
दीक्षा के अनुबंध- अनुशासन
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गुरुदीक्षा का अर्थ होता है गुरु के आध्यात्मिक विद्यालय में
संकल्प पूर्वक प्रवेश लेना। जितने उच्च स्तर का विद्यालय होता है,
उसमें प्रवेश लेने वाले छात्रों को उसी स्तर के अनुशासन स्वीकार
करने पड़ते हैं। गुरु हर शिष्य- छात्र को अधिक से अधिक विद्यादान
देना चाहते हैं, लेकिन वे ऐसा कर कहाँ पाते हैं? उनकी भी
स्थिति समझदार माता जैसी होती है, जो बच्चों को पौष्टिक आहार
खिलाना तो चाहती है, पर खिला केवल उन्हीं को पाती है, जो उसे
पचा पाते हैं। जो पचा नहीं पाते, उन्हें मोहवश खिला देने से उनका
पेट और स्वास्थ्य खराब होने लगता है। समझदार माताएँ और गुरुजन
अपने पुत्रों /
शिष्यों का अहित कैसे करें? इसलिए उन्हें अपने खिलाने या देने
की उमंग और सामर्थ्य को काबू में रखना पड़ता है। उन्हें खिलाने
या अनुदान देने के पहले उनकी पाचनशक्ति या अनुशासनों को धारण
करने की क्षमता परखनी पड़ती है।
शिष्यों की धारण क्षमता की पहली कसौटी है दीक्षा के समय दक्षिणा के क्रम में स्वीकार किए गये अनुशासन। यदि वे ही भुला दिए जायें या उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखते हुए उनकी केवल चिह्नपूजा भर कर ली जाय, तो बात कैसे बने? जो शिष्य गुरु की इस प्राथमिक कसौटी पर ही खरे न उतरें, उन्हें कैसे उच्चस्तरीय शक्ति अनुदान दिए जायें? एक उदाहरण से इस तथ्य को समझें :-
भौतिक क्षेत्र में बिजली शक्ति- धारा के रूप में सर्वमान्य है। पावर हाउस से बिजली का कनेक्शन पाने के लिए कुछ अनिवार्य अनुशासन होते हैं। कनेक्शन लेने वाला अनुशासन मानने का आश्वासन देता है, तो कनेक्शन मिल जाता है। फिर भी जाने- अनजाने में होने वाली विसंगतियों- दुर्घटनाओं से बचाव के लिए लाइन में फ्यूज़ लगा दिए जाते हैं। यदि वह फ्यूज़ जल जाय या निकाल दिया जाय, तो फिर बिजली कैसे मिलेगी।
इसी उदाहरण के अनुसार जब शिष्य दक्षिणा के अनुशासनों को भुला देता है,तो वह स्वयं ही अपने अनुबंध को तोड़ देता है। स्वयं ही फ्यूज़ को निकाल देने जैसी भूल करता है। ऐसी
स्थिति में समर्थ गुरु भी क्या करें?
