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Books - देव संस्कृति का मेरुदण्ड वानप्रस्थ

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


पृथ्वी के देवता—भूसुर-पुरोहित

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व्यक्तित्व निर्माण और प्रतिभा परिष्कार की महती युग आवश्यकता को पूरा करने के लिए क्षमता सम्पन्न प्राध्यापकों को फिर से उन्नत करने के लिए इन दिनों समग्र ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है। इस आपत्तिकालीन आवश्यकता को सबसे बड़ी समय की पुकार समझा जाना चाहिए और इस प्रयोजन के लिए जितना कुछ बन पड़े, उसे पूरी सामर्थ्य नियोजित करते हुए करने में जुट जाना चाहिए। युग धर्म को पहचानने वाले तदनुरूप परिस्थितियों के अनुरूप कदम उठा सकने योग्य प्राणवानों को जहां भी देखा, खोजा जा सके, वहां उनसे सम्पर्क साधना और अग्रगमन के लिए सहमत करना चाहिए।

अन्यत्र ढूंढ़ने फिरने की अपेक्षा यही अधिक सरल और अधिक उपयुक्त होगा कि शुभारंभ अपने आप से ही किया जाय। युग निर्माण परिकर के इन दिनों भी लाखों सदस्य हैं, उनमें से जिनमें भी समय की चुनौती स्वीकार करने के लिए उमंग उठें उन्हें इस प्रयोजन के लिए अपने को ही आगे करना चाहिए। मनस्वी जिस औचित्य भरे मार्ग पर चलते हैं, अपनी निष्ठा का परिचय देते हैं, वे देर तक एकाकी नहीं रहते। उनके पीछे चलने वाले अनुचरों की भी कमी नहीं रहती। जब चोर, लवार, नशेबाज, व्यभिचारी आदि भीतर और बाहर से एक रहने के कारण अनेकों सहयोगी, अनुयायी बना लेने में सफल हो जाते हैं, तो कोई कारण नहीं कि सदाशयता के धनी, सत्परम्पराओं के अभिवर्धन में निरत लोग अपने साथी, सहयोगी बड़ी संख्या में न बना सकें। यह नया प्रयोग नहीं है। अतीत के स्वर्णिम युग में इस प्रयोग को चिरकाल तक कार्यान्वित किया जाता रहा है। उसका सत्परिणाम भी हर किसी के द्वारा देखा जाता रहा है; फिर इसमें कुछ संशय नहीं रह जाता कि उस प्रयोग को फिर दुहराया जाय, तो अभीष्ट सफलता का लक्ष्य प्राप्त कर सकने में कुछ अड़चन न रहे।

भारत की देव संस्कृति में वर्णाश्रम धर्म की प्रमुखता है। उन सभी को कार्यान्वित कर सकना इन दिनों न बन पड़े, तो भी उनमें से एक का चयन तो कर ही लिया जाना चाहिए। वह है—वानप्रस्थ। देव परम्परा में इसका अत्यधिक महत्व माना गया है। ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य भौतिक जीवन को समर्थ बनाने के लिए और वानप्रस्थ संन्यास के रूप में आधा जीवन परमार्थ प्रयोजनों के लिए। परमार्थों में दीन-दुखियों की सेवा-सहायता करना भी आता है; पर वैसे अवसर जहां-तहां कभी-कभी ही आते हैं, फिर उसमें एक खतरा भी रहता है कि कुपात्रों के हाथ में सहायता पहुंचने लगे, तो उनके दुर्गुण बढ़ते हैं और दुष्प्रवृत्तियों का प्रसार होता है। इसलिए प्रत्यक्ष सेवा, सहायता में औचित्य का ध्यान रखते हुए ही मुट्ठी खोलना समझदारी का चिन्ह माना जाता है; किन्तु व्यक्तियों का परिष्कार निस्संदेह इतना महत्वपूर्ण और इतना बिना असमंजस का है कि उसके निमित्त कुछ करना हर दृष्टि से श्रेयस्कर ही सिद्ध होता है। परमार्थों में यही मूर्धन्य है। ज्ञान दान को ब्रह्मयज्ञ कहकर उसका पुण्य अत्यन्त उच्चकोटि का गिना गया है। जीवन का उत्तरार्ध वानप्रस्थ इसी प्रयोजन के लिए प्रमुखता देते हुए नियोजित रहना चाहिए।

