
विराट ब्रह्माण्ड एक सूत्र में आबद्ध
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
दृश्य और अदृश्य, ज्ञात और अज्ञात संसार की अनेक विशेषतायें, इस सृष्टि के ईश्वर की नियामक सत्ता के अधीन होना ही प्रमाणित नहीं करती, वरन् यह भी सिद्ध करती हैं कि समग्र ब्रह्माण्ड एक सूत्र में आबद्ध है। ब्रह्माण्ड परिवार के सदस्य एक-दूसरे से प्रभाव ग्रहण करते हैं और उस आधार पर अपनी गतिविधियों को निर्धारित करने के लिये बाध्य होते हैं।
प्रकृति की अनेक शक्तियां हमें प्रभावित करती हैं। कई बार तो उनका उपयोगी-अनुपयोगी प्रभाव-दबाव अत्यधिक होता है, तो भी मानवी चेतना की विशेषता यह है कि वह अनुपयोगी प्रभाव से अपने को बचाने में कोई न कोई मार्ग ढूंढ़ निकालती है। उपयोगी प्रभावों से अधिक लाभान्वित होने का उपाय भी उसे मिल ही जाता है। सर्दी-गर्मी, आंधी-तूफान, अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदि के उल्टे-सीधे झंझावात अपने ढंग से चलते रहते हैं। दूसरे प्राणी अपनी शारीरिक विशेषताओं के कारण तथा अत्यधिक प्रजनन शक्ति के कारण अपना अस्तित्व बचाये रहते हैं। मनुष्य इन दोनों ही दृष्टियों से पीछे हैं फिर भी प्रकृति के आघात सह सकने की व्यवस्था बना लेता है, यह उसका बुद्धि वैभव ही है।
सूर्य को ही लें, उसका अनुदान पृथ्वी पर—प्राणियों पर अनवरत रूप से बरसता है, पर यदाकदा उसकी ऐसी स्थिति भी होती है जो पृथ्वी पर अपना अनुपयोगी प्रभाव डाले। उन दबावों को रोक न सकने पर भी पूर्व जानकारी के आधार पर बचाव के उपाय ढूंढ़ लिये जाते हैं। सतर्कता बरतना अपने आप में एक बड़ा उपाय है, जिससे अनायास ही बहुत कुछ बचाव हो जाता है। इसी प्रकार उसके उपयोगी सम्पर्क को बढ़ाकर वे लाभ पाये जा सकते हैं जो अनजान स्थिति में पड़े रहने पर मिल सकने सम्भव नहीं हैं। साधारणतया सूर्य आग का एक ऐसा गोला है जिसके किसी प्रभाव को रोकना अपने लिए कठिन ही हो सकता है फिर भी अनावश्यक ताप से बचने के लिए छाया के कितने ही उपाय किये जाते हैं। सूर्य की अपनी महत्ता है और अपनी उपयोगिता। पर उससे भी अधिक प्रशंसा मानवी बुद्धि की है जो इतने समर्थ शक्ति पुंज से उपयोगी प्रभाव ग्रहण करने और अनुपयोगी से बच निकलने का रास्ता खोज लेती है।
सूर्य को उदय होते देखकर ऋषि गाता है—‘प्रायः प्रजानां उदयति एष सूर्यः’। यह प्रजाजनों का प्राण—सूर्य उदय हो रहा है। सन्ध्या वन्दन की सूर्योपस्थान क्रिया को करते हुए गायत्री मन्त्र बोला जाता है और उसके माध्यम से मांगा जाता है कि सविता देव हमारी विवेक बुद्धि को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करें। यह अध्यात्म मान्यता है जिसके अनुसार सूर्य को प्राण पुंज और बुद्धि चेतना को प्रेरणा दे सकने योग्य माना गया है।
भौतिक विज्ञान प्रत्यक्षवाद पर निर्भर रहा है। ‘प्रत्यक्ष’ की उसकी परिभाषा पिछले दिनों बहुत उथली और भोंथरी थी। अब धीरे-धीरे वह पैनी और गहरी होती जा रही है। पिछले दिनों भौतिक विज्ञानियों की दृष्टि में वह मात्र आग का गोला था, गर्मी, रोशनी भर देता था। पदार्थ की दृष्टि से सूर्य की इतनी ही व्याख्या पर्याप्त प्रतीत हुई थी, पर अब बात आगे बढ़ गई है और विचार अधिक गहराई तक होने लगा है। पिछले दिनों विज्ञान के लिये ‘पदार्थ’ ही सब कुछ था। भावना और अध्यात्म के सम्बन्ध में उपेक्षा और उदासीनता थी। अधिक से अधिक शरीर के एक अवयव मस्तिष्क की हरकतों को मनःशास्त्र के नाम से एक विशेष स्थान दिया जा सका था। श्वास-प्रवाह, रक्त संचार, स्नायु संचालन की तरह ही मस्तिष्क को भी सोचने वाला यन्त्र मान लिया गया था और उसकी हलचलों को मन, बुद्धि, चित्त आदि की संज्ञा दे दी गई थी। इतना ‘पदार्थ’ क्षेत्र में आता है इसलिए उतना ही ‘पर्याप्त’ माना गया। चेतना की गहराई को देखने, समझने की दिशा में बहुत समय तक कोई कहने लायक दिलचस्पी नहीं ली गई। तद्नुसार सूर्य का भी चेतना से कुछ सम्बन्ध हो सकता है, इस पर विचार नहीं किया गया। पर अब उस सन्दर्भ में गहराई तक जाने और गम्भीर विचार करने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।
सूर्य को अब जीवन का केन्द्र माना जा रहा है। वनस्पतियां उसी से जीवन ग्रहण करती हैं और प्राणियों को भी अपनी प्राण शक्ति के लिये बहुत करके सूर्य पर ही निर्भर रहना पड़ता है। विज्ञान स्वीकार करता है कि सूर्य और पृथ्वी के बीच जो दूरी है वह जीवन की उत्पत्ति एवं स्थिरता के लिए आदर्श है। यदि दूरी कुछ घट जाय या बढ़ जाय तो फिर या तो अपना भूलोक आग्नेय हो उठेगा या हिमाच्छादित बन जायगा तब प्राणियों या वनस्पतियों की उपस्थिति यहां सम्भव न हो सकेगी।
सूर्य में जो काले धब्बे हैं, वे उसमें समय समय पर पड़ते रहने वाले खड्ड हैं। ये कभी गहरे हो जाते हैं, कभी उथले बन जाते हैं, तब वे कम या अधिक दिखाई पड़ते हैं। पहले उन धब्बों से अपना कुछ बनता-बिगड़ता नहीं यह माना जाता था पर ऐसा नहीं समझा जाता है। वैज्ञानिक उन्हें बहुत बारीकी से देखते हैं और इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इनका क्या प्रभाव—परिणाम अपनी पृथ्वी पर पड़ेगा?
जब काले धब्बे बढ़ते हैं तो सूर्य से प्रकाश एवं गर्मी की ही नहीं दूसरे उन उपयोगी तत्वों की भी कमी पड़ जाती है जो प्राणियों के लिए विचित्र प्रकार से स्वास्थ्य संरक्षक होते हैं। जिस साल सूर्य के धब्बे बढ़ते हैं उस साल अनाज की, फलों की पैदावार कम होती है। पौधे अभीष्ट गति से नहीं पनपते। दाने पतले होते हैं और उनमें पोषक तत्व अपेक्षाकृत कम पाये जाते हैं। खाद और पानी का समुचित प्रबन्ध रहने पर भी इस कमी का कारण जब सूर्य के धब्बों में खोजा जाता है तो यह निष्कर्ष भी निकलता है कि उसमें ‘जीवनी शक्ति’ भी भरी पड़ी है जो पृथ्वी को—उस पर रहने वाले प्राणधारियों को मिलती है। इस प्रकार सूर्य मात्र गर्मी देने वाली अंगीठी और रोशनी देने वाली लैंप के स्तर का न रहकर प्राणवान्—प्राणदाता भी बन जाता है और वैदिक ऋषि की वह आस्था सही मालूम पड़ती है जिसमें उसने उदीयमान सूर्य का अभिवन्दन करते हुए उसे प्राण का उद्गम कहा था।
बात बहुत आगे बढ़ गई है। सूर्य की स्थिति का प्राणियों के शरीरों और मनःसंस्थानों पर क्या प्रभाव पड़ता है? यह एक अति महत्वपूर्ण शोध विषय बन गया है। जन्मकाल को ही लें। रात्रि और दिन में जन्म लेने वालों—गर्मियों और सर्दियों में जन्म लेने वालों की प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। जहां सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं उन शीत प्रधान और जहां सीधी पड़ती हैं उन उष्णता प्रधान क्षेत्रों के लोगों की जीवनी शक्ति एवं प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। अपने ही देश के बंगाली, पंजाबी, मद्रासी, गुजराती यों सभी भाई-भाई हैं, पर उनकी शारीरिक, मानसिक स्थिति में कितनी ही सूक्ष्म विशेषताएं पाई जाती हैं। इसका कारण उन क्षेत्रों के वातावरण को समझा जा सकता है और वातावरण की भिन्नता में पृथ्वी के विभिन्न स्थानों के साथ होने वाला सूर्य संयोग की मुख्य आधार है। अफ्रीका के नीग्रो, इंग्लैण्ड के गोरे, उत्तरी ध्रुव के एस्किमो, चीन के मंगोलियन अपनी अपनी आकृति-प्रकृति की भिन्नतायें रखते हैं, यों सभी एक मानव परिवार के सदस्य हैं। यह क्षेत्रीय विशेषतायें या भिन्नतायें जिस आधार पर उत्पन्न होती हैं उनमें सूर्य सम्पर्क को प्रमुखता देनी पड़ेगी।
मनुष्य अपने को एकाकी अनुभव करके स्वार्थान्ध रहने की भूल ही करता रहे, पर वस्तुतः इस विराट् ब्रह्म का—विशाल विश्व का-एक अकिंचन सा घटक मात्र है। समुद्र की लहरों की तरह उसका अस्तित्व अलग से दीखता भले ही हो, पर वस्तुतः वह समष्टि सत्ता का एक तुच्छ सा परमाणु भर है। ऐसा परमाणु जिसे अपनी सत्ता और हलचल बनाये रहने के लिए दूसरी महाशक्तियों के अनुदान पर निर्भर रहना पड़ता है।
अपनी पृथ्वी सूर्य से बहुत दूर है और उसका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध दिखाई नहीं पड़ता फिर भी वह पूरी तरह सूर्य पर आश्रित है। सर्दी, गर्मी, वर्षा, दिन, रात्रि जैसी घटनाओं से लेकर प्राणियों में पाया जाने वाला उत्साह और अवसाद भी सूर्य सम्पर्क से सम्बन्धित रहता है। वनस्पतियों का उत्पादन और प्राणियों की हलचल में जो जीवन तत्व काम करता है उसे भौतिक परीक्षण से नापा जाय तो उसे सूर्य का ही अनुदान कहा जायगा। असंख्य जीव कोशाओं से मिलकर एक शरीर बनता है, उन सबके समन्वित एवं सहयोग भरे प्रयास से जीवन की गाड़ी चलती है। प्राण तत्व से इन सभी कोशाओं को अपनी स्थिति बनाये रहने की सामर्थ्य मिलती है। इसी प्रकार इस संसार के समस्त जड़ चेतन घटकों को सूर्य से अभीष्ट विकास के लिए आवश्यक अनुदान सन्तुलित और समुचित मात्रा में मिलता है।
