
सद्गुरु हमारे ही काय-कलेवर में
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राजा ब्रहद्रथ को एक बार शरीर की अनित्यता का ज्ञान होने पर वैराग्य हो गया। आत्म-साक्षात्कार के लिये उनके अन्तःकरण में व्याकुलता उत्पन्न हो उठी। पूछने पर गुरु ने समझाया, तात! आत्म-साक्षात्कार के लिए तपश्चर्या आवश्यक है, पर तप का भी एक विज्ञान है और जो उसे जानता है, उसी के मार्ग-दर्शन व संरक्षण में किया हुआ तप ही सार्थक होता है। चाहे जब, चाहे जो, क्रिया तप नहीं कहलाती वरन् एक क्रमबद्ध साधना पद्धति द्वारा आत्मा के ऊपर चढ़े हुये मलावरण को परिमार्जित करना पड़ता है। आप आत्म-वेत्ता महामुनि शाकायन्य के पास जायें वे ही आपको आत्म-ज्ञान की दीक्षा देने में समर्थ हैं।
इक्ष्वाकुवंशी ब्रहद्रथ महामुनि शाकायन्य के पास जाकर बोले—भगवन! ‘‘अथातो आत्म जिज्ञासा’’ मुझे आत्मा के दर्शनों की अभिलाषा है, सो आप मुझे आत्म-ज्ञान का उपदेश करें। महामुनि शाकायन्य ने उसकी निष्ठा की परख करते हुए कहा—तात्! तलवार की धार पर नंगे पांव चल लेना कठिन है, पर आत्म-दर्शन की साधनायें उससे भी कठिन हैं, तुम उन्हें पूरा नहीं कर सकोगे। चाहिये तो कोई शारीरिक सुख का वरदान मांग लो। मैं तुम्हें वृद्ध से युवा बना देने में भी समर्थ हूं। सुखों की इच्छा त्याग कर कठिनाइयों भरा जीवन मत जियो?
ब्रहद्रथ ने जो उत्तर दिया है उसका स्वर भिन्न है पर भावार्थ वही है जो अब वैज्ञानिक बताते हैं। उन्होंने कहा— भगवन्नस्थ चर्मस्नायुमज्जामांस शुक्र शोणि श्लेष्माश्रु दूषिकाविण्मूत्र वात—पित्त कफ संघाते दुर्गन्धे निःसारेडस्मिन् शरीरे कीं कामोपभोगैः ।। —मैत्रायण्युपनिषद् 1।2
हे भगवन! यह शरीर हड्डी, चमड़ा, स्नायु, मांस, वीर्य, रक्त, आंसू, विष्ठा, मूत्र, वायु, पित्त कफ, आदि से युक्त दुर्गन्ध से भरा निस्सार है, फिर मैं विषय भोग लेकर क्या करूंगा?’’ मुझे तो आप शाश्वत एवं सनातन आत्मा के ही दर्शन कराने का मार्ग-दर्शन करें।
महाराज की निष्ठा अडिग है, यह जान लेने पर महामुनि शाकायन्य ने उन्हें योग दीक्षा दी। जिससे ब्रहद्रथ का मनुष्य शरीर भी धन्य हो गया।
उपर्युक्त आख्यान पढ़कर क्या सचमुच ही यह मान लिया जाये कि मनुष्य शरीर बहुत दुर्गन्धित और घृणित है स्थूल दृष्टि से तो उसका मूल्य और महत्व दर असल ऊपर कहे जैसा ही है पर यदि ज्ञान की दृष्टि से उसके आध्यात्मिक मूल्य और महत्व का चिन्तन किया जाये तो पता चलेगा कि ईश्वर ने यह एक ऐसी जटिल किन्तु सर्व समर्थ मशीन बनाई है कि उसका मूल्य रुपयों में कभी मापा ही नहीं जा सकता। टूटे-फूटे छप्पर और कटी-फटी दीवारों वाले घर साधारण लोगों के होते हैं। असाधारण और सम्पन्न लोगों के मकान साज, सज्जा और कलाकारिता ही नहीं सीमेन्ट पत्थर चूने और उसमें पायी जाने वाली सुख-सुविधाओं की सामग्री से परिपूर्ण होते हैं। मनुष्य शरीर जैसे यन्त्र पर अन्य दृष्टि से विचार करते हैं, तो पता चलता है कि सम्पन्न व्यक्ति के भव्य-भवन के समान मनुष्य को भी यह, परमात्मा की असाधारण देन और वरदान है, यदि उसका सच्चा उपयोग किया जा सके तो मनुष्य इसी शरीर में देवता और भगवान हो सकता है।
अन्यथा चौगुना मूल्य बढ़ जाने पर भी रासायनिक दृष्टि से मनुष्य के शरीर का मूल्य अब तक 27 रुपये हो पाया है। नार्थ वेस्टर्न मेडिकल स्कूल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा. डोनाल्ड फारेमैन ने 18 सितम्बर 1969 को अपने एक बयान में बताया कि जब वस्तुओं की महंगाई बढ़ी नहीं थी तब मनुष्य शरीर में पाये जाने वाले सभी तत्वों का कुल मूल्य केवल 7 रुपये 35 पैसे था, पर अब चूंकि महंगाई बढ़ गई है इसलिए उसमें पाये जाने वाले तत्वों अर्थात् शरीर का रासायनिक मूल्य 27 रु. हो गया है।
जिन रासायनिक तत्वों से शरीर बना है, उनमें से सबसे बड़ा भाग ऑक्सीजन का है ऑक्सीजन शरीर में 65 प्रतिशत होता है यह जल और वायु से मिलता है। ‘‘शरमन्स के मिस्ट्री आफ माटिरियल्स पुस्तक में शेष तत्वों की जो तालिका दी है, उसमें बताया है कि ऑक्सीजन के अतिरिक्त शरीर में 18 प्रतिशत कार्बन 10 प्रतिशत हाइड्रोजन, 3 प्रतिशत नाइट्रोजन, 2 प्रतिशत कैल्शियम, 1 प्रतिशत फास्फोरस, 35 प्रतिशत पोटैशियम, 25 प्रतिशत सल्फर, 15 प्रतिशत सोडियम, 15 प्रतिशत क्लोरीन, 0.50 प्रतिशत मैग्नीशियम, 0.04 प्रतिशत लोहा और शेष .046 प्रतिशत भाग में आयोडीन, फ्लोरीन तथा सिलिकम पाया जाता है।
हैलीपटन और मैगडोवल की फिजियोलॉजी पुस्तक में वल्कमैन व विसचॉफ ने उपरोक्त रासायनिक मात्रा को और भी छोटे से घेरे में सीमित कर दिया है। उनके अनुसार शरीर में 64 प्रतिशत जल, 16 प्रतिशत प्रोटीन, 14 प्रतिशत चर्बी, 5 प्रतिशत, लवण और 1 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता है। इन सबका मूल्य आज के इस महंगाई वाले युग में जबकि टेरेलीन और टेरेकोट जैसे कपड़ों के एक ‘‘सूट’’ का मूल्य ही 100 तक जा पहुंचता है मनुष्य शरीर का मूल्य पहने जाने वाले कपड़ों से भी बदतर होना, यह बताता है कि स्थूल और रासायनिक दृष्टि से शरीर का सचमुच कोई भी मूल्य और महत्व नहीं है। भारतीय तत्ववेत्ताओं ने विषयासक्त लोगों को बार-बार चेतावनी दी है कि, हे मनुष्यों! इस स्थूल शरीर का कोई मूल्य नहीं है इसी के सुखों में आसक्त मत रहो। इसमें संव्याप्त आत्म-चेतना की भी शोध और उपलब्धि करो। तभी दुःखों से निवृत्ति हो सकती है।
कोई मनुष्य साधारण खाने-पीने और इन्द्रिय सुखों में ही फंसे रहकर रोग शोक का जीवन जीने तक ही इस शरीर का मूल्य समझे तो उसके इस आराम को क्या कहा जा सकता है अन्यथा शरीर का एक एक पुर्जा बताता है कि मनुष्य सामान्य और साधारण नहीं ज्ञान बुद्धि, विवेक और अनुभूति की दृष्टि से साकार ब्रह्म ही हैं। आज औषधि, भाषा, लिपि, ईजीनिपीग आदि के क्षेत्र में कई तरह के संगणक (कम्प्यूटर) बने हैं जो एक क्षण में ही यहां से लेकर चन्द्रमा बुध शुक्र दर्शल प्लूटो नेन्यून तक की दिशा ‘दूरी’, गति आदि का .00000001 तक सही और प्रामाणिक उत्तर दे देते हैं, पर मनुष्य जैसी भूत और भविष्य की बातों का ज्ञान रखने वाली सामर्थ्य का संगणक आज तक नहीं बन पाया भारतवर्ष की शकुन्तला और वरमांट बात, कजेरा कोलावर्न उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। कोलाबर्न जब आठ साल का था तभी उसने लन्दन में 268, 336 और 125 के क्यूबरूट गुणनफल 1 सेकण्ड से भी कम समय में बना दिये। एक मूवी कैमरा 1।156 सैकिंड में 1 फोटो ले सकता है। इतनी तीव्र गति का ही चमत्कार है कि फोटो भी परदे में नाचने कूदने और सूक्ष्म से सूक्ष्म हाव-भाव प्रदर्शित करने लगती है। मूवी कैमरे में एक लेन्स होता है जिसके छेद में से ही दृश्य जा सकता है लेन्स के पीछे लगी ‘‘फोटो सेन्सिटिव प्लेट’’ में पड़ने से रासायनिक क्रिया द्वारा वस्तु का प्रतिबिम्ब झलक जाता है। यदि मनुष्य की आयु 50 वर्ष मानी जाये और यह माना जाये कि वह मूवी कैमरा की गति से ही कुल दिन के बारह घन्टे देखता है तो भी उसके मस्तिष्क में 2।। सेन्टीमीटर लम्बी घिल की 5।2×156×60×60×12×365 1।3×50=307686600000 सेन्टी मीटर लम्बी फिल्म होनी ही चाहिए। उसका यथार्थ मूल्य तो निकाल सकना मनुष्य के लिये कठिन ही नहीं असम्भव सा लगता है।
ऋण शक्ति केवल मनुष्य शरीर के लिये ही सम्भव है यदि इसका भी मशीनी उपयोग हो सका होता तो एक सी—
शरीर माघं खलु धर्म साधनम् ! ‘‘पुण्य परमार्थ के लिये शरीर ही सबसे पहला साधन है’’ ऐसा मानकर शरीर का सदुपयोग करना चाहिये। आई डीं कुत्तों पर प्रशिक्षण में जो 10 हजार रुपया खर्च करना पड़ता है वह न करना पड़ता।
योगियों के हिसाब से शरीर में 72000 नाड़ियां हैं। डाक्टरी हिसाब से इनकी लम्बाई 5 हजार फीट है। सन्देश लाने (अफरेस्ट नर्वस) सन्देश ले जाने (इफरेन्ट नर्वस) को थोहरी व्यवस्था के लिये शरीर में 10 हजार फुट तो केवल नसों का जाल बिछा है। एक फीट बिजली का साधारण तार 25 पैसे में आता है। आगे हिसाब से देखें तो केवल बिजली के तार बिछाने का मूल्य ढाई हजार होता है अभी शरीर जैसा जल-से यन्त्र (वाटर वर्क्स) शाक आब्जर्वर, शरीर में जो औषधि निर्माण फिल्ट्रेशन, मोटर पावर्स की क्रेन जैसी मांसपेशियों की शक्ति वातानुकूलित और प्रकाश दायक (एयर कंडीशन और वेन्टीलेटेड) त्वचा का मूल्य शरीर में काम करने वाले इंजीनियर डॉक्टर और मजदूर उन सबका वेतन यह कुल जोड़ मिलाया जाये तो हर शरीर अरबों अरब रुपयों का बैठेगा। पर उस सब का मूल्य और महत्व तभी है जब मनुष्य उन क्षमताओं का यथार्थ उपयोग कर पाये। परमात्मा से इतना मूल्य और महत्व का शरीर पाकर भी यदि कोई मनुष्य मानवता को जलाने वाले घृणित कर्म या स्वार्थ लोभ मोह और इन्द्रिया शक्ति में डूबे हुए कर्म करके अपनी आत्मा को पतित करता है तो उसका मूल्य 27 रुपये ही मानना पड़ेगा। यह मनुष्य के अपने वश की बात है कि वह सत्ताईस रुपये वाला बेकार का जीवन जिये या अरबों रुपयों मूल्य वाला ऋषि-मनीषियों और महापुरुषों जैसा भव्य जीवन जीना जीकर ईश्वरीय देन को सार्थक करे।
क्या मनुष्य खिलौना मात्र है
मनुष्य के वर्तमान स्वरूप, स्तर और स्थिति के लिए पूर्वजों की पीढ़ी को जिम्मेदार ठहराने वाले आनुवांशिकी विज्ञान द्वारा पिछले दिनों यह सिद्ध किया जाता रहा है कि प्राणी अपने पूर्वजों की प्रतिकृति मात्र होते हैं माता-पिता के डिम्ब-कीट और शुक्रकीट मिल-जुल कर भ्रूण-कलल में परिणत होते हैं और शरीर बनना आरम्भ हो जाता है। उस शरीर में जो मनःचेतना रहती है, उसका स्तर भी पूर्वजों की मनःस्थिति की भांति ही उत्तराधिकार में मिलता है शरीर की संरचना और मानसिक बनावट के लिए बहुत हद तक पूर्वजों के उन जीवाणुओं को ही ठहराया गया है, जो परम्परा के रूप में वंशधरों में उतरते चले जाते हैं।
