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Books - देव संस्कृति का मेरुदण्ड वानप्रस्थ

Media: TEXT
Language: HINDI
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शिक्षा ही नहीं विद्या भी

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जिन बालकों की देखभाल, साज-संभाल अभिभावक ठीक प्रकार करते हैं, उनकी शारीरिक, मानसिक क्षमता सुविकसित होती रहती है। जिनकी ओर से उपेक्षा बरती जाती है, वे दुर्बल और अनगढ़ रह जाते हैं। जनसमुदाय भी एक प्रकार का बालक है। अपने बलबूते तो वह प्राणी स्तर का निर्वाह ही उचित-अनुचित तरीकों से कर सकता है। उसे समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने के लिए वरिष्ठ प्रतिभाओं की आवश्यकता पड़ती है, ऐसी वरिष्ठ जो न केवल प्रेरणाप्रद परामर्श दे सकें, वरन् उंगली पकड़ कर छोटे बच्चे की तरह चलने दौड़ने का अभ्यास भी करा सकें।

कहना न होगा कि शिक्षण और अनुभव के सहारे मात्र सम्पन्नता और समर्थता ही अर्जित की जा सकती है। इससे ऊंचे उठकर सुसंस्कारिता को गरिमामयी आंका जाता है। इसके लिए न केवल अपना उत्साह, साहस काम करता है, वरन् ऐसा वातावरण भी अभीष्ट होता है, जिसमें व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बनाने वाले तत्वों का बाहुल्य हो। मोती समुद्र की गहराई में ही उपलब्ध होते हैं और ब्रह्मकमल पर्वत की ऊंची चोटियों पर ही खिलते हैं। उन्हें इच्छानुसार कहीं भी पाया नहीं जा सकता। जीवित तो कोई किसी भी परिस्थिति में रह सकता है। इसके लिए अभ्यास और स्वभाव काम दे जाता है, पर उत्कृष्टता को आरोपित एवं विकसित करने के लिए दक्ष प्रशिक्षितों की आवश्यकता पड़ती है। वह दक्ष भी ऐसे, जो अपने जीवन को मार्गदर्शक की कसौटी पर कसें एवं खरा सिद्ध करने में सफल हो सकें।

अनगढ़ों को सुघड़ बनाना उच्चस्तरीय कलाकारिता है। सरकस में चित्र-विचित्र काम करने वाले जानवरों को प्रशिक्षित करना हर किसी का काम नहीं है। उसके लिए साहस और कौशल के धनी ‘‘रिंग मास्टरों’’ की आवश्यकता होती है। पौधे उगाने का काम तो कोई भी किसान-माली कर सकता है, पर उद्यान को नयनाभिराम बना देना उन विशारदों का काम है, जो काटने-छांटने और कलम लगाने से लेकर संभालने-सजाने की प्रवीणता में भी पारंगत हों। उनका अभाव रहे, तो फिर समझना चाहिए कि हरितमा के नाम पर खर-पतवार और झाड़-झंखाड़ ही उग सकेंगे।