प्राचीनकाल में यह परम्परा थी कि विवाह के आरंभिक दिनों में एक-दो संतानें उत्पन्न करके प्रजनन को विराम दे दिया जाता था, फलतः आधा जीवन बीतते-बीतते बच्चे स्वावलम्बी हो जाते थे और फिर उन्हें अभिभावकों की कुछ अनिवार्य आवश्यकता नहीं रह जाती थी। इस निवृत्ति को ही वास्तविक निवृत्ति कहा जाता था, जिसके कारण मनुष्य की शेष आधी आयुष्य परमार्थ में, वानप्रस्थ में लगाते हुए कहीं कोई कठिनाई नहीं होती थी और लोक-परलोक दोनों ही सहज सध जाते थे।

इन दिनों परिस्थितियों में, प्रचलनों में परिवर्तन किए जा सकते हैं। इसलिए उस पुरातन निर्वाह क्रम में कुछ आवश्यक परिवर्तन किए जा सकते हैं। यदि कई बच्चे हो गये हैं और उन्हें स्वावलम्बी बनाने में देर लगती है, तो बड़ी सन्तान को युवराज वरण कर उसे अपने छोटे भाई-बहनों के भरण-पोषण का दायित्व उठाने के लिए बाधित किया जाना चाहिए। बच्चों को आरंभ से ही यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि अभिभावकों द्वारा उनकी जो सेवा, सहायता हुई है, उसे अपने छोटे भाई-बहिनों को स्वावलम्बी बनाने के रूप में चुकाया जाना है। हिसाब-किताब इसी जन्म में पूरा करना है, ताकि अगले जन्म में अभिभावकों का ऋण ब्याज समेत न चुकाना पड़े। यह परम्परा चलनी ही चाहिए। यदि हर कोई अपने स्त्री-बच्चों का ही ध्यान रखेगा, अभिभावकों का कर्ज न चुकायेगा, बहिन-भाइयों का ध्यान न रहेगा, तो ऐसी बुरी परम्परा चल पड़ेगी, जिससे बुढ़ापा आते ही हर किसी को मन मसोस कर रहना और पश्चात्ताप करना पड़ेगा। बड़ी सन्तानें अपने स्वावलंबन का लाभ छोटे भाई-बहिनों को दें। परिवार व्यवस्था अपने कंधों पर उठायें, तो फिर हर भावनाशील के लिए यह संभव हो जायेगा कि वह आधी आयु परमार्थ प्रयोजन के लिए लगाकर आत्म शान्ति प्राप्त कर सके, अगला जन्म सफल बन सके और समाज का ऋण चुकाने, युग धर्म का निर्वाह कर सकने का सुयोग प्राप्त कर सके।

अपने मिशन में लाखों प्राणवान परिजन युग साहित्य द्वारा अपनी विचारणा, निष्ठा और क्रिया पद्धति से उपलब्ध प्रेरणाओं के आधार पर बढ़-चढ़कर प्रकाश प्राप्त करते रहे हैं। वे औसत नागरिक की तुलना में कहीं अधिक विचारशील हैं। युग धर्म की पुकार भी उन्हें कचोटती है। शुभारंभ इन्हीं को करना चाहिए। अग्रगमन का साहस इन्हें ही जुटाना चाहिए और प्राचीन वानप्रस्थ परम्परा को पुनर्जीवित करने में इन्हीं का प्रमुख योगदान होना चाहिए।

प्राचीन वानप्रस्थ उन दिनों की परिस्थितियों के अनुरूप था। इसलिए उसे धारण करने के लिए आधी आयु के उपरान्त आरण्यक स्तर के ऋषि आश्रमों में लोग चले जाते थे और आत्मशोधन तथा लोकसेवा का अनुभव-अभ्यास करने के उपरान्त शेष समस्त जीवन जनमानस के परिष्कार में लगाते थे।

अब उस परम्परा को जीवित रखने की तो आवश्यकता है, पर समय के अनुसार सरल बनाया जा सकता है। पुरोहित, साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ परम्परा का मिश्रित और सामयिक स्वरूप हो सकता है—‘‘व्रतधारी’’। इस प्रक्रिया को गृहस्थ में रहते हुए भी अपनाया जा सकता है। घरेलू काम-काजों में से समय निकाल कर विचार क्रान्ति की युग आवश्यकता को पूरा करने में निरत रहा जा सकता है। व्रतधारी प्रज्ञापुत्र का स्वरूप इतने में ही एक सीमा तक बन जाता है, जो पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो चुके हैं, उन्हें नित्य कर्म के उपरान्त बचा हुआ समय युग धर्म के निर्वाह में ही लगाना चाहिए। रहना, भोजन, वस्त्र आदि की सुविधा घर से प्राप्त करनी संभव हो, तो उसे अपनाया जाय और समयदान अंशदान के रूप में अपना समय और साधनों का एक अंश निरन्तर लगाते रहने का निश्चय किया जाय। उस निश्चय को निष्ठापूर्वक निबाहा भी जाय।

निजी जीवन में वानप्रस्थों को तपश्चर्या का स्तर अपनाना पड़ता था। अब उतना न बन पड़े तो आहार-विहार में यथासंभव सात्विकता का तो अभिवर्धन किया जाय। उपासना में तन्मयता बढ़ाई जाय और उसके साथ साधना-आराधना के तत्वों को संजोया जाय। यह प्रक्रिया अपने विवेक से या शांतिकुंज के परामर्श से निश्चय की जा सकती है। व्रतधारी बनने के उपरान्त बच्चे उत्पन्न करने के कार्य को तो पूरी तरह बंद ही कर दिया जाय।

मुख्य कार्य है—जन सम्पर्क और उस माध्यम से लोकमानस का परिष्कार। इसके लिए योग्यता और आवश्यकता के अनुरूप मिशन द्वारा जो अनेकानेक कार्यक्रम आरंभ किए गए हैं, उनमें से कुछ को चुना जा सकता है। मनःस्थिति, परिस्थिति और स्थानीय आवश्यकता को देखते हुए अपने समयदान का क्रम तथा स्वरूप निर्धारित किया जा सकता है। समयदान के साथ-साथ न्यूनतम दस पैसा जितना अंशदान तो निर्धारित रहना ही चाहिए। व्रतधारी के लिए आवश्यक नहीं कि आधी आयु पूरी होने के उपरान्त ही वह कदम उठाया जाय। उपार्जन तथा पारिवारिक उत्तरदायित्वों को निबाहते हुए भी यह प्रयत्न करना चाहिए कि आत्मकल्याण और लोकमंगल के लिए अपना अधिकाधिक समय नियोजित किया जा सके। अपनी आजीविका में से जितना अंश उस कार्य के लिए निकाला जा सके, निकाला जाय।

प्राचीनकाल में पुरोहित वर्ग कोई निजी उपार्जन नहीं करता था। पूरा समय लोकमंगल के लिए नियोजित रखता था। इसलिए उनके पास कोई निजी पूंजी न होने से जन सहयोग पर ही अवलम्बित रहना पड़ता था। तब उनको आर्थिक अंशदान का प्रतिबन्ध नहीं था। समय दान से ही काम चल जाता था, पर अब जब कि ‘व्रतधारी’ कुछ कमाते भी हैं, कुछ संचय भी है और परिवार के अन्य सदस्य भी कमाऊ हैं, तो फिर मात्र समय दान ही पर्याप्त नहीं, अंशदान भी निकाला जाता रहना चाहिए;क्योंकि सभी सेवा कार्यों में श्रम के अतिरिक्त साधन लगाने की भी आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए दूसरों से तो मांगते रहा जाय, पर स्वयं कुछ भी उदारता न दिखाई जाय, तो फिर अन्यान्यों को भी कुछ देने के लिए कैसे कहा जा सकेगा? अनुकरण के बिना प्रेरणा कैसे मिलेगी? साधनों के अभाव में सेवा कार्य लुंज-पुंज ही बने रहेंगे। इसलिए आज के पुरोहितों को ‘व्रतधारी’ का सरल स्वरूप अपनाते हुए अपने समय और श्रम का अधिकाधिक अंश नवसृजन के लिए योगदान के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।

