
गुरु निर्देशों को समझें- मानें
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युगऋषि, वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं.श्री
आचार्य श्रीराम शर्मा की जन्म शताब्दी (2011- 12) हमने मनाई।
शताब्दी समारोह ने हमारे सामने अपनी आत्म समीक्षा के लिए कई
प्रश्न हमारे सामने रख दिए हैं, जैसे- हममे जो उत्साह उभरा वह
(क) दुनिया को दिखाने के लिए अथवा
(ख) उन्हें प्रसन्न संतुष्ट करने के लिए। यदि उन्हें प्रसन्न संतुष्ट करना हमारा उद्देश्य है, तो पुनः गंभीरता से यह विचार करें कि उन्हें प्रसन्नता एवं संतोष की अनुभूति कैसे होगी? इसके लिए उनके उद्देश्यों को समझकर हमें उन्हें स्थाई और सतत प्रगतिशील पुरुषार्थ का क्रम अपनाना होगा।
स्पष्ट है कि उनका जीवन ‘युग निर्माण’ की ईश्वरीय योजना को मूर्त रूप देने के लिए ही समर्पित रहा। यों उनका हृदय संत का, माँ का हृदय भी था। इसलिए जो भी उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्पर्क में आया, उसे उन्होंने अपनी सहृदयतावश बहुत कुछ दिया है, उन्हें निहालकर दिया है। इसके बदले में उन्होंने किसी से कुछ भी नहीं माँगा। किन्तु अपने जीवन लक्ष्य ‘युग निर्माण अभियान’ को गति देने के लिए उन्होंने अपने हर स्नेही को प्रेरित किया। उस दिशा में कुछ योगदान करने के लिए बराबर आग्रह करते रहे। इसके लिए उनके द्वारा घोषित युग निर्माण अभियान के उद्देश्य को निरंतर ध्यान में तथा उसके लिए कुछ सुनिश्चित प्रयास करते रहना जरुरी है। उसके दो अंग हैः- मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण।
देवत्व के उदय के लिए उनका सूत्र है- व्यक्तिगत जीवन में उपासना, साधना एवं आराधना के नियमों का नैष्ठिक निर्वाह इसी बात को दूसरे ढंग से तो साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्य में आलस्य और प्रमाद न होने दें।
स्वर्ग अवतरण के लिए उनका सूत्र है- देवत्व, सदाशयता सम्पन्न व्यक्ति संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय प्रभाव, ज्ञान, एवं पुरुषार्थ का एक अंश नियमित रुप से लगाते रहे। इसी आधार पर उन्होंन जीवन भर गुरु दीक्षा की गुरु दक्षिणा एवं यज्ञों संस्कारों में ‘देव दक्षिणा’ के रूप में जीवन साधना से सम्बन्धित व्रतों को पालन करने के ही संकल्प कराने का क्रम बनाया। उन्हें प्रसन्न करना हे, तो उनके बताये अनुशासनों को निष्ठापूर्वक पालन करने के संकल्प करने और निवाहने होंगे।
(क) दुनिया को दिखाने के लिए अथवा
(ख) उन्हें प्रसन्न संतुष्ट करने के लिए। यदि उन्हें प्रसन्न संतुष्ट करना हमारा उद्देश्य है, तो पुनः गंभीरता से यह विचार करें कि उन्हें प्रसन्नता एवं संतोष की अनुभूति कैसे होगी? इसके लिए उनके उद्देश्यों को समझकर हमें उन्हें स्थाई और सतत प्रगतिशील पुरुषार्थ का क्रम अपनाना होगा।
स्पष्ट है कि उनका जीवन ‘युग निर्माण’ की ईश्वरीय योजना को मूर्त रूप देने के लिए ही समर्पित रहा। यों उनका हृदय संत का, माँ का हृदय भी था। इसलिए जो भी उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्पर्क में आया, उसे उन्होंने अपनी सहृदयतावश बहुत कुछ दिया है, उन्हें निहालकर दिया है। इसके बदले में उन्होंने किसी से कुछ भी नहीं माँगा। किन्तु अपने जीवन लक्ष्य ‘युग निर्माण अभियान’ को गति देने के लिए उन्होंने अपने हर स्नेही को प्रेरित किया। उस दिशा में कुछ योगदान करने के लिए बराबर आग्रह करते रहे। इसके लिए उनके द्वारा घोषित युग निर्माण अभियान के उद्देश्य को निरंतर ध्यान में तथा उसके लिए कुछ सुनिश्चित प्रयास करते रहना जरुरी है। उसके दो अंग हैः- मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण।
देवत्व के उदय के लिए उनका सूत्र है- व्यक्तिगत जीवन में उपासना, साधना एवं आराधना के नियमों का नैष्ठिक निर्वाह इसी बात को दूसरे ढंग से तो साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्य में आलस्य और प्रमाद न होने दें।
स्वर्ग अवतरण के लिए उनका सूत्र है- देवत्व, सदाशयता सम्पन्न व्यक्ति संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय प्रभाव, ज्ञान, एवं पुरुषार्थ का एक अंश नियमित रुप से लगाते रहे। इसी आधार पर उन्होंन जीवन भर गुरु दीक्षा की गुरु दक्षिणा एवं यज्ञों संस्कारों में ‘देव दक्षिणा’ के रूप में जीवन साधना से सम्बन्धित व्रतों को पालन करने के ही संकल्प कराने का क्रम बनाया। उन्हें प्रसन्न करना हे, तो उनके बताये अनुशासनों को निष्ठापूर्वक पालन करने के संकल्प करने और निवाहने होंगे।