नियमितता और ईमानदारी जरूरी है
युगऋषि ने कहा है कि दक्षिणा में जो नियम निभाने के संकल्प कराये गये हैं, वे व्यक्तित्व को ऊँचा उठाने, समर्थ बनाने के आध्यात्मिक व्यायाम हैं। व्यायाम कभी- कभी करने से स्वास्थ्य नहीं सुधरता, बल्कि शरीर और दर्द करने लगता है। इसी प्रकार दीक्षा के अनुशासन नियमित रूप से पालने से ही साधक के दिव्य संस्कार उभरते हैं, कभी- कभी करने से तो उलटे अनगढ़,अहंकार और बढ़ने लगता है।
अपनाये गये नियमों के पालन में ईमानदारी बरतने से श्रद्धा सबल होती जाती है। यदि ईमानदारी न बरती जाय, केवल दिखावा किया जाय, तो कायरता विकसित होने लगती है। हममें से हर साधक को चाहिए कि वह श्रद्धा को सबल बनाने का ही क्रम अपनाए। श्रद्धा सबल हो कर ही दिव्य अनुदानों को सँभाल पाती है। कायरता तो दुर्गति को ही न्योता देती है। अस्तु, सच्चा शिष्यत्व निभाने, उसके दिव्य लाभ पाने के लिए दीक्षा के समय स्वीकार किए गये अनुशासनों- अनुबन्धों का पालन नियमितता एवं ईमानदारी के साथ ही करना पड़ता है।
अपनी समीक्षा करने पर यह तथ्य सामने आता है कि बहुत बड़ी संख्या में नर- नारी युगऋषि को अपना गुरु मानते हैं। उनका जय- जयकार भी खूब करते हैं तथा प्रयास करने पर भी काम पूरे न होने का रोना भी खूब रोते हैं। किन्तु दीक्षा के समय दक्षिणा के रूप में संकल्पित नियमों के पालन में नियमितता तथा ईमानदारी का स्तर नहीं सुधारते। यदि दुर्भाग्य से बचना है, असाधारण सौभाग्य प्राप्त करना है, तो जल्दी से जल्दी भूल सुधार करना होगा।
प्रायश्चित्त पूर्वक भूल सुधारें
यह युग परिवर्तन का अति महत्त्वपूर्ण समय है। इस समय युग परिवर्तन के क्रम में ईश्वर से साझेदारी करने वालों को उदारतापूर्वक- मुक्त हस्त से दिव्य अनुदान बाँटे जा रहे हैं। साझेदारी नारे लगाने से नहीं, अनुबंध- अनुशासन निभाने से मिलती है और फलित होती है।
हमारी गुरुसत्ता ने हमें दीक्षा देकर दक्षिणा में साझेदारी के अनुबंध निभाने के नियम ही माँगे हैं। जो उन्हें भूल रहे हैं या उनका दिखावा मात्र कर रहे हैं, वे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। मिले हुए सौभाग्य को नकार कर अनेक जन्मों के लिए पश्चात्ताप की अग्नि में जलते रहने के नारकीय कष्ट को न्योता दे रहे हैं।
इससे बचना है और सौभाग्य पाना है, तो दक्षिणा के नियम टूटने का प्रायश्चित्त करते हुए अनुबंधों को नये सिरे से साधना चाहिए। इसके लिए दीक्षा व्रतभंग प्रायश्चित्त का क्रम अपनाना चाहिए।
यह करें :-
(१) युगऋषि द्वारा निर्धारित दीक्षा की दक्षिणा के नियमों को भली प्रकार समझें- हृदयंगम करें।
(२) अपनी स्वस्थ समीक्षा करें। क्या दीक्षा के समय हमने उक्त अनुशासनों को ठीक से समझा या यूँ ही दीक्षा का कर्मकाण्ड पूरा कर लिया। अथवा उस समय समझबूझ कर किए गये संकल्पों को कितना निभाया?
(३) चूक जहाँ भी हुई हो, ठीक करें। उन्हें एक कागज़ पर स्पष्ट बड़े अक्षरों में लिखकर अपनी उपासना स्थली पर रखें।
(४) प्रायश्चित्त स्वरूप १००० गायत्री मंत्र जप करके दीक्षा का नवीनीकरण करें। निर्धारित नियमों का पूरी निष्ठा से पालन करें। उपासना के समय उन्हें रोज दोहरायें। प्रार्थना करें कि हे प्रभु! यह नियम न टूटे, हमारा परस्पर का पवित्र संबंध न टूटे।
