
जीवन पृथ्वी तक ही सीमित नहीं है
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मानवीय बुद्धि सीमित है, उसकी जानकारी बहुत समझी जाने पर भी एक प्रकार से अति स्वल्प ही है, क्योंकि ब्रह्माण्ड का विस्तार और रहस्य ही नहीं उसकी मोटी जानकारियां भी जितनी एकत्रित की जा सकी हैं वे भी नगण्य ही हैं। पूरी जानकारियां भौतिक उपकरणों के माध्यम से जान पाना संभव है भी नहीं। ब्रह्माण्ड की व्यापकता की परिधि को स्पर्श करने वाला माध्यम केवल एक आत्मा ही हो सकता है और आत्मतत्व प्रत्येक प्राणी में, मनुष्य में विद्यमान है।
उस विश्व नियन्ता के क्रियाकलापों का विस्तार इस पृथ्वी तक ही सीमित नहीं है। पृथ्वी जैसे असंख्यों पिण्ड इस विशाल ब्रह्मांड में भरे पड़े हैं। उनमें से कितने ही ग्रहों के निवासी हम धरती के मनुष्यों की अपेक्षा अत्यधिक ज्ञान सम्पन्न और साधन सम्पन्न हैं। जिस तरह हम लोग चन्द्रमा पर उतर चुके, सौर-मण्डल के अन्य ग्रहों की खोज के लिए अन्तरिक्ष यान भेज रहे हैं, सौर-मण्डल से बाहर के तारकों के साथ रेडियो सम्पर्क जोड़ रहे हैं, उसी प्रकार अन्य ग्रहों के बुद्धिमान मनुष्यों का हमारी धरती के साथ सम्पर्क बनाने, अनुसंधान करने का प्रयत्न चल रहा हो तो उसमें कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है।
अति दूरवर्ती यात्राओं में साधारण ईंधन कारगर नहीं हो सकते उनमें परमाणु शक्ति को ही आधार बनाया जा सकता है। सम्भव है कि अन्य ग्रहों का अन्तरिक्ष यान पृथ्वी से सम्पर्क स्थापित करने आया हो और किसी गैर जानकारी और खराबी के कारण वह नष्ट हो गया हो, उसे ही साइबेरिया में हुए अणु-विस्फोट जैसी स्थिति में देखा गया हो। इससे पूर्व भी ऐसे कितने ही बिखरे हुए प्रमाण मिलते रहे हैं जिनसे यह अनुमान लगाया जाता है कि किन्हीं ग्रह लोकों के निवासी पृथ्वी पर आवागमन करने में किसी हद तक सफलता प्राप्त भी कर चुके हैं।
सहारा के रेगिस्तान में—सेफारा पर्वत पर ऐसी विचित्र गुफायें पाई गईं जिनमें अन्य लोकवासी मनुष्यों की आकृतियां थीं। प्रो. हेनरी ल्होत के अन्वेषक दल ने इन विचित्र अवशेषों को देख कर उन्हें विशाल मंगल ग्रही देवता की अनुकृति बताया।
रूस के इटरुस्किया प्रदेश में भी ऐसे ही अवशेष मिले हैं जिनसे अन्य ग्रह निवासियों के साथ पृथ्वी वासियों का संबंध होने पर प्रकाश पड़ता है।
दक्षिणी अमेरिका की ऐडीज पर्वत माला में चस्का पठार पर ऐसे चमकीले पत्थर जड़े हुए पाये गये हैं जो अन्तरिक्षयानों के प्रकाश से प्रकाशित होकर उन्हें सिगनल देते रहे होंगे। इसी पर्वतमाला पर एक जगह विचित्र भाषा में कलेण्डर खुदा मिला है। तत्ववेत्ताओं ने इस कलेण्डर में 290 दिन का वर्ष और 24 तथा 25 दिन के महीने प्रदर्शित किये गये हैं। ऐसा वर्ष किसी अन्य ग्रह पर ही हो सकता है।