इस प्रतिपादन से यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति अपने आप में कुछ बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। पूर्वजों के ढांचे में ढला हुआ एक खिलौना मात्र है। यदि सन्तान को सुयोग्य सुविकसित बनाना हो तो वह कार्य पीढ़ियों पहले आरम्भ किया जाना चाहिए। अन्यथा सांचे में ढले हुए इस खिलौनों में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन न हो सकेगा। आनुवंशिकी का यही प्रतिपादन जहां तक मानव-प्राणी का सम्बन्ध है, बहुत ही अपूर्ण और अवास्तविक है। पशु-पक्षियों में एक हद तक यह बात सही भी हो सकती, पर मनुष्य के लिए यह कहना अनुचित है कि वह पूर्वजों के सांचे में ढला हुआ एक उपकरण मात्र है। यह मानवी इच्छा-शक्ति, विवेक-बुद्धि, स्वतन्त्र-चेतना और आत्म-निर्भरता को झुठलाना है। समाज-शास्त्री, अर्थ-शास्त्री और मनोविज्ञान-वेत्ता वातावरण एवं परिस्थिति के यों उत्थान पतन का कारण बताते रहे हैं। आत्मा-वेत्ताओं ने एक स्वर से सदा यही कहा है—मनुष्य की अन्तःचेतना स्वनिर्मित है। वह वंश परम्परा से नहीं, संचित संस्कारों और प्रस्तुत प्रयत्नों के आधार पर विकसित होती है। इच्छा-शक्ति और संकल्प-शक्ति के आधार पर अपने मानसिक ढांचे में कोई चाहे तो आमूलचूल परिवर्तन कर सकता है।
आनुवंशिकी की मान्यताएं एक हद तक ही सही ठहराई जा सकती हैं। चमड़ी का रंग, चेहरा, आकृति, अवयव आदि पूर्वजों की बनावट के अनुरूप हो सकते हैं। पर गुण, कर्म, स्वभाव भी पूर्वजों जैसे ही हों—यह आवश्यक नहीं। यदि ऐसा हो रहा होता तो किसी कुल में सभी अच्छे और किसी कुल में सभी बुरे उत्पन्न होते। रुग्णता स्वस्थता, बुद्धिमत्ता, मूर्खता, सज्जनता, दुष्टता, कुशलता, अस्त-व्यस्तता भी परम्परागत होती तो प्रगतिशील वर्ग के परिवार के सभी सदस्य सुविकसित होते और पिछड़े लोगों का स्तर सदा के लिए गया-गुजरा ही बना रहता। तब उत्थान-पतन के लिए किये गये प्रयत्नों की भी कुछ सार्थकता न होती। वातावरण का भी कोई प्रभाव न पड़ता, पर ऐसी स्थिति है नहीं। पूर्वजों की स्थिति से सर्वथा भिन्न स्तर की सन्तानों के अगणित उदाहरण पग-पग पर सर्वत्र बिखरे हुए देखे जा सकते हैं। इससे मनुष्य की स्वतन्त्र चेतना और इच्छा-शक्ति की प्रबलता का लक्ष्य ही स्पष्ट रूप से सामने आता है।
डडडडड मनुष्यों की सन्तान क्या जन्म-जात रूप से उस लत से ग्रसित होती है? इस खोज-बीन में पाया गया कि ऐसी कोई बात नहीं है, वरन् उल्टा यह हुआ कि बच्चों ने बाप को मद्यपान के कारण अपनी बर्बादी करते देखा तो वे उसके विरुद्ध हो गये और उन्होंने न केवल मद्यपान से अपने को अछूता रखा, वरन् दूसरों को भी उसे अपनाने से रोका।
मनुष्यों के गुण सूत्रों के हेर-फेर से जो परिणाम सामने आये हैं, उनसे स्पष्ट है कि बिगाड़ने में अधिक और बनाने में कम सफलता मिली है। विकलांग और पैतृक रोगों से ग्रसित सन्तान उत्पन्न करने में आशाजनक सफलता मिली है। क्योंकि विषाक्त मारकता से भरे रसायन सदा अपना त्वरित परिणाम दिखाते हैं। यह गति विकासोन्मुख प्रयत्नों की नहीं होती। नीलाथोथा खाने से उल्टी तुरन्त हो सकती है, पर पाचन-शक्ति सुधार देने के प्रयोग उतने सफल नहीं होते। देव से असुर की शक्ति को अधिक मानने का यही आधार है। मनुष्यों में मनचाही सन्तान उत्पन्न करने का प्रयोग सिर्फ इतनी मात्रा में कुछ अधिक सफल हुआ है कि रंग-रूप और गठन की दृष्टि से जनक-जननी का सादृश्य दृष्टिगोचर हो सके। काया की आन्तरिक दृढ़ता, बौद्धिक तीक्ष्णता एवं भावनात्मक उत्कृष्टता उत्पन्न करने में वैज्ञानिक प्रयोगों का उत्साह-वर्धक परिणाम नहीं निकला है।
गुण सूत्रों को बदलने में इन दिनों विद्युत-ऊर्जा एवं रासायनिक हेर-फेर के साधन जुटाये जा रहे हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि यह बाहरी थोप-थाप स्थिर न रह सकेगी—उससे क्षणिक चमत्कार भले ही देखा जा सके। शरीर के प्रत्येक अवयव को मस्तिष्क प्रभावित करता और मस्तिष्क का सूत्र-संचालन इच्छा-शक्ति के हाथ में रहता है। अस्तु शारीरिक, मानसिक समस्त परिवर्तनों का तात्विक आधार इस इच्छा-शक्ति को ही मनाना पड़ेगा। गुण-सूत्रों पर भी इसी ऊर्जा का प्रभाव पड़ता है और इसी माध्यम से वह परिवर्तन किये जा सकते हैं, जो मन-चाही पीढ़ियां उत्पन्न करने के लिए वैज्ञानिकों को अभीष्ट हैं।
अभीष्ट स्तर की पीढ़ियां क्या रासायनिक हेर-फेर अथवा विद्युतीय प्रयोग उपकरणों द्वारा प्रयोगशालाओं में विनिर्मित हो सकती हैं? यह एक जटिल प्रश्न है। यदि ऐसा हो सका तो यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य इच्छा-शक्ति का धनी नहीं; वरन् रासायनिक पदार्थों की परावलम्बी प्रतिक्रिया मात्र है। यदि यह सिद्ध हो सका तो इसे मनोबल और आत्मबल की गरिमा समाप्त कर देने वाली दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कहा जायगा, पर ऐसा हो सकना सम्भव दिखाई नहीं पड़ता—भले ही उसके लिए एड़ी-चोटी प्रयत्न कितने ही किये जाते रहें।
शरीर के विभिन्न अंगों पर दबाव डाले जाते रहे हैं, पर प्राणी की मूल इच्छा ने उस दबाव को आवश्यक नहीं समझा तो उस तरह के परिवर्तन नहीं हो सके। चीन में शताब्दियों तक स्त्रियों के पैर छोटे होना—सौन्दर्य का चिह्न माना गया, इसके लिए उन्हें कड़े जूते पहनाये जाते थे। उससे पैर छोटे बनाने में सफलता मिली। पर वश-परम्परा की दृष्टि से वैसा कुछ भी नहीं हुआ। हर नई लड़की के पैर पूरे अनुपात से ही होते थे।
प्राणियों के क्रमिक-विकास में इच्छा-शक्ति का ही प्रधान स्थान रहा है। मनुष्य तो मनोबल का धनी है, उसकी बात जाने भी दें और अन्य प्राणधारियों पर दृष्टिपात करें तो प्रतीत होगा कि उनकी वंश-परम्परा में बहुमुखी परिवर्तन होता रहा है। इसका कारण सामयिक परिस्थितियों का चेतना पर पड़ने वाला दबाव ही प्रधान कारण रहा है। असुविधाओं को हटाने और सुविधाएं पढ़ाने की आन्तरिक आकांक्षा ने प्राणियों की शारीरिक स्थिति और आकृति में ही नहीं प्रकृति में भी भारी हेर-फेर प्रस्तुत किया है। जीव-विज्ञानी इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं।
यदि पूर्वजों के गुण लेकर ही सन्तानें उत्पन्न होते वाली बात को सही माना जाय तो जीवों की आकृति प्रकृति में परिवर्तन कैसे सम्भव हुआ? उस स्थिति में तो पीढ़ियों का स्तर एक ही प्रकार का चलता रहना चाहिए था।
लेमार्क ने प्राणियों का स्तर बदलने में वातावरण को, परिस्थितियों को श्रेय दिया है। वे कहते हैं—इच्छा-शक्ति इन्हीं दबावों के कारण उभरती, उतरती है। सुविधा-सम्पन्न परिस्थितियों के ऊपर किसी प्रकार का दबाव नहीं रहता। अतएव उनका शरीर ही नहीं बुद्धिकौशल भी ठप्प पड़ता जाता है। अमीरी के वैभव में पले हुए लोग अक्सर छुईमुई बने रह जाते हैं और उनका चरखा बखेर देने के लिए एक छोटा-सा आघात ही पर्याप्त होता है।
लेमार्क ने नये किस्म के अनेक जीवधारियों की उत्पत्ति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए कहा है कि बाहर से मौलिक जीव दीखने पर भी वस्तुतः किसी ऐसे पूर्व प्राणी के ही वंशज होते हैं, जिन्हें परिस्थितियों के दबाव से अपने परम्परागत ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ा।
जीवों के विकास-इतिहास के पन्ने-पन्ने पर यह प्रमाण भरे पड़े हैं कि प्राणियों के अंग प्रत्येक निष्क्रियता के आधार पर कुण्ठित हुए हैं और सक्रियता ने उन्हें विकसित किया है। प्रवृत्ति, प्रयोजन और चेष्टाओं का मूल इच्छा-शक्ति ही है। असल में यह इच्छा शक्ति ही प्राणिसत्ता में विकास, अवसाद उत्पन्न करती है। रासायनिक पदार्थों और गुण-सूत्रों की वंश-परम्परा विज्ञान में नायिक क्षमता को एक अंश तक प्रभावित करने वाला आधार भर माना जाना चाहिए। आधुनिक विज्ञान-वेत्ता मौलिक-भूल यह कर रहे हैं कि मानवी-सत्ता को उन्होंने रासायनिक प्रतिक्रिया मात्र समझा है और उसका विकास करने के लिए जनक-जननी बन के जनन-रसों को अत्यधिक महत्व दे रहे हैं। इस एकांगी आधार को लेकर मनचाही आकृति-प्रकृति की पीढ़ियां वे कदाचित ही पैदा कर सकें।
वैज्ञानिक बीजमन ने चूहों और चुहियों की लगातार बीस पीढ़ियां तक पूंछें काटी और देखा कि क्या इसके फलस्वरूप बिना पूंछ वाले चूहे पैदा किये जा सकते हैं? उन्हें अपने प्रयोग में सर्वथा असफल होना पड़ा। बिना पूंछ के मां-बाप भी पूंछ वाले बच्चे ही जनते चले गये। इससे यह निष्कर्ष निकला कि मात्र शारीरिक हेरफेर से वंशानुक्रम नहीं बदला जा सकता। इसके लिए प्राणी की अपनी रुचि एवं इच्छा का समावेश होना नितान्त आवश्यक है।
हर्वर्ट स्पेन्सर ने अपनी खोजों में ऐसे कितने ही प्राणियों के, उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिन्होंने शरीर के किसी अवयव को निष्क्रिय रखा तो वह क्षीण होता चला गया और लुप्त भी हो गया। इसके विपरीत ऐसे उदाहरण भी कम नहीं हैं, जिनमें ‘‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है’’ वाले सिद्धान्त को सही सिद्ध करते हुए अपने शरीर में कई तरह के पुर्जे विकसित किये और पुरानों को आश्चर्यजनक स्तर तक परिष्कृत किया।
समुद्र-तल की गहराई में रहने वाली मछलियों को प्रकाश से वंचित रहना पड़ता है। अतएव उनके आंखों का चिन्ह रहते हुए भी उनमें रोशनी नहीं होती है। आंख वाले अन्धों में उनकी गणना की जा सकती है। अंधेरी गुफाओं में जन्मने और पलने वाले थलचरों का भी यही हाल होता है। उनकी आंखें ऐसी होती हैं, जो अन्धेरे में ही कुछ काम कर सकें। प्रकाश में तो वे बेतरह चौंधिया जाती हैं और निकम्मी साबित होती हैं।
