्वास दिलाते हैं कि आपका यह छोटे से छोटा रोग तो क्या भविष्य में अवश्यम्भावी कठिन रोगों का निवारण भी उससे हो सकता है।
स्त्री बोली—माता जी! मैं आपके पास चिकित्सा के लिए आई हूं उपदेश तो बहुतेरे पादरियों, सन्त और धार्मिक व्यक्तियों से सुन चुकी। औषधि दे सकती हैं, तो दीजिए, अन्यथा हम यहां से जायें।
उस महिला की तरह सैकड़ों लोगों के जीवन विकार ग्रस्त होते हैं, मन में दूषित—काम क्रोध, लोभ, मद मत्सर आदि विकार उठते रहते हैं, उनसे प्रेरित जीवन से जो पाप सम्भव हैं उन्हें लोग एक सामान्य ढर्रे की तरह अपना लेते हैं। काम वासना से पीड़ित व्यक्ति किसी भी नारी को देखकर उत्तेजित हो उठता है, क्रोधी व्यक्ति हर किसी को दुश्मन की तरह देखता और वैसा ही कटु व्यवहार करता है लोभी व्यक्ति ही चोरी से लेकर रिश्वत, छल, कपट, और मिलावट तक करते हैं भले ही उससे समाज का कितना ही अहित क्यों न हो? जब उससे यह कहा जाता है कि पाप और विकारों का कर्म भोग भोगना पड़ेगा, यह पाप ही आधि-व्याधि, रोग, शोक और बीमारियों के रूप में फूटते हैं इन्हें सभी सुधार लो, अभी प्रायश्चित कर पाप के बोझ से मन को हलका कर लो। तब वह इन विचारों को दकियानूसी पिछड़ापन कहता है और तर्क देता है कि विकास के लिये संघर्ष प्राकृतिक सत्य है। प्रकृति यही सब कर रही है, मनुष्य क्यों न करे? वह कर्मफल के सिद्धान्त को मानने को तैयार नहीं होता। विकारों को वह शारीरिक आवश्यकताएं मानता है और उनकी किसी भी उपाय से पूर्ति—धर्म। इन मान्यताओं के कारण ही आज न केवल सामाजिक व्यवस्थायें विश्रृंखलित हुईं, वरन् लोगों के जीवन रोग शोक से भरते चले जा रहे हैं। पाप और मनोविकार सचमुच रोग और भविष्य के लिए अंधकार उत्पन्न करते हैं यह बात अब न केवल तर्क संगत रही वरन् विज्ञान सम्मत भी हो गई है।
श्रीमती ट्रस्ट के समझाने से उस महिला पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने अपने जीवन के सारे दोष स्वीकार किये और बताया कि उसे क्रोध बहुत आता है इसी दुर्भाव के कारण वह अनेकों पाप कर चुकी है। उसने कई बार चोरी भी की है और झूठ-मूठ कहकर लोगों को लड़ाया भी। उसने अपने सारे ऐब स्वीकार कर लिये इसके बाद ट्रस्ट के कहने से उसने कुछ दिन तक उपवास किया, उससे उसकी गांठ भी अच्छी हो गई और मन की अशान्ति भी दूर हो गई। श्रीमती ट्रस्ट ने इसी तरह एक नवजात शिशु के रोग उसकी मां से प्रायश्चित कराकर ठीक किये। उन्होंने ऐसे सैकड़ों व्यक्तियों से निष्कासन तप कराकर उन्हें शरीर और मन से शुद्ध बनाया वह सब उपरोक्त वैज्ञानिक सत्य का ही प्रतिफल था।
एकबार इंग्लैंड के डाक्टरों ने एक प्रयोग किया। एक बन्दर के एड्रिनल में ‘‘ऐडुलरी भाग’’ में हल्की-सी विद्युत करेंट प्रवाहित करके देखा कि उससे ‘‘एड्रिलीन’’ हारमोन के स्राव की मात्रा बहुत बढ़ गई उस समय बन्दर की मुख मुद्रा में भयानक क्रोध के लक्षण उभर आये। फिर उन्होंने कुछ तीव्र रसायनों द्वारा उस भाग को ‘‘शून्य’’ कर दिया और तब फिर विद्युत करेंट प्रवाहित किया तब ‘‘एड्रिलीन’’ बहुत थोड़ा निकला। बन्दर उस समय कुछ ज्यादा क्रोधित भी नहीं हुआ। इसके साथ एक ऐसे व्यक्ति का परीक्षण किया गया जिसने किसी महिला के पर्स की चोरी करली थी। उस समय वह अत्यन्त भयभीत था कि कहीं पुलिस पकड़ न ले और उसे पीटा न जाये। डाक्टरों ने उसकी जांच की तो पाया कि उसका सारा केन्द्रीय नाड़ी संस्थान उत्तेजित है और उससे शरीर के पूरे यन्त्र (मेटाबॉलिज्म) पर असर पड़ रहा है ऐसे समय तीव्र असर वाली बीमारियां होने की सम्भावना डाक्टरों ने भी स्वीकार कीं। चिन्ता व शोक की स्थिति में ‘‘थैलमस फोलिकल स्टेमुलेटिंग हारमोन रिलीजिंग फैक्टर’’ में कमी हो जाने आदि के उदाहरण से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि बुरी भावनायें मनुष्य शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव निश्चित रूप से डालती हैं। वही रोग के रूप में उत्पन्न होते हैं इसलिये यदि रोग से स्थायी बचाव करना है तो अपने मनोमय संस्थान को शुद्ध रखना ही पड़ेगा। साथ ही साथ अब तक जो मलिनतायें मन में भर गई हैं उन्हें प्रायश्चित्त द्वारा परिमार्जित करना ही होगा। जब तक मनुष्य इन्हें स्वीकार नहीं करता वह अन्तर्दहन से बच नहीं सकता।
‘‘हारमोन्स क्या हैं’’ और उनका मनुष्य शरीर से क्या सम्बन्ध है, यह समझने से उक्त तथ्य की गहराई में प्रवेश किया जा सकता है। मनुष्य शरीर में दो प्रकार की ग्रन्थियां (ग्लैण्ड्स) होती हैं। ग्रन्थियां एक ऐसे कोशों (सेल्स) के समुदाय को कहते हैं जो किसी गांठ की शक्ल में बदल जाते हैं और जिनसे तरल रासायनिक स्राव निकलता रहता है इस स्राव को ही ‘‘हारमोन्स’’ कहते हैं। एक ग्रन्थियां वह होती हैं जिनका सम्बन्ध नलिकाओं द्वारा शरीर से होता है दूसरी नलिका विहिन (डक्टलेस ग्लैण्ड्स) वह होती हैं जिनका सम्बन्ध नलिकाओं से नहीं होता वे स्राव मस्तिष्क की गति-विधि के अनुसार निकालती और मनुष्य शरीर पर प्रभाव डालती हैं। यही सर्वाधिक महत्व की हैं। अभी वैज्ञानिक इनके बारे में पूर्णतया नहीं जान पाये। जब जानेंगे तब पूर्व जन्मों के संस्कार, पुनर्जन्म आदि के कितने ही आश्चर्यजनक तथ्य सामने आयेंगे ऐसा अनुमान है। हम नहीं जानते पर अब विज्ञान यह बताने लगा है कि मनुष्य की इच्छी बुरी भावनाओं के द्वारा ही अच्छे या बुरे हारमोन्स शरीर में स्रवित होकर रासायनिक सन्तुलन या विकृति उत्पन्न करते हैं।
भारतीय दर्शन और जीवन पद्धति में स्थूलता को कम महत्व दिया गया और देव भाग को अधिक। यह यहां की सर्वोपरि विज्ञानवादिता थी। अब शरीर-विद्या विशारद भी इन मान्यताओं पर उतरने लगे हैं कि वस्तुतः शरीर का सारा संचालन अधिकांश इन देव शक्तियों—ग्रहों-उपग्रहों या सूक्ष्म आकाश भाग से ही होता है। ‘‘ओकाल्ट एनाटामी एण्ड दि बाइबिल’’ पुसतक में डा. कोराहन हेलिन ने—कोलम्बिया विश्व-विद्यालय के डा. लुहस वर्मन के निबन्ध—व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाली ग्रन्थियां (ग्लैण्ड्स रेगुलेटिंग परसनैलिटी) के हवाले से बताया है कि मनुष्य के शरीर में कुछ ऐसी ग्रन्थियां हैं जो देखने में छोटी होती हैं, पर उनका महत्व असाधारण है। पाचन क्रिया से लेकर मनोवेगों तक का सारा नियन्त्रण इन ग्रन्थियों से ही होता है इन्हें वाहिनी हीन (डक्ट लेस) ग्रन्थियां (ग्लैण्ड्स) कहा जाता है अन्तःस्रावी हारमोन्स इन ग्रन्थियों से ही स्रवित होकर शारीरिक उतार-चढ़ाव, घटना-बढ़ना, बुढ़ापा मृत्यु आदि का कारण बनते हैं।