आस्ट्रिया में सौ वर्ष पूर्व 785 ग्राम भारी एक ऐसी इस्पात नली मिली है जिसे 5 करोड़ वर्ष पुरानी बताया जाता है। तब मनुष्य अपने पूर्वज बन्दरों के रूप में था। उस समय तक आग का आविष्कार नहीं हुआ था तब इस्पात कौन ढालता। सोचा जाता है कि यह भी किन्हीं अन्तर्ग्रही यात्रियों को छोड़ा हुआ उपकरण है। गोवी मरुस्थल के चपटे पत्थरों पर पाये गये पद चिन्हों की करोड़ों वर्ष पुरानी स्थिति में किन्हीं अन्य ग्रह निवासियों के आगमन की स्मृति आंकी जाती है।
समृद्ध लोगों में समुन्नत प्राणियों के अस्तित्व की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। विज्ञान इसकी शक्यता स्वीकार करता है। अन्य लोकों से आने वाली ध्वनि तरंगों से किन्हीं प्रसारणों को सुना गया है और उनका विश्लेषण हो रहा है।
भौतिक उपकरण और भौतिक क्रिया-कलाप इस दिशा में किस हद तक कब तक सफल होगा इसे भविष्य ही बतावेगा। पर भूतकाल यह बताता है कि आत्मिक सशक्तता बढ़ाकर उसके आधार पर लोक-लोकान्तर की समुन्नत आत्माओं से न केवल सम्पर्क ही संभव है वरन् उनके साथ महत्वपूर्ण सहयोगात्मक आदान-प्रदान भी सम्भव है। स्वर्गलोक वासी देवताओं के साथ मनुष्यों के सम्पर्क सम्बन्ध की पौराणिक गाथाओं में ऐसे ही तथ्य विद्यमान हैं। उस विज्ञान को पुनः समुन्नत करके लोकान्तर व्यापी आत्मचेतना के साथ घनिष्ठता उपलब्ध की जा सकती है और इस प्रकार विश्व बन्धुत्व के लक्ष्य को ब्रह्माण्ड बन्धुत्व तक विकसित किया जा सकता है। इस शताब्दी के आरम्भ में साइबेरिया में हुआ एक अकल्पनीय विस्फोट इसी दिशा की ओर निर्देश करता है।
30 जून 1908 साइबेरिया के ताइना प्रदेश में एक भयंकर धमाका हुआ। अचानक सारा आसमान ऐसे तेज प्रकाश से जगमगा उठा मानो कई सूर्य एक साथ निकल पड़े हों। गर्मी इतनी बढ़ी कि लोग प्राण बचाने के लिए जहां-तहां दौड़े। हजारों हवाई जहाज एक साथ उड़ने जैसी भर्राहट आसमान में गूंजने लगी, उसी समय ऐसी तेज-आंधी पैदा हुई कि सैकड़ों वर्ग मील के पेड़ उखड़ गये और मकानों की छतें उड़ गईं।
इस भयंकर विस्फोट को दूर दूर तक सुना, समझा, देखा और अनुभव किया गया। जहाजों जैसी भर्राहट हजारों मील तक सुनी गई। यूरोप भर में तीन रातें अंधेरे से रहित पूरे प्रकाश में बीतीं। आकाश में बादल छाये रहे। लाल, नीले और हरे रंग की किरणें चमकती रहीं, वेधशालाओं के यन्त्रों ने भूकम्प अंकित किया। इर्कतुस्क की वेधशाला ने लम्बी पूंछ वाली तेज प्रकाश जैसी कोई वस्तु दौड़ती हुई नोट की और पुंछल तारे जैसी आकृति बताई।
बेनोबरा तक पहुंचते-पहुंचते यह प्रकाश और भी अधिक चमक से भर गया। आग के गोले जैसा उछला और भयंकर धमाके के साथ फट गया। इस विस्फोट की गर्मी तीन दिन तक छाई रही। इसके बाद स्थिति संभली तो जांच-पड़ताल की जा सकी। देखा गया तो सारा जंगल जलकर खाक हो गया था। बड़े पेड़ों के ठंट जहां-तहां सुलग रहे थे। पशु-पक्षी कोयले की तरह जले-भुने पड़े थे। उस समय यही अनुमान लगाया कि आकाश से कोई उल्का जमीन पर गिरी है और उसी के पृथ्वी के पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करने पर जलने से यह विस्फोट हुआ है। पर यह समाधान भी पूरा और संतोषजनक नहीं था।