यह सूर्य भी अपने अस्तित्व के लिए महासूर्य के अनुग्रह पर आश्रित है और महा सूर्यों को भी अतिसूर्य का कृपाकांक्षी रहना पड़ता है जो ज्ञान एवं शक्ति का केन्द्र है वह ब्रह्म है, सविता है। अति सूर्य, महासूर्य और सूर्य सब उसी पर आश्रित हैं।
प्राणियों, वनस्पतियों और पदार्थों की गतिविधियों पर सूर्य के प्रभाव का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उसकी स्वावलम्बी हलचलें वस्तुतः परावलम्बी हैं। सूर्य की उंगलियों में बंधे हुए धागे ही बाजीगर द्वारा कठपुतली नचाने की तरह विभिन्न गतिविधियों की चित्र-विचित्र भूमिकाएं प्रस्तुत करते हैं। यहां तक कि प्राणियों का, मनुष्यों का चिन्तन और चरित्र तक इस शक्ति प्रवाह पर आश्रित रहता है। न केवल सूर्य वरन् न्यूनाधिक मात्रा में सौरमण्डल के ग्रह उपग्रह तथा ब्रह्माण्ड क्षेत्र के सूर्य तारक भी हमारी सता-स्थिरता एवं प्रगति को प्रभावित करते हैं।
विज्ञानी माइकेलसन के अनुसार अमावस्या, पूर्णिमा को पृथ्वी पर पड़ने वाले सूर्य-चन्द्र के प्रभावों से प्रभावित होकर न केवल समुद्र में ज्वार भाटे आते हैं वरन् पृथ्वी भी प्रायः नौ इंच फूलती-धंसती है। संसार में विभिन्न समयों पर आये बड़े भूकम्पों का इतिहास यह बताता है कि प्रायः अमावस्या, पूर्णिमा के इर्द-गिर्द ही वे आते रहे हैं। डॉक्टर बुड़ाई के अनुसार इन्हीं तिथियों में मृगी, उन्माद और कामुक दुर्घटनाओं का दौर आता है। वे कहते हैं सूर्य, चन्द्र की स्थिति का न केवल मौसम पर वरन् मनुष्य शरीर में महत्वपूर्ण काम करने पिट्यूटरी थाइराइड एड्रीनल आदि हारमोन स्रावी ग्रन्थियों पर भी प्रभाव पड़ता है और वे उत्तेजित होकर शरीर एवं मन की स्थिति में असाधारण प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करती हैं। दुर्घटना और अपराधी का दौर इन्हीं दिनों कहीं अधिक बढ़ जाता है।
ब्रिटेन के वैज्ञानिक आरनाल्ड मेयर और कौलिस्को के पर्यवेक्षणों ने यह सिद्ध किया है कि चन्द्रमा की स्थिति मनुष्यों को, प्राणधारियों को और वनस्पतियों को प्रभावित करती हैं। स्वीडन के वैज्ञानिक सेवेन्ट एहैनियस ने प्रायः दस हजार प्रमाण एकत्रित करके यह सिद्ध किया है कि समुद्र, मौसम, तापमान, विद्युत स्थिति जैसे प्राकृतिक क्षेत्र पर ही नहीं मनुष्य शरीर एवं मन पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। स्त्रियों के मासिक धर्म पर चन्द्रमा की स्थिति का असंदिग्ध प्रभाव पड़ता है। सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण को खुली आंखों से देखने की हानि सर्व विदित हैं। कारण यह है कि इन घड़ियों में उनका संतुलित क्रिया कलाप लड़खड़ा जाने से ऐसा ही निवारक प्रभाव उत्पन्न होता है जो आंख जैसे कोमल अंगों को विशेष रूप से क्षति ग्रस्त बना दे।
अमेरिकी खगोल वेत्ता जान हेलरी नेल्सन का कथन है कि न केवल सूर्य, चन्द्र का वरन् सौर मण्डल के अन्य ग्रहों का भी पृथ्वी पर प्रभाव पड़ता है और उस आधार पर मौसमी उथल-पुथल एवं प्राणियों की शारीरिक मानसिक स्थिति में उतार-चढ़ाव आते हैं। धूमकेतु जब उदय होते हैं तब भी पृथ्वी पर पड़ने वाला अन्तरिक्षीय प्रभाव अवरुद्ध होता है और उसके परिणाम स्वरूप प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने से तरह-तरह के उपद्रव खड़े होते हैं। शरीरगत रुग्णता और मानसिक आवेशग्रस्तता उन दिनों अधिक बढ़ी-चढ़ी देखी जा सकती है। यह इस बात का प्रतीक है कि विराट् ब्रह्माण्ड परमात्मा का ही विराट् शरीर है।
मनुष्य शरीर में किसी भी भाग पर आघात या चोट पहुंचती है तो उससे देह का रोम-रोम कांप उठता है। पांव की अंगुली में चोट लगे तो मस्तिष्क भी उद्विग्न हो उठता है, हाथ भी काम करने से इन्कार कर देते हैं—कहने का अर्थ यह है कि शरीर का अंग-अंग प्रभावित होता है। शरीर की चेतनता का वह एक चिन्ह है। दृश्य और अदृश्य प्रकृति—समूचा ब्रह्माण्ड भी इसी प्रकार एक चेतन पिण्ड है, जिसमें किसी भी छोर पर कुछ घटित होता है तो अन्यान्य स्थानों पर भी उसका प्रभाव परिलक्षित होता है। वैज्ञानिक खोजों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सका है कि जिसे हम जड़ समझते हैं वह वस्तुतः जड़ है नहीं, चेतना उसमें भी विद्यमान है और संसार में घटने वाले घटनाक्रमों से लेकर प्राकृतिक हलचलों का भी उस पर प्रभाव पड़ता है।
ब्रह्माण्ड एक शरीर
विज्ञान जिन निष्कर्षों पर पहुंच रहा है, भारतीय तत्वमनीषी उस पर हजारों वर्ष पूर्व पहुंच चुके हैं। जड़ और चैतन्य का भेद वस्तुतः हमारी स्थूल दृष्टि के कारण ही है। वस्तुतः जड़ता कहीं भी नहीं है—सबमें आत्म-चेतना विद्यमान है। यह प्रतीति इसलिए होती है कि वह चेतना व्यक्त अलग-अलग प्रकारों से होती है। इसी आधार पर ऋषि विश्वात्मा तक पहुंच सके।
भारत में इस तत्व दर्शन को प्रतिपादित करने के लिए जो वैज्ञानिक प्रयत्न चले उन्हें ज्योतिर्विज्ञान का नाम दिया गया। यह बात अलग है कि इस विशुद्ध विज्ञान का—जिसका उद्देश्य आकाशीय स्थिति और ग्रह-नक्षत्रों का मौसम विज्ञान और प्राणियों पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन था—सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ है। ज्योतिर्विज्ञान की एक मान्यता है कि सूर्य, मात्र अग्नि का धधकता पिण्ड ही नहीं एक जीवन्त और सक्रिय अग्नि पुंज है। वेदों में तो सूर्य को सर्व समर्थ देवता मानकर उसकी कई ऋचायें लिखी गई हैं। गायत्री मन्त्र में भी सूर्य को सविता का—परमात्मा का प्रतीक माना गया है। लेकिन विज्ञान मानता आ रहा था कि सूर्य केवल आग का एक जलता हुआ गोला भर है। रूस के एक वैज्ञानिक चीजेवस्की भी अपनी वैज्ञानिक शोधों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूर्य एक जीवित अग्नि पिण्ड है। यही नहीं 1920 में उन्होंने यह भी सिद्ध किया—‘सूर्य पर प्रति ग्यारहवें वर्ष एक आणविक विस्फोट होता है और जब भी यह विस्फोट होता है तो पृथ्वी पर युद्ध और क्रान्तियां जन्म लेती है।’ इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने तेरहवीं शताब्दी से तब तक की महत्वपूर्ण राज्य क्रान्तियों और ऐतिहासिक युद्धों का विवरण एकत्रित किया व प्रमाणिक कर दिखाया।
यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य पृथ्वी के जीवन का केन्द्र है। प्रतिपल सूर्य से ही पृथ्वी के जीवों को प्रकाश और प्राण मिलते हैं। चीजेबक्सी का कहना था कि पृथ्वी पर घटित होने वाले किसी बड़े परिवर्तन का सूर्य से सम्बन्ध होता है।
इन्हीं आधारों पर सन् 1950 में विज्ञान की एक नयी शाखा खुली। जियोजारजी गिआरडी नामक वैज्ञानिक इसके जनक हैं गिआरडी का कहना है कि समूचा ब्रह्माण्ड एक शरीर है और इसका कोई भी अंग अलग नहीं, वरन् संयुक्त रूप से एकात्म है। इसलिए कोई भी तारा कितनी ही दूर क्यों न हो पृथ्वी के जीवन को प्रभावित करता है और प्राणियों की हृदयगति बदल जाती है।
ग्यारह वर्षों में हर बार सूर्य पर आणविक विस्फोट की धारणा को प्रतिपोषित करते हुए जापान के प्रख्यात जैविकी शास्त्री तोनातो इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि जब भी ये विस्फोट होता है, पृथ्वी पर पुरुषों के रक्त में जल तत्व बढ़ जाते हैं और पुरुषों का खून पतला पड़ जाता है।
सूर्य ग्रहण के समय प्रकृति पर पड़ने वाले प्रभाव तो आसानी से देखे व समझे जा सकते हैं। जब सूर्य का ग्रहण होता है चौबीस घण्टे पूर्व से ही कुछ पक्षी चह-चहाना बन्द कर देते हैं, बन्दर वृक्षों को छोड़कर चुपचाप जमीन पर आकर बैठ जाते हैं। सदा चंचल रहने वाला बन्दर उस समय इतना शान्त हो जाता है कि लगता है उस जैसा शान्त और सीधा प्राणी कोई है ही नहीं। बहुत से जंगली जानवर भयभीत से दीखने लगते हैं।