एनाटामी मेडिकल कालेज कर्नेल विश्व-विद्यालय के प्रोफेसर डा. चार्ल्स आर स्टार्क यार्ड ने इन ग्रन्थियों के आधार पर मनुष्य जीवन की एक नई धारणा प्रस्तुत की है जो भारतीय आध्यात्मिक शोधों से शत-प्रतिशत मेल खाती है। डा. स्टाकर्ड लिखते हैं कि आन्तरिक स्राव वाली ग्रन्थियां एक महान् शासक के रूप में गर्भ धारण से लेकर मृत्यु तक स्त्रियों पुरुषों तथा समस्त रीढ़ की हड्डी वाले जीवों तक का नियन्त्रण करती हैं। ‘‘फिजियोलॉजी’’ तथा सोशलाजी की मान्यतायें भी अब ‘‘अन्तराकाश’’ के अस्तित्व और उसके प्रचण्ड प्रभाव को स्वीकार करने लगी हैं। गौ ‘‘ग्लैण्ड्स आफ डेस्टिनी’’ के लेखक डा. ईबो गैको काब ने तो यहां तक मान लिया है कि अन्तःस्रावी (इन्डोक्राइन ग्लैण्ड्स) ग्रन्थियों पर नियन्त्रण रखने वाले लोगों ने ही इतिहास पर अधिकार रखा है और जमाने को कहां से कहां बदल दिया है। नेपोलियन बोनापार्ट का उदाहरण देते हुये उन्होंने लिखा है कि यदि वाटरलू के युद्ध के समय नेपोलियन बोनापार्ट की ‘‘पिचुट्री ग्लैण्ड’’ (पीयूष ग्रन्थि) में खराबी नहीं आ जाती तो वह हारता नहीं। जो नेपोलियन अत्यन्त दूरदर्शी निर्णय भी तुरन्त ले लेने की क्षमता रखता था उसकी विवेक बुद्धि बुरी तरह लड़खड़ा गई। जिस समय वह एल्बा में निर्वासित था उस समय लेगर्ड ग्रन्थि लड़खड़ा गई। यह सारी बातें तब प्रकाश में आईं जब सेंट हेलेना में उसके शव की अन्त्य परीक्षा (पोस्ट मार्टम) की गई। जब तक उसने इन ग्रन्थियों पर नियन्त्रण रखा, जब तक उसकी अन्तःस्रावी ग्रन्थियां सशक्त रहीं नेपोलियन सारी दुनिया को जीतता रहा पर जैसे ही वह इन शक्तियों से वंचित हुआ वह नष्ट ही हो गया।
योग साधनायें इन देव-शक्तियों के विकास का ही वैज्ञानिक उपक्रम हैं। आने वाले दिनों में जबकि अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के पदार्थ (मैटर) की खोज होगी और उसकी तुलना ग्रहों के पदार्थ से की जायगी तो लोग आश्चर्य करेंगे कि मनुष्य शरीर में आकाश तत्व किस विलक्षणता के साथ उपस्थिति है और कितने आश्चर्यजनक ढंग से मनुष्य को अपनी इच्छा से बांधे हुए है।
‘‘ओकाल्ट एनाटामी एण्ड दि बाइबिल’’ पुस्तक के वैज्ञानिक लेखक ने उस तरह का तुलनात्मक अध्ययन, जिस तरह ‘‘कुण्डलिनी तन्त्र’’ में भारतीय योगियों ने किया है वैसा तो नहीं किया पर उसने माना है कि इन ग्रन्थियों का सम्बन्ध निश्चित रूप से नक्षत्रों (स्टार्स) से है। उन्होंने इन्हें ‘‘आन्तर्नक्षत्र’’ (इन्टोरियर स्टार्स) लिखा है और बताया है कि सूर्य और हरिग्रह पीलियल ग्लैण्ड से सम्बन्ध रखते हैं इसी तृतीय नेत्र ग्रन्थि भी कहा जाता है उससे भ्रूमध्य में ‘‘आज्ञाचक्र’’ का ही स्पष्ट प्रमाण मिलता है आज्ञा-चक्र जागृत करने वाला ‘‘ऊँ’’ ध्वनि सुन सकता है।