समर्थ का चुनाव मात्र शारीरिक बलिष्ठता पर निर्भर नहीं है वरन् सच पूछा जाय तो उनकी मनःस्थिति की ही परख इस कसौटी पर होती है। पशुवर्ग और सरीसृप वर्ग के विशाल काय प्राणी आदिम-काल में थे। उनकी शरीरगत क्षमता अद्भुत थी, फिर भी वे मन्द-बुद्धि अदूरदर्शिता, आलस जैसी कमियों के कारण दुर्बल संज्ञा वाले ही सिद्ध हुए और अपना अस्तित्व खो बैठे। जब कि उसी समय के छोटी काया वाले प्राणी अपने मनोबल के कारण न केवल अपनी सत्ता संभालते रहे वरन् क्रमशः विकासोन्मुख भी होते चले गये।
जीवों के विकास क्रम का एक महत्वपूर्ण आधार यह है कि उन्हें परिस्थितियों से जूझना पड़ा—अवरोध के सामने टिके रहने के लिए अपने शरीर में तथा स्वभाव में अन्तर करना पड़ा यह परिवर्तन किसी रासायनिक हेर-फेर के कारण नहीं, विशुद्ध रूप से इच्छा शक्ति की प्रवाह-धारा बदल जाने से ही सम्भव हुआ। है। जीवन-संग्राम में जूझने की पुरुषार्थ-परायणता का उपहार ही अल्प-प्राण जीवों को महाप्राण स्तर का बन सकने के रूप में मिला है। जिन्होंने विपत्ति से लड़ने की हिम्मत छोड़ दी और हताश होकर पैर पसार बैठे, उन्हें प्रकृति ने कूड़े कचरे की तरह बुहार का घूरे पर पटक दिया। किसान और माली भी तो अपने खेत-बाग में अनुपयोगी खर-पतवार की ऐसी ही उखाड़-पछाड़ करते रहते हैं। विकास की उपलब्धि पूर्णतया जीवन संग्राम में विजय प्राप्त करने के फलस्वरूप ही मिलती है और इस संघर्षशीलता का पूरा आधार साहसी एवं पुरुषार्थी मनोभूमि के साथ जुड़ता रहता है।
आनुवंशिकी-विज्ञान की अन्यान्य शोधें कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हों पर यह प्रतिपादन स्वीकार नहीं हो सकता कि प्राणियों का विशेषतया मनुष्यों का स्तर पूर्वजों के परम्परागत गुण सूत्रों पर निर्भर है। इच्छा-शक्ति की प्रचण्ड समर्थता के आधार पर शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परिवर्तनों की सम्भावना को मान्यता देने के उपरान्त ही वंशगत विशेषताओं की चर्चा की जाय—यही उचित है।
नये मनुष्य का निर्माण
समय जिस तेजी से आगे बढ़ रहा है और परिस्थितियां जिस द्रुतगति से बदल रही हैं उसे देखते हुए यह प्रश्न उभर कर सबसे आगे आ सकता है कि विकट भविष्य से जूझने वाला—भयंकर समस्याओं को सुलझा सकने वाला—मनुष्य उत्पन्न होना चाहिए। वैज्ञानिक इसका समाधान प्रजनन तत्व में भारी हेर-फेर करके उसे ढूंढ़ रहे हैं जिन रासायनिक पदार्थों से जीवन बनता है उनकी मात्रा एवं क्रम बदल देने से—वर्तमान जीवकोषों की शल्य-क्रिया कर देने से वर्तमान जीव कोषों की शल्य क्रिया कर देने से ऐसा सम्भव हो सकता है। वे सोचते हैं इन सुधरे हुए जीव-कोषों को माता के गर्भ की अपेक्षा किसी स्वतन्त्र परख नली में पकाया जाय ताकि माता के रक्त-मांस से होने वाला भ्रूण पोषण कहीं उस कष्ट साध्य सुधार प्रक्रिया को बेकार न करदे।
डा. रोस्टाण्ड इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सुविकसित स्तर के मनुष्यों की हू-वहू वैसी ही ‘ब्लू प्रिन्ट’ कापियां बनाकर तैयार की जा सकेंगी। तब गांधी और जवाहरलाल के न रहने से किसी क्षति की आशंका न रहेगी क्योंकि उनके जीवन काल में ही अथवा मरने के बाद हू-बहू वैसे ही व्यक्ति सैकड़ों हजारों की संख्या में प्रयोगशालाएं उत्पन्न करके रख दिया करेंगे। इन डा. रोस्टाण्ड ने टिश्यू कलचर अर्थात् कोशाओं की खेती की अगले दिनों सामान्य बागवानी की तरह प्रयुक्त होने की भविष्य वाणी की है। कार्नेल विश्व विद्यालय के डा. फ्रेडिक सी. स्टीवर्ड द्वारा गाजर की एक कोशिका को पूरी गाजर में विकसित करने में सफलता प्राप्त करने के बाद अब वैज्ञानिक मनुष्य के बारे में भी यह सोचने लगे हैं कि रजवीर्य को अनावश्यक महत्व देने की जरूरत नहीं है। हर कोशिका में इतनी सम्भावना विद्यमान है कि वह अपने आपको एक स्वतन्त्र मनुष्य के रूप में विकसित कर सके। रतिक्रिया का विकल्प प्रयोगशालाएं बन सकती हैं और प्रजनन के लिए माता-पिता का नगण्य सा सहयोग पाकर अपना उत्पादन जारी रख सकती हैं। इटली के डा. डैनियल पैन्नुचि ने आलोनो की अपनी प्रयोगशाला में कृत्रिम मनुष्य भ्रूण उत्पन्न किये थे। उन्होंने एक पारदर्शी गर्भाशय बनाया था। उसमें एक रजकोश और एक शुक्रकोश का संयोग कराया तथा वे रसायन भर दिये जिनमें भ्रूण पलता है। भ्रूण स्थापित हुआ और उसी तरह बढ़ने लगा जैसा कि माता के पेट में पलता है। पहला भ्रूण 29 दिन और दूसरा भ्रूण 59 दिन तक उन्होंने पाला। इस उपलब्धि ने संसार में तहलका मचा दिया और यह संभावना स्पष्ट करदी कि मनुष्यों का कृषि कर्म हो सकना एक सुनिश्चित तथ्य है। डा. पैत्रुचि से पहले भी यह संभावना बहुत कुछ प्रशस्त हो चुकी थी। डा. शैटल्स, डा. जानराक ने इस प्रयोग परीक्षण की सफल शुरुआत बहुत पहले ही आरम्भ कर दी थी।
विचारक मालकम मगरिज का कथन है कि सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक प्रकृति के जितने रहस्य जानने में मनुष्य को सफलता मिली थी; उसकी तुलना में कहीं अधिक ब्रह्माण्ड का रहस्योद्घाटन इस शताब्दी में हुआ है। यह क्रम आगे और भी तीव्र गति से चलेगा। इन उपलब्धियों में एक सबसे बड़ी कड़ी जुड़ेगी अभीष्ट स्तर के मनुष्यों के उत्पादन की। अगले दिनों शरीर की दृष्टि से असह्य समझी जाने वाली परिस्थितियों में रहने वाले मनुष्य उत्पन्न किये जा सकेंगे और विद्वान, दार्शनिक, कलाकार, योद्धा, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, व्यापारी, श्रमिक आदि वर्ग न्यूनाधिक योग्यता के आवश्यकतानुसार उत्पन्न किये जा सकेंगे। तब मनुष्य सर्व शक्तिमान न सही असीम शक्ति सम्पन्न अवश्य ही कहा जा सकेगा।
भारत वंशी अमेरिकी वैज्ञानिक डा. हरगोविन्द खुराना ने वंश तत्वों के रहस्यों का उद्घाटन करके नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया है। रोवो न्यूक्लिक एसिड (आर.एन.ए.) में जीवनोत्पादन की क्षमता है यह बहुत पहले जान लिया गया था। डायोक्सी रिवोन्यूक्लिक एसिड (डी.एन.ए.) का जीवन संचार में कितना हाथ है यह विश्लेषण अब बहुत आगे बढ़ गये हैं। ए.जी.टी. और सी. प्रोटानों के सूक्ष्म कण किस प्रकार जीवन तत्व को प्रभावित करते हैं यह जीवविज्ञान के छात्रों को विदित हो चुका है और न्यूक्लियोटाइड की चार रसायनों की भूमिका भली प्रकार जानी जा चुकी है। सन् 1965 से इस विज्ञान ने क्रान्तिकारी उपलब्धियां हस्तगत की हैं। विस्कान्सिन विश्व विद्यालय के विज्ञानियों ने घोषणा की कि जीवन के वंशानुगत घटक—वंश तत्व—‘जीन’—का समग्र रासायनिक संश्लेषण करने में वे सफल हो गये हैं। वंश तत्व का उत्पादन, अभिवर्धन, प्रत्यावर्तन एवं प्रत्यावर्तन कर सकने की विद्या उन्हें उपलब्ध हो गई है।
कैलीफोर्निया इन्स्टीट्यूट आफ टैक्नोलोजी के डा विलियम जेड्रेअर ने भविष्यवाणी की है कि ऐसे निरोधक तत्वों का ‘जीन्स’ में प्रवेश कराया जा सकेगा जो पैतृक रागों का उन्मूलन करके नई स्वस्थ स्थापना के लिए रास्ता साफ कर सकें। यह तो निवारण की बात हुई। इसका दूसरा पक्ष स्थापना का है। जिस प्रकार किसी अच्छे खेत में इच्छानुसार बीज बोकर अभीष्ट फसल उगाई जा सकती है उसी प्रकार परम्परागत अवरोधों को हटा सकने की सफलता के साथ एक नया अध्याय और जुड़ जाता है कि वंश तत्व में इच्छानुसार विशेषताओं के बीज बोये जा सकेंगे अगली पीढ़ियों को वैसा ही उत्पन्न किया जा सके जैसा कि चाहा गया था।
एक परिपुष्ट सांड़ द्वारा एक वर्ष में उपलब्धि होने वाले शुक्राणुओं से 50 हजार बच्चे उत्पन्न किये जा सकते हैं। ऐसा ही एक सीमा तक मादाएं भी एकाधिक सन्तानें एक ही समय में उत्पन्न कर सकती हैं। डा. कार्लएक्सेल गेम्जेल और डा. डोनिनी ने ऐसे हार
ब्रिटेन की इंटर नेशनल साइन्स राइटर्स ऐसोसिएशन के अध्यक्ष जी.आर. टेलर ने अपनी पुस्तक ‘दि बायोलॉजिकल टाइम बम’ नामक पुस्तक में जीव विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों का उल्लेख करते हुए यह बताया है कि वह दिन दूर नहीं जब मनुष्य की अभीष्ट जातियां शाक-भाजियों की तरह उगाई जा सकेंगी और उन्हें कलम लगाकर कुछ से कुछ बनाया जा सकेगा। एक परिपुष्ट सांड़ द्वारा एक वर्ष में उपलब्धि होने वाले शुक्राणुओं से 50 हजार बच्चे उत्पन्न किये जा सकते हैं। ऐसा ही एक सीमा तक मादाएं भी एकाधिक सन्तानें एक ही समय में उत्पन्न कर सकती हैं। डा. कार्लएक्सेल गेम्जेल और डा. डोनिनी ने ऐसे हारमोन ढूंढ़ निकाले हैं जो नारी शरीर में प्रवेश कराने के उपरान्त उसे एक साथ कई बच्चे उत्पन्न कर सकने में समर्थ बना सकते हैं। इनमें फोलीकल स्टीम्युलेटिंग हारमोन की चर्चा विशेष रूप से हुई है।
न्यूजीलैण्ड के आकलैण्ड नगर में शर्ले एन लासन नामक एक महिला ने एक साथ चार लड़कियां और एक लड़का प्रसव किया। इसी प्रकार स्वीडन के फालुन नगर में एक महिला करीन ओल्सेन ने भी एक साथ पांच बच्चे जने। यह चमत्कार नव आविष्कृत हारमोनों के प्रयोग का था। जिनके गर्भाशय में पहले एक भी डिम्ब अण्ड नहीं था उनमें एक साथ पांच अण्डों का उत्पन्न कर देना जीव-विज्ञान का एक विशिष्ट चमत्कार है।
यह उपलब्धियां सम्भावना का द्वार खोलती हैं कि मानव भ्रूण का पालन किसी उपयुक्त प्रकृति की पशु मादा के पेट में पालन करा लिया जाय इससे उस बच्चे में मनुष्य और पशु के सम्मिलित गुण विकसित हो जायेंगे। इन प्रयोगों से आरम्भ में थोड़े से बच्चे बनाने में ही अधिक परिश्रम पड़ेगा। पीछे तो कृत्रिम गर्भाधान विधि से वे थोड़े ही बच्चे तरुण होकर सहस्रों बच्चे पैदा कर देंगे। एक स्वस्थ सांड के द्वारा जीवन भर का संचित शुक्र 50 हजार तक बच्चे पैदा कर सकता है। विशेष रासायनिक प्रयोगों से उत्तेजित मादा डिम्बों द्वारा एक साथ पांच तक सन्तानें उत्पन्न कराई जा सकती हैं। नई मनुष्य जाति को जल्दी बढ़ाने के लिए ऐसे ही तरीके काम में लाये जायेंगे साथ ही पुरानी पीढ़ी को समाप्त करके उन सबका वन्ध्याकरण किया जायेगा। अन्यथा दोनों स्तर की सन्तानें बढ़ती रहीं तो फिर उनका शंकरत्व होने लगेगा और वे वर्ण शंकर न जाने क्या-क्या नई समस्याएं उत्पन्न करेंगे?
