
प्रवासी भारतीय इतना तो करें
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संस्कृतियों के पक्षधर अनेक देशों में बसकर अपने राष्ट्रीय संविधान एवं नागरिक कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करते हैं। इतने पर भी उन विभिन्न देशवासियों को अपनी आध्यात्मिक मान्यता एवं सांस्कृतिक एकता का क्षेत्र व्यापक बनाये रहने में कोई कठिनाई नहीं होती। ईसाई धर्म रोम में उगा और इस्लाम अरब में पनपा। फिर भी उनके अनुयायी अनेक देशों में बसे और वहां के वफादार नागरिक रहते हुये भी अपनी भावनाओं को व्यापक बनाये हुए हैं। उसे देश या जाति या व्यवसाय के छोटे बंधनों में कैद नहीं होने देते। जब भी अवसर मिलता है, मक्का, यरूशलेम आदि जा पहुंचते हैं। बौद्ध देशों के निवासी अपनी गुरुभूमि भारत माता के दर्शन करने निरन्तर आते रहते हैं। भावनात्मक एकता का दायरा असीम है। इस आधार पर बनी आत्मीयता तब तक स्थायी रहेगी जब तक कि मनुष्य श्रद्धा तत्व को सर्वथा तिलांजलि न दे दे।
राष्ट्रीयता की दृष्टि से भारत भूमि के लोग अनेक देशों में बसे होने के कारण स्वभावतः वहां के वफादार नागरिक रहेंगे और कानून व्यवस्था के अनुबंधों का सचाई के साथ पालन करेंगे। इतने पर भी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक एकता का तथ्य अपने स्थान पर यथावत बना रहता है। उस पर किसी भौतिक रेखा विभाजन का कोई असर नहीं पड़ना चाहिये।
कई भाई बड़े होने पर आजीविका उपार्जन के लिये सुदूर क्षेत्रों में जा पहुंचते या जा बसते हैं। फिर भी उनकी कौटुम्बिकता, भावनात्मक एकता यथावत बनी रहती है। बहुत दिनों तक मिलना जुलना न बन पड़ने पर भी जब कभी घर परिवार की बात आती है तो दूरवर्ती होने पर भी सब भाई एक सूत्र में बंधे होने की अनुभूति करते हैं और समय-समय पर उससे प्रेरित होकर ऐसे कदम भी उठाते हैं मानो वे मीलों की दूरी आ पड़ने पर भी एक दूसरे से पृथक नहीं हो पाये। इन भाइयों में से किसी की मृत्यु हो जाये और उनके पीछे विधवा तथा अनाथ बालकों के परिपोषण का प्रश्न आ पड़े तो दूरवर्ती होते हुये भी वैसी ही सहानुभूति दर्शाई जाती है मानो वे अभी भी उसी पुरातन घर-परिवार के सदस्य बने हुये हों जिसमें कि जन्मे और खेले थे। उन कुटुम्बियों के बीच रंज खुशी में ही नहीं अन्य प्रकार से भी वे एक दूसरे को सहारा देने की बात सोचते रहते हैं। वैसा कुछ बन न पड़े तो भी गहरी सहानुभूति तो रहती ही है।
राम-लक्ष्मण के वनवास भुगतने पर भरत और शत्रुघ्न प्रायः उसी स्तर का तपस्वी जीवन जीते रहे। इसका कारण वह सघन संवेदना ही थी जो शरीरों के दूर रहने पर भी आत्मीयता के आधार पर बनी निकटता में किसी प्रकार के व्यतिरेक उत्पन्न न कर सकी।
भारतीय मूल के व्यक्ति किसी भी देश में जा बसें, अपनी सांस्कृतिक एकता एवं आत्मीयता के बंधनों से मुक्त नहीं हो सकते। ये ऐसे सुदृढ़ हैं कि उन्हें मीलों की दूरी तो महत्व ही क्या रखती है, जन्म जन्मान्तरों के साथ बदलती हुई स्मृति भी तोड़ सकने में समर्थ नहीं हो सकती।
राष्ट्रीयता की दृष्टि से भारत भूमि के लोग अनेक देशों में बसे होने के कारण स्वभावतः वहां के वफादार नागरिक रहेंगे और कानून व्यवस्था के अनुबंधों का सचाई के साथ पालन करेंगे। इतने पर भी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक एकता का तथ्य अपने स्थान पर यथावत बना रहता है। उस पर किसी भौतिक रेखा विभाजन का कोई असर नहीं पड़ना चाहिये।
कई भाई बड़े होने पर आजीविका उपार्जन के लिये सुदूर क्षेत्रों में जा पहुंचते या जा बसते हैं। फिर भी उनकी कौटुम्बिकता, भावनात्मक एकता यथावत बनी रहती है। बहुत दिनों तक मिलना जुलना न बन पड़ने पर भी जब कभी घर परिवार की बात आती है तो दूरवर्ती होने पर भी सब भाई एक सूत्र में बंधे होने की अनुभूति करते हैं और समय-समय पर उससे प्रेरित होकर ऐसे कदम भी उठाते हैं मानो वे मीलों की दूरी आ पड़ने पर भी एक दूसरे से पृथक नहीं हो पाये। इन भाइयों में से किसी की मृत्यु हो जाये और उनके पीछे विधवा तथा अनाथ बालकों के परिपोषण का प्रश्न आ पड़े तो दूरवर्ती होते हुये भी वैसी ही सहानुभूति दर्शाई जाती है मानो वे अभी भी उसी पुरातन घर-परिवार के सदस्य बने हुये हों जिसमें कि जन्मे और खेले थे। उन कुटुम्बियों के बीच रंज खुशी में ही नहीं अन्य प्रकार से भी वे एक दूसरे को सहारा देने की बात सोचते रहते हैं। वैसा कुछ बन न पड़े तो भी गहरी सहानुभूति तो रहती ही है।
राम-लक्ष्मण के वनवास भुगतने पर भरत और शत्रुघ्न प्रायः उसी स्तर का तपस्वी जीवन जीते रहे। इसका कारण वह सघन संवेदना ही थी जो शरीरों के दूर रहने पर भी आत्मीयता के आधार पर बनी निकटता में किसी प्रकार के व्यतिरेक उत्पन्न न कर सकी।
भारतीय मूल के व्यक्ति किसी भी देश में जा बसें, अपनी सांस्कृतिक एकता एवं आत्मीयता के बंधनों से मुक्त नहीं हो सकते। ये ऐसे सुदृढ़ हैं कि उन्हें मीलों की दूरी तो महत्व ही क्या रखती है, जन्म जन्मान्तरों के साथ बदलती हुई स्मृति भी तोड़ सकने में समर्थ नहीं हो सकती।