सब तरफ की दूरवर्ती घटनायें देख सुन सकता है। यह सूर्य शक्ति का प्रभाव है। वरुण और चन्द्र का सम्बन्ध, पिचुट्री ग्रन्थि से है। चन्द्रमा के उतार चढ़ाव से मन पर उतार चढ़ाव होता है यह इन दोनों तत्वों की एकता का प्रमाण है। बृहस्पति उपवृक्क (एड्रिनल) पर, प्रजनन ग्रन्थि (गोनाड्स) पर मंगल बुद्ध का गल ग्रन्थि (थायराइड्स) सूर्य का पैरा थायराइड्स (उपगल ग्रन्थि) से सम्बन्ध है इन ग्रहों के उतार चढ़ाव इन ग्रन्थियों को प्रभावित करते हैं।
सूक्ष्म अवयवों का विज्ञान
सामान्य शरीर विज्ञान के अनुसार यह जाना—माना जाता है कि देह के इंजन को चलाने के लिए हृदय, फुफ्फुस, आमाशय, आंतें, जिगर, गुर्दे, वृक्क, मस्तिष्क आदि अंगों का क्रिया कलाप ही प्रमुख उत्तरदायित्व वहन करता है। उनकी बनावट और क्रिया-पद्धति शब्दच्छेद आदि द्वारा समझी समझाई जाती है और बीमार पड़ने पर इन्हीं में कहीं खराबी कमजोरी तलाश की जाती है। रक्त की गतिशीलता एवं शुद्धता इन्हीं प्रमुख अंगों की स्थिति पर निर्भर रहती है। ज्वर, खांसी, दस्त, व्रण दर्द, सूजन, शिथिलता, अशक्तता आदि रोगों के वाह्य लक्षण भीतरी अवयवों में विकार आने के फलस्वरूप ही दृष्टिगोचर होते हैं।
विज्ञान के अन्य क्षेत्रों की भांति शरीर विज्ञान के अन्तरंग में जितनी गहराई के साथ प्रवेश किया जाता है, उतने ही अधिक महत्वपूर्ण रहस्य प्रकट होते चले जाते हैं प्राचीन काल में पंच तत्वों को सृष्टि का आदि कारण माना जाता था। पर नवीन शोधें परमाणु, प्रकाश, चुम्बक, ईथर, गैस, ताप आदि तत्वों के कण कम्पनों को पदार्थ का मूल कारण सिद्ध करती हैं। स्थूल पंच तत्व तो इन्हीं सूक्ष्म तत्वों के मिश्रण मात्र हैं। उनका अब कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं माना जाता।
शरीर विज्ञान में अब हृदय आमाशय आदि को यन्त्र, इंजन आदि मानता है। उसके मूल संचालन में दूसरे तत्वों एवं सूक्ष्म अवयवों का हाथ बताया जाता है। इन्हीं पर हमारे स्वास्थ्य का बहुत कुछ आधार निर्भर रहता है।
सूक्ष्म अवयवों में ‘हारमोन’ अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनकी सक्रियता, निष्क्रियता का हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति पर भारी प्रभाव पड़ता है। शरीर में दो प्रकार की ग्रन्थियां हैं। एक प्रकार की ग्रन्थियां पसीना आदि मलों के विसर्जन की प्रक्रिया सम्पन्न करती हैं। दूसरी प्रकार की एक रस विशेष का स्राव करती हैं जो रक्त में मिलकर समस्त शरीर को प्रभावित करता है। यह रस विशेष ही हारमोन है।
शरीर की आकृति कैसी ही हो उसकी प्रकृति के निर्माण में हारमोन रसों का भारी हस्तक्षेप रहता है। कई बार तो वे मनःस्थिति, स्वभाव, रुचि को भी आश्चर्यजनक रीति से प्रभावित करते हैं। स्वसंचालित नाड़ी संस्थान की गतिशीलता तक में इनकी स्थिति के कारण भारी हेर-फेर उत्पन्न होते हैं। इन हारमोन रसों को जीवन रस कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।
हारमोन प्रवाहित करने वाली ग्रन्थियां यों कितनी ही हैं पर उनमें पांच मुख्य हैं। यथा—