नई पीढ़ी के उत्पादन कोषों के मूल आधार तो मानवी जीव कोष ही रहेंगे, पर उनके साथ उस कृत्रिम जीवन प्रक्रिया को जोड़ दिया जायगा जो अभी-अभी मनुष्य के हाथ लगी है। रासायनिक सम्मिश्रण से नवीन जीवाणु बना सकने में सफलता प्राप्त करली गई है। पर वे अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि पूर्ण प्राणी का स्थान ले सकें। इसके लिए उन्हें सुविकसित जीवन तत्व के साथ मिला देने से ही काम चलेगा। पुरातन और नवीन की कलम लगा कर ऐसे जीव कोष तैयार किये जाने की सम्भावना व्यक्त की गई है जो इच्छित स्तर के मनुष्य रूप में विकसित हो सकें।
विश्वास किया जाता है कि इन प्रयत्नों के फल-स्वरूप अबकी अपेक्षा निकट भविष्य में अभीष्ट परिष्कृत स्तर का मानवी उत्पादन किया जा सकेगा। शीत, उष्ण, पहाड़ी, रेतीले प्रदेशों में रह सकने योग्य स्थिति के जिस देश को जब जितने मनुष्यों की आवश्यकता पड़ा करेगी तब वहां उतने बच्चे उस प्रकार के पैदा कर लिए जाया करेंगे। इतना ही नहीं आवश्यकतानुसार उस मानसिक स्तर की सन्तानें भी पैदा करली जाया करेंगी जिनकी कि उन दिनों आवश्यकता पड़ेगी। कवि, साहित्यकार, गायक, शिल्पी, योद्धा, श्रमिक, वणिक, धर्माचार्य, दार्शनिकों की जब जहां जितनी आवश्यकता पड़े तब वहां वे उत्पन्न हो जाया करेंगे और सामाजिक सन्तुलन बनाये रखा जा सकेगा। अभिनव मनुष्य के निर्माण में, विज्ञान अपने ढंग से सोच और कर रहा है। उद्देश्य और पुरुषार्थ दोनों ही दृष्टि से इन प्रयत्नों की सराहना की जानी चाहिए पर साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि मनुष्य पूर्णतया भौतिक तत्वों से विनिर्मित नहीं है जिसे विद्युत आवेशों, रस और रासायनिक प्रयोगों से मात्र प्रयोगशालाओं और उपकरणों के माध्यम से बदला या बनाया जा सके। उसमें एक स्वतन्त्र चेतना का भी अस्तित्व है। उस तथ्य को भुला नहीं देना चाहिये। खोट शरीरों में उतना नहीं जितना उस चेतना में घुस पड़ी आस्थाओं का है। मूलतः वे आस्थाएं ही गड़बड़ा कर शारीरिक, मानसिक विकृतियां उत्पन्न करती हैं। यह विकृतियां चिन्तन से उत्पन्न होती हैं न कि विद्युत आवेशों और रासायनिक पदार्थों की घट−बढ़ से। मनुष्य की वर्तमान दुर्गति का कारण वह चिन्तन भ्रष्टता ही है जिसने मनुष्य को दुर्भावग्रस्त और दुष्प्रवृत्ति संलग्न निकृष्ट कोटि का नर-पशु बनाकर रख दिया है।
सुधार इस चिन्तन स्तर का भी होना चाहिए। अन्यथा वंश परम्परा के खोट हटा देने अथवा रक्त-मांस का स्तर बदल देने से अधिक से अधिक इतना ही हो सकेगा कि शारीरिक एवं बौद्धिक दृष्टि से नई पीढ़ी समय की परिस्थिति के अनुरूप ढल जाय। आस्थाओं की उत्कृष्टता के बिना मनुष्य ‘यन्त्र मानव’ भर रह जायगा। उसमें महामानवों का गौरवास्पद स्तर बनाये रहने की और संसार में सद्भावनाओं का स्वर्गीय वातावरण बनाने की क्षमता कैसे उत्पन्न होगी? और इसके बिना वह क्रियाशील किन्तु भाव रहित पीढ़ी संसार के दिव्य सौन्दर्य, संरक्षण, अभिवर्धन कैसे कर सकेगी? इसके बिना यह विश्व मात्र हलचलों का केन्द्र ही बन कर रह जायगा।
अभिनव मनुष्य के निर्माण में आध्यात्मिक क्षेत्र का भी समुचित योगदान रहना चाहिए। जन्म और जननी का उच्च आदर्शवाद व्यक्तित्व विनिर्मित किया जाय। गर्भकाल से लेकर युवावस्था आने तक परिष्कृत परिस्थितियों में विकसित होने का बालक को अवसर दिया जाय तभी उसकी आत्माओं में उत्कृष्टताओं का समावेश होगा। भौतिक दृष्टि से नई पीढ़ी को समुन्नत स्तर का आत्मिक दृष्टि से उसे समुन्नत बनाने के लिए अध्यात्म विज्ञानी अग्रसर हों। तब दोनों के समन्वित प्रयत्न ही उस स्वप्न को साकार कर सकेंगे जिसमें समुन्नत स्तर के मनुष्य के निर्माण को आशा की गई हैं।
काय कलेवर में विद्यमान शिक्षक
अन्तरंग जीवन की विचित्रताएं इतनी अधिक है जिन्हें देखने समझने में बुद्धि चकराती है। उसमें जो कुछ देखना ढूंढ़ना चाहें, सब कुछ मिल जायगा। अपने इस शरीर में ऐसे सन्त और ऋषि भी विद्यमान हैं जो एक प्रकार से अपना सर्वस्व समर्पण करके ही इस काया को इस योग्य बनाये रख रहे हैं कि वह जीवित और समर्थ कही जा सके। पर बदले में कुछ भी लेने की न उनकी इच्छा होती है न लेते ही हैं।
उन ऋषियों का नाम-रसायन शास्त्रियों की परिभाषा के अनुसार ‘ऐंजाइम’ है। यों मोटेतौर से समझा यह जाता है कि हृदय, फुफ्फुस, आमाशय, मस्तिष्क, वृक्, यकृत आदि अवयवों के क्रिया-कलाप पर जीवन निर्भर है। महत्व और श्रेय इन्हें ही मिलता है। और इनकी खुराक जुटाने के लिए अन्न, जल, श्वास, निश्वास, आच्छादन आदि के साधन जुटाने पड़ते हैं। यह साधन न मिलें तो पारिश्रमिक न मिलने पर नौकरी छोड़ देने वाले मजदूरों की तरह वे भी हड़ताल कर सकते हैं और जिन्दगी का सरंजाम देखते-देखते बिखर सकता है।
दूसरी ओर वे ‘ऐंजाइम’ घटक हैं जो कभी किसी प्रकार की खुराक ग्रहण नहीं करते। दूसरों पर तनिक भी निर्भर नहीं हैं, आत्मबल से ही अपनी सत्ता टिकाये हुए हैं। इनकी जानकारी भी मोटेतौर पर सब शरीर रचना जानने वालों को नहीं होती। यश और श्रेय की न उन्हें आकांक्षा है और न मिलता ही है। मात्र कर्तृत्व ही इनके सामने सब कुछ है। थकने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती। जबकि जीवाणु, कोशिकाएं, ऊतक निरन्तर मरते जाते रहते हैं तब यह मृत्युंजयी देवताओं की तरह अपने स्वरूप में अवस्थित रह कर बिना परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव किये निरन्तर एक निष्ठ भाव से अपने कर्तव्य की दीपशिखा यथावत् संजोये रहते हैं।
भौतिक विज्ञान की परिभाषा के अनुसार जीवन और कुछ नहीं शरीर की भीतरी रासायनिक प्रक्रियाओं का खेल मात्र है। यों देह के भीतर मुंह, आमाशय, आंतें, हृदय, फुफ्फुस, वृक्क, यकृत आदि अवयव ही मोटेतौर पर काम करते दिखाई देते हैं। रक्त संचार, श्वास, प्रश्वास, आकुंचन, प्रकुंचन-तन्तु चेतना जैसे सूक्ष्म क्रिया-कलापों को भी देखा समझा जाता है। विभिन्न अवयवों से स्रवित होने वाले पाचक रस, हारमोन ग्रन्थियों से टपकने वाले स्राव, रक्त के सम्मिश्रित जीवाणु ऊतक कोशिकायें, आदि भी अपना-अपना कार्य करके जीवन की स्थिरता में सहायता पहुंचाते हैं। इस सारे क्रिया-कलाप को शक्ति देने वाले एक और प्रकार के घटक काम करते हैं जिनके सम्बन्ध में अभी बहुत कम जानकारी उपलब्ध हो सकी है। इन घटकों का नाम है—ऐंजाइम।
सूक्ष्म-दर्शक यन्त्र से ही दीख पड़ने वाले जीवाणु बैक्टीरिया—भी इन एन्जाइमों के बलबूते ही जीवित रह रहे हैं। इन घटकों के अतिरिक्त शरीर का हर पदार्थ घटता—बढ़ता रहता है पर यह अपनी स्थिरता अक्षुण्ण ही बनाये रहते हैं। कोशिकाओं को ऑक्सीजन न मिले तो वे जीवित नहीं रह सकतीं। पर एक यह, संत ऐंजाइम हैं कि निरन्तर सेवा संलग्न रहते हुए भी आहार तो दूर इस काय-कलेवर में सांस तक का एक कण भी स्वीकार नहीं करते। यह कई जाति के होते हैं। हर जाति अपनी निर्धारित कार्य-पद्धति में ही संलग्न रहती हैं। कोई वर्ग किसी दूसरे के काम पर हाथ नहीं डालता। वर्ण धर्म की तरह इन्हें अपना निर्धारित कार्य ही प्रिय है। जहां अन्य जीवाणुओं में परिवर्तन प्रत्यावर्तन होता रहता है वहां इनकी सीमा मर्यादा में कभी राई रत्ती अन्तर नहीं आता।
जो भोजन पेट में जाता है उसे वर्गीकृत करके पाचनयोग्य ऐंजाइम ही बनाते हैं। यदि यह न होते तो रोटी और पत्थर के टुकड़े में कोई अन्तर न रहता। तब हम पत्थर की तरह रोटी भी हजम नहीं कर सकते थे। जो अवयव इन घटकों की प्रेरणा से पाचन रस उत्पन्न करते हैं उन्हें पैंक्रियाज—जठराग्नि कहते हैं—अध्यात्म भाषा में इन्हें वैश्वानर कहा जाता है। मुख की लार में ‘टायलिन’ आमाशय में ‘पेप्सिन’ और ‘रेनिन’ जैसे पाचक-तत्वों के रूप में इन ऐंजाइमों का अस्तित्व देखा जा सकता है। खाद्य-पदार्थों को शरीर में घुल मिल जाने योग्य बनाने का कार्य इन्हीं का है। आमाशय में तीन ऐंजाइम होते हैं (1) ट्रिप्सिन (2) अमाइलीप्सिन (3) लाइपेस। इनके द्वारा किया गया परिवर्तन अन्न को रस रक्त में बदलने की क्रिया को यदि कोई बारीकी से देख समझ सके तो उसे आश्चर्य चकित रह जाना पड़े।
सस्ते वाले अन्न का बहुमूल्य रक्त में बदल जाना कितना अद्भुत है। लाल रंग का पानी रक्त विकसित होते-होते ‘उसेजस्’ के मेधा और प्रज्ञा का रूप धारण कर लेता है यह प्रक्रिया आश्चर्य चकित करने वाली है। पर उसे सम्पन्न कौन करता है। इस परिवर्तन का आधार कहां है? यह ढूंढ़ने के लिए हमें इन ‘ऐंजाइमों’ के सामने ही नतमस्तक होना पड़ेगा, जिनके अनुग्रह से कुछ वस्तुयें महान बनती चली जाती हैं, वे पूर्णता प्राप्त तत्वदर्शियों की तरह अपनी प्रगति की बात नहीं सोचते वरन् दूसरों का उन्नयन, अभिवर्धन ही उनका लक्ष्य है और उस प्रक्रिया को सम्पन्न करते हुए—दूसरों को विकसित देखते हुए—वे इतने ही सन्तुष्ट रहते हैं मानों सब कुछ उन्हें ही मिल रहा हो, उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म की तरह यह साक्षी, दृष्टा निर्विकार रहते हुए भी लोक-मंगल के कर्त्तव्य का अथक परिश्रम के साथ निर्वाह करते हैं।
इन घटकों की सक्रियता चेहरे पर तेजस्विता होकर चमकती है। यह शिथिल पड़ते हैं तो सारा शरीर शिथिल तेजहीन और हारा थका-सा दीखता है। भीतरी और बाहरी अंग अवयव अपना काम ठीक तरह नहीं कर पाते और पग-पग पर लड़खड़ाते दीखते हैं। इनकी कमी मांस-पेशियों में ऐसी ऐंठन उत्पन्न करती है जिसका अभी कोई इलाज नहीं निकल सका।
इन घटकों के सहायक सेक्रेटरी भी होते हैं। जिन्हें ‘फास्फेट योगिक’ कहते हैं। विटामिनों को इसी वर्ग में रखा जा सकता है। त्रस्त और मौलिव्द्रीनम का सहारा मिल जाय तो ये अधिक समर्थ हो जाते हैं और पारा साइनाइहु जैसे विष इनका हनन भी कर देते हैं। इनकी अनुपस्थिति में जीवन रक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मानव-जीवन जैसे अद्भुत संस्थान की जितनी महत्ता है उससे भी अधिक इन ऐंजाइम घटकों की है स्वयं निर्जीव होते हुए भी ये प्रभावी जीवन संचार कर सकने में समर्थ है। शिक्षा, उपदेश मार्ग-दर्शन, करने के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं। सद्गुरु कितने ही रूप में हमारे काय कलेवर में विराजमान हैं और अपना प्रशिक्षण निरन्तर जारी रख रहे हैं। उचित और अनुचित का भेद करने वाला परामर्श अपना अन्तरात्मा निरन्तर देता रहता है। सत्कर्म करते हुए आत्म-सन्तोष, दुष्कर्म करते हुए आत्म धिक्कार की जो भावना उठती रहती है उसे ईश्वर प्रशिक्षण-अन्तरात्मा का उपदेश कहा जा सकता है। काश, हम कुछ सुनने सीखने की—ग्रहण करने अपनाने की स्थिति में रहे होते तो हेय जीवन न जीते तब महानता ही हमारी गतिविधियों से ओत-प्रोत होती और नर-नारायण जैसी स्थिति में रह रहे होते।
परमात्मा ने मनुष्य शरीर को इतना समर्थ और सक्षम बनाया है कि वह न केवल आत्म निर्भर रह सके वरन् अपनी समस्याओं का स्वयं भी समाधान कर सके। इतना ही नहीं शरीर में उत्पन्न होने वाली विकृतियों का संशोधन परिष्कार भी काय-कलेवर में विद्यमान चेतना स्वयं अपने आप करती रहती है। इस प्रचण्ड क्षमता से लाभ उठाना ही बुद्धिमत्ता है।
इक्ष्वाकुवंशी ब्रहद्रथ महामुनि शाकायन्य के पास जाकर बोले—भगवन! ‘‘अथातो आत्म जिज्ञासा’’ मुझे आत्मा के दर्शनों की अभिलाषा है, सो आप मुझे आत्म-ज्ञान का उपदेश करें। महामुनि शाकायन्य ने उसकी निष्ठा की परख करते हुए कहा—तात्! तलवार की धार पर नंगे पांव चल लेना कठिन है, पर आत्म-दर्शन की साधनायें उससे भी कठिन हैं, तुम उन्हें पूरा नहीं कर सकोगे। चाहिये तो कोई शारीरिक सुख का वरदान मांग लो। मैं तुम्हें वृद्ध से युवा बना देने में भी समर्थ हूं। सुखों की इच्छा त्याग कर कठिनाइयों भरा जीवन मत जियो?