अपनी दीक्षा को प्राणवान, प्रभावी बनाने के लिए परिजन एक- दूसरे को प्रेरणा दें। खुले दिल से भूल स्वीकार करने तथा साहस पूर्वक उसे ठीक करने का व्रत लें। दीक्षा व्रतभंग प्रायश्चित करने कराने का क्रम व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से तुरंत प्रारंभ करें। परिजन एवं कार्यकर्त्ता कहलाने वाले प्रत्येक परिजन को इससे जोड़ें। विभिन्न गोष्ठियों या कार्यकर्त्ता गोष्ठियों, सम्मेलनों में इसे प्रभावशाली ढंग से करने- कराने का क्रम अपनाएँ। करोड़ों नर- नारी युगऋषि से दीक्षा ले चुके हैं। उन्हें दीक्षा अनुबंधों में प्रामाणिक ढंग से लाने का क्रम तत्परता से बरता जाय, तो कमाल हो जाय। न कहीं समयदानी- सहयोगियों की कमी रह जाये, न संसाधनों की। परिजनों के व्यक्तित्व गुरुसत्ता की दृष्टि में प्रामाणिक बनते ही, उज्ज्वल भविष्य की दिव्य धाराएँ उनके माध्यम से धरती पर उतरने लगेंगी। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का क्रम प्रचण्ड हो उठेगा। उठें, जागें और इष्ट ध्येय तक रुकें नहीं।
शिष्यत्व की प्रामाणिकता पर टिकते है गुरुसत्ता के विशेष अनुदान
शिष्यों की धारण क्षमता की पहली कसौटी है दीक्षा के समय दक्षिणा के क्रम में स्वीकार किए गये अनुशासन। यदि वे ही भुला दिए जायें या उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखते हुए उनकी केवल चिह्नपूजा भर कर ली जाय, तो बात कैसे बने? जो शिष्य गुरु की इस प्राथमिक कसौटी पर ही खरे न उतरें, उन्हें कैसे उच्चस्तरीय शक्ति अनुदान दिए जायें? एक उदाहरण से इस तथ्य को समझें :-
भौतिक क्षेत्र में बिजली शक्ति- धारा के रूप में सर्वमान्य है। पावर हाउस से बिजली का कनेक्शन पाने के लिए कुछ अनिवार्य अनुशासन होते हैं। कनेक्शन लेने वाला अनुशासन मानने का आश्वासन देता है, तो कनेक्शन मिल जाता है। फिर भी जाने- अनजाने में होने वाली विसंगतियों- दुर्घटनाओं से बचाव के लिए लाइन में फ्यूज़ लगा दिए जाते हैं। यदि वह फ्यूज़ जल जाय या निकाल दिया जाय, तो फिर बिजली कैसे मिलेगी।
इसी उदाहरण के अनुसार जब शिष्य दक्षिणा के अनुशासनों को भुला देता है,तो वह स्वयं ही अपने अनुबंध को तोड़ देता है। स्वयं ही फ्यूज़ को निकाल देने जैसी भूल करता है। ऐसी
स्थिति में समर्थ गुरु भी क्या करें?
नियमितता और ईमानदारी जरूरी है
युगऋषि ने कहा है कि दक्षिणा में जो नियम निभाने के संकल्प कराये गये हैं, वे व्यक्तित्व को ऊँचा उठाने, समर्थ बनाने के आध्यात्मिक व्यायाम हैं। व्यायाम कभी- कभी करने से स्वास्थ्य नहीं सुधरता, बल्कि शरीर और दर्द करने लगता है। इसी प्रकार दीक्षा के अनुशासन नियमित रूप से पालने से ही साधक के दिव्य संस्कार उभरते हैं, कभी- कभी करने से तो उलटे अनगढ़,अहंकार और बढ़ने लगता है।
अपनाये गये नियमों के पालन में ईमानदारी बरतने से श्रद्धा सबल होती जाती है। यदि ईमानदारी न बरती जाय, केवल दिखावा किया जाय, तो कायरता विकसित होने लगती है। हममें से हर साधक को चाहिए कि वह श्रद्धा को सबल बनाने का ही क्रम अपनाए। श्रद्धा सबल हो कर ही दिव्य अनुदानों को सँभाल पाती है। कायरता तो दुर्गति को ही न्योता देती है। अस्तु, सच्चा शिष्यत्व निभाने, उसके दिव्य लाभ पाने के लिए दीक्षा के समय स्वीकार किए गये अनुशासनों- अनुबन्धों का पालन नियमितता एवं ईमानदारी के साथ ही करना पड़ता है।