(1) थराइड (चुल्लिका)—यह ग्रन्थि गले की घण्टी के पास स्थित है। इसका वजन आधी छटांक से भी कम होता है। इससे निकलने वाले रस को थराइक्सन कहते हैं। इसमें 65 प्रतिशत आयोडीन रहता है। इसके अतिरिक्त आइड्रोजन, आक्सीजन और नाईट्रोजन आदि भी रहते हैं।
इसका विकास बचपन में ही रुक जाय तो शरीर और मन का पर्याप्त विकास नहीं होता, प्रौढ़ावस्था में विकास रुक जाने पर चुस्ती और स्फूर्ति रुक जाती है। शरीर की गिरावट होने लगती है। वृद्धावस्था में विकास रुक जाने पर मनुष्य का शरीर एकदम गिर जाता है और मृत्यु जल्दी ही आ जाती है। इस ग्रन्थि को रस इन्जेक्शन द्वारा देने पर इसका अभाव दूर हो जाता है भेड़ की ग्रन्थि खिलाने पर तो शरीर तेजी से बढ़ने लगता है।
इसी ग्रन्थि पर मनुष्य की कार्यक्षमता निर्भर करती है। यदि यह ग्रन्थि तेजी से काम करने लगे तो कार्यक्षमता में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। इतना ही नहीं तेजी, क्रोध, चिड़चिड़ापन, जल्दबाजी, भागदौड़ की वृद्धि अधिक बढ़ जाती है। यदि यह थोड़ा अधिक कार्य करें तो मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए उत्तम है। इससे गम्भीरता, मस्ती, कार्य-शीलता, प्रसन्नता प्राप्त होती है।
(2) पिच्यूटरी—यह प्रमुख ग्रंथि है जो अन्य सभी ग्रन्थियों पर शासन करती है। यह अंगूर की शक्ल की मस्तिष्क के नीचे एक नली से लटकी रहती है। इसकी स्वस्थता पर ही अस्थिपंजर की वृद्धि, शरीर का विकास निर्भर करता है। इसकी विकृति से पीलापन, समय के पूर्व बुढ़ापा, अस्थिपंजर की कमजोरी आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं। (3) पीनियल—यह मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित होती है। इसकी तेजी पर अवस्था से पहले कामवासना की तीव्रता और असाधारण प्रतिभा का होना निर्भर करता है। (4) अड्रनिल्स—गुर्दों के ऊपरी सिरों पर दो ग्रन्थियां स्थित होती हैं। इनसे कार्टन नाम का रस निसृत होता है। इस रस के नष्ट हो जाने पर मृत्यु हो जाती है। इन ग्रन्थियों की बाह्य प्रतिक्रिया के फलस्वरूप पुरुषत्व की वृद्धि होती है। आन्तरिक क्षेत्र में भय, क्रोध, चिन्ता आदि का सम्बन्ध इसी ग्रन्थि से होता है। इन ग्रन्थियों पर प्रतिक्रिया होने से रक्तचाप बढ़ जाता है। स्नायुओं में तेजी आ जाती है। भय, क्रोध, उत्तेजना की अवस्था में सामर्थ्य से अधिक काम कर बैठना, ऊंचे से कूद जाना, घातक हमला कर देना, तेजी से दौड़ना इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होता है। इसका रस एड्रीनलीन इन्जेक्शन से देने पर उत्तेजना पैदा हो जाती है।
(5) गोनेड—यह लिंग सम्बन्धी प्रमुख ग्रन्थि है। इसके ऊपर लिंग सम्बन्धी विकास निर्भर करता है। यदि विपरीत लिंगी रस दिया जाय तो वैसी ही प्रतिक्रिया होने लगती है। वैज्ञानिकों ने परीक्षण के तौर पर मुर्गे की गोनेड ग्रन्थि का रस एक मुर्गी के शरीर में छोड़ा। कुछ ही समय बाद मुर्गी ने अण्डे देना बन्द कर दिया। और मुर्गे की तरह बांग देना शुरू कर दिया। लिंग परिवर्तन के मूल कारण में इस ग्रन्थि का परिवर्तन भी मुख्य होता है। जिन स्त्रियों में यह ग्रन्थि अधिक विकसित होने लगती है उनमें पुरुषत्व के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।
