
कर्मकाण्ड नहीं, अनुबंध
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दीक्षा को लोग कर्मकाण्ड मान लेते हैं। पू.
गुरुदेव से लोगों को यह कहते सुना गया है कि हमें प्राणदीक्षा
दीजिए। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि एक कक्षा पास होने
पर ही अगली कक्षा में प्रवेश मिलता है। प्रत्येक स्तर की दीक्षा
के लिए गुरु के कुछ विशिष्ट नियम- अनुशासन होते हैं। यदि उनका
पालन न किया जाय, तो दीक्षा का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
दीक्षा क्रम में कलावा बाँधते समय जो मंत्र बोला जाता है, उसका भाव अपने आप में पर्याप्त मार्गदर्शन करता है। उसके चार चरण हैं।
१. व्रतेन दीक्षामाप्नोति -अर्थात् व्रत से ही दीक्षा की प्राप्ति होती है। गुरु दीक्षा के साथ शिष्य के लिए कुछ व्रत निर्धारित करता है, जिनका उसे पालन करना होता है। दीक्षा के समय दिया गया यज्ञोपवीत उन्हीं व्रतों का प्रतीक होने से उसे ‘व्रतबंध’ भी कहा जाता है। कलावा बाँधवा लिया, जनेऊ पहन लिया, किन्तु व्रतों को विसरा दिया, तो क्या होगा?
२. दीक्षायाऽऽप्नोति दक्षिणाम् -यह मंत्र का दूसरा चरण है। इसका अर्थ है दीक्षा से दक्षिणा विकसित होती है। अग्निदीक्षा प्रकरण में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि दीक्षित साधक में आत्म विश्वास बढ़ता है तो उसके अंदर गुरु को मुँहमाँगी दक्षिणा चुकाने का उत्साह जागता है। दीक्षा सार्थक है तो दक्षिणा का भाव उभरेगा ही। उसे देकर शिष्य धन्य होता है।
३. दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति -यह मंत्र का तीसरा सूत्र है। जब साधक गुरु द्वारा बताए गये व्रत पूरे कर लेता है, उन्हें वाञ्छित दक्षिणा प्रदान करने में सफल हो जाता है, तो उसकी श्रद्धा क्रमशः अधिक बलवान होने लगती है। दिव्य प्रवाह हो- अनुदानों को शिष्य इसी सबल श्रद्धा के माध्यम से ग्रहण, धारण कर पाता है।
४. श्रद्धयासत्यमाप्यते -मंत्र का यह चौथा सूत्र स्पष्ट आश्वासन देता है कि श्रद्धा विकसित, पुष्ट होकर सत्य को प्राप्त कर लेती है। जीवन के परम सत्य, आत्मबोध या ब्रह्मबोध को सबल श्रद्धा द्वारा ही पाया जा सकता है।
इससे स्पष्ट हुआ कि गुरु द्वारा निर्धारित व्रत अनुबंधों का पालन किए बिना शिष्य की उन्नति संभव नहीं।
समझें- समीक्षा करें
युगऋषि ने अपनी दीक्षा के साथ दक्षिणा के जो पाँच व्रत निर्धारित किए है उनका स्तर बढ़ाते हुए हर साधक क्रमशः मंत्रदीक्षा, प्राणदीक्षा की कक्षाओं को पार करता हुआ ब्रह्मदीक्षा तक पहुँच सकता है। इसके लिए कोई अलग कर्मकाण्ड नहीं करने होते हैं, अपनी मनोभूमि को उन्नत बनाते हुए, व्रतों का निर्वाह करते हुए अपनी पात्रता सिद्ध करनी होती है। यदि मंत्रदीक्षा के समय दक्षिणा के रूप में स्वीकारे गये व्रत ही भुला दिए या छोड़ दिए, तो आगे की प्रगति कैसे होगी?
प्रत्येक साधक अपनी आत्म समीक्षा करें। भूलों के लिए प्रायश्चित्त करें। आज की जो स्थिति है उसके अनुसार अपने उपासना, स्वाध्याय, जीवन साधना तथा समयदान, अंशदान के संकल्प निर्धारित करें। उनका पूरी निष्ठा के साथ निर्वाह करें। बीच- बीच में समीक्षा करते रहें। गुरुसत्ता से प्रार्थना करें कि वे अगले स्तर तक पहुँचने की प्रेरणा एवं शक्ति- साहस प्रदान करते रहें। जो साधक दीक्षा के व्रतों को दक्षिणा के भाव से पूरा करते हुए, उनका स्तर उच्चतर करते हुए आगे बढ़ेंगे, तो लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में अनोखी प्रगति का लाभ उठा सकेंगे।
युगऋषि की जन्म शताब्दी हमारे लिए पहले की अपेक्षा अधिक प्रौढ और प्रखर बनाने की चुनौती दे गई है। उसे पूरा करने के लिए दीक्षितों नैष्ठिकों के छोटे- छोटे सत्र स्थानीय स्तर पर लगाये जायें। उसमे आत्म परिष्कार के प्रशिक्षण और सामूहिक अनुष्ठान भी जोड़े जा सकते है। उसमे भागीदारों के साथ दीक्षा अनुबंधों का नवीनीकरण करने, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी के साथ उनका अनुपालन करने के संकल्प किए- कराए जायें। इसके लिए एक- दूसरे को प्रेरणा- प्रोत्साहन, सहयोग देने का भावभरा क्रम अपनाया जाये। इससे साधकों के व्यक्तित्वों का परिष्कार होगा, गुरुसत्ता की कसौटी पर जब वे खरे सिद्ध होगें तो दिव्य अनुदानों की झड़ी लग जायेगी। तमाम विसंगतियाँ नदारद हो जायेंगी। कठिन लगने वाली चुनौतियाँ आसान हो जायेंगी। गुरु प्रसन्न हो जायेंगे और हम सब धन्य हो जायेंगे।
दीक्षा क्रम में कलावा बाँधते समय जो मंत्र बोला जाता है, उसका भाव अपने आप में पर्याप्त मार्गदर्शन करता है। उसके चार चरण हैं।
१. व्रतेन दीक्षामाप्नोति -अर्थात् व्रत से ही दीक्षा की प्राप्ति होती है। गुरु दीक्षा के साथ शिष्य के लिए कुछ व्रत निर्धारित करता है, जिनका उसे पालन करना होता है। दीक्षा के समय दिया गया यज्ञोपवीत उन्हीं व्रतों का प्रतीक होने से उसे ‘व्रतबंध’ भी कहा जाता है। कलावा बाँधवा लिया, जनेऊ पहन लिया, किन्तु व्रतों को विसरा दिया, तो क्या होगा?