जो नौकरी से रिटायर हो चुके हैं, पेंशन पाते हैं, उन्हें समझना चाहिए कि जो सुविधा उन्हें मिली हुई है, वह निठल्ले पड़े रहने, मटरगश्ती करने और हराम में दिन काटने के लिए नहीं है। यह अवसर पूरी तरह युगधर्म के निर्वाह के लिए हो। इसी में से एक छोटा-सा अंश पूजा-पाठ के लिए भी रखा जा सकता है। मात्र पूजा के नाम पर समय बिताते रहना और लोक ऋण चुकाने में कुछ न करना सर्वथा अधूरा निश्चय है। सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में नियोजित किया गया अंशदान भी किसी उच्चस्तरीय उपासना से कम नहीं है।

जिनके बच्चे-कच्चे नहीं हैं, वे भी बड़े सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें निजी जंजाल में अधिक न उलझने की छूट मिल गई। जिनके पास पूर्वजों की कमाई तथा अपनी बचत के रूप में कुछ है, वे भी उसके सहारे निर्वाह चलाते हुए शेष समय ‘व्रतधारी’ की तरह बिता सकते हैं।

मनुष्य जीवन की अनेक आवश्यकतायें हैं, उन्हें पूरा करने में सहायक व्यक्ति और साधन आदान-प्रदान के आधार पर सर्वत्र मिलते रहते हैं, पर इन दिनों जिसका लगभग सर्वथा अभाव है, वह है—ऊपर उठाने वाली प्रेरणा दे सकने में समर्थ परिपक्व व्यक्तित्व। यह कार्य मात्र प्रवचन, परामर्श के सहारे बन नहीं पड़ता। इसके लिए उनकी आवश्यकता है, जिनने अपनी कथनी और करनी को एक करके उस स्तर की ऊर्जा अपने में उत्पन्न करली हो, जो अपने सदृश सम्पर्क में आने वालों को भी ढाल सकने में समर्थ हों। पुरोहितों को ऐसा ही बनना पड़ता था। तभी पृथ्वी के देवता-भूसुर कहलाते थे; अपने भावनात्मक अनुदानों से जन समुदाय को मानवी गरिमा के अनुरूप ढालते और वातावरण को शालीनता सम्पन्न बनाते थे। साधु-ब्राह्मणों का यह एक ही सुनिश्चित लक्ष्य रहा है। उनने लोक मानस को परिष्कृत बनाने, प्रतिभाओं को प्रखरता सम्पन्न बनाने में अपने समूचे जीवन को समर्पित किया और उसके फलस्वरूप सतयुगी वातावरण बनाने का श्रेय प्राप्त किया। संसार की यही सबसे बड़ी सेवा है। यह जितने अनुपात में बन पड़ती है, उसी के अनुरूप सुख, शांति और प्रगति का आधान बनता और सरंजाम जुटता है।

आज अपनी स्थिति के अनुरूप इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्रत्येक भावनाशील को प्रयत्न करना चाहिए। परम्परागत रूप से कोई ब्राह्मण वंश में भले ही न जन्मा हो, परिधान किसी ने भले ही साधुओं जैसा न पहना हो, पर लक्ष्य निर्धारण की दृष्टि से यदि कोई उन्हीं प्रयासों के लिए अपने बढ़े-चढ़े अनुदान प्रस्तुत करता हो, तो अपने समय में उसे सच्चे अर्थों में पुरोहित ही कहा जायगा। वर्तमान निर्धारण के अनुसार उसे ‘‘व्रतधारी’’ नाम से संबोधित किया जायगा।

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