ब्रहद्रथ ने जो उत्तर दिया है उसका स्वर भिन्न है पर भावार्थ वही है जो अब वैज्ञानिक बताते हैं। उन्होंने कहा— भगवन्नस्थ चर्मस्नायुमज्जामांस शुक्र शोणि श्लेष्माश्रु दूषिकाविण्मूत्र वात—पित्त कफ संघाते दुर्गन्धे निःसारेडस्मिन् शरीरे कीं कामोपभोगैः ।। —मैत्रायण्युपनिषद् 1।2
हे भगवन! यह शरीर हड्डी, चमड़ा, स्नायु, मांस, वीर्य, रक्त, आंसू, विष्ठा, मूत्र, वायु, पित्त कफ, आदि से युक्त दुर्गन्ध से भरा निस्सार है, फिर मैं विषय भोग लेकर क्या करूंगा?’’ मुझे तो आप शाश्वत एवं सनातन आत्मा के ही दर्शन कराने का मार्ग-दर्शन करें।
महाराज की निष्ठा अडिग है, यह जान लेने पर महामुनि शाकायन्य ने उन्हें योग दीक्षा दी। जिससे ब्रहद्रथ का मनुष्य शरीर भी धन्य हो गया।
उपर्युक्त आख्यान पढ़कर क्या सचमुच ही यह मान लिया जाये कि मनुष्य शरीर बहुत दुर्गन्धित और घृणित है स्थूल दृष्टि से तो उसका मूल्य और महत्व दर असल ऊपर कहे जैसा ही है पर यदि ज्ञान की दृष्टि से उसके आध्यात्मिक मूल्य और महत्व का चिन्तन किया जाये तो पता चलेगा कि ईश्वर ने यह एक ऐसी जटिल किन्तु सर्व समर्थ मशीन बनाई है कि उसका मूल्य रुपयों में कभी मापा ही नहीं जा सकता। टूटे-फूटे छप्पर और कटी-फटी दीवारों वाले घर साधारण लोगों के होते हैं। असाधारण और सम्पन्न लोगों के मकान साज, सज्जा और कलाकारिता ही नहीं सीमेन्ट पत्थर चूने और उसमें पायी जाने वाली सुख-सुविधाओं की सामग्री से परिपूर्ण होते हैं। मनुष्य शरीर जैसे यन्त्र पर अन्य दृष्टि से विचार करते हैं, तो पता चलता है कि सम्पन्न व्यक्ति के भव्य-भवन के समान मनुष्य को भी यह, परमात्मा की असाधारण देन और वरदान है, यदि उसका सच्चा उपयोग किया जा सके तो मनुष्य इसी शरीर में देवता और भगवान हो सकता है।
अन्यथा चौगुना मूल्य बढ़ जाने पर भी रासायनिक दृष्टि से मनुष्य के शरीर का मूल्य अब तक 27 रुपये हो पाया है। नार्थ वेस्टर्न मेडिकल स्कूल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा. डोनाल्ड फारेमैन ने 18 सितम्बर 1969 को अपने एक बयान में बताया कि जब वस्तुओं की महंगाई बढ़ी नहीं थी तब मनुष्य शरीर में पाये जाने वाले सभी तत्वों का कुल मूल्य केवल 7 रुपये 35 पैसे था, पर अब चूंकि महंगाई बढ़ गई है इसलिए उसमें पाये जाने वाले तत्वों अर्थात् शरीर का रासायनिक मूल्य 27 रु. हो गया है।
जिन रासायनिक तत्वों से शरीर बना है, उनमें से सबसे बड़ा भाग ऑक्सीजन का है ऑक्सीजन शरीर में 65 प्रतिशत होता है यह जल और वायु से मिलता है। ‘‘शरमन्स के मिस्ट्री आफ माटिरियल्स पुस्तक में शेष तत्वों की जो तालिका दी है, उसमें बताया है कि ऑक्सीजन के अतिरिक्त शरीर में 18 प्रतिशत कार्बन 10 प्रतिशत हाइड्रोजन, 3 प्रतिशत नाइट्रोजन, 2 प्रतिशत कैल्शियम, 1 प्रतिशत फास्फोरस, 35 प्रतिशत पोटैशियम, 25 प्रतिशत सल्फर, 15 प्रतिशत सोडियम, 15 प्रतिशत क्लोरीन, 0.50 प्रतिशत मैग्नीशियम, 0.04 प्रतिशत लोहा और शेष .046 प्रतिशत भाग में आयोडीन, फ्लोरीन तथा सिलिकम पाया जाता है।
हैलीपटन और मैगडोवल की फिजियोलॉजी पुस्तक में वल्कमैन व विसचॉफ ने उपरोक्त रासायनिक मात्रा को और भी छोटे से घेरे में सीमित कर दिया है। उनके अनुसार शरीर में 64 प्रतिशत जल, 16 प्रतिशत प्रोटीन, 14 प्रतिशत चर्बी, 5 प्रतिशत, लवण और 1 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता है। इन सबका मूल्य आज के इस महंगाई वाले युग में जबकि टेरेलीन और टेरेकोट जैसे कपड़ों के एक ‘‘सूट’’ का मूल्य ही 100 तक जा पहुंचता है मनुष्य शरीर का मूल्य पहने जाने वाले कपड़ों से भी बदतर होना, यह बताता है कि स्थूल और रासायनिक दृष्टि से शरीर का सचमुच कोई भी मूल्य और महत्व नहीं है। भारतीय तत्ववेत्ताओं ने विषयासक्त लोगों को बार-बार चेतावनी दी है कि, हे मनुष्यों! इस स्थूल शरीर का कोई मूल्य नहीं है इसी के सुखों में आसक्त मत रहो। इसमें संव्याप्त आत्म-चेतना की भी शोध और उपलब्धि करो। तभी दुःखों से निवृत्ति हो सकती है।
कोई मनुष्य साधारण खाने-पीने और इन्द्रिय सुखों में ही फंसे रहकर रोग शोक का जीवन जीने तक ही इस शरीर का मूल्य समझे तो उसके इस आराम को क्या कहा जा सकता है अन्यथा शरीर का एक एक पुर्जा बताता है कि मनुष्य सामान्य और साधारण नहीं ज्ञान बुद्धि, विवेक और अनुभूति की दृष्टि से साकार ब्रह्म ही हैं। आज औषधि, भाषा, लिपि, ईजीनिपीग आदि के क्षेत्र में कई तरह के संगणक (कम्प्यूटर) बने हैं जो एक क्षण में ही यहां से लेकर चन्द्रमा बुध शुक्र दर्शल प्लूटो नेन्यून तक की दिशा ‘दूरी’, गति आदि का .00000001 तक सही और प्रामाणिक उत्तर दे देते हैं, पर मनुष्य जैसी भूत और भविष्य की बातों का ज्ञान रखने वाली सामर्थ्य का संगणक आज तक नहीं बन पाया भारतवर्ष की शकुन्तला और वरमांट बात, कजेरा कोलावर्न उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। कोलाबर्न जब आठ साल का था तभी उसने लन्दन में 268, 336 और 125 के क्यूबरूट गुणनफल 1 सेकण्ड से भी कम समय में बना दिये। एक मूवी कैमरा 1।156 सैकिंड में 1 फोटो ले सकता है। इतनी तीव्र गति का ही चमत्कार है कि फोटो भी परदे में नाचने कूदने और सूक्ष्म से सूक्ष्म हाव-भाव प्रदर्शित करने लगती है। मूवी कैमरे में एक लेन्स होता है जिसके छेद में से ही दृश्य जा सकता है लेन्स के पीछे लगी ‘‘फोटो सेन्सिटिव प्लेट’’ में पड़ने से रासायनिक क्रिया द्वारा वस्तु का प्रतिबिम्ब झलक जाता है। यदि मनुष्य की आयु 50 वर्ष मानी जाये और यह माना जाये कि वह मूवी कैमरा की गति से ही कुल दिन के बारह घन्टे देखता है तो भी उसके मस्तिष्क में 2।। सेन्टीमीटर लम्बी घिल की 5।2×156×60×60×12×365 1।3×50=307686600000 सेन्टी मीटर लम्बी फिल्म होनी ही चाहिए। उसका यथार्थ मूल्य तो निकाल सकना मनुष्य के लिये कठिन ही नहीं असम्भव सा लगता है।
ऋण शक्ति केवल मनुष्य शरीर के लिये ही सम्भव है यदि इसका भी मशीनी उपयोग हो सका होता तो एक सी—
शरीर माघं खलु धर्म साधनम् ! ‘‘पुण्य परमार्थ के लिये शरीर ही सबसे पहला साधन है’’ ऐसा मानकर शरीर का सदुपयोग करना चाहिये। आई डीं कुत्तों पर प्रशिक्षण में जो 10 हजार रुपया खर्च करना पड़ता है वह न करना पड़ता।
योगियों के हिसाब से शरीर में 72000 नाड़ियां हैं। डाक्टरी हिसाब से इनकी लम्बाई 5 हजार फीट है। सन्देश लाने (अफरेस्ट नर्वस) सन्देश ले जाने (इफरेन्ट नर्वस) को थोहरी व्यवस्था के लिये शरीर में 10 हजार फुट तो केवल नसों का जाल बिछा है। एक फीट बिजली का साधारण तार 25 पैसे में आता है। आगे हिसाब से देखें तो केवल बिजली के तार बिछाने का मूल्य ढाई हजार होता है अभी शरीर जैसा जल-से यन्त्र (वाटर वर्क्स) शाक आब्जर्वर, शरीर में जो औषधि निर्माण फिल्ट्रेशन, मोटर पावर्स की क्रेन जैसी मांसपेशियों की शक्ति वातानुकूलित और प्रकाश दायक (एयर कंडीशन और वेन्टीलेटेड) त्वचा का मूल्य शरीर में काम करने वाले इंजीनियर डॉक्टर और मजदूर उन सबका वेतन यह कुल जोड़ मिलाया जाये तो हर शरीर अरबों अरब रुपयों का बैठेगा। पर उस सब का मूल्य और महत्व तभी है जब मनुष्य उन क्षमताओं का यथार्थ उपयोग कर पाये। परमात्मा से इतना मूल्य और महत्व का शरीर पाकर भी यदि कोई मनुष्य मानवता को जलाने वाले घृणित कर्म या स्वार्थ लोभ मोह और इन्द्रिया शक्ति में डूबे हुए कर्म करके अपनी आत्मा को पतित करता है तो उसका मूल्य 27 रुपये ही मानना पड़ेगा। यह मनुष्य के अपने वश की बात है कि वह सत्ताईस रुपये वाला बेकार का जीवन जिये या अरबों रुपयों मूल्य वाला ऋषि-मनीषियों और महापुरुषों जैसा भव्य जीवन जीना जीकर ईश्वरीय देन को सार्थक करे।
क्या मनुष्य खिलौना मात्र है
मनुष्य के वर्तमान स्वरूप, स्तर और स्थिति के लिए पूर्वजों की पीढ़ी को जिम्मेदार ठहराने वाले आनुवांशिकी विज्ञान द्वारा पिछले दिनों यह सिद्ध किया जाता रहा है कि प्राणी अपने पूर्वजों की प्रतिकृति मात्र होते हैं माता-पिता के डिम्ब-कीट और शुक्रकीट मिल-जुल कर भ्रूण-कलल में परिणत होते हैं और शरीर बनना आरम्भ हो जाता है। उस शरीर में जो मनःचेतना रहती है, उसका स्तर भी पूर्वजों की मनःस्थिति की भांति ही उत्तराधिकार में मिलता है शरीर की संरचना और मानसिक बनावट के लिए बहुत हद तक पूर्वजों के उन जीवाणुओं को ही ठहराया गया है, जो परम्परा के रूप में वंशधरों में उतरते चले जाते हैं।
इस प्रतिपादन से यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति अपने आप में कुछ बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। पूर्वजों के ढांचे में ढला हुआ एक खिलौना मात्र है। यदि सन्तान को सुयोग्य सुविकसित बनाना हो तो वह कार्य पीढ़ियों पहले आरम्भ किया जाना चाहिए। अन्यथा सांचे में ढले हुए इस खिलौनों में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन न हो सकेगा। आनुवंशिकी का यही प्रतिपादन जहां तक मानव-प्राणी का सम्बन्ध है, बहुत ही अपूर्ण और अवास्तविक है। पशु-पक्षियों में एक हद तक यह बात सही भी हो सकती, पर मनुष्य के लिए यह कहना अनुचित है कि वह पूर्वजों के सांचे में ढला हुआ एक उपकरण मात्र है। यह मानवी इच्छा-शक्ति, विवेक-बुद्धि, स्वतन्त्र-चेतना और आत्म-निर्भरता को झुठलाना है। समाज-शास्त्री, अर्थ-शास्त्री और मनोविज्ञान-वेत्ता वातावरण एवं परिस्थिति के यों उत्थान पतन का कारण बताते रहे हैं। आत्मा-वेत्ताओं ने एक स्वर से सदा यही कहा है—मनुष्य की अन्तःचेतना स्वनिर्मित है। वह वंश परम्परा से नहीं, संचित संस्कारों और प्रस्तुत प्रयत्नों के आधार पर विकसित होती है। इच्छा-शक्ति और संकल्प-शक्ति के आधार पर अपने मानसिक ढांचे में कोई चाहे तो आमूलचूल परिवर्तन कर सकता है।