२. दीक्षायाऽऽप्नोति दक्षिणाम् -यह मंत्र का दूसरा चरण है। इसका अर्थ है दीक्षा से दक्षिणा विकसित होती है। अग्निदीक्षा प्रकरण में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि दीक्षित साधक में आत्म विश्वास बढ़ता है तो उसके अंदर गुरु को मुँहमाँगी दक्षिणा चुकाने का उत्साह जागता है। दीक्षा सार्थक है तो दक्षिणा का भाव उभरेगा ही। उसे देकर शिष्य धन्य होता है।
३. दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति -यह मंत्र का तीसरा सूत्र है। जब साधक गुरु द्वारा बताए गये व्रत पूरे कर लेता है, उन्हें वाञ्छित दक्षिणा प्रदान करने में सफल हो जाता है, तो उसकी श्रद्धा क्रमशः अधिक बलवान होने लगती है। दिव्य प्रवाह हो- अनुदानों को शिष्य इसी सबल श्रद्धा के माध्यम से ग्रहण, धारण कर पाता है।
४. श्रद्धयासत्यमाप्यते -मंत्र का यह चौथा सूत्र स्पष्ट आश्वासन देता है कि श्रद्धा विकसित, पुष्ट होकर सत्य को प्राप्त कर लेती है। जीवन के परम सत्य, आत्मबोध या ब्रह्मबोध को सबल श्रद्धा द्वारा ही पाया जा सकता है।
इससे स्पष्ट हुआ कि गुरु द्वारा निर्धारित व्रत अनुबंधों का पालन किए बिना शिष्य की उन्नति संभव नहीं।
समझें- समीक्षा करें
युगऋषि ने अपनी दीक्षा के साथ दक्षिणा के जो पाँच व्रत निर्धारित किए है उनका स्तर बढ़ाते हुए हर साधक क्रमशः मंत्रदीक्षा, प्राणदीक्षा की कक्षाओं को पार करता हुआ ब्रह्मदीक्षा तक पहुँच सकता है। इसके लिए कोई अलग कर्मकाण्ड नहीं करने होते हैं, अपनी मनोभूमि को उन्नत बनाते हुए, व्रतों का निर्वाह करते हुए अपनी पात्रता सिद्ध करनी होती है। यदि मंत्रदीक्षा के समय दक्षिणा के रूप में स्वीकारे गये व्रत ही भुला दिए या छोड़ दिए, तो आगे की प्रगति कैसे होगी?
प्रत्येक साधक अपनी आत्म समीक्षा करें। भूलों के लिए प्रायश्चित्त करें। आज की जो स्थिति है उसके अनुसार अपने उपासना, स्वाध्याय, जीवन साधना तथा समयदान, अंशदान के संकल्प निर्धारित करें। उनका पूरी निष्ठा के साथ निर्वाह करें। बीच- बीच में समीक्षा करते रहें। गुरुसत्ता से प्रार्थना करें कि वे अगले स्तर तक पहुँचने की प्रेरणा एवं शक्ति- साहस प्रदान करते रहें। जो साधक दीक्षा के व्रतों को दक्षिणा के भाव से पूरा करते हुए, उनका स्तर उच्चतर करते हुए आगे बढ़ेंगे, तो लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में अनोखी प्रगति का लाभ उठा सकेंगे।
युगऋषि की जन्म शताब्दी हमारे लिए पहले की अपेक्षा अधिक प्रौढ और प्रखर बनाने की चुनौती दे गई है। उसे पूरा करने के लिए दीक्षितों नैष्ठिकों के छोटे- छोटे सत्र स्थानीय स्तर पर लगाये जायें। उसमे आत्म परिष्कार के प्रशिक्षण और सामूहिक अनुष्ठान भी जोड़े जा सकते है। उसमे भागीदारों के साथ दीक्षा अनुबंधों का नवीनीकरण करने, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी के साथ उनका अनुपालन करने के संकल्प किए- कराए जायें। इसके लिए एक- दूसरे को प्रेरणा- प्रोत्साहन, सहयोग देने का भावभरा क्रम अपनाया जाये। इससे साधकों के व्यक्तित्वों का परिष्कार होगा, गुरुसत्ता की कसौटी पर जब वे खरे सिद्ध होगें तो दिव्य अनुदानों की झड़ी लग जायेगी। तमाम विसंगतियाँ नदारद हो जायेंगी। कठिन लगने वाली चुनौतियाँ आसान हो जायेंगी। गुरु प्रसन्न हो जायेंगे और हम सब धन्य हो जायेंगे।