मनुष्यों का समुदाय भी अन्य प्राणियों की तरह प्रकृति व्यवस्था के आधार पर जन्मता और बढ़ता रहता है। वनवासी कबीले भी अपनी जनसंख्या बनाये रहते और उसे बढ़ाते भी रहते हैं। इसमें मनुष्य का, प्रकृति का कौशल काम करता है, उस प्रकृति को जो कृमि-कीटकों को भारी संख्या में उत्पन्न करती रहती है। कहते हैं कि एक वर्ग किलोमीटर भूमि में इतने कृमि-कीटक निवास करते हैं, जितनी कि संसार भर में मनुष्यों की आबादी है। उतने की उत्पादन पोषण व्यवस्था बनाने वाली प्रकृति यदि मनुष्य वर्ग के माध्यम से आबादी उगाती और बढ़ाती हो, तो आश्चर्य ही क्या है? जनसंख्या की अभिवृद्धि का श्रेय उनके जन्मदाताओं को भी नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वे तो प्राणि जगत के अस्तित्व की रक्षा के लिए चल रहे प्रकृति कौशल की कठपुतली मात्र बनकर नियति से जुड़े रहते हैं। भूख की तरह प्रजनन की उमंग भी इस सृष्टि की रहस्यमयी जादूगरी है, जिसके कारण जीवधारियों को आहार ढूंढ़ने से लेकर प्रजनन कौतुक तक के लिए भी प्रवृत्त रहना पड़ता है। किस देश, समाज में कितनी जनसंख्या की गणना होती है, इसका कोई विशेष महत्व नहीं। बहुसंख्यक होने के कारण मक्खी-मच्छर अपनी उपयोगिता या विशिष्टता कहां सिद्ध कर पाते हैं। संसार में अनगढ़ और अस्त-व्यस्त ही तो बिखरे पड़े हैं। अधिकांश भूखण्ड खाई खन्दकों टीलों और कंकड़-पत्थरों से ही पटा पड़ा है। भूमि को समतल और उर्वर बनाने में तो मनुष्य की सूझ-बूझ और श्रम पुरुषार्थ ने चमत्कार दिखाया है।

मनुष्य समुदाय भी प्रकृतितः वनचरों की श्रेणी में ही गिना जा सकता है। डार्विन ने तो उसे बन्दर की औलाद तक सिद्ध किया है। अपराध शाखा में निरत कार्यकर्त्ताओं की दृष्टि में लोग प्रायः अनैतिक और असंस्कृत होते हैं और कुकर्म स्तर के क्रिया-कलापों में निरत रहते हैं। यदि ऐसा न होता, तो पुलिस, कचहरी, कानून, जेल आदि की क्या आवश्यकता पड़ती? जांच-पड़ताल के लिए इतने अधिक निरीक्षक क्यों नियुक्त करने पड़ते? अध्यापकों, विद्यालयों, चिकित्सकों और अस्पतालों की आवश्यकता भी इसलिए पड़ती है कि लोग आवश्यक ज्ञान और स्वास्थ्य संरक्षण जैसे सामान्य क्रियाकलाप भी अपने बलबूते उपलब्ध नहीं कर पाते। इस असमर्थता के कारण मनुष्य को मूलतः अनगढ़ भी कहा जा सकता है। मौलिक सामर्थ्य की दृष्टि से वह अगणित जन्तुओं की तुलना में कहीं अधिक असमर्थ है। बन्दर की तरह उंगलियों पर उछलना, खरगोश की तरह दौड़ना, गधे की तरह भार वहन करना एक तो उससे बन नहीं पड़ता। बतख की तरह तैरना और कबूतर की तरह उड़ना तक तो उसे आता नहीं। फिर भी मनुष्य—मनुष्य है। उसने सृष्टि का मुकुटमणि बनने में सफलता पाई है। इसमें उसकी मौलिक प्रतिभा ही सब कुछ करने में समर्थ नहीं हुई है। शिक्षण का वरदान ही है, जिसने उसे कहीं से कहीं पहुंचा देने में सफलता पाई है।

बोलना—चालना, रहन-सहन, खाना-पहनना तक अभिभावक एवं परिवार वाले ही सिखाते हैं। इस सहायता के बिना एकाकी स्थिति में तो उसे गूंगा-बहरा और बकरे-सियारों की तरह गया-गुजरा जीवन ही व्यतीत करना पड़ता है। शायद बंदर से अधिक वह अपनी कुशलता प्रदर्शित न कर पाता, क्योंकि वंशानुक्रम के साथ चलते आने वाले प्रगति प्रवाह में स्वावलम्बी जीवन के लिए जो आवश्यक है, उसमें से भी एक बड़ा अंश उसने गंवाया या भुला दिया है।

शिक्षण सुविधा का ही चमत्कार है, जिसने क्रमशः मनुष्य को अधिक प्रबुद्ध और प्रवीण बनाया है। इसी के अभाव में अभी तक वनवासी कबीले आदिम काल से मिलती-जुलती परिस्थितियों में रहने के लिए बाधित हो रहे हैं। जहां जितने प्रभावी प्रशिक्षण की व्यवस्था बन पड़ी है, वहां प्रगति की उतनी ही अधिक संभावना बनती और बढ़ती चली गयी है। समुन्नत वर्ग को इसी सुयोग को उपलब्ध कर सकने वाला सौभाग्यशाली कहा जा सकता है।