अमेरिका के ‘रिसर्च सेण्टर आफ ट्री रिंग’ ने यह पता लगाया कि वृक्षों के तनों में प्रति वर्ष पड़ने वाला एक वृत्त हर ग्यारहवें वर्ष सामान्य वृत्तों की अपेक्षा बड़ा होता है। स्मरणीय है वनस्पति विज्ञान में वृक्षों के जीवन का अध्ययन करने के लिए वृक्ष के तनों में बनने वाले वर्तुलों का अध्ययन किया जाता है। यह एक तथ्य है कि वृक्ष में प्रतिवर्ष एक वृत बनता है, जो उसके द्वारा छोड़ी गयी छाल से निर्मित होता है। रिसर्च सेण्टर आफ ट्री रिंग के प्रो. डगलस ने इस दिशा में खोज करते हुए यह भी पता लगाया कि ग्यारहवें वर्ष जब सूर्य पर आणविक विस्फोट होते हैं तब वृक्ष का तना मोटा हो जाता है और उसी कारण बड़ा वृत्त बनता है।
कहने का अर्थ यह कि सूर्य पर होने वाले परिवर्तनों से मनुष्य और पशु-पक्षी ही नहीं पेड़-पौधे भी प्रभावित होते हैं। यही नहीं जड़ कहे जाने वाले नदी, नाले भी प्रभावित होते हैं, उनका भी पानी घटता-बढ़ता है—बिना वर्षा और बिना गर्मी के ही सूर्य ही नहीं चन्द्रमा का भी पृथ्वी के जीवन पर असाधारण रूप से प्रभाव पड़ता है। समुद्र में पूर्णिमा के दिन ही अक्सर तूफान और ज्वार आते हैं अपेक्षाकृत अन्य दिनों के। इसके विपरीत अमावस के दिन अन्य दिनों की तुलना में समुद्र शान्त रहता है। समुद्र तट पर रहने वाले और इस सम्बन्ध में थोड़ा बहुत जानने वाले लोग यह अच्छी तरह जानते हैं कि चन्द्रमा और पृथ्वी एक दूसरे के समीप हैं इसलिए चन्द्रमा जब अपनी सोलहों कलाओं के साथ उचित होता है तो पृथ्वी के समुद्र का पानी उफनता है परन्तु अब यह भी पता लगाया जा चुका है कि न केवल समुद्र ही वरन् मनुष्य भी प्रभावित होता है।
अमेरिका के पागल खानों में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार मानसिक रोगी पूर्णिमा के दिन अधिक विक्षिप्त हो जाते हैं। साधारण और कमजोर मनोभूमि के व्यक्त को भी इस दिन पागलपन के दौरे पड़ने लगते हैं और अमावस के दिन धरती पर लोग सबसे कम पागल होते हैं। न केवल पूर्णिमा और अमावस के दिन वरन् चांद के बढ़ने घटने के साथ भी मनुष्यों में पागलपन बढ़ता-घटता है। विक्षिप्त मनुष्यों के साथ-साथ सामान्य स्वस्थ व्यक्तियों की चित्त दशा पर भी इन उतार-चढ़ावों का प्रभाव पड़ता है। सम्भवतया इसी कारण भारतीय तत्वदर्शियों ने प्रत्येक पूर्णिमा पर धर्म-कर्म में व्यस्त रहने का निर्देश दिया है।
पृथ्वी सौरमण्डल का ही एक सदस्य है और चन्द्रमा उसका ही एक उपग्रह। वैज्ञानिक दृष्टि में पृथ्वी और चन्द्र की उत्पत्ति सूर्य से ही हुई है इसलिए इन तीनों के बीच एक अन्तर्सम्बन्ध बन सकता है। एक दूसरे पर इसका प्रभाव हो सकता है परन्तु यह स्थिति मात्र यहां तक ही सीमित नहीं है, प्रोफेसर ब्राउन के अनुसार अन्य ग्रहों से भी पृथ्वी का जीवन प्रभावित होता है। उन्होंने यह भी सिद्ध कर दिया कि पृथ्वी की संरचना और मानवीय काया की संरचना में एक अद्भुत साम्य है। पृथ्वी पर समुद्र में पानी और नमक का जितना अनुपात है वही अनुपात मनुष्य देह में भी है। यही नहीं पृथ्वी पर 65 प्रतिशत पानी है तो मनुष्य शरीर में भी इतना ही जलतत्व है।
प्रोफेसर ब्राउन ने मंगल, बृहस्पति, शुक्र और शनि आदि ग्रहों का अध्ययन कर यह सिद्ध किया कि उनकी गतियों और स्थितियों के परिवर्तनों का भी पृथ्वी पर प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिकों ने इस सबको समानुभूति का नाम दिया। पृथ्वी, चन्द्र, मंगल, बृहस्पति और शुक्रादि ग्रहों का उद्भव सूर्य से हुआ। ये सभी सूर्य की सन्तान हैं इसलिए इनकी जीवन व्यवस्था एक दूसरे से प्रभावित होती है। जुड़वा जन्म लेने वाले बच्चों के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त घटित होता है।
न केवल सौर मण्डल के सदस्यों में एक समानुभूति है वरन् दिखाई देने वाले और न दिखाई देने वाले तारा नक्षत्र भी पृथ्वी के जीवन पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। विभिन्न विषयों में किये गये प्रयोगों से अनायास ही जो निष्कर्ष सामने आये हैं उनसे वैज्ञानिकों का ध्यान अनायास ही ब्रह्माण्ड—रसायन की ओर आकृष्ट हुआ है। इस दिशा में जैसे-जैसे आगे बढ़ा जा रहा है यह स्पष्ट होता चल रहा है कि समूचा ब्रह्माण्ड एक चैतन्य शरीर है, जिसका हर स्पन्दन समूचे जीवन को प्रभावित करता है। जिस प्रकार कि शरीर के किसी भी हिस्से पर आघात हमारी समग्र चेतना को छूता और कष्ट या आनन्द पहुंचाता है।
एक ही धागे के मनके
सामान्य दृष्टि से ही ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्र अपना-अपना अलग अस्तित्व बनाये हुए अपनी कक्षाओं पर भ्रमण करते हुए अपना निर्धारित क्रिया-कलाप चला रहे हैं। किसी का किसी से कोई परस्पर सम्बन्ध नहीं है। यह बात मोटी समझ से ही सही हो सकती है। वास्तविकता कुछ और ही है। वस्तुतः यह सारे ग्रह-नक्षत्र एक ही सत्ता सूत्र में—धागों में मनकों की तरह पिरोये हुए हैं और यह ग्रह-नक्षत्र की माला एक ही दिशा में—एक ही नियन्त्रण में गतिशील हो रही है, इतना ही नहीं उनका परस्पर भी अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। सूर्य और चन्द्रमा के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव को हम प्रत्यक्ष देखते हैं। अमावस्या और पूर्णमासी को आने वाले ज्वार-भाटे—कृष्ण पक्ष में वनस्पतियों का कम और शुक्ल पक्ष में अधिक बढ़ना—चन्द्रमा के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव का ही परिणाम है। सूर्य के उदय होने पर गर्मी, रोशनी ही नहीं, सक्रियता भी बढ़ती है। हवा की चाल तेज हो जाती है, वनस्पतियों में हलचल शुरू हो जाती है और रात्रि की जो निद्रा सब को सताती थी वह अनायास ही समाप्त हो जाती है। शरीरों की रात्रि वाली शिथिलता प्रातःकाल होते ही क्रियाशीलता में बदल जाती है। ऐसे-ऐसे अनेक परिवर्तन सूर्य के निकलने से लेकर अस्त होने के बीच होते रहते हैं। परोक्ष परिवर्तनों का तो कहना ही क्या? उनकी श्रृंखला को देखते हुए वैज्ञानिक चकराने लगते हैं और सोचते हैं कि जो कुछ इस धरती पर हो रहा है वस्तुतः सूर्य की ही प्रतिक्रिया मात्र है।
यह सूर्य और चन्द्रमा के द्वारा पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव की बात हुई। आगे चलकर इसी प्रक्रिया को समस्त ग्रह-नक्षत्रों के बीच परस्पर पड़ने वाले प्रभावों के आदान-प्रदान के रूप में देखी, समझी जा सकती है। सूर्य की चमक चन्द्रमा पर घटने-बढ़ने से वह कितना अतिशय ठण्डा और कितना अतिशय गरम हो जाता है, उसकी नवीनतम जानकारियां चन्द्र शोधों ने स्पष्ट कर दी हैं। पृथ्वी पर चांदनी भेज सकना चन्द्रमा के लिए सूर्य के अनुदान से ही सम्भव होता है। अन्य ग्रह भी परस्पर ऐसे ही आदान-प्रदान की व्यवस्था बनाये हुए हैं। एक दूसरे पर अनेक स्तरों के आकर्षण-विकर्षण फेंकते और ग्रहण करते हैं। इसी आधार पर उनका वर्तमान स्तर और स्वरूप बना हुआ है। यदि इस प्रक्रिया में अन्तर उत्पन्न हो जाय तो ग्रहों की वर्तमान स्थिति में भारी अन्तर आ जायगा और उनका कलेवर मार्ग स्वरूप आदि में अप्रत्याशित परिवर्तन उत्पन्न हो जायेगा यह थोड़ा-सा भी अन्तर अपने सौर-मण्डल भी प्रभावित हो सकते हैं और उसका अन्त इतनी बड़ी प्रतिक्रिया के रूप में हो सकता है, जिससे सारा विश्व-ब्रह्माण्ड ही हिल जाय।
अपने सौर-मण्डल के ग्रहों और उपग्रहों का परस्पर क्या सम्बन्ध है और एक दूसरे को कितना प्रभावित करते हैं इसकी थोड़ी बहुत जानकारी खगोल वेत्ताओं को उपलब्ध हो चली है। वे इस अनन्त ब्रह्माण्ड में बिखरे हुए असंख्य सौर-मण्डलों के परस्पर पड़ने वाले प्रभाव को भी स्वीकार करते हैं और लगता है एक ही परिवार के सदस्य जैसे मिल जुलकर कुटुम्ब का एक ढांचा बनाये रहते हैं, उसी प्रकार समस्त ग्रह-नक्षत्र एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं और परस्पर बहुत कुछ लेने देने का क्रम चलाते हुए ब्रह्माण्ड की वर्तमान स्थिति बनाये हुए हैं। यह सब एक विश्व-व्यापी प्रेरक और नियामक सत्ता द्वारा ही सम्भव हो रहा है।
वस्तुतः इस संसार में ‘अकेला’ नाम कोई पदार्थ नहीं। यह सब कुछ संगठित और सुसम्बद्ध है। पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु भी—अपने गर्भ में कितने ही घटक संजोये हुए एक छोटे सौरमण्डल परिवार की तरह प्रगतिशील रह रहा है। इलेक्ट्रान आदि घटकों की भी परतें खुलती जा रही हैं और पता लग रहा है कि उनके गर्भ में भी और कितने ही समूह वर्ग विराजमान हैं। शरीर एक इकाई है। पर उसके भीतर जीवाणुओं की इतनी संख्या है जितनी इस समस्त संसार में जीवधारियों की भी मिली-जुली संख्या भी नहीं होगी। हर मनुष्य का व्यक्तित्व—असंख्य अन्यों के सहयोग एवं प्रभाव को लेकर विकसित हुआ है, उसमें अपना कम और दूसरों का अधिक है।