इस तरह की शरीर में अनेकों ग्रन्थियां होती हैं। किन्तु प्रमुख ग्रन्थियां ये ही हैं जिनके आधार पर शरीर की स्थिति निर्भर करती है।
हारमोन स्रावों के सम्बन्ध में विशेष अनुसंधानकर्त्ता डा. क्रुक शेंक ने इन्हें जादुई रेन्ड कहा है और बताया है कि बाहर की शारीरिक बनावट या स्थिति कैसे ही क्यों न प्रतीत हो, उनकी वास्तविक स्थिति जाननी हो तो इन स्रावों के सन्तुलन और क्रियाकलाप का परीक्षण करके ही यह जाना जा सकेगा कि मनुष्य का वास्तविक स्तर और व्यक्तित्व क्या है? हारमोन न केवल अंग-प्रत्यंगों की समर्थता असमर्थता के आधार हेतु हैं वरन् व्यक्तित्व के निर्माण में भी उनका गहरा हाथ है।
मनःशास्त्री एडलर ने काम प्रवृत्ति की शोध करते हुए बड़े विलक्षण तथ्य प्राप्त किये। बाहर से अत्यधिक सुन्दर, आकर्षक और कमनीयता की मूर्ति दीखते हुए भी कई महिलाओं को उन्होंने काम शक्ति से सर्वथा रहित पाया। न उनमें रमणी प्रवृत्ति थी न नारी सुलभ उमंग। उन्हें दाम्पत्य स्रोलड़े जैसे दुर्बल काय खिलाड़ी, ग्लामेविजउड जैसी बोनी नर्तकी की इन विशेषताओं के रहस्य का आधार उनके हारमोन रसों में सन्निहित पाया गया। कितने ही अपौष्टिक आहार मिलने पर भी स्थूल काय देखे जाते हैं और कितनों की मक्खन, मलाई का बाहुल्य रहने पर भी देह पतली ही बनी रहती है। कुछ लोग रोगों के दबाव को इतना सह लेते हैं कि जितने में सामान्यतः मृत्यु हो ही जानी चाहिए। इसके विपरीत कुछ भीतरी खोखलेपन के कारण जरा-सी अस्वस्थता में ही बोल जाते हैं। बौनापन अथवा लम्बा होना इन हारमोन रसों पर निर्भर रहता है। मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक स्थिति में जो आकाश-पाताल जैसा अन्तर पाया जाता है, उसका कारण उनका आहार विहार, संस्कार वातावरण, शिक्षण, संकल्प भी हो सकता है। पर अनजाने और अनचाहे प्रवाह में मनुष्य को कहीं से कहीं बहा ले जाने और कुछ से कुछ बना देने का श्रेय इस जीवन की न उमंग थी न क्षमता। इसी प्रकार उन्होंने कितने ही युवकों को देखा, जिनकी शारीरिक स्थिति मर्दानगी और वैवाहिक जीवन की आवश्यकता प्रतिपादित करती थी पर वे वस्तुतः नपुंसक थे। न उनके मन में उमंग थी न जननेन्द्रिय में उत्तेजना। इसका कारण तलाश करने पर काम तत्व को प्रभावित करने वाले हारमोन रस का ही अभाव पाया गया। इसके विपरीत उन्हें ऐसे नर-नारी भी मिले जो अल्प वयस्क एवं वयोवृद्ध होते हुए भी काम पीड़ित रहते थे। शरीर से रुग्ण रहने पर भी कितने ही व्यक्ति ऐसे पाये गये जो अतिशय कामसेवन में प्रवृत्त थे। इसके बिना उन्हें असह्य, बेचैनी अनुभव होती थी। इस विचित्र असन्तुलन का कारण उन्हें हारमोन ग्रन्थियों के स्राव में अवांछनीय हेर-फेर होना ही प्रतीत हुआ।
वीथोवन जैसे बहरे प्रखर संगीतज्ञ, डीमास्थ नीज जैसे हकलाने वाले धुरन्धर वक्ता, डेनियल बोर्न जैसे मन्द दृष्टि चित्रकार, विशेष रस स्राव की मात्रा पर ही निर्भर हैं। नर से नारी और नारी से नर बनने के जो कितने ही उदाहरण सामने आये हैं, इन लिंग परिवर्तन की स्थिति हारमोन की गतिशीलता में मोड़ आ जाने के कारण ही, बनी बताई गई है।