आनुवंशिकी की मान्यताएं एक हद तक ही सही ठहराई जा सकती हैं। चमड़ी का रंग, चेहरा, आकृति, अवयव आदि पूर्वजों की बनावट के अनुरूप हो सकते हैं। पर गुण, कर्म, स्वभाव भी पूर्वजों जैसे ही हों—यह आवश्यक नहीं। यदि ऐसा हो रहा होता तो किसी कुल में सभी अच्छे और किसी कुल में सभी बुरे उत्पन्न होते। रुग्णता स्वस्थता, बुद्धिमत्ता, मूर्खता, सज्जनता, दुष्टता, कुशलता, अस्त-व्यस्तता भी परम्परागत होती तो प्रगतिशील वर्ग के परिवार के सभी सदस्य सुविकसित होते और पिछड़े लोगों का स्तर सदा के लिए गया-गुजरा ही बना रहता। तब उत्थान-पतन के लिए किये गये प्रयत्नों की भी कुछ सार्थकता न होती। वातावरण का भी कोई प्रभाव न पड़ता, पर ऐसी स्थिति है नहीं। पूर्वजों की स्थिति से सर्वथा भिन्न स्तर की सन्तानों के अगणित उदाहरण पग-पग पर सर्वत्र बिखरे हुए देखे जा सकते हैं। इससे मनुष्य की स्वतन्त्र चेतना और इच्छा-शक्ति की प्रबलता का लक्ष्य ही स्पष्ट रूप से सामने आता है।
डडडडड मनुष्यों की सन्तान क्या जन्म-जात रूप से उस लत से ग्रसित होती है? इस खोज-बीन में पाया गया कि ऐसी कोई बात नहीं है, वरन् उल्टा यह हुआ कि बच्चों ने बाप को मद्यपान के कारण अपनी बर्बादी करते देखा तो वे उसके विरुद्ध हो गये और उन्होंने न केवल मद्यपान से अपने को अछूता रखा, वरन् दूसरों को भी उसे अपनाने से रोका।
मनुष्यों के गुण सूत्रों के हेर-फेर से जो परिणाम सामने आये हैं, उनसे स्पष्ट है कि बिगाड़ने में अधिक और बनाने में कम सफलता मिली है। विकलांग और पैतृक रोगों से ग्रसित सन्तान उत्पन्न करने में आशाजनक सफलता मिली है। क्योंकि विषाक्त मारकता से भरे रसायन सदा अपना त्वरित परिणाम दिखाते हैं। यह गति विकासोन्मुख प्रयत्नों की नहीं होती। नीलाथोथा खाने से उल्टी तुरन्त हो सकती है, पर पाचन-शक्ति सुधार देने के प्रयोग उतने सफल नहीं होते। देव से असुर की शक्ति को अधिक मानने का यही आधार है। मनुष्यों में मनचाही सन्तान उत्पन्न करने का प्रयोग सिर्फ इतनी मात्रा में कुछ अधिक सफल हुआ है कि रंग-रूप और गठन की दृष्टि से जनक-जननी का सादृश्य दृष्टिगोचर हो सके। काया की आन्तरिक दृढ़ता, बौद्धिक तीक्ष्णता एवं भावनात्मक उत्कृष्टता उत्पन्न करने में वैज्ञानिक प्रयोगों का उत्साह-वर्धक परिणाम नहीं निकला है।
गुण सूत्रों को बदलने में इन दिनों विद्युत-ऊर्जा एवं रासायनिक हेर-फेर के साधन जुटाये जा रहे हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि यह बाहरी थोप-थाप स्थिर न रह सकेगी—उससे क्षणिक चमत्कार भले ही देखा जा सके। शरीर के प्रत्येक अवयव को मस्तिष्क प्रभावित करता और मस्तिष्क का सूत्र-संचालन इच्छा-शक्ति के हाथ में रहता है। अस्तु शारीरिक, मानसिक समस्त परिवर्तनों का तात्विक आधार इस इच्छा-शक्ति को ही मनाना पड़ेगा। गुण-सूत्रों पर भी इसी ऊर्जा का प्रभाव पड़ता है और इसी माध्यम से वह परिवर्तन किये जा सकते हैं, जो मन-चाही पीढ़ियां उत्पन्न करने के लिए वैज्ञानिकों को अभीष्ट हैं।
अभीष्ट स्तर की पीढ़ियां क्या रासायनिक हेर-फेर अथवा विद्युतीय प्रयोग उपकरणों द्वारा प्रयोगशालाओं में विनिर्मित हो सकती हैं? यह एक जटिल प्रश्न है। यदि ऐसा हो सका तो यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य इच्छा-शक्ति का धनी नहीं; वरन् रासायनिक पदार्थों की परावलम्बी प्रतिक्रिया मात्र है। यदि यह सिद्ध हो सका तो इसे मनोबल और आत्मबल की गरिमा समाप्त कर देने वाली दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कहा जायगा, पर ऐसा हो सकना सम्भव दिखाई नहीं पड़ता—भले ही उसके लिए एड़ी-चोटी प्रयत्न कितने ही किये जाते रहें।
शरीर के विभिन्न अंगों पर दबाव डाले जाते रहे हैं, पर प्राणी की मूल इच्छा ने उस दबाव को आवश्यक नहीं समझा तो उस तरह के परिवर्तन नहीं हो सके। चीन में शताब्दियों तक स्त्रियों के पैर छोटे होना—सौन्दर्य का चिह्न माना गया, इसके लिए उन्हें कड़े जूते पहनाये जाते थे। उससे पैर छोटे बनाने में सफलता मिली। पर वश-परम्परा की दृष्टि से वैसा कुछ भी नहीं हुआ। हर नई लड़की के पैर पूरे अनुपात से ही होते थे।
प्राणियों के क्रमिक-विकास में इच्छा-शक्ति का ही प्रधान स्थान रहा है। मनुष्य तो मनोबल का धनी है, उसकी बात जाने भी दें और अन्य प्राणधारियों पर दृष्टिपात करें तो प्रतीत होगा कि उनकी वंश-परम्परा में बहुमुखी परिवर्तन होता रहा है। इसका कारण सामयिक परिस्थितियों का चेतना पर पड़ने वाला दबाव ही प्रधान कारण रहा है। असुविधाओं को हटाने और सुविधाएं पढ़ाने की आन्तरिक आकांक्षा ने प्राणियों की शारीरिक स्थिति और आकृति में ही नहीं प्रकृति में भी भारी हेर-फेर प्रस्तुत किया है। जीव-विज्ञानी इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं।
यदि पूर्वजों के गुण लेकर ही सन्तानें उत्पन्न होते वाली बात को सही माना जाय तो जीवों की आकृति प्रकृति में परिवर्तन कैसे सम्भव हुआ? उस स्थिति में तो पीढ़ियों का स्तर एक ही प्रकार का चलता रहना चाहिए था।
लेमार्क ने प्राणियों का स्तर बदलने में वातावरण को, परिस्थितियों को श्रेय दिया है। वे कहते हैं—इच्छा-शक्ति इन्हीं दबावों के कारण उभरती, उतरती है। सुविधा-सम्पन्न परिस्थितियों के ऊपर किसी प्रकार का दबाव नहीं रहता। अतएव उनका शरीर ही नहीं बुद्धिकौशल भी ठप्प पड़ता जाता है। अमीरी के वैभव में पले हुए लोग अक्सर छुईमुई बने रह जाते हैं और उनका चरखा बखेर देने के लिए एक छोटा-सा आघात ही पर्याप्त होता है।
लेमार्क ने नये किस्म के अनेक जीवधारियों की उत्पत्ति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए कहा है कि बाहर से मौलिक जीव दीखने पर भी वस्तुतः किसी ऐसे पूर्व प्राणी के ही वंशज होते हैं, जिन्हें परिस्थितियों के दबाव से अपने परम्परागत ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ा।
जीवों के विकास-इतिहास के पन्ने-पन्ने पर यह प्रमाण भरे पड़े हैं कि प्राणियों के अंग प्रत्येक निष्क्रियता के आधार पर कुण्ठित हुए हैं और सक्रियता ने उन्हें विकसित किया है। प्रवृत्ति, प्रयोजन और चेष्टाओं का मूल इच्छा-शक्ति ही है। असल में यह इच्छा शक्ति ही प्राणिसत्ता में विकास, अवसाद उत्पन्न करती है। रासायनिक पदार्थों और गुण-सूत्रों की वंश-परम्परा विज्ञान में नायिक क्षमता को एक अंश तक प्रभावित करने वाला आधार भर माना जाना चाहिए। आधुनिक विज्ञान-वेत्ता मौलिक-भूल यह कर रहे हैं कि मानवी-सत्ता को उन्होंने रासायनिक प्रतिक्रिया मात्र समझा है और उसका विकास करने के लिए जनक-जननी बन के जनन-रसों को अत्यधिक महत्व दे रहे हैं। इस एकांगी आधार को लेकर मनचाही आकृति-प्रकृति की पीढ़ियां वे कदाचित ही पैदा कर सकें।
वैज्ञानिक बीजमन ने चूहों और चुहियों की लगातार बीस पीढ़ियां तक पूंछें काटी और देखा कि क्या इसके फलस्वरूप बिना पूंछ वाले चूहे पैदा किये जा सकते हैं? उन्हें अपने प्रयोग में सर्वथा असफल होना पड़ा। बिना पूंछ के मां-बाप भी पूंछ वाले बच्चे ही जनते चले गये। इससे यह निष्कर्ष निकला कि मात्र शारीरिक हेरफेर से वंशानुक्रम नहीं बदला जा सकता। इसके लिए प्राणी की अपनी रुचि एवं इच्छा का समावेश होना नितान्त आवश्यक है।
हर्वर्ट स्पेन्सर ने अपनी खोजों में ऐसे कितने ही प्राणियों के, उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिन्होंने शरीर के किसी अवयव को निष्क्रिय रखा तो वह क्षीण होता चला गया और लुप्त भी हो गया। इसके विपरीत ऐसे उदाहरण भी कम नहीं हैं, जिनमें ‘‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है’’ वाले सिद्धान्त को सही सिद्ध करते हुए अपने शरीर में कई तरह के पुर्जे विकसित किये और पुरानों को आश्चर्यजनक स्तर तक परिष्कृत किया।
समुद्र-तल की गहराई में रहने वाली मछलियों को प्रकाश से वंचित रहना पड़ता है। अतएव उनके आंखों का चिन्ह रहते हुए भी उनमें रोशनी नहीं होती है। आंख वाले अन्धों में उनकी गणना की जा सकती है। अंधेरी गुफाओं में जन्मने और पलने वाले थलचरों का भी यही हाल होता है। उनकी आंखें ऐसी होती हैं, जो अन्धेरे में ही कुछ काम कर सकें। प्रकाश में तो वे बेतरह चौंधिया जाती हैं और निकम्मी साबित होती हैं।
समर्थ का चुनाव मात्र शारीरिक बलिष्ठता पर निर्भर नहीं है वरन् सच पूछा जाय तो उनकी मनःस्थिति की ही परख इस कसौटी पर होती है। पशुवर्ग और सरीसृप वर्ग के विशाल काय प्राणी आदिम-काल में थे। उनकी शरीरगत क्षमता अद्भुत थी, फिर भी वे मन्द-बुद्धि अदूरदर्शिता, आलस जैसी कमियों के कारण दुर्बल संज्ञा वाले ही सिद्ध हुए और अपना अस्तित्व खो बैठे। जब कि उसी समय के छोटी काया वाले प्राणी अपने मनोबल के कारण न केवल अपनी सत्ता संभालते रहे वरन् क्रमशः विकासोन्मुख भी होते चले गये।