सृष्टि चक्र में सर्वत्र ‘अन्योन्याश्रय’ का सिद्धान्त काम कर रहा है। जड़ चेतन से विनिर्मित यह समूचा विश्व-ब्रह्माण्ड एकता के सुदृढ़ बन्धनों में बंधा हुआ है। एक से दूसरे का पोषण होता है और हर किसी को दूसरों का सहयोगी होकर रहना पड़ रहा है। यह पारस्परिक बन्धन ही सृष्टि के शोभा सौन्दर्य का, उसकी विभिन्न हलचलों का, उत्पादन विकास एवं परिवर्तन का उद्गम केन्द्र है।
पृथ्वी की आकर्षण शक्ति पदार्थ सम्पदा एवं प्राणि सम्पदा को शान्ति पूर्वक रहने और विकसित होने का अवसर दें रही है। अन्तर्ग्रही आकर्षण शक्ति से बंधे हुए ग्रह-नक्षत्र अपनी कक्षाओं और धुरियों पर परिभ्रमण कर रहे हैं। यह तो मोटी जानकारी हुई। वास्तविकता यह है कि ग्रहों के बीच इतना अधिक आदान-प्रदान चल रहा है, मानो विनिमय बाजार की धूम मच रही हो। उत्तरी ध्रुव में होकर अन्तर्ग्रही शक्तियां धरती पर अवतरित होती हैं। जितनी आवश्यक होती हैं उतनी पृथ्वी द्वारा पचा ली जाती हैं और अनावश्यक दक्षिणी ध्रुव के द्वारा अन्तरिक्ष में फेंक दी जाती हैं। उत्तरी ध्रुव पृथ्वी का मुख है तो दक्षिणी ध्रुव मलद्वार। यदि पृथ्वी को अन्तर्ग्रही अनुदानों का आहार न मिले तो उसे भूखे रहकर प्राण त्यागना पड़ेगा।
ध्रुव क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य कितने ही छिद्र भी ऐसे हैं जिनके माध्यम से ग्रहों के बीच आदान-प्रदान होता रहता है, इन्हें रोम-कूप अथवा स्वेद छिद्र कह सकते हैं। हम इन छेदों से भी सांस लेते और भाप छोड़ते हैं। पृथ्वी पर कितने ही ऐसे छिद्र हैं जिनमें होकर सूक्ष्म ही नहीं स्थूल भी धंसता और निकलता देखा जा सकता है। ऐसी ही एक घटना 5 दिसम्बर 1945 को घटी उस दिन 5 टी.वी.एम. अमरीकी बमवर्षक वायुयान प्रशिक्षण उड़ान पर रवाना हुए। ईंधन, दिशासूचक यन्त्रों तथा संचार साधनों से सभी सुसज्जित थे, उड़ा के भी अनुभवी व योग्य थे। उन्हें पहले पूर्व की ओर जाना था, फिर उत्तर की ओर, अन्त में दक्षिण पूर्व होकर लौटना था। पहले जहाज को चला रहे थे स्क्वाड्रन लीडर। कन्ट्रोल टावर के निर्देश पर वह उड़ा। 5 मिनट के अन्तर से शेष चार विमान भी उड़ चले। पहले वायुयान में दो लोग थे, शेष चारों में तीन-तीन। रेडियो सम्पर्क जारी था। सन्देश लगातार मिल रहे थे-अब हम 200 मील प्रति घण्टे की निश्चित गति से उड़ते हुए अटलांटिक महासागर के पूर्वी तट की ओर बढ़ रहे है। कुछ समय बाद। तीन बजकर 45 मिनट पर सहसा खतरे का संकेत मिला। स्क्वाड्रन लीडर का स्वर था—‘‘अचानक हम लोग कहां आ गये, कुछ पता नहीं चल पा रहा। यन्त्रादि सब ठीक हैं, पर नीचे देखते हैं तो न समुद्र है, न जमीन।’’
कन्ट्रोल टावर से कहा गया—‘‘नक्शा देखकर अपना ‘ग्रिड रिफरेन्स’ दो।’’ उत्तर था—‘‘यहां भौगोलिक स्थिति के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता।’’ और सहसा सम्पर्क टूट गया। जिधर से सन्देश आया था, उसी दिशा में 13 दक्ष कर्मचारियों और उत्तम यन्त्रों से लेस मार्टिन हवाई जहाज खोज के लिए भेजा गया। 5 मिनट तक तो वह अपने सन्देश देता रहा, फिर उसकी भी आवाज आनी बन्द हो गई। समुद्र रक्षक जहाज को रात भी उसी ओर देखते रहे। सुबह होते ही इक्कीस जहाज सागर में, 33 वायुयान अन्तरिक्ष में मंडराने लगे। चप्पा-चप्पा छान मारा। पृथ्वी तल पर 12 खोजी दल खोज करते रहे। न तो धरती पर किसी जहाज का एक भी इंच कोई टुकड़ा मिला, न समुद्र तल पर एक भी बूंद तेल का निशान। न कोई शव, न कलपुर्जे, चिह्न। खोजी मार्टिन जहाज जो भेजा गया था, उसका सन्देश प्रसारक यन्त्र अत्यधिक सशक्त था और अन्य देशों को भी उससे सन्देश भेजे जा सकते थे। पर कहीं, कोई भी संकेत तो ग्रहण नहीं किया गया था। अन्त में खोज से थककर अधिकारियों ने रिपोर्ट छापी—‘‘हम कुछ कल्पना भी नहीं कर पा रहे कि यह सब क्या हुआ? क्यों हुआ?’’
इस स्थान का नाम रखा गया—‘प्वाइन्ट आफ नो रिटर्न’ ऐसा बिन्दु जहां पहुंचकर आज तक कोई वापस नहीं आ सका। यह स्थान फोर्टलैडरले (फ्लोरिडा) के निकट है। यहां की उड़ान विचित्र होती हैं। एक छोटा तिकोना चक्कर काटकर विमान को बढ़ाना होता है।
पहली घटना के तीन वर्ष बाद। 28 जनवरी 1948। चार इंजनों वाला ब्रिटिश जहाज ‘स्टार टाइगर’ जा रहा था किंग्स्टन। इसमें कर्मचारियों समेत कुल 26 लोग थे। विमान का सम्पर्क बारम्पुड़ा विमानतल से था। पहली खबर मिली मौसम साफ है, हम ठीक तरह से उड़ रहे हैं। तभी वायुयान उस ‘प्वाइन्ट’ के पास पहुंचा और फिर बस। कहीं कोई अता-पता नहीं। न धरती पर, न सागर में।
इसी बारम्पुड़ा विमान तल से जमैका के लिए ‘सरिवल’ वायुयान चला। पूरी तरह सुसज्जित, भरपूर ईंधन के साथ। पौन घण्टे बाद कैप्टन जे.से. मैक्सी ने सन्देश भेजा—‘‘हम ठीक समय पर जमैका पहुंच रहे हैं।’’ फिर कोई सन्देश नहीं आया। वही दौड़ धूप, खोज-बीन सब व्यर्थ। कुछ पता नहीं, क्या हुआ? क्यों हुआ?
आज तक इन तीनों भयंकर घटनाओं का कारण व परिणाम ज्ञात नहीं हो सका है। एक अनुमान यह लगाया गया है कि उस जगह सम्भवतः किसी ग्रह का प्रचण्ड विकिरण होने से विमान पहुंचते ही भस्म होकर गैस बन जाते हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार इस बिन्दु पर पहुंचते ही जमीन दिखाई देना बन्द हो जाती है। एक अनन्त गहराई ही सामने, ऊपर, नीचे चारों ओर होती है। यदि मनुष्य उस स्थान पर सकुशल पहुंचकर आ सके, तो अनुमान है कि पृथ्वी और अन्तरिक्ष की कई नई जानकारियां मिलें। सम्भव है वहां किसी ग्रह का प्रचण्ड गुरुत्वाकर्षण वायुयानों को खींच ले जाता है। अथवा किसी ग्रह से प्रवाहित विद्युतधाराएं विमानों को किसी अन्य ग्रह की ओर धकेल देती हों।
पहले माना जाता था कि पृथ्वी का मौसम सूर्य के ही द्वारा मुख्यतः प्रभावित होता है। पर अब जाना गया है कि ऐक्स विकिरण के अनेक तारे अनन्त आकाश में हैं। छह वर्षों में ऐसे तीस तारे खोजे जा चुके हैं। पहला तारा 1962 में प्रक्षेपास्त्रों के परीक्षण के दौरान खोजा गया, जिसकी पृथ्वी से दूरी 1 हजार प्रकाश वर्ष है। पाया गया कि यह वर्तमान सौर एक्स विकिरण की अपेक्षा दस लाख गुनी तीव्र गति से एक्स विकिरण कर रहा है। इसका नाम रखा गया—स्को एक्स वन। अभी विशिष्ट प्रभाव सम्पन्न अनेक तारे हैं, जिनकी विविध प्रकार की अति महत्वपूर्ण किरणें हैं। वैज्ञानिक अभी इनकी बावत कुछ नहीं जान सके हैं।
वैज्ञानिक अन्वेषक निरन्तर इस तथ्य की पुष्टि कर रहे हैं कि हमारी धरती का भाग्य ऊपर लोकों तथा ग्रहों से सीधा सम्बद्ध है। सूर्य में एक विशेष प्रकार के ज्वाला प्रकोप फूटते हैं, तो धरती पर प्रचण्ड चुम्बकीय तूफान उठते हैं और मानसिक दृष्टि से क्षीण व्यक्ति अस्त-व्यस्त हो उठते हैं, उनकी कमजोरी, खीझ और परेशानी बढ़ जाती है। इससे शराबखोरी, झगड़े-टंटे, सड़क दुर्घटनाएं, आत्म-हत्याएं आदि की संख्या कई गुनी बढ़ जाती हैं क्योंकि मस्तिष्कीय क्रिया क्षमता की अल्फाएनर्जी पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र से सम्बद्ध है और धरती का चुम्बकीय क्षेत्र आकाशीय पिण्डों से जुड़ा है। इस तरह आकाशीय पिण्ड हमारे जीवन को सीधे प्रभावित करते हैं। पदार्थ में ऊर्जा कम्पन के रूप में होती है। तीव्रतम कम्पन की स्थिति में पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित हो जाते हैं। जड़-पदार्थों की सक्रियता का कारण इलेक्ट्रानिक शक्तियां हैं। ये सौर-मण्डल की ही शक्तियां हैं।
विगत 22 फरवरी 1956 की रात्रि में सूर्य में प्रचण्ड विस्फोट हुआ और सौर-कण धरती की ओर तेजी से दौड़े। उन्हीं सौर-कणों की वायुमण्डल से टकराहट से कई एशियाई देशों और आस्ट्रेलिया में भयानक आंधी तूफान आये।
विश्व-ब्रह्माण्ड के कण कण में संव्याप्त इस पारस्परिक निर्भरता और सहकारिता के सिद्धांत को समझने का प्रयत्न किया जाय तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ेगा कि यहां अकेला कोई नहीं। ‘मैं का कोई अस्तित्व नहीं जो कुछ है वह सामूहिक है।’ हम सब की भाषा से ही सोचा जाय और उसी प्रकार का क्रिया-कलाप अपनाया जाय तो समझना चाहिए कि सृष्टि के उस रहस्य और निर्देश से अवगत हुए, जिससे आधार सुव्यवस्था रह सकती है और प्रगति का चक्र अग्रगामी रह सकता है।