घटना के बीस वर्ष बाद सुयोग्य वैज्ञानिकों का एक दल नये सिरे से उस दुर्घटना की जांच करने भेजा गया। दल ने पूरे इलाके में छानबीन की पर इस घटना का कोई कारण समझ में नहीं आया। एक विशेषता यह देखी गयी कि पूरे ताइना प्रदेश की जमीन पर राख फैली पड़ी थी और उसमें रेडियो सक्रिय तत्व बड़ी मात्रा में मौजूद थे। उल्काओं में ऐसे तत्व कभी नहीं होते।
वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जमीन से 3 मील ऊपर अति शक्तिशाली हाइड्रोजन बम जैसा विस्फोट हुआ पर यह हुआ कैसे? किया किसने? बम बना कहां? आया कहां से? उस समय सब संसार में विज्ञान की जो स्थिति थी उसमें इस प्रकार अणुबम की सम्भावनायें जरा भी नहीं थीं।
1959 में रूसी वैज्ञानिकों के अग्रणी एलेक्जेण्डर काजनसोब ने अपना यह प्रतिपादन प्रस्तुत किया कि अणुशक्ति से चलने वाला कोई अंतरिक्षयान धरती पर आया। उतरने की टैक्नीक ठीक तरह न बन पड़ने से ही यान का आकाश में विस्फोट हो गया।
अन्य लोकों से आने वाले अन्तरिक्षीय यान जिन्हें हम आमतौर से ‘उड़न तश्तरी’ कहते हैं। हमारे मानव रहित शोध राकेटों की तरह नहीं होते, वरन् उनमें जीवित प्राणी रहते हैं इस बात के भी प्रमाण मिले हैं। यह प्राणी अपनी पृथ्वी की परिस्थितियों का अध्ययन करते हैं और आवश्यक सूचनायें अपने लोकों को भेजते हैं। इतना ही नहीं वे यहां के मनुष्यों से भी सम्पर्क स्थापित करते हैं ताकि उनकी जानकारियों के आधार अधिक विस्तृत एवं प्रामाणिक बन सके।
उड़न तश्तरी अनुसन्धान संस्था ‘निकैप’ ने ऐसी अनेक घटनाओं का विवरण प्रकाशित कराया है। जिनसे अन्य लोकों के प्रबुद्ध व्यक्तियों का अपनी धरती पर आना सिद्ध होता है। मई 1967 में कालरैडो अड्डे के रेडार से उड़न तश्तरी के आगमन की जो सूचना प्राप्त हुई थी उसे झुठलाना उनसे भी नहीं बन पड़ा जो उड़न तश्तरी मान्यता का उपहास उड़ाते थे। अमेरिकी सरकार ने इस संदर्भ में एक अनुसन्धान समिति की स्थापना की थी। उसके एक सदस्य जेम्समेकओनल्ड ने दल की रिपोर्ट से प्रथम अपनी पुस्तक लिखी है—‘‘उड़न तश्तरियां हां’’ इसमें उन्होंने इन यानों की सम्भावना का समर्थन किया है।
डा. एस. मिलर और डा. विलीले का कथन है इस विशाल ब्रह्माण्ड में एक लाख से अधिक ऐसे ग्रह पिण्ड हो सकते हैं। जिनमें प्राणियों का अस्तित्व हो। इनमें से सैकड़ों ऐसे भी होंगे जिनमें हम मनुष्यों से अधिक विकसित स्तर के प्राणी रहते हों। हम पृथ्वी निवासियों के लिये ऑक्सीजन और नाइट्रोजन गैसें आवश्यक हो सकती है, पर अन्य लोकों के प्राणी ऐसे पदार्थों से बने हो सकते हैं जिनके लिये इन गैसों की तनिक भी आवश्यकता न हो। इसी प्रकार जितना शीत-ताप हमारे शरीर सह सकते हैं उसकी तुलना में हजारों गुने शीत, ताप से जीवित बने रहने वाले प्राणियों का अस्तित्व होना भी पूर्णतया सम्भव है। हम अन्न, जल और वायु के जिस आहार पर जीवन धारण करते हैं अन्य लोकों के निवासी अपनी स्थानीय उपलब्धियों से भी निर्वाह प्राप्त कर सकते हैं।