उत्कर्ष की योजना बनाने वाले गरीबी हटाओ के साथ-साथ दूसरी जिस योजना को प्रमुखता देते हैं, उसे शिक्षा बढ़ाओं के रूप में प्रमुखता दी गयी है। जीवनयापन के सुविधा साधनों की जितनी आवश्यकता है, उतनी ही यह भी अभीष्ट है कि व्यक्ति साक्षर बने और शिक्षा के उस क्षेत्र में प्रवेश करे, जो संसार, समाज, व्यक्ति, साधन और प्रचलन को प्रभावित करता हो, उस स्तर तक पहुंचने में सहायता करता हो, जिसे सम्मान और संतोषजनक स्थिति कहा जा सके। बिना साक्षरता के मात्र अनुभव और प्रचलन के सहारे अति सीमित ही जाना जा सकता है और वह इतना भी नहीं होता कि भटकावों से बचकर सीधे रास्ते चलने तक के लिए अभ्यास कर सके। निर्वाह के लिए जिस प्रकार आजीविका है, उसी प्रकार कौशल को विकसित करने के लिए शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है। इस तथ्य को समझते हुए सरकारी और गैर सरकारी तंत्र इस बात के लिए प्रयत्न करते रहते हैं कि आजीविका उपार्जन की तरह व्यक्ति को शिक्षित एवं सुयोग्य बनने का भी अवसर मिलता रहे।

यह सामान्य प्रशिक्षण विद्या है, जिसके आधार पर शारीरिक निर्वाह और बौद्धिक कौशल उपलब्ध करके लोग दरिद्रता और अनगढ़ता से ऊंचे उठकर सुविधाजनक जीवन जी सकें। जिओ और जीने दो की उक्ति को चरितार्थ कर सकें।

शिक्षा के मन्दिर कहे जाने वाले विद्यालयों में बहुत कुछ काम की बातें बताई जाती हैं। भाषा, गणित, इतिहास, भूगोल, विज्ञान, स्वास्थ्य आदि के संबंध में वहां बहुत कुछ जानने को मिलता है। नागरिकता, सामाजिकता आदि के सिद्धान्त भी समझाये जाते हैं। अनेक कलायें और विद्यायें उन्हीं शिक्षण केन्द्रों से हस्तगत होती हैं। डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, कलाकार, व्यवस्थापक स्तर की अनेकों कुशलतायें प्रशिक्षण केन्द्रों से ही सीख कर अधिक उपार्जन करने, अधिक कौशल दिखाने में लोग समर्थ होते हैं। यदि शिक्षा व्यवस्था न बन पड़े, तो लोक नर-पशु स्तर का जीवनयापन कर सकने तक सीमित रह सकेंगे।

यह प्रत्यक्ष प्रयोजनों में काम आने वाली विद्याओं का प्रसंग हुआ। यह आवश्यक तो है, पर पर्याप्त नहीं। मानवी गरिमा के अनुरूप संतोष एवं शांति के साथ जीवनयापन संभव हो सकता है। यह आत्मिक क्षेत्र है। जिसका स्वरूप, गौरव, निर्वाह एवं प्रयोग बहुत कम ही लोग जान पाते हैं। फलतः वे शिक्षा और सम्पन्नता रहते हुए भी ऐसी गतिविधियां अपनाते हैं, जिनके कारण अपने को विक्षोभ में और सहचरों को विग्रहों में डूबा रहना पड़े। यही है वह केन्द्र बिन्दु, जिसके कारण व्यक्ति प्रामाणिकता, प्रतिभा और प्रखरता का धनी बनता है, स्वयं समुन्नत रह कर सम्पर्क वालों सुविकसित बनाने में असाधारण योगदान करता है।