अपनी समीक्षा करने पर यह तथ्य सामने आता है कि बहुत बड़ी संख्या में नर- नारी युगऋषि को अपना गुरु मानते हैं। उनका जय- जयकार भी खूब करते हैं तथा प्रयास करने पर भी काम पूरे न होने का रोना भी खूब रोते हैं। किन्तु दीक्षा के समय दक्षिणा के रूप में संकल्पित नियमों के पालन में नियमितता तथा ईमानदारी का स्तर नहीं सुधारते। यदि दुर्भाग्य से बचना है, असाधारण सौभाग्य प्राप्त करना है, तो जल्दी से जल्दी भूल सुधार करना होगा।
प्रायश्चित्त पूर्वक भूल सुधारें
यह युग परिवर्तन का अति महत्त्वपूर्ण समय है। इस समय युग परिवर्तन के क्रम में ईश्वर से साझेदारी करने वालों को उदारतापूर्वक- मुक्त हस्त से दिव्य अनुदान बाँटे जा रहे हैं। साझेदारी नारे लगाने से नहीं, अनुबंध- अनुशासन निभाने से मिलती है और फलित होती है।
हमारी गुरुसत्ता ने हमें दीक्षा देकर दक्षिणा में साझेदारी के अनुबंध निभाने के नियम ही माँगे हैं। जो उन्हें भूल रहे हैं या उनका दिखावा मात्र कर रहे हैं, वे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। मिले हुए सौभाग्य को नकार कर अनेक जन्मों के लिए पश्चात्ताप की अग्नि में जलते रहने के नारकीय कष्ट को न्योता दे रहे हैं।
इससे बचना है और सौभाग्य पाना है, तो दक्षिणा के नियम टूटने का प्रायश्चित्त करते हुए अनुबंधों को नये सिरे से साधना चाहिए। इसके लिए दीक्षा व्रतभंग प्रायश्चित्त का क्रम अपनाना चाहिए।
यह करें :-
(१) युगऋषि द्वारा निर्धारित दीक्षा की दक्षिणा के नियमों को भली प्रकार समझें- हृदयंगम करें।
(२) अपनी स्वस्थ समीक्षा करें। क्या दीक्षा के समय हमने उक्त अनुशासनों को ठीक से समझा या यूँ ही दीक्षा का कर्मकाण्ड पूरा कर लिया। अथवा उस समय समझबूझ कर किए गये संकल्पों को कितना निभाया?
(३) चूक जहाँ भी हुई हो, ठीक करें। उन्हें एक कागज़ पर स्पष्ट बड़े अक्षरों में लिखकर अपनी उपासना स्थली पर रखें।
(४) प्रायश्चित्त स्वरूप १००० गायत्री मंत्र जप करके दीक्षा का नवीनीकरण करें। निर्धारित नियमों का पूरी निष्ठा से पालन करें। उपासना के समय उन्हें रोज दोहरायें। प्रार्थना करें कि हे प्रभु! यह नियम न टूटे, हमारा परस्पर का पवित्र संबंध न टूटे।
अपनी दीक्षा को प्राणवान, प्रभावी बनाने के लिए परिजन एक- दूसरे को प्रेरणा दें। खुले दिल से भूल स्वीकार करने तथा साहस पूर्वक उसे ठीक करने का व्रत लें। दीक्षा व्रतभंग प्रायश्चित करने कराने का क्रम व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से तुरंत प्रारंभ करें। परिजन एवं कार्यकर्त्ता कहलाने वाले प्रत्येक परिजन को इससे जोड़ें। विभिन्न गोष्ठियों या कार्यकर्त्ता गोष्ठियों, सम्मेलनों में इसे प्रभावशाली ढंग से करने- कराने का क्रम अपनाएँ। करोड़ों नर- नारी युगऋषि से दीक्षा ले चुके हैं। उन्हें दीक्षा अनुबंधों में प्रामाणिक ढंग से लाने का क्रम तत्परता से बरता जाय, तो कमाल हो जाय। न कहीं समयदानी- सहयोगियों की कमी रह जाये, न संसाधनों की। परिजनों के व्यक्तित्व गुरुसत्ता की दृष्टि में प्रामाणिक बनते ही, उज्ज्वल भविष्य की दिव्य धाराएँ उनके माध्यम से धरती पर उतरने लगेंगी। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का क्रम प्रचण्ड हो उठेगा। उठें, जागें और इष्ट ध्येय तक रुकें नहीं।
शिष्यत्व की प्रामाणिकता पर टिकते है गुरुसत्ता के विशेष अनुदान