डा. ले के कथनानुसार अन्तरिक्ष में 1000 अरब तारे हैं, उनमें से 1 करोड़ जीवित प्राणियों के रह सकने योग्य अवश्य होंगे।
अन्तरिक्ष विज्ञानी डा. फानवन का कथन है कि इस विशाल ब्रह्माण्ड में ऐसे प्राणियों का अस्तित्व निश्चित रूप से विद्यमान है जो हम मनुष्यों की तुलना में कहीं अधिक समुन्नत हैं।
कैलीफोर्निया के रेडियो एस्ट्रानामी इन्स्टीट्यूट के डायरेक्टर डा. रोनाल्ड एन. ब्रैस्वेल ने ऐसे आधार प्रस्तुत किये हैं जिनमें सिद्ध होता है कि अन्य ग्रह तारकों में समुन्नत सभ्यता वाले प्राणी निवास करते हैं और वे अपनी पृथ्वी के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील हैं। वे इस प्रयोजन के लिए लगातार संचार उपग्रह भेज रहे हैं। ये उपग्रह कैसे हैं इसका विशेष विवरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा है, वे फुटबाल की गेंद जितने होते हैं। उनमें कितने ही रेडियो यन्त्र और कम्प्यूटर लगे रहते हैं उनमें सचेतन जीव सत्ता भी उपस्थित रहती है जो बुद्धि पूर्वक देखती सोचती और निर्णय लेती है। इन उपग्रहों द्वारा पृथ्वी निवासियों के लिये कुछ विशेष रेडियो सन्देश भी प्रेरित किये जाते हैं जिन्हें सुन तो सकते हैं पर समझ नहीं पाते।
अन्य ग्रहों पर निवास करने वाले प्राणी आवश्यक नहीं कि मनुष्य जैसी आकृति-प्रकृति के ही हों, वे वनस्पति कृमि-कीटक, झाड़, धुंआ जैसे भी हो सकते हैं और महादैत्यों जैसे विशालकाय भी। जिस प्रकार की इन्द्रियां हमारे पास हैं उनसे सर्वथा भिन्न प्रकार के ज्ञान तथा कर्म साधन उनके पास हो सकते हैं।
उड़न तश्तरियों के क्रिया-कलाप में मनुष्य जाति की अधिक दिलचस्पी लेना शायद उनके संचालकों को पसन्द नहीं आया है अथवा वे प्राणी एवं वाहन ऐसी विलक्षण शक्ति से सम्पन्न हैं जिसके सम्पर्क में आने पर मनुष्य की सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है।
24 जून 1967 को न्यूयार्क में उड़न तश्तरी शोध सम्मेलन चल रहा था। उसी समय सूचना मिली इस रहस्य की अनेकों जानकारियां संग्रह करने वाले फ्रेंक एडवर्ड का अचानक हृदय गति रुक जाने से स्वर्गवास हो गया। यह मृत्यु ठीक उसी तारीख को हुई जिससे कि उनने यह शोध कार्य हाथ में लिया था। 