जीवन की परम्परायें एक हैं। क्या जड़ और क्या चेतन, क्या ग्रह नक्षत्र सभी को नियति के सुदृढ़ नियमों में बंध कर रहना और चलना पड़ता है। इस तथ्य को यदि ठीक तरह समझा जा सके तो हम परिवर्तनों से डरें नहीं वरन् उस गतिशीलता का आनन्द लूटें। सुदृढ़ नियमों की जंजीर को समझ लें तो फिर मर्यादा न रहने का महत्व समझें और उच्छृंखलता अपनाकर विपत्तियां मोल न लें।
प्रकृति की अनेक शक्तियां हमें प्रभावित करती हैं। कई बार तो उनका उपयोगी-अनुपयोगी प्रभाव-दबाव अत्यधिक होता है, तो भी मानवी चेतना की विशेषता यह है कि वह अनुपयोगी प्रभाव से अपने को बचाने में कोई न कोई मार्ग ढूंढ़ निकालती है। उपयोगी प्रभावों से अधिक लाभान्वित होने का उपाय भी उसे मिल ही जाता है। सर्दी-गर्मी, आंधी-तूफान, अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदि के उल्टे-सीधे झंझावात अपने ढंग से चलते रहते हैं। दूसरे प्राणी अपनी शारीरिक विशेषताओं के कारण तथा अत्यधिक प्रजनन शक्ति के कारण अपना अस्तित्व बचाये रहते हैं। मनुष्य इन दोनों ही दृष्टियों से पीछे हैं फिर भी प्रकृति के आघात सह सकने की व्यवस्था बना लेता है, यह उसका बुद्धि वैभव ही है।
सूर्य को ही लें, उसका अनुदान पृथ्वी पर—प्राणियों पर अनवरत रूप से बरसता है, पर यदाकदा उसकी ऐसी स्थिति भी होती है जो पृथ्वी पर अपना अनुपयोगी प्रभाव डाले। उन दबावों को रोक न सकने पर भी पूर्व जानकारी के आधार पर बचाव के उपाय ढूंढ़ लिये जाते हैं। सतर्कता बरतना अपने आप में एक बड़ा उपाय है, जिससे अनायास ही बहुत कुछ बचाव हो जाता है। इसी प्रकार उसके उपयोगी सम्पर्क को बढ़ाकर वे लाभ पाये जा सकते हैं जो अनजान स्थिति में पड़े रहने पर मिल सकने सम्भव नहीं हैं। साधारणतया सूर्य आग का एक ऐसा गोला है जिसके किसी प्रभाव को रोकना अपने लिए कठिन ही हो सकता है फिर भी अनावश्यक ताप से बचने के लिए छाया के कितने ही उपाय किये जाते हैं। सूर्य की अपनी महत्ता है और अपनी उपयोगिता। पर उससे भी अधिक प्रशंसा मानवी बुद्धि की है जो इतने समर्थ शक्ति पुंज से उपयोगी प्रभाव ग्रहण करने और अनुपयोगी से बच निकलने का रास्ता खोज लेती है।
सूर्य को उदय होते देखकर ऋषि गाता है—‘प्रायः प्रजानां उदयति एष सूर्यः’। यह प्रजाजनों का प्राण—सूर्य उदय हो रहा है। सन्ध्या वन्दन की सूर्योपस्थान क्रिया को करते हुए गायत्री मन्त्र बोला जाता है और उसके माध्यम से मांगा जाता है कि सविता देव हमारी विवेक बुद्धि को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करें। यह अध्यात्म मान्यता है जिसके अनुसार सूर्य को प्राण पुंज और बुद्धि चेतना को प्रेरणा दे सकने योग्य माना गया है।
भौतिक विज्ञान प्रत्यक्षवाद पर निर्भर रहा है। ‘प्रत्यक्ष’ की उसकी परिभाषा पिछले दिनों बहुत उथली और भोंथरी थी। अब धीरे-धीरे वह पैनी और गहरी होती जा रही है। पिछले दिनों भौतिक विज्ञानियों की दृष्टि में वह मात्र आग का गोला था, गर्मी, रोशनी भर देता था। पदार्थ की दृष्टि से सूर्य की इतनी ही व्याख्या पर्याप्त प्रतीत हुई थी, पर अब बात आगे बढ़ गई है और विचार अधिक गहराई तक होने लगा है। पिछले दिनों विज्ञान के लिये ‘पदार्थ’ ही सब कुछ था। भावना और अध्यात्म के सम्बन्ध में उपेक्षा और उदासीनता थी। अधिक से अधिक शरीर के एक अवयव मस्तिष्क की हरकतों को मनःशास्त्र के नाम से एक विशेष स्थान दिया जा सका था। श्वास-प्रवाह, रक्त संचार, स्नायु संचालन की तरह ही मस्तिष्क को भी सोचने वाला यन्त्र मान लिया गया था और उसकी हलचलों को मन, बुद्धि, चित्त आदि की संज्ञा दे दी गई थी। इतना ‘पदार्थ’ क्षेत्र में आता है इसलिए उतना ही ‘पर्याप्त’ माना गया। चेतना की गहराई को देखने, समझने की दिशा में बहुत समय तक कोई कहने लायक दिलचस्पी नहीं ली गई। तद्नुसार सूर्य का भी चेतना से कुछ सम्बन्ध हो सकता है, इस पर विचार नहीं किया गया। पर अब उस सन्दर्भ में गहराई तक जाने और गम्भीर विचार करने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।
सूर्य को अब जीवन का केन्द्र माना जा रहा है। वनस्पतियां उसी से जीवन ग्रहण करती हैं और प्राणियों को भी अपनी प्राण शक्ति के लिये बहुत करके सूर्य पर ही निर्भर रहना पड़ता है। विज्ञान स्वीकार करता है कि सूर्य और पृथ्वी के बीच जो दूरी है वह जीवन की उत्पत्ति एवं स्थिरता के लिए आदर्श है। यदि दूरी कुछ घट जाय या बढ़ जाय तो फिर या तो अपना भूलोक आग्नेय हो उठेगा या हिमाच्छादित बन जायगा तब प्राणियों या वनस्पतियों की उपस्थिति यहां सम्भव न हो सकेगी।
सूर्य में जो काले धब्बे हैं, वे उसमें समय समय पर पड़ते रहने वाले खड्ड हैं। ये कभी गहरे हो जाते हैं, कभी उथले बन जाते हैं, तब वे कम या अधिक दिखाई पड़ते हैं। पहले उन धब्बों से अपना कुछ बनता-बिगड़ता नहीं यह माना जाता था पर ऐसा नहीं समझा जाता है। वैज्ञानिक उन्हें बहुत बारीकी से देखते हैं और इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इनका क्या प्रभाव—परिणाम अपनी पृथ्वी पर पड़ेगा?
जब काले धब्बे बढ़ते हैं तो सूर्य से प्रकाश एवं गर्मी की ही नहीं दूसरे उन उपयोगी तत्वों की भी कमी पड़ जाती है जो प्राणियों के लिए विचित्र प्रकार से स्वास्थ्य संरक्षक होते हैं। जिस साल सूर्य के धब्बे बढ़ते हैं उस साल अनाज की, फलों की पैदावार कम होती है। पौधे अभीष्ट गति से नहीं पनपते। दाने पतले होते हैं और उनमें पोषक तत्व अपेक्षाकृत कम पाये जाते हैं। खाद और पानी का समुचित प्रबन्ध रहने पर भी इस कमी का कारण जब सूर्य के धब्बों में खोजा जाता है तो यह निष्कर्ष भी निकलता है कि उसमें ‘जीवनी शक्ति’ भी भरी पड़ी है जो पृथ्वी को—उस पर रहने वाले प्राणधारियों को मिलती है। इस प्रकार सूर्य मात्र गर्मी देने वाली अंगीठी और रोशनी देने वाली लैंप के स्तर का न रहकर प्राणवान्—प्राणदाता भी बन जाता है और वैदिक ऋषि की वह आस्था सही मालूम पड़ती है जिसमें उसने उदीयमान सूर्य का अभिवन्दन करते हुए उसे प्राण का उद्गम कहा था।
बात बहुत आगे बढ़ गई है। सूर्य की स्थिति का प्राणियों के शरीरों और मनःसंस्थानों पर क्या प्रभाव पड़ता है? यह एक अति महत्वपूर्ण शोध विषय बन गया है। जन्मकाल को ही लें। रात्रि और दिन में जन्म लेने वालों—गर्मियों और सर्दियों में जन्म लेने वालों की प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। जहां सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं उन शीत प्रधान और जहां सीधी पड़ती हैं उन उष्णता प्रधान क्षेत्रों के लोगों की जीवनी शक्ति एवं प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। अपने ही देश के बंगाली, पंजाबी, मद्रासी, गुजराती यों सभी भाई-भाई हैं, पर उनकी शारीरिक, मानसिक स्थिति में कितनी ही सूक्ष्म विशेषताएं पाई जाती हैं। इसका कारण उन क्षेत्रों के वातावरण को समझा जा सकता है और वातावरण की भिन्नता में पृथ्वी के विभिन्न स्थानों के साथ होने वाला सूर्य संयोग की मुख्य आधार है। अफ्रीका के नीग्रो, इंग्लैण्ड के गोरे, उत्तरी ध्रुव के एस्किमो, चीन के मंगोलियन अपनी अपनी आकृति-प्रकृति की भिन्नतायें रखते हैं, यों सभी एक मानव परिवार के सदस्य हैं। यह क्षेत्रीय विशेषतायें या भिन्नतायें जिस आधार पर उत्पन्न होती हैं उनमें सूर्य सम्पर्क को प्रमुखता देनी पड़ेगी।
मनुष्य अपने को एकाकी अनुभव करके स्वार्थान्ध रहने की भूल ही करता रहे, पर वस्तुतः इस विराट् ब्रह्म का—विशाल विश्व का-एक अकिंचन सा घटक मात्र है। समुद्र की लहरों की तरह उसका अस्तित्व अलग से दीखता भले ही हो, पर वस्तुतः वह समष्टि सत्ता का एक तुच्छ सा परमाणु भर है। ऐसा परमाणु जिसे अपनी सत्ता और हलचल बनाये रहने के लिए दूसरी महाशक्तियों के अनुदान पर निर्भर रहना पड़ता है।
अपनी पृथ्वी सूर्य से बहुत दूर है और उसका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध दिखाई नहीं पड़ता फिर भी वह पूरी तरह सूर्य पर आश्रित है। सर्दी, गर्मी, वर्षा, दिन, रात्रि जैसी घटनाओं से लेकर प्राणियों में पाया जाने वाला उत्साह और अवसाद भी सूर्य सम्पर्क से सम्बन्धित रहता है। वनस्पतियों का उत्पादन और प्राणियों की हलचल में जो जीवन तत्व काम करता है उसे भौतिक परीक्षण से नापा जाय तो उसे सूर्य का ही अनुदान कहा जायगा। असंख्य जीव कोशाओं से मिलकर एक शरीर बनता है, उन सबके समन्वित एवं सहयोग भरे प्रयास से जीवन की गाड़ी चलती है। प्राण तत्व से इन सभी कोशाओं को अपनी स्थिति बनाये रहने की सामर्थ्य मिलती है। इसी प्रकार इस संसार के समस्त जड़ चेतन घटकों को सूर्य से अभीष्ट विकास के लिए आवश्यक अनुदान सन्तुलित और समुचित मात्रा में मिलता है।