स्वसंचालित नाड़ी संस्थान की सक्रियता मनुष्य के नियन्त्रण से बाहर बताई जाती है। अचेतन मस्तिष्क के क्रिया-कलापों को जीवन कोषों के परम्परागत विकास क्रम से संचालित बताया जाता है। यह भी मानवी प्रयत्नों से अप्रभावित संस्थान समझा जाता है। हारमोन रसों के बारे में भी ऐसी ही मान्यता है कि उनकी न्यूनाधिकता को घटाया बढ़ाया जाना कठिन है। प्राणिज हारमोन निकाल कर उनके इन्जेक्शनों द्वारा उस कमीवेशी को संतुलित करने का प्रयत्न किया जा रहा है पर वह उधार का अनुदान क्षणिक लाभ देकर समाप्त हो जाता है। अपने निज के हारमोन स्राव उत्तेजित या शिथिल करने में स्थायी प्रभाव उत्पन्न करने वाले उपचारों में अभी चिकित्सा विज्ञान को यत्किंचित् ही सफलता मिली है। हारमोन स्राव इतने महत्वपूर्ण किन्तु इतने अनियन्त्रित होने के कारण मनुष्य के लिए अभी भी एक पहेली बने हुए हैं। सूक्ष्म विज्ञान वहां से आरम्भ होता है, जहां स्थूल की समाप्ति होती है। भौतिक प्रयत्न जहां तक काम दे सकें उसी को भौतिक क्षेत्र माना जाता है। इससे आगे की परिधि को समाप्त समझ लेना उचित नहीं। आधि भौतिक से आगे भी दो विशाल काय क्षेत्र पड़े हैं आध्यात्मिक और आधि दैविक। इन क्षेत्रों में संव्याप्त विज्ञान—आधि भौतिक क्षेत्र में उपलब्ध सामर्थ्य एवं सफलता से किसी भी प्रकार कम नहीं है।
हारमोन स्राव सर्वथा स्वेच्छाचारी हैं, उन पर मानव चेतना का कोई अधिकार नहीं, यह मान बैठना ठीक नहीं। औषधि विद्या और शल्य प्रक्रिया ही सम्भव है वहां तक पहुंच नहीं, पर यह समझा जाना चाहिए कि शरीर के क्षेत्र में चल रही गतिविधियों पर शरीरगत आत्मा का कोई नियन्त्रण हस्तक्षेप नहीं। आत्मिक शक्ति बढ़ा कर हृदय जैसे यन्त्र को रोक देना और फिर इच्छानुसार संचालित कर देना योग विद्या द्वारा सम्भव हो गया है। इसे वैज्ञानिक परीक्षणों में प्रमाणित किया जा चुका है। स्वसंचालित नाड़ी संस्थान को मन्द, बन्द या तीव्र करने में प्राचीन काल के योगाभ्यासी तो निष्णात थे ही अब भी सिद्धान्त प्रतिपादन की दृष्टि से उसे प्रमाणित किया जा चुका है। हर हारमोन रसों में ही क्या अनोखापन है जो आत्मबल के प्रहार से उन्हें घटाया बढ़ाया जाना सम्भव न हो सके।
शरीर पर सर्वतोभावेन नियंत्रण शासन संचालन करने की क्षमता जब मनुष्य योगाभ्यास द्वारा प्राप्त कर लेगा तब हारमोन रसों जैसे अद्भुत स्रावों का सदुपयोग करके व्यक्तित्व को इच्छानुसार ढालना, बदलना, सुधारना सम्भव हो जायगा। योग और अध्यात्म विद्या के माध्यम से व्यक्तित्व में इन्हीं बीजों का आरोपण किया जाता है। आत्म साधना का विज्ञान व्यक्तित्व के विकास में बाधा पहुंचाने वाले कारणों, कषाय-कल्मषों और पिछले जन्मों के विकारों को दूर कर व्यक्तित्व को विकास की दिशा में अग्रसर करता है। इसके लिए अपने पिछले कर्मों का दंड भुगतने और प्रायश्चित प्रक्रिया से गुजरने के लिए हर घड़ी हर पल तैयार रहना चाहिए।