24 जून ऐसा अभागा दिन है जिसमें इस शोध कार्य में संलग्न बहुत से वैज्ञानिक एक एक करके मरते चले गये हैं। अकेले फ्रेंक एडवर्ड ही नहीं, क्वीन अरनोल्ड, आर्थर ब्राथेट, रिचर्ड चर्च, फ्रेंक सकली, विले ली आदि सभी इसी तारीख को मरे हैं। दस वर्षों में 137 उड़न तश्तरी विज्ञानियों का मरना अत्यन्त आश्चर्यजनक है। इस अनुपात से तो कभी किसी विज्ञान क्षेत्र के शोध कर्ताओं की मृत्यु दर नहीं पहुंची। जार्ज आज मस्की ने केलीफोर्निया के दक्षिण पार्श्व में एक उड़न तश्तरी आंखों देखी थी। दर्शकों में एक प्रत्यक्षदर्शी जार्ज हैट विलियम सन भी था। वे घटना का विस्तृत विवरण प्रकाशित कराने में संलग्न थे। इतने में आदमस्की की हृदय गति रुकने से मृत्यु हो गई और हैट न जाने कहां गुम हो गया फिर कभी किसी ने उसका अता-पता नहीं पाया। ट्रमेन वैथाम अपनी आंखों देखी गवाही छपाने की तैयारी ही कर रहे था कि अपने बिस्तर पर ही अचानक लुढ़क कर मर गया। ऐसी ही दुर्गति, बर्नी हिल नामक एक गवाह की हुई।
डा. रेमेण्ड बर्नाड ने उड़न तश्तरियों पर कई पुस्तकें लिखी हैं। अचानक एक दिन उनकी मृत्यु घोषणा कर दी गई। पर कोई नहीं जानता था कि वे कब मरे, कहां मरे, कैसे मरे? सन्देह है कि वे अभी भी जीवित हैं पर कोई नहीं जानता कि वे कहां हैं? इसी विषय पर एक अन्य पुस्तक प्रकाशित करने वाले डा. मौरिस केजेसप ने खुद ही आत्महत्या करली। अपने मोजों से गला घोंट कर आत्महत्या करने वाली ‘डोली’ और अनशन करके प्राण छोड़ने वाली ग्लोरा के बारे में कहा जाता है कि एक उड़न तश्तरी के चालकों से भेंट के उपरान्त उन्हें ऐसा ही निर्देश मिला था जिसे वे टाल नहीं सकीं। कैप्टन एडवर्ड रूपेष्ट और विलवर्ट स्मिथ अपनी मौत के स्वयं ही उत्तरदायी थे। राष्ट्रसंघ के प्रमुख डाग हेमर शोल्ड का वायुयान 19 सितम्बर 1961 को जल कर नष्ट हुआ। दुर्घटना के प्रत्यक्षदर्शी स्मिथ मानास्का ने कहा कि उसने उस यान पर एक चमकदार तश्तरी झपट्टी मारती देखी थी। ये सभी लोग वे थे जिन्होंने उड़न तश्तरियों का पता लगाने के सम्बन्ध में गहरी दिलचस्पी ली थी।
सन् 1952 में दो इंजीनियरों ने उड़न तश्तरियों को देखा। मोण्टाना के ग्रेटफालन के समीप बैठे दो इंजीनियर आपस में बातचीत कर रहे थे तभी उन्हें आकाश से उतरती हुई दो गोल-गोल सी वस्तुयें दिखाई दीं। सन् 1952 की बात है। उन दिनों उड़न तश्तरियों पर दुनिया भर में तरह-तरह के विवाद और किम्वदन्तियां फैल रही थीं कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिल रहा था जिसके आधार पर सरकारी तौर पर उड़न तश्तरियों के किसी ग्रह-नक्षत्र से धरती पर उतरने की बात सत्य घोषित की जाती।
दोनों इंजीनियरों ने बात की बात में तय कर लिया कि यह गोल वस्तुयें उड़न तश्तरियां ही हैं। उन्होंने अपने कैमरे निकाल लिये और जब तक वह गायब हों, उनके सैकड़ों चित्र उतार लिए। सरकारी तौर पर इन चित्रों को नकली सिद्ध करने की लगातार कोशिश की गई पर वैसा हो नहीं सका। पहली बार यह निर्विवाद सिद्ध हो गया कि उड़न तश्तरियां आकाश के किसी ग्रह नक्षत्र से भेजे गये कोई विशेष शोध-यन्त्र हैं। कुछ तो यानों जैसी बड़ी भी दिखाई दी हैं जो इस बात का प्रमाण है कि बुद्धि का अस्तित्व, मात्र पृथ्वी तक सीमित नहीं। जीवन का स्वरूप कुछ भी हो पर उसकी सत्ता लोकान्तर ग्रहों में भी विद्यमान अवश्य है।