जीवों के विकास क्रम का एक महत्वपूर्ण आधार यह है कि उन्हें परिस्थितियों से जूझना पड़ा—अवरोध के सामने टिके रहने के लिए अपने शरीर में तथा स्वभाव में अन्तर करना पड़ा यह परिवर्तन किसी रासायनिक हेर-फेर के कारण नहीं, विशुद्ध रूप से इच्छा शक्ति की प्रवाह-धारा बदल जाने से ही सम्भव हुआ। है। जीवन-संग्राम में जूझने की पुरुषार्थ-परायणता का उपहार ही अल्प-प्राण जीवों को महाप्राण स्तर का बन सकने के रूप में मिला है। जिन्होंने विपत्ति से लड़ने की हिम्मत छोड़ दी और हताश होकर पैर पसार बैठे, उन्हें प्रकृति ने कूड़े कचरे की तरह बुहार का घूरे पर पटक दिया। किसान और माली भी तो अपने खेत-बाग में अनुपयोगी खर-पतवार की ऐसी ही उखाड़-पछाड़ करते रहते हैं। विकास की उपलब्धि पूर्णतया जीवन संग्राम में विजय प्राप्त करने के फलस्वरूप ही मिलती है और इस संघर्षशीलता का पूरा आधार साहसी एवं पुरुषार्थी मनोभूमि के साथ जुड़ता रहता है।
आनुवंशिकी-विज्ञान की अन्यान्य शोधें कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हों पर यह प्रतिपादन स्वीकार नहीं हो सकता कि प्राणियों का विशेषतया मनुष्यों का स्तर पूर्वजों के परम्परागत गुण सूत्रों पर निर्भर है। इच्छा-शक्ति की प्रचण्ड समर्थता के आधार पर शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परिवर्तनों की सम्भावना को मान्यता देने के उपरान्त ही वंशगत विशेषताओं की चर्चा की जाय—यही उचित है।
नये मनुष्य का निर्माण
समय जिस तेजी से आगे बढ़ रहा है और परिस्थितियां जिस द्रुतगति से बदल रही हैं उसे देखते हुए यह प्रश्न उभर कर सबसे आगे आ सकता है कि विकट भविष्य से जूझने वाला—भयंकर समस्याओं को सुलझा सकने वाला—मनुष्य उत्पन्न होना चाहिए। वैज्ञानिक इसका समाधान प्रजनन तत्व में भारी हेर-फेर करके उसे ढूंढ़ रहे हैं जिन रासायनिक पदार्थों से जीवन बनता है उनकी मात्रा एवं क्रम बदल देने से—वर्तमान जीवकोषों की शल्य-क्रिया कर देने से वर्तमान जीव कोषों की शल्य क्रिया कर देने से ऐसा सम्भव हो सकता है। वे सोचते हैं इन सुधरे हुए जीव-कोषों को माता के गर्भ की अपेक्षा किसी स्वतन्त्र परख नली में पकाया जाय ताकि माता के रक्त-मांस से होने वाला भ्रूण पोषण कहीं उस कष्ट साध्य सुधार प्रक्रिया को बेकार न करदे।
डा. रोस्टाण्ड इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सुविकसित स्तर के मनुष्यों की हू-वहू वैसी ही ‘ब्लू प्रिन्ट’ कापियां बनाकर तैयार की जा सकेंगी। तब गांधी और जवाहरलाल के न रहने से किसी क्षति की आशंका न रहेगी क्योंकि उनके जीवन काल में ही अथवा मरने के बाद हू-बहू वैसे ही व्यक्ति सैकड़ों हजारों की संख्या में प्रयोगशालाएं उत्पन्न करके रख दिया करेंगे। इन डा. रोस्टाण्ड ने टिश्यू कलचर अर्थात् कोशाओं की खेती की अगले दिनों सामान्य बागवानी की तरह प्रयुक्त होने की भविष्य वाणी की है। कार्नेल विश्व विद्यालय के डा. फ्रेडिक सी. स्टीवर्ड द्वारा गाजर की एक कोशिका को पूरी गाजर में विकसित करने में सफलता प्राप्त करने के बाद अब वैज्ञानिक मनुष्य के बारे में भी यह सोचने लगे हैं कि रजवीर्य को अनावश्यक महत्व देने की जरूरत नहीं है। हर कोशिका में इतनी सम्भावना विद्यमान है कि वह अपने आपको एक स्वतन्त्र मनुष्य के रूप में विकसित कर सके। रतिक्रिया का विकल्प प्रयोगशालाएं बन सकती हैं और प्रजनन के लिए माता-पिता का नगण्य सा सहयोग पाकर अपना उत्पादन जारी रख सकती हैं। इटली के डा. डैनियल पैन्नुचि ने आलोनो की अपनी प्रयोगशाला में कृत्रिम मनुष्य भ्रूण उत्पन्न किये थे। उन्होंने एक पारदर्शी गर्भाशय बनाया था। उसमें एक रजकोश और एक शुक्रकोश का संयोग कराया तथा वे रसायन भर दिये जिनमें भ्रूण पलता है। भ्रूण स्थापित हुआ और उसी तरह बढ़ने लगा जैसा कि माता के पेट में पलता है। पहला भ्रूण 29 दिन और दूसरा भ्रूण 59 दिन तक उन्होंने पाला। इस उपलब्धि ने संसार में तहलका मचा दिया और यह संभावना स्पष्ट करदी कि मनुष्यों का कृषि कर्म हो सकना एक सुनिश्चित तथ्य है। डा. पैत्रुचि से पहले भी यह संभावना बहुत कुछ प्रशस्त हो चुकी थी। डा. शैटल्स, डा. जानराक ने इस प्रयोग परीक्षण की सफल शुरुआत बहुत पहले ही आरम्भ कर दी थी।
विचारक मालकम मगरिज का कथन है कि सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक प्रकृति के जितने रहस्य जानने में मनुष्य को सफलता मिली थी; उसकी तुलना में कहीं अधिक ब्रह्माण्ड का रहस्योद्घाटन इस शताब्दी में हुआ है। यह क्रम आगे और भी तीव्र गति से चलेगा। इन उपलब्धियों में एक सबसे बड़ी कड़ी जुड़ेगी अभीष्ट स्तर के मनुष्यों के उत्पादन की। अगले दिनों शरीर की दृष्टि से असह्य समझी जाने वाली परिस्थितियों में रहने वाले मनुष्य उत्पन्न किये जा सकेंगे और विद्वान, दार्शनिक, कलाकार, योद्धा, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, व्यापारी, श्रमिक आदि वर्ग न्यूनाधिक योग्यता के आवश्यकतानुसार उत्पन्न किये जा सकेंगे। तब मनुष्य सर्व शक्तिमान न सही असीम शक्ति सम्पन्न अवश्य ही कहा जा सकेगा।
भारत वंशी अमेरिकी वैज्ञानिक डा. हरगोविन्द खुराना ने वंश तत्वों के रहस्यों का उद्घाटन करके नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया है। रोवो न्यूक्लिक एसिड (आर.एन.ए.) में जीवनोत्पादन की क्षमता है यह बहुत पहले जान लिया गया था। डायोक्सी रिवोन्यूक्लिक एसिड (डी.एन.ए.) का जीवन संचार में कितना हाथ है यह विश्लेषण अब बहुत आगे बढ़ गये हैं। ए.जी.टी. और सी. प्रोटानों के सूक्ष्म कण किस प्रकार जीवन तत्व को प्रभावित करते हैं यह जीवविज्ञान के छात्रों को विदित हो चुका है और न्यूक्लियोटाइड की चार रसायनों की भूमिका भली प्रकार जानी जा चुकी है। सन् 1965 से इस विज्ञान ने क्रान्तिकारी उपलब्धियां हस्तगत की हैं। विस्कान्सिन विश्व विद्यालय के विज्ञानियों ने घोषणा की कि जीवन के वंशानुगत घटक—वंश तत्व—‘जीन’—का समग्र रासायनिक संश्लेषण करने में वे सफल हो गये हैं। वंश तत्व का उत्पादन, अभिवर्धन, प्रत्यावर्तन एवं प्रत्यावर्तन कर सकने की विद्या उन्हें उपलब्ध हो गई है।
कैलीफोर्निया इन्स्टीट्यूट आफ टैक्नोलोजी के डा विलियम जेड्रेअर ने भविष्यवाणी की है कि ऐसे निरोधक तत्वों का ‘जीन्स’ में प्रवेश कराया जा सकेगा जो पैतृक रागों का उन्मूलन करके नई स्वस्थ स्थापना के लिए रास्ता साफ कर सकें। यह तो निवारण की बात हुई। इसका दूसरा पक्ष स्थापना का है। जिस प्रकार किसी अच्छे खेत में इच्छानुसार बीज बोकर अभीष्ट फसल उगाई जा सकती है उसी प्रकार परम्परागत अवरोधों को हटा सकने की सफलता के साथ एक नया अध्याय और जुड़ जाता है कि वंश तत्व में इच्छानुसार विशेषताओं के बीज बोये जा सकेंगे अगली पीढ़ियों को वैसा ही उत्पन्न किया जा सके जैसा कि चाहा गया था।
एक परिपुष्ट सांड़ द्वारा एक वर्ष में उपलब्धि होने वाले शुक्राणुओं से 50 हजार बच्चे उत्पन्न किये जा सकते हैं। ऐसा ही एक सीमा तक मादाएं भी एकाधिक सन्तानें एक ही समय में उत्पन्न कर सकती हैं। डा. कार्लएक्सेल गेम्जेल और डा. डोनिनी ने ऐसे हार
ब्रिटेन की इंटर नेशनल साइन्स राइटर्स ऐसोसिएशन के अध्यक्ष जी.आर. टेलर ने अपनी पुस्तक ‘दि बायोलॉजिकल टाइम बम’ नामक पुस्तक में जीव विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों का उल्लेख करते हुए यह बताया है कि वह दिन दूर नहीं जब मनुष्य की अभीष्ट जातियां शाक-भाजियों की तरह उगाई जा सकेंगी और उन्हें कलम लगाकर कुछ से कुछ बनाया जा सकेगा। एक परिपुष्ट सांड़ द्वारा एक वर्ष में उपलब्धि होने वाले शुक्राणुओं से 50 हजार बच्चे उत्पन्न किये जा सकते हैं। ऐसा ही एक सीमा तक मादाएं भी एकाधिक सन्तानें एक ही समय में उत्पन्न कर सकती हैं। डा. कार्लएक्सेल गेम्जेल और डा. डोनिनी ने ऐसे हारमोन ढूंढ़ निकाले हैं जो नारी शरीर में प्रवेश कराने के उपरान्त उसे एक साथ कई बच्चे उत्पन्न कर सकने में समर्थ बना सकते हैं। इनमें फोलीकल स्टीम्युलेटिंग हारमोन की चर्चा विशेष रूप से हुई है।
न्यूजीलैण्ड के आकलैण्ड नगर में शर्ले एन लासन नामक एक महिला ने एक साथ चार लड़कियां और एक लड़का प्रसव किया। इसी प्रकार स्वीडन के फालुन नगर में एक महिला करीन ओल्सेन ने भी एक साथ पांच बच्चे जने। यह चमत्कार नव आविष्कृत हारमोनों के प्रयोग का था। जिनके गर्भाशय में पहले एक भी डिम्ब अण्ड नहीं था उनमें एक साथ पांच अण्डों का उत्पन्न कर देना जीव-विज्ञान का एक विशिष्ट चमत्कार है।
यह उपलब्धियां सम्भावना का द्वार खोलती हैं कि मानव भ्रूण का पालन किसी उपयुक्त प्रकृति की पशु मादा के पेट में पालन करा लिया जाय इससे उस बच्चे में मनुष्य और पशु के सम्मिलित गुण विकसित हो जायेंगे। इन प्रयोगों से आरम्भ में थोड़े से बच्चे बनाने में ही अधिक परिश्रम पड़ेगा। पीछे तो कृत्रिम गर्भाधान विधि से वे थोड़े ही बच्चे तरुण होकर सहस्रों बच्चे पैदा कर देंगे। एक स्वस्थ सांड के द्वारा जीवन भर का संचित शुक्र 50 हजार तक बच्चे पैदा कर सकता है। विशेष रासायनिक प्रयोगों से उत्तेजित मादा डिम्बों द्वारा एक साथ पांच तक सन्तानें उत्पन्न कराई जा सकती हैं। नई मनुष्य जाति को जल्दी बढ़ाने के लिए ऐसे ही तरीके काम में लाये जायेंगे साथ ही पुरानी पीढ़ी को समाप्त करके उन सबका वन्ध्याकरण किया जायेगा। अन्यथा दोनों स्तर की सन्तानें बढ़ती रहीं तो फिर उनका शंकरत्व होने लगेगा और वे वर्ण शंकर न जाने क्या-क्या नई समस्याएं उत्पन्न करेंगे?