यह सूर्य भी अपने अस्तित्व के लिए महासूर्य के अनुग्रह पर आश्रित है और महा सूर्यों को भी अतिसूर्य का कृपाकांक्षी रहना पड़ता है जो ज्ञान एवं शक्ति का केन्द्र है वह ब्रह्म है, सविता है। अति सूर्य, महासूर्य और सूर्य सब उसी पर आश्रित हैं।
प्राणियों, वनस्पतियों और पदार्थों की गतिविधियों पर सूर्य के प्रभाव का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उसकी स्वावलम्बी हलचलें वस्तुतः परावलम्बी हैं। सूर्य की उंगलियों में बंधे हुए धागे ही बाजीगर द्वारा कठपुतली नचाने की तरह विभिन्न गतिविधियों की चित्र-विचित्र भूमिकाएं प्रस्तुत करते हैं। यहां तक कि प्राणियों का, मनुष्यों का चिन्तन और चरित्र तक इस शक्ति प्रवाह पर आश्रित रहता है। न केवल सूर्य वरन् न्यूनाधिक मात्रा में सौरमण्डल के ग्रह उपग्रह तथा ब्रह्माण्ड क्षेत्र के सूर्य तारक भी हमारी सता-स्थिरता एवं प्रगति को प्रभावित करते हैं।
विज्ञानी माइकेलसन के अनुसार अमावस्या, पूर्णिमा को पृथ्वी पर पड़ने वाले सूर्य-चन्द्र के प्रभावों से प्रभावित होकर न केवल समुद्र में ज्वार भाटे आते हैं वरन् पृथ्वी भी प्रायः नौ इंच फूलती-धंसती है। संसार में विभिन्न समयों पर आये बड़े भूकम्पों का इतिहास यह बताता है कि प्रायः अमावस्या, पूर्णिमा के इर्द-गिर्द ही वे आते रहे हैं। डॉक्टर बुड़ाई के अनुसार इन्हीं तिथियों में मृगी, उन्माद और कामुक दुर्घटनाओं का दौर आता है। वे कहते हैं सूर्य, चन्द्र की स्थिति का न केवल मौसम पर वरन् मनुष्य शरीर में महत्वपूर्ण काम करने पिट्यूटरी थाइराइड एड्रीनल आदि हारमोन स्रावी ग्रन्थियों पर भी प्रभाव पड़ता है और वे उत्तेजित होकर शरीर एवं मन की स्थिति में असाधारण प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करती हैं। दुर्घटना और अपराधी का दौर इन्हीं दिनों कहीं अधिक बढ़ जाता है।
ब्रिटेन के वैज्ञानिक आरनाल्ड मेयर और कौलिस्को के पर्यवेक्षणों ने यह सिद्ध किया है कि चन्द्रमा की स्थिति मनुष्यों को, प्राणधारियों को और वनस्पतियों को प्रभावित करती हैं। स्वीडन के वैज्ञानिक सेवेन्ट एहैनियस ने प्रायः दस हजार प्रमाण एकत्रित करके यह सिद्ध किया है कि समुद्र, मौसम, तापमान, विद्युत स्थिति जैसे प्राकृतिक क्षेत्र पर ही नहीं मनुष्य शरीर एवं मन पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। स्त्रियों के मासिक धर्म पर चन्द्रमा की स्थिति का असंदिग्ध प्रभाव पड़ता है। सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण को खुली आंखों से देखने की हानि सर्व विदित हैं। कारण यह है कि इन घड़ियों में उनका संतुलित क्रिया कलाप लड़खड़ा जाने से ऐसा ही निवारक प्रभाव उत्पन्न होता है जो आंख जैसे कोमल अंगों को विशेष रूप से क्षति ग्रस्त बना दे।
अमेरिकी खगोल वेत्ता जान हेलरी नेल्सन का कथन है कि न केवल सूर्य, चन्द्र का वरन् सौर मण्डल के अन्य ग्रहों का भी पृथ्वी पर प्रभाव पड़ता है और उस आधार पर मौसमी उथल-पुथल एवं प्राणियों की शारीरिक मानसिक स्थिति में उतार-चढ़ाव आते हैं। धूमकेतु जब उदय होते हैं तब भी पृथ्वी पर पड़ने वाला अन्तरिक्षीय प्रभाव अवरुद्ध होता है और उसके परिणाम स्वरूप प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने से तरह-तरह के उपद्रव खड़े होते हैं। शरीरगत रुग्णता और मानसिक आवेशग्रस्तता उन दिनों अधिक बढ़ी-चढ़ी देखी जा सकती है। यह इस बात का प्रतीक है कि विराट् ब्रह्माण्ड परमात्मा का ही विराट् शरीर है।
मनुष्य शरीर में किसी भी भाग पर आघात या चोट पहुंचती है तो उससे देह का रोम-रोम कांप उठता है। पांव की अंगुली में चोट लगे तो मस्तिष्क भी उद्विग्न हो उठता है, हाथ भी काम करने से इन्कार कर देते हैं—कहने का अर्थ यह है कि शरीर का अंग-अंग प्रभावित होता है। शरीर की चेतनता का वह एक चिन्ह है। दृश्य और अदृश्य प्रकृति—समूचा ब्रह्माण्ड भी इसी प्रकार एक चेतन पिण्ड है, जिसमें किसी भी छोर पर कुछ घटित होता है तो अन्यान्य स्थानों पर भी उसका प्रभाव परिलक्षित होता है। वैज्ञानिक खोजों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सका है कि जिसे हम जड़ समझते हैं वह वस्तुतः जड़ है नहीं, चेतना उसमें भी विद्यमान है और संसार में घटने वाले घटनाक्रमों से लेकर प्राकृतिक हलचलों का भी उस पर प्रभाव पड़ता है।
ब्रह्माण्ड एक शरीर
विज्ञान जिन निष्कर्षों पर पहुंच रहा है, भारतीय तत्वमनीषी उस पर हजारों वर्ष पूर्व पहुंच चुके हैं। जड़ और चैतन्य का भेद वस्तुतः हमारी स्थूल दृष्टि के कारण ही है। वस्तुतः जड़ता कहीं भी नहीं है—सबमें आत्म-चेतना विद्यमान है। यह प्रतीति इसलिए होती है कि वह चेतना व्यक्त अलग-अलग प्रकारों से होती है। इसी आधार पर ऋषि विश्वात्मा तक पहुंच सके।
भारत में इस तत्व दर्शन को प्रतिपादित करने के लिए जो वैज्ञानिक प्रयत्न चले उन्हें ज्योतिर्विज्ञान का नाम दिया गया। यह बात अलग है कि इस विशुद्ध विज्ञान का—जिसका उद्देश्य आकाशीय स्थिति और ग्रह-नक्षत्रों का मौसम विज्ञान और प्राणियों पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन था—सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ है। ज्योतिर्विज्ञान की एक मान्यता है कि सूर्य, मात्र अग्नि का धधकता पिण्ड ही नहीं एक जीवन्त और सक्रिय अग्नि पुंज है। वेदों में तो सूर्य को सर्व समर्थ देवता मानकर उसकी कई ऋचायें लिखी गई हैं। गायत्री मन्त्र में भी सूर्य को सविता का—परमात्मा का प्रतीक माना गया है। लेकिन विज्ञान मानता आ रहा था कि सूर्य केवल आग का एक जलता हुआ गोला भर है। रूस के एक वैज्ञानिक चीजेवस्की भी अपनी वैज्ञानिक शोधों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूर्य एक जीवित अग्नि पिण्ड है। यही नहीं 1920 में उन्होंने यह भी सिद्ध किया—‘सूर्य पर प्रति ग्यारहवें वर्ष एक आणविक विस्फोट होता है और जब भी यह विस्फोट होता है तो पृथ्वी पर युद्ध और क्रान्तियां जन्म लेती है।’ इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने तेरहवीं शताब्दी से तब तक की महत्वपूर्ण राज्य क्रान्तियों और ऐतिहासिक युद्धों का विवरण एकत्रित किया व प्रमाणिक कर दिखाया।
यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य पृथ्वी के जीवन का केन्द्र है। प्रतिपल सूर्य से ही पृथ्वी के जीवों को प्रकाश और प्राण मिलते हैं। चीजेबक्सी का कहना था कि पृथ्वी पर घटित होने वाले किसी बड़े परिवर्तन का सूर्य से सम्बन्ध होता है।
इन्हीं आधारों पर सन् 1950 में विज्ञान की एक नयी शाखा खुली। जियोजारजी गिआरडी नामक वैज्ञानिक इसके जनक हैं गिआरडी का कहना है कि समूचा ब्रह्माण्ड एक शरीर है और इसका कोई भी अंग अलग नहीं, वरन् संयुक्त रूप से एकात्म है। इसलिए कोई भी तारा कितनी ही दूर क्यों न हो पृथ्वी के जीवन को प्रभावित करता है और प्राणियों की हृदयगति बदल जाती है।
ग्यारह वर्षों में हर बार सूर्य पर आणविक विस्फोट की धारणा को प्रतिपोषित करते हुए जापान के प्रख्यात जैविकी शास्त्री तोनातो इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि जब भी ये विस्फोट होता है, पृथ्वी पर पुरुषों के रक्त में जल तत्व बढ़ जाते हैं और पुरुषों का खून पतला पड़ जाता है।
सूर्य ग्रहण के समय प्रकृति पर पड़ने वाले प्रभाव तो आसानी से देखे व समझे जा सकते हैं। जब सूर्य का ग्रहण होता है चौबीस घण्टे पूर्व से ही कुछ पक्षी चह-चहाना बन्द कर देते हैं, बन्दर वृक्षों को छोड़कर चुपचाप जमीन पर आकर बैठ जाते हैं। सदा चंचल रहने वाला बन्दर उस समय इतना शान्त हो जाता है कि लगता है उस जैसा शान्त और सीधा प्राणी कोई है ही नहीं। बहुत से जंगली जानवर भयभीत से दीखने लगते हैं।
अमेरिका के ‘रिसर्च सेण्टर आफ ट्री रिंग’ ने यह पता लगाया कि वृक्षों के तनों में प्रति वर्ष पड़ने वाला एक वृत्त हर ग्यारहवें वर्ष सामान्य वृत्तों की अपेक्षा बड़ा होता है। स्मरणीय है वनस्पति विज्ञान में वृक्षों के जीवन का अध्ययन करने के लिए वृक्ष के तनों में बनने वाले वर्तुलों का अध्ययन किया जाता है। यह एक तथ्य है कि वृक्ष में प्रतिवर्ष एक वृत बनता है, जो उसके द्वारा छोड़ी गयी छाल से निर्मित होता है। रिसर्च सेण्टर आफ ट्री रिंग के प्रो. डगलस ने इस दिशा में खोज करते हुए यह भी पता लगाया कि ग्यारहवें वर्ष जब सूर्य पर आणविक विस्फोट होते हैं तब वृक्ष का तना मोटा हो जाता है और उसी कारण बड़ा वृत्त बनता है।