सन् 1957 में इसी प्रकार की घटना घटी, न्यूमैक्सिको के पास। यहां के प्रक्षेपास्त्र विकास केन्द्र में काम करने वाले एक इंजीनियर श्री अलामागोर्दो कहीं जा रहे थे। कार के सभी यन्त्र ठीक काम कर रहे थे, तभी वह एकाएक जाम हो गई, कार में लगा रेडियो भी चुप हो गया। कौतूहलवश अलामागोर्दो ने दृष्टि ऊपर उठाई और उसने जो कुछ देखा उससे हक्का-बक्का रह गया। एक भीमकाय यंत्र जो अनुमानतः दो-ढाई हजार मील प्रति घण्टे की रफ्तार से आकाश की ओर जा रहा था, सिर के ऊपर से होकर गुजर रहा था। देखते देखते वह जाकर कहीं आकाश में विलीन हो गया। ज्यों-ज्यों यह दूर हटा, कार के पुर्जे, बैट्री, रेडियो काम करने लायक होते गये। इस यन्त्र की सूचना देते हुये अलामागोर्दो ने बताया यह यन्त्र विद्युत चुम्बकीय शक्ति द्वारा ही चालित होना चाहिये जो इस बात का प्रमाण है कि अन्य लोकों में बुद्धि ही नहीं विज्ञान भी सम्भावित है।
दो महा बाद ऐसी ही एक घटना घटी ब्राजील में। समुद्र में खड़ा ब्राजीलियन जलपोत कुछ परीक्षण कर रहा था। उसके ऊपर उतरती हुई वैसी ही एक गोल तश्तरीनुमा वस्तु दिखाई दी। फोटोग्राफर बैरोना ने बात की बात में उसके चार फोटो ले लिये। फोटो धुलकर आये वैज्ञानिकों ने उनका अध्ययन कर पाया कि यह छल्लेनुमा प्लेटफार्म पर बना था और चित्र वास्तविक था। इस घटना ने यह भी सिद्ध कर दिया कि अन्य लोकों में बुद्धि और विज्ञान ही नहीं कला-कौशल भी है। शायद वे लोग पृथ्वी के निवासियों के ज्ञान विज्ञान की जानकारी और लाभ लेना चाहते हों तभी यह उड़न तश्तरियां प्रायः विशेष स्थानों के पास ही उतरती पाई गई हैं।
‘‘वर्ल्ड काउन्सिल आफ चर्वेज’’ तस्मानियां के सेक्रेटरी श्रीमान् लियोनेल ब्राउनिंग का इस प्रकार की खबरों में कोई विश्वास नहीं था। उड़न तश्तरियों को वे कल्पना की उड़ान, कहा करते थे। दैवयोग से 4 अक्टूबर 1960 को एक घटना तस्मानियां के पास कैस्सी में ही घट गई। एक साथ छह हवाई जहाज उतरते दिखाई दिये, आकाश उनकी चमक और गड़गड़ाहट से गूंज उठा तभी आकाश को चीर कर आती हुई गोल तश्तरियां उतरती दिखाई दीं। वे इन जहाजों की ओर विचित्र प्रकार से झपटी। तश्तरियां नीचे चपटी थीं और उनके ऊपर की शक्ल गुम्बदाकार थी। इन्हें देखने के लिये हजारों लोग सड़कों पर इकट्ठा हो गये, पर तभी वह सब के सब यान बादलों के बीच कहीं इस तरह खो गये कि उनका पता ही न चला—जाने कहां गये।
इस घटना की कई बातें काफी समय तक रहस्य जैसी रहीं। इसके पांच वर्ष बाद सन् 1965 में कैनबरा (आस्ट्रेलिया) में फिर वैसी ही घटना घटी। आकाश में से एक गोल वस्तु लड़खड़ाती हुई नीचे गिरती-सी जान पड़ी। इसी बीच एक विलक्षण लाल किरण इस तश्तरी की ओर झपटी और ऐसा लगा जैसे वह उस सफेद वस्तु के भीतर घुस गई होगी