नई पीढ़ी के उत्पादन कोषों के मूल आधार तो मानवी जीव कोष ही रहेंगे, पर उनके साथ उस कृत्रिम जीवन प्रक्रिया को जोड़ दिया जायगा जो अभी-अभी मनुष्य के हाथ लगी है। रासायनिक सम्मिश्रण से नवीन जीवाणु बना सकने में सफलता प्राप्त करली गई है। पर वे अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि पूर्ण प्राणी का स्थान ले सकें। इसके लिए उन्हें सुविकसित जीवन तत्व के साथ मिला देने से ही काम चलेगा। पुरातन और नवीन की कलम लगा कर ऐसे जीव कोष तैयार किये जाने की सम्भावना व्यक्त की गई है जो इच्छित स्तर के मनुष्य रूप में विकसित हो सकें।
विश्वास किया जाता है कि इन प्रयत्नों के फल-स्वरूप अबकी अपेक्षा निकट भविष्य में अभीष्ट परिष्कृत स्तर का मानवी उत्पादन किया जा सकेगा। शीत, उष्ण, पहाड़ी, रेतीले प्रदेशों में रह सकने योग्य स्थिति के जिस देश को जब जितने मनुष्यों की आवश्यकता पड़ा करेगी तब वहां उतने बच्चे उस प्रकार के पैदा कर लिए जाया करेंगे। इतना ही नहीं आवश्यकतानुसार उस मानसिक स्तर की सन्तानें भी पैदा करली जाया करेंगी जिनकी कि उन दिनों आवश्यकता पड़ेगी। कवि, साहित्यकार, गायक, शिल्पी, योद्धा, श्रमिक, वणिक, धर्माचार्य, दार्शनिकों की जब जहां जितनी आवश्यकता पड़े तब वहां वे उत्पन्न हो जाया करेंगे और सामाजिक सन्तुलन बनाये रखा जा सकेगा। अभिनव मनुष्य के निर्माण में, विज्ञान अपने ढंग से सोच और कर रहा है। उद्देश्य और पुरुषार्थ दोनों ही दृष्टि से इन प्रयत्नों की सराहना की जानी चाहिए पर साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि मनुष्य पूर्णतया भौतिक तत्वों से विनिर्मित नहीं है जिसे विद्युत आवेशों, रस और रासायनिक प्रयोगों से मात्र प्रयोगशालाओं और उपकरणों के माध्यम से बदला या बनाया जा सके। उसमें एक स्वतन्त्र चेतना का भी अस्तित्व है। उस तथ्य को भुला नहीं देना चाहिये। खोट शरीरों में उतना नहीं जितना उस चेतना में घुस पड़ी आस्थाओं का है। मूलतः वे आस्थाएं ही गड़बड़ा कर शारीरिक, मानसिक विकृतियां उत्पन्न करती हैं। यह विकृतियां चिन्तन से उत्पन्न होती हैं न कि विद्युत आवेशों और रासायनिक पदार्थों की घट−बढ़ से। मनुष्य की वर्तमान दुर्गति का कारण वह चिन्तन भ्रष्टता ही है जिसने मनुष्य को दुर्भावग्रस्त और दुष्प्रवृत्ति संलग्न निकृष्ट कोटि का नर-पशु बनाकर रख दिया है।
सुधार इस चिन्तन स्तर का भी होना चाहिए। अन्यथा वंश परम्परा के खोट हटा देने अथवा रक्त-मांस का स्तर बदल देने से अधिक से अधिक इतना ही हो सकेगा कि शारीरिक एवं बौद्धिक दृष्टि से नई पीढ़ी समय की परिस्थिति के अनुरूप ढल जाय। आस्थाओं की उत्कृष्टता के बिना मनुष्य ‘यन्त्र मानव’ भर रह जायगा। उसमें महामानवों का गौरवास्पद स्तर बनाये रहने की और संसार में सद्भावनाओं का स्वर्गीय वातावरण बनाने की क्षमता कैसे उत्पन्न होगी? और इसके बिना वह क्रियाशील किन्तु भाव रहित पीढ़ी संसार के दिव्य सौन्दर्य, संरक्षण, अभिवर्धन कैसे कर सकेगी? इसके बिना यह विश्व मात्र हलचलों का केन्द्र ही बन कर रह जायगा।
अभिनव मनुष्य के निर्माण में आध्यात्मिक क्षेत्र का भी समुचित योगदान रहना चाहिए। जन्म और जननी का उच्च आदर्शवाद व्यक्तित्व विनिर्मित किया जाय। गर्भकाल से लेकर युवावस्था आने तक परिष्कृत परिस्थितियों में विकसित होने का बालक को अवसर दिया जाय तभी उसकी आत्माओं में उत्कृष्टताओं का समावेश होगा। भौतिक दृष्टि से नई पीढ़ी को समुन्नत स्तर का आत्मिक दृष्टि से उसे समुन्नत बनाने के लिए अध्यात्म विज्ञानी अग्रसर हों। तब दोनों के समन्वित प्रयत्न ही उस स्वप्न को साकार कर सकेंगे जिसमें समुन्नत स्तर के मनुष्य के निर्माण को आशा की गई हैं।
काय कलेवर में विद्यमान शिक्षक
अन्तरंग जीवन की विचित्रताएं इतनी अधिक है जिन्हें देखने समझने में बुद्धि चकराती है। उसमें जो कुछ देखना ढूंढ़ना चाहें, सब कुछ मिल जायगा। अपने इस शरीर में ऐसे सन्त और ऋषि भी विद्यमान हैं जो एक प्रकार से अपना सर्वस्व समर्पण करके ही इस काया को इस योग्य बनाये रख रहे हैं कि वह जीवित और समर्थ कही जा सके। पर बदले में कुछ भी लेने की न उनकी इच्छा होती है न लेते ही हैं।
उन ऋषियों का नाम-रसायन शास्त्रियों की परिभाषा के अनुसार ‘ऐंजाइम’ है। यों मोटेतौर से समझा यह जाता है कि हृदय, फुफ्फुस, आमाशय, मस्तिष्क, वृक्, यकृत आदि अवयवों के क्रिया-कलाप पर जीवन निर्भर है। महत्व और श्रेय इन्हें ही मिलता है। और इनकी खुराक जुटाने के लिए अन्न, जल, श्वास, निश्वास, आच्छादन आदि के साधन जुटाने पड़ते हैं। यह साधन न मिलें तो पारिश्रमिक न मिलने पर नौकरी छोड़ देने वाले मजदूरों की तरह वे भी हड़ताल कर सकते हैं और जिन्दगी का सरंजाम देखते-देखते बिखर सकता है।
दूसरी ओर वे ‘ऐंजाइम’ घटक हैं जो कभी किसी प्रकार की खुराक ग्रहण नहीं करते। दूसरों पर तनिक भी निर्भर नहीं हैं, आत्मबल से ही अपनी सत्ता टिकाये हुए हैं। इनकी जानकारी भी मोटेतौर पर सब शरीर रचना जानने वालों को नहीं होती। यश और श्रेय की न उन्हें आकांक्षा है और न मिलता ही है। मात्र कर्तृत्व ही इनके सामने सब कुछ है। थकने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती। जबकि जीवाणु, कोशिकाएं, ऊतक निरन्तर मरते जाते रहते हैं तब यह मृत्युंजयी देवताओं की तरह अपने स्वरूप में अवस्थित रह कर बिना परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव किये निरन्तर एक निष्ठ भाव से अपने कर्तव्य की दीपशिखा यथावत् संजोये रहते हैं।
भौतिक विज्ञान की परिभाषा के अनुसार जीवन और कुछ नहीं शरीर की भीतरी रासायनिक प्रक्रियाओं का खेल मात्र है। यों देह के भीतर मुंह, आमाशय, आंतें, हृदय, फुफ्फुस, वृक्क, यकृत आदि अवयव ही मोटेतौर पर काम करते दिखाई देते हैं। रक्त संचार, श्वास, प्रश्वास, आकुंचन, प्रकुंचन-तन्तु चेतना जैसे सूक्ष्म क्रिया-कलापों को भी देखा समझा जाता है। विभिन्न अवयवों से स्रवित होने वाले पाचक रस, हारमोन ग्रन्थियों से टपकने वाले स्राव, रक्त के सम्मिश्रित जीवाणु ऊतक कोशिकायें, आदि भी अपना-अपना कार्य करके जीवन की स्थिरता में सहायता पहुंचाते हैं। इस सारे क्रिया-कलाप को शक्ति देने वाले एक और प्रकार के घटक काम करते हैं जिनके सम्बन्ध में अभी बहुत कम जानकारी उपलब्ध हो सकी है। इन घटकों का नाम है—ऐंजाइम।
सूक्ष्म-दर्शक यन्त्र से ही दीख पड़ने वाले जीवाणु बैक्टीरिया—भी इन एन्जाइमों के बलबूते ही जीवित रह रहे हैं। इन घटकों के अतिरिक्त शरीर का हर पदार्थ घटता—बढ़ता रहता है पर यह अपनी स्थिरता अक्षुण्ण ही बनाये रहते हैं। कोशिकाओं को ऑक्सीजन न मिले तो वे जीवित नहीं रह सकतीं। पर एक यह, संत ऐंजाइम हैं कि निरन्तर सेवा संलग्न रहते हुए भी आहार तो दूर इस काय-कलेवर में सांस तक का एक कण भी स्वीकार नहीं करते। यह कई जाति के होते हैं। हर जाति अपनी निर्धारित कार्य-पद्धति में ही संलग्न रहती हैं। कोई वर्ग किसी दूसरे के काम पर हाथ नहीं डालता। वर्ण धर्म की तरह इन्हें अपना निर्धारित कार्य ही प्रिय है। जहां अन्य जीवाणुओं में परिवर्तन प्रत्यावर्तन होता रहता है वहां इनकी सीमा मर्यादा में कभी राई रत्ती अन्तर नहीं आता।
जो भोजन पेट में जाता है उसे वर्गीकृत करके पाचनयोग्य ऐंजाइम ही बनाते हैं। यदि यह न होते तो रोटी और पत्थर के टुकड़े में कोई अन्तर न रहता। तब हम पत्थर की तरह रोटी भी हजम नहीं कर सकते थे। जो अवयव इन घटकों की प्रेरणा से पाचन रस उत्पन्न करते हैं उन्हें पैंक्रियाज—जठराग्नि कहते हैं—अध्यात्म भाषा में इन्हें वैश्वानर कहा जाता है। मुख की लार में ‘टायलिन’ आमाशय में ‘पेप्सिन’ और ‘रेनिन’ जैसे पाचक-तत्वों के रूप में इन ऐंजाइमों का अस्तित्व देखा जा सकता है। खाद्य-पदार्थों को शरीर में घुल मिल जाने योग्य बनाने का कार्य इन्हीं का है। आमाशय में तीन ऐंजाइम होते हैं (1) ट्रिप्सिन (2) अमाइलीप्सिन (3) लाइपेस। इनके द्वारा किया गया परिवर्तन अन्न को रस रक्त में बदलने की क्रिया को यदि कोई बारीकी से देख समझ सके तो उसे आश्चर्य चकित रह जाना पड़े।
सस्ते वाले अन्न का बहुमूल्य रक्त में बदल जाना कितना अद्भुत है। लाल रंग का पानी रक्त विकसित होते-होते ‘उसेजस्’ के मेधा और प्रज्ञा का रूप धारण कर लेता है यह प्रक्रिया आश्चर्य चकित करने वाली है। पर उसे सम्पन्न कौन करता है। इस परिवर्तन का आधार कहां है? यह ढूंढ़ने के लिए हमें इन ‘ऐंजाइमों’ के सामने ही नतमस्तक होना पड़ेगा, जिनके अनुग्रह से कुछ वस्तुयें महान बनती चली जाती हैं, वे पूर्णता प्राप्त तत्वदर्शियों की तरह अपनी प्रगति की बात नहीं सोचते वरन् दूसरों का उन्नयन, अभिवर्धन ही उनका लक्ष्य है और उस प्रक्रिया को सम्पन्न करते हुए—दूसरों को विकसित देखते हुए—वे इतने ही सन्तुष्ट रहते हैं मानों सब कुछ उन्हें ही मिल रहा हो, उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म की तरह यह साक्षी, दृष्टा निर्विकार रहते हुए भी लोक-मंगल के कर्त्तव्य का अथक परिश्रम के साथ निर्वाह करते हैं।
इन घटकों की सक्रियता चेहरे पर तेजस्विता होकर चमकती है। यह शिथिल पड़ते हैं तो सारा शरीर शिथिल तेजहीन और हारा थका-सा दीखता है। भीतरी और बाहरी अंग अवयव अपना काम ठीक तरह नहीं कर पाते और पग-पग पर लड़खड़ाते दीखते हैं। इनकी कमी मांस-पेशियों में ऐसी ऐंठन उत्पन्न करती है जिसका अभी कोई इलाज नहीं निकल सका।
इन घटकों के सहायक सेक्रेटरी भी होते हैं। जिन्हें ‘फास्फेट योगिक’ कहते हैं। विटामिनों को इसी वर्ग में रखा जा सकता है। त्रस्त और मौलिव्द्रीनम का सहारा मिल जाय तो ये अधिक समर्थ हो जाते हैं और पारा साइनाइहु जैसे विष इनका हनन भी कर देते हैं। इनकी अनुपस्थिति में जीवन रक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मानव-जीवन जैसे अद्भुत संस्थान की जितनी महत्ता है उससे भी अधिक इन ऐंजाइम घटकों की है स्वयं निर्जीव होते हुए भी ये प्रभावी जीवन संचार कर सकने में समर्थ है। शिक्षा, उपदेश मार्ग-दर्शन, करने के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं। सद्गुरु कितने ही रूप में हमारे काय कलेवर में विराजमान हैं और अपना प्रशिक्षण निरन्तर जारी रख रहे हैं। उचित और अनुचित का भेद करने वाला परामर्श अपना अन्तरात्मा निरन्तर देता रहता है। सत्कर्म करते हुए आत्म-सन्तोष, दुष्कर्म करते हुए आत्म धिक्कार की जो भावना उठती रहती है उसे ईश्वर प्रशिक्षण-अन्तरात्मा का उपदेश कहा जा सकता है। काश, हम कुछ सुनने सीखने की—ग्रहण करने अपनाने की स्थिति में रहे होते तो हेय जीवन न जीते तब महानता ही हमारी गतिविधियों से ओत-प्रोत होती और नर-नारायण जैसी स्थिति में रह रहे होते।
परमात्मा ने मनुष्य शरीर को इतना समर्थ और सक्षम बनाया है कि वह न केवल आत्म निर्भर रह सके वरन् अपनी समस्याओं का स्वयं भी समाधान कर सके। इतना ही नहीं शरीर में उत्पन्न होने वाली विकृतियों का संशोधन परिष्कार भी काय-कलेवर में विद्यमान चेतना स्वयं अपने आप करती रहती है। इस प्रचण्ड क्षमता से लाभ उठाना ही बुद्धिमत्ता है।