कहने का अर्थ यह कि सूर्य पर होने वाले परिवर्तनों से मनुष्य और पशु-पक्षी ही नहीं पेड़-पौधे भी प्रभावित होते हैं। यही नहीं जड़ कहे जाने वाले नदी, नाले भी प्रभावित होते हैं, उनका भी पानी घटता-बढ़ता है—बिना वर्षा और बिना गर्मी के ही सूर्य ही नहीं चन्द्रमा का भी पृथ्वी के जीवन पर असाधारण रूप से प्रभाव पड़ता है। समुद्र में पूर्णिमा के दिन ही अक्सर तूफान और ज्वार आते हैं अपेक्षाकृत अन्य दिनों के। इसके विपरीत अमावस के दिन अन्य दिनों की तुलना में समुद्र शान्त रहता है। समुद्र तट पर रहने वाले और इस सम्बन्ध में थोड़ा बहुत जानने वाले लोग यह अच्छी तरह जानते हैं कि चन्द्रमा और पृथ्वी एक दूसरे के समीप हैं इसलिए चन्द्रमा जब अपनी सोलहों कलाओं के साथ उचित होता है तो पृथ्वी के समुद्र का पानी उफनता है परन्तु अब यह भी पता लगाया जा चुका है कि न केवल समुद्र ही वरन् मनुष्य भी प्रभावित होता है।
अमेरिका के पागल खानों में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार मानसिक रोगी पूर्णिमा के दिन अधिक विक्षिप्त हो जाते हैं। साधारण और कमजोर मनोभूमि के व्यक्त को भी इस दिन पागलपन के दौरे पड़ने लगते हैं और अमावस के दिन धरती पर लोग सबसे कम पागल होते हैं। न केवल पूर्णिमा और अमावस के दिन वरन् चांद के बढ़ने घटने के साथ भी मनुष्यों में पागलपन बढ़ता-घटता है। विक्षिप्त मनुष्यों के साथ-साथ सामान्य स्वस्थ व्यक्तियों की चित्त दशा पर भी इन उतार-चढ़ावों का प्रभाव पड़ता है। सम्भवतया इसी कारण भारतीय तत्वदर्शियों ने प्रत्येक पूर्णिमा पर धर्म-कर्म में व्यस्त रहने का निर्देश दिया है।
पृथ्वी सौरमण्डल का ही एक सदस्य है और चन्द्रमा उसका ही एक उपग्रह। वैज्ञानिक दृष्टि में पृथ्वी और चन्द्र की उत्पत्ति सूर्य से ही हुई है इसलिए इन तीनों के बीच एक अन्तर्सम्बन्ध बन सकता है। एक दूसरे पर इसका प्रभाव हो सकता है परन्तु यह स्थिति मात्र यहां तक ही सीमित नहीं है, प्रोफेसर ब्राउन के अनुसार अन्य ग्रहों से भी पृथ्वी का जीवन प्रभावित होता है। उन्होंने यह भी सिद्ध कर दिया कि पृथ्वी की संरचना और मानवीय काया की संरचना में एक अद्भुत साम्य है। पृथ्वी पर समुद्र में पानी और नमक का जितना अनुपात है वही अनुपात मनुष्य देह में भी है। यही नहीं पृथ्वी पर 65 प्रतिशत पानी है तो मनुष्य शरीर में भी इतना ही जलतत्व है।
प्रोफेसर ब्राउन ने मंगल, बृहस्पति, शुक्र और शनि आदि ग्रहों का अध्ययन कर यह सिद्ध किया कि उनकी गतियों और स्थितियों के परिवर्तनों का भी पृथ्वी पर प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिकों ने इस सबको समानुभूति का नाम दिया। पृथ्वी, चन्द्र, मंगल, बृहस्पति और शुक्रादि ग्रहों का उद्भव सूर्य से हुआ। ये सभी सूर्य की सन्तान हैं इसलिए इनकी जीवन व्यवस्था एक दूसरे से प्रभावित होती है। जुड़वा जन्म लेने वाले बच्चों के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त घटित होता है।
न केवल सौर मण्डल के सदस्यों में एक समानुभूति है वरन् दिखाई देने वाले और न दिखाई देने वाले तारा नक्षत्र भी पृथ्वी के जीवन पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। विभिन्न विषयों में किये गये प्रयोगों से अनायास ही जो निष्कर्ष सामने आये हैं उनसे वैज्ञानिकों का ध्यान अनायास ही ब्रह्माण्ड—रसायन की ओर आकृष्ट हुआ है। इस दिशा में जैसे-जैसे आगे बढ़ा जा रहा है यह स्पष्ट होता चल रहा है कि समूचा ब्रह्माण्ड एक चैतन्य शरीर है, जिसका हर स्पन्दन समूचे जीवन को प्रभावित करता है। जिस प्रकार कि शरीर के किसी भी हिस्से पर आघात हमारी समग्र चेतना को छूता और कष्ट या आनन्द पहुंचाता है।
एक ही धागे के मनके
सामान्य दृष्टि से ही ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्र अपना-अपना अलग अस्तित्व बनाये हुए अपनी कक्षाओं पर भ्रमण करते हुए अपना निर्धारित क्रिया-कलाप चला रहे हैं। किसी का किसी से कोई परस्पर सम्बन्ध नहीं है। यह बात मोटी समझ से ही सही हो सकती है। वास्तविकता कुछ और ही है। वस्तुतः यह सारे ग्रह-नक्षत्र एक ही सत्ता सूत्र में—धागों में मनकों की तरह पिरोये हुए हैं और यह ग्रह-नक्षत्र की माला एक ही दिशा में—एक ही नियन्त्रण में गतिशील हो रही है, इतना ही नहीं उनका परस्पर भी अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। सूर्य और चन्द्रमा के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव को हम प्रत्यक्ष देखते हैं। अमावस्या और पूर्णमासी को आने वाले ज्वार-भाटे—कृष्ण पक्ष में वनस्पतियों का कम और शुक्ल पक्ष में अधिक बढ़ना—चन्द्रमा के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव का ही परिणाम है। सूर्य के उदय होने पर गर्मी, रोशनी ही नहीं, सक्रियता भी बढ़ती है। हवा की चाल तेज हो जाती है, वनस्पतियों में हलचल शुरू हो जाती है और रात्रि की जो निद्रा सब को सताती थी वह अनायास ही समाप्त हो जाती है। शरीरों की रात्रि वाली शिथिलता प्रातःकाल होते ही क्रियाशीलता में बदल जाती है। ऐसे-ऐसे अनेक परिवर्तन सूर्य के निकलने से लेकर अस्त होने के बीच होते रहते हैं। परोक्ष परिवर्तनों का तो कहना ही क्या? उनकी श्रृंखला को देखते हुए वैज्ञानिक चकराने लगते हैं और सोचते हैं कि जो कुछ इस धरती पर हो रहा है वस्तुतः सूर्य की ही प्रतिक्रिया मात्र है।
यह सूर्य और चन्द्रमा के द्वारा पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव की बात हुई। आगे चलकर इसी प्रक्रिया को समस्त ग्रह-नक्षत्रों के बीच परस्पर पड़ने वाले प्रभावों के आदान-प्रदान के रूप में देखी, समझी जा सकती है। सूर्य की चमक चन्द्रमा पर घटने-बढ़ने से वह कितना अतिशय ठण्डा और कितना अतिशय गरम हो जाता है, उसकी नवीनतम जानकारियां चन्द्र शोधों ने स्पष्ट कर दी हैं। पृथ्वी पर चांदनी भेज सकना चन्द्रमा के लिए सूर्य के अनुदान से ही सम्भव होता है। अन्य ग्रह भी परस्पर ऐसे ही आदान-प्रदान की व्यवस्था बनाये हुए हैं। एक दूसरे पर अनेक स्तरों के आकर्षण-विकर्षण फेंकते और ग्रहण करते हैं। इसी आधार पर उनका वर्तमान स्तर और स्वरूप बना हुआ है। यदि इस प्रक्रिया में अन्तर उत्पन्न हो जाय तो ग्रहों की वर्तमान स्थिति में भारी अन्तर आ जायगा और उनका कलेवर मार्ग स्वरूप आदि में अप्रत्याशित परिवर्तन उत्पन्न हो जायेगा यह थोड़ा-सा भी अन्तर अपने सौर-मण्डल भी प्रभावित हो सकते हैं और उसका अन्त इतनी बड़ी प्रतिक्रिया के रूप में हो सकता है, जिससे सारा विश्व-ब्रह्माण्ड ही हिल जाय।
अपने सौर-मण्डल के ग्रहों और उपग्रहों का परस्पर क्या सम्बन्ध है और एक दूसरे को कितना प्रभावित करते हैं इसकी थोड़ी बहुत जानकारी खगोल वेत्ताओं को उपलब्ध हो चली है। वे इस अनन्त ब्रह्माण्ड में बिखरे हुए असंख्य सौर-मण्डलों के परस्पर पड़ने वाले प्रभाव को भी स्वीकार करते हैं और लगता है एक ही परिवार के सदस्य जैसे मिल जुलकर कुटुम्ब का एक ढांचा बनाये रहते हैं, उसी प्रकार समस्त ग्रह-नक्षत्र एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं और परस्पर बहुत कुछ लेने देने का क्रम चलाते हुए ब्रह्माण्ड की वर्तमान स्थिति बनाये हुए हैं। यह सब एक विश्व-व्यापी प्रेरक और नियामक सत्ता द्वारा ही सम्भव हो रहा है।
वस्तुतः इस संसार में ‘अकेला’ नाम कोई पदार्थ नहीं। यह सब कुछ संगठित और सुसम्बद्ध है। पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु भी—अपने गर्भ में कितने ही घटक संजोये हुए एक छोटे सौरमण्डल परिवार की तरह प्रगतिशील रह रहा है। इलेक्ट्रान आदि घटकों की भी परतें खुलती जा रही हैं और पता लग रहा है कि उनके गर्भ में भी और कितने ही समूह वर्ग विराजमान हैं। शरीर एक इकाई है। पर उसके भीतर जीवाणुओं की इतनी संख्या है जितनी इस समस्त संसार में जीवधारियों की भी मिली-जुली संख्या भी नहीं होगी। हर मनुष्य का व्यक्तित्व—असंख्य अन्यों के सहयोग एवं प्रभाव को लेकर विकसित हुआ है, उसमें अपना कम और दूसरों का अधिक है।