अध्यात्म की परिभाषा इन दिनों फूहड़ एवं उपहासास्पद समझी जाने लगी है। देवी-देवताओं की उलटी-सीधी मनुहार करके चित्र-विचित्र मनोकामनाओं की पूर्ति करा लेने की आकांक्षा संजोये रहना आज के अध्यात्म का बहुचर्चित स्वरूप है। इसके आगे वाले कल्पनाशील स्वर्ग और मुक्ति की उड़ानें पूजा-पाठ के कृत्या-कृत्यों के आधार पर संजोते रहते हैं। कोई देवता के साथ व्यक्तिगत घनिष्ठता जोड़ने और उस आधार पर प्रयत्नसाध्य कार्यों को आनन-फानन में पूरा करा लेने की भी कइयों की मान्यता होती है। यह सब पाने के लिए उन्हें इतना ही पर्याप्त लगता है कि कुछ कर्मकाण्डों की चिन्ह-पूजा करके सस्ते मोल, बहूमूल्य प्रयोजनों को सहज पूरा कर लिया जाय।

इन दिनों इसी जाल-जंजाल में फंस कर अध्यात्म दर्शन का भौंड़ा स्वरूप जहां-तहां दृष्टिगोचर होता है। इन मान्यताओं के जाल-जंजाल में उलझे हुए लोग आशा-निराशा के झूले में झूलते हुए संयोग के अनुसार कोसते और सराहते रहते हैं, पर वास्तविकता दूसरी ही है। अध्यात्म एक ऐसा जीवन दर्शन है, जिसे सही रूप में जानने-अपनाने पर उस परिस्थिति और मनःस्थिति को सुनिश्चित रूप से उपलब्ध किया जा सकता है, जो व्यक्तित्व को सर्वांगपूर्ण सुव्यवस्थित, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाती है। इसके अपने सिद्धान्त और सफलतापूर्वक व्यवहार में उतारे जाने योग्य निर्धारण हैं। उनका बौद्धिक स्वरूप तो उच्चस्तरीय स्वाध्याय और सत्संग के आधार पर समझा जा सकता है। भ्रान्तियों का निवारण हो सकता है। इतने पर भी एक और आवश्यकता शेष रह जाती है कि आदर्शों को व्यवहार में उतारने के लिए प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत किये जायें। गुण, कर्म, स्वभाव पर आधारित व्यक्तित्व को परिष्कृत करने के लिए जो चिन्तन, चरित्र और व्यवहार अभीष्ट है, उसकी प्रक्रिया को अन्तराल की गहराई में प्रविष्ट करा सकने का सुनियोजन ही अध्यात्म है। इसे शिक्षा का उच्चस्तरीय स्वरूप माना और ‘विद्या’ कहा जाता है। ‘विद्या’ अर्थात् जीवन कला-संजीवनी विद्या। इसे सिखाने के लिए जो तंत्र समर्थ हो, समझना चाहिए कि उसने व्यक्ति निर्माण का उत्तरदायित्व उठाया। मनुष्य यदि समग्र व्यक्तित्व का धनी हो, समझना चाहिए कि उसने अपने भीतर सोये हुए विभूतियों के अजस्र भण्डार को खोज निकाला और उससे निरन्तर लाभान्वित होते रहने का राजमार्ग प्राप्त कर लिया।

मनुष्य की मूलभूत सत्ता आत्मा है, जिसका स्वरूप ज्ञान, श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा का प्रत्यक्ष दर्शन करते हुए किया जा सकता है।  आस्था, मान्यता, भावना, विचारणा की वह परिपक्व स्थिति परिष्कृत आत्मा ही है, जो क्रिया-कलापों में देवोपम उत्कृष्टता का समावेश कर सके। इसे पाने के उपरान्त और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। जो इस लक्ष्य तक लोक मानस को विकसित एवं प्रशिक्षित कर सके, समझना चाहिए कि वही सच्चे अर्थों में पुरोहित है। व्यक्ति और समाज के उत्कर्ष के श्रेय साधक भी ऐसे पुरोहित ही होते हैं। विद्या उन्हीं के द्वारा सुविस्तृत और फलित होती है।

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