सृष्टि चक्र में सर्वत्र ‘अन्योन्याश्रय’ का सिद्धान्त काम कर रहा है। जड़ चेतन से विनिर्मित यह समूचा विश्व-ब्रह्माण्ड एकता के सुदृढ़ बन्धनों में बंधा हुआ है। एक से दूसरे का पोषण होता है और हर किसी को दूसरों का सहयोगी होकर रहना पड़ रहा है। यह पारस्परिक बन्धन ही सृष्टि के शोभा सौन्दर्य का, उसकी विभिन्न हलचलों का, उत्पादन विकास एवं परिवर्तन का उद्गम केन्द्र है।
पृथ्वी की आकर्षण शक्ति पदार्थ सम्पदा एवं प्राणि सम्पदा को शान्ति पूर्वक रहने और विकसित होने का अवसर दें रही है। अन्तर्ग्रही आकर्षण शक्ति से बंधे हुए ग्रह-नक्षत्र अपनी कक्षाओं और धुरियों पर परिभ्रमण कर रहे हैं। यह तो मोटी जानकारी हुई। वास्तविकता यह है कि ग्रहों के बीच इतना अधिक आदान-प्रदान चल रहा है, मानो विनिमय बाजार की धूम मच रही हो। उत्तरी ध्रुव में होकर अन्तर्ग्रही शक्तियां धरती पर अवतरित होती हैं। जितनी आवश्यक होती हैं उतनी पृथ्वी द्वारा पचा ली जाती हैं और अनावश्यक दक्षिणी ध्रुव के द्वारा अन्तरिक्ष में फेंक दी जाती हैं। उत्तरी ध्रुव पृथ्वी का मुख है तो दक्षिणी ध्रुव मलद्वार। यदि पृथ्वी को अन्तर्ग्रही अनुदानों का आहार न मिले तो उसे भूखे रहकर प्राण त्यागना पड़ेगा।
ध्रुव क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य कितने ही छिद्र भी ऐसे हैं जिनके माध्यम से ग्रहों के बीच आदान-प्रदान होता रहता है, इन्हें रोम-कूप अथवा स्वेद छिद्र कह सकते हैं। हम इन छेदों से भी सांस लेते और भाप छोड़ते हैं। पृथ्वी पर कितने ही ऐसे छिद्र हैं जिनमें होकर सूक्ष्म ही नहीं स्थूल भी धंसता और निकलता देखा जा सकता है। ऐसी ही एक घटना 5 दिसम्बर 1945 को घटी उस दिन 5 टी.वी.एम. अमरीकी बमवर्षक वायुयान प्रशिक्षण उड़ान पर रवाना हुए। ईंधन, दिशासूचक यन्त्रों तथा संचार साधनों से सभी सुसज्जित थे, उड़ा के भी अनुभवी व योग्य थे। उन्हें पहले पूर्व की ओर जाना था, फिर उत्तर की ओर, अन्त में दक्षिण पूर्व होकर लौटना था। पहले जहाज को चला रहे थे स्क्वाड्रन लीडर। कन्ट्रोल टावर के निर्देश पर वह उड़ा। 5 मिनट के अन्तर से शेष चार विमान भी उड़ चले। पहले वायुयान में दो लोग थे, शेष चारों में तीन-तीन। रेडियो सम्पर्क जारी था। सन्देश लगातार मिल रहे थे-अब हम 200 मील प्रति घण्टे की निश्चित गति से उड़ते हुए अटलांटिक महासागर के पूर्वी तट की ओर बढ़ रहे है। कुछ समय बाद। तीन बजकर 45 मिनट पर सहसा खतरे का संकेत मिला। स्क्वाड्रन लीडर का स्वर था—‘‘अचानक हम लोग कहां आ गये, कुछ पता नहीं चल पा रहा। यन्त्रादि सब ठीक हैं, पर नीचे देखते हैं तो न समुद्र है, न जमीन।’’
कन्ट्रोल टावर से कहा गया—‘‘नक्शा देखकर अपना ‘ग्रिड रिफरेन्स’ दो।’’ उत्तर था—‘‘यहां भौगोलिक स्थिति के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता।’’ और सहसा सम्पर्क टूट गया। जिधर से सन्देश आया था, उसी दिशा में 13 दक्ष कर्मचारियों और उत्तम यन्त्रों से लेस मार्टिन हवाई जहाज खोज के लिए भेजा गया। 5 मिनट तक तो वह अपने सन्देश देता रहा, फिर उसकी भी आवाज आनी बन्द हो गई। समुद्र रक्षक जहाज को रात भी उसी ओर देखते रहे। सुबह होते ही इक्कीस जहाज सागर में, 33 वायुयान अन्तरिक्ष में मंडराने लगे। चप्पा-चप्पा छान मारा। पृथ्वी तल पर 12 खोजी दल खोज करते रहे। न तो धरती पर किसी जहाज का एक भी इंच कोई टुकड़ा मिला, न समुद्र तल पर एक भी बूंद तेल का निशान। न कोई शव, न कलपुर्जे, चिह्न। खोजी मार्टिन जहाज जो भेजा गया था, उसका सन्देश प्रसारक यन्त्र अत्यधिक सशक्त था और अन्य देशों को भी उससे सन्देश भेजे जा सकते थे। पर कहीं, कोई भी संकेत तो ग्रहण नहीं किया गया था। अन्त में खोज से थककर अधिकारियों ने रिपोर्ट छापी—‘‘हम कुछ कल्पना भी नहीं कर पा रहे कि यह सब क्या हुआ? क्यों हुआ?’’
इस स्थान का नाम रखा गया—‘प्वाइन्ट आफ नो रिटर्न’ ऐसा बिन्दु जहां पहुंचकर आज तक कोई वापस नहीं आ सका। यह स्थान फोर्टलैडरले (फ्लोरिडा) के निकट है। यहां की उड़ान विचित्र होती हैं। एक छोटा तिकोना चक्कर काटकर विमान को बढ़ाना होता है।
पहली घटना के तीन वर्ष बाद। 28 जनवरी 1948। चार इंजनों वाला ब्रिटिश जहाज ‘स्टार टाइगर’ जा रहा था किंग्स्टन। इसमें कर्मचारियों समेत कुल 26 लोग थे। विमान का सम्पर्क बारम्पुड़ा विमानतल से था। पहली खबर मिली मौसम साफ है, हम ठीक तरह से उड़ रहे हैं। तभी वायुयान उस ‘प्वाइन्ट’ के पास पहुंचा और फिर बस। कहीं कोई अता-पता नहीं। न धरती पर, न सागर में।
इसी बारम्पुड़ा विमान तल से जमैका के लिए ‘सरिवल’ वायुयान चला। पूरी तरह सुसज्जित, भरपूर ईंधन के साथ। पौन घण्टे बाद कैप्टन जे.से. मैक्सी ने सन्देश भेजा—‘‘हम ठीक समय पर जमैका पहुंच रहे हैं।’’ फिर कोई सन्देश नहीं आया। वही दौड़ धूप, खोज-बीन सब व्यर्थ। कुछ पता नहीं, क्या हुआ? क्यों हुआ?
आज तक इन तीनों भयंकर घटनाओं का कारण व परिणाम ज्ञात नहीं हो सका है। एक अनुमान यह लगाया गया है कि उस जगह सम्भवतः किसी ग्रह का प्रचण्ड विकिरण होने से विमान पहुंचते ही भस्म होकर गैस बन जाते हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार इस बिन्दु पर पहुंचते ही जमीन दिखाई देना बन्द हो जाती है। एक अनन्त गहराई ही सामने, ऊपर, नीचे चारों ओर होती है। यदि मनुष्य उस स्थान पर सकुशल पहुंचकर आ सके, तो अनुमान है कि पृथ्वी और अन्तरिक्ष की कई नई जानकारियां मिलें। सम्भव है वहां किसी ग्रह का प्रचण्ड गुरुत्वाकर्षण वायुयानों को खींच ले जाता है। अथवा किसी ग्रह से प्रवाहित विद्युतधाराएं विमानों को किसी अन्य ग्रह की ओर धकेल देती हों।
पहले माना जाता था कि पृथ्वी का मौसम सूर्य के ही द्वारा मुख्यतः प्रभावित होता है। पर अब जाना गया है कि ऐक्स विकिरण के अनेक तारे अनन्त आकाश में हैं। छह वर्षों में ऐसे तीस तारे खोजे जा चुके हैं। पहला तारा 1962 में प्रक्षेपास्त्रों के परीक्षण के दौरान खोजा गया, जिसकी पृथ्वी से दूरी 1 हजार प्रकाश वर्ष है। पाया गया कि यह वर्तमान सौर एक्स विकिरण की अपेक्षा दस लाख गुनी तीव्र गति से एक्स विकिरण कर रहा है। इसका नाम रखा गया—स्को एक्स वन। अभी विशिष्ट प्रभाव सम्पन्न अनेक तारे हैं, जिनकी विविध प्रकार की अति महत्वपूर्ण किरणें हैं। वैज्ञानिक अभी इनकी बावत कुछ नहीं जान सके हैं।
वैज्ञानिक अन्वेषक निरन्तर इस तथ्य की पुष्टि कर रहे हैं कि हमारी धरती का भाग्य ऊपर लोकों तथा ग्रहों से सीधा सम्बद्ध है। सूर्य में एक विशेष प्रकार के ज्वाला प्रकोप फूटते हैं, तो धरती पर प्रचण्ड चुम्बकीय तूफान उठते हैं और मानसिक दृष्टि से क्षीण व्यक्ति अस्त-व्यस्त हो उठते हैं, उनकी कमजोरी, खीझ और परेशानी बढ़ जाती है। इससे शराबखोरी, झगड़े-टंटे, सड़क दुर्घटनाएं, आत्म-हत्याएं आदि की संख्या कई गुनी बढ़ जाती हैं क्योंकि मस्तिष्कीय क्रिया क्षमता की अल्फाएनर्जी पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र से सम्बद्ध है और धरती का चुम्बकीय क्षेत्र आकाशीय पिण्डों से जुड़ा है। इस तरह आकाशीय पिण्ड हमारे जीवन को सीधे प्रभावित करते हैं। पदार्थ में ऊर्जा कम्पन के रूप में होती है। तीव्रतम कम्पन की स्थिति में पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित हो जाते हैं। जड़-पदार्थों की सक्रियता का कारण इलेक्ट्रानिक शक्तियां हैं। ये सौर-मण्डल की ही शक्तियां हैं।
विगत 22 फरवरी 1956 की रात्रि में सूर्य में प्रचण्ड विस्फोट हुआ और सौर-कण धरती की ओर तेजी से दौड़े। उन्हीं सौर-कणों की वायुमण्डल से टकराहट से कई एशियाई देशों और आस्ट्रेलिया में भयानक आंधी तूफान आये।
विश्व-ब्रह्माण्ड के कण कण में संव्याप्त इस पारस्परिक निर्भरता और सहकारिता के सिद्धांत को समझने का प्रयत्न किया जाय तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ेगा कि यहां अकेला कोई नहीं। ‘मैं का कोई अस्तित्व नहीं जो कुछ है वह सामूहिक है।’ हम सब की भाषा से ही सोचा जाय और उसी प्रकार का क्रिया-कलाप अपनाया जाय तो समझना चाहिए कि सृष्टि के उस रहस्य और निर्देश से अवगत हुए, जिससे आधार सुव्यवस्था रह सकती है और प्रगति का चक्र अग्रगामी रह सकता है।
जीवन की परम्परायें एक हैं। क्या जड़ और क्या चेतन, क्या ग्रह नक्षत्र सभी को नियति के सुदृढ़ नियमों में बंध कर रहना और चलना पड़ता है। इस तथ्य को यदि ठीक तरह समझा जा सके तो हम परिवर्तनों से डरें नहीं वरन् उस गतिशीलता का आनन्द लूटें। सुदृढ़ नियमों की जंजीर को समझ लें तो फिर मर्यादा न रहने का महत्व समझें और उच्छृंखलता अपनाकर विपत्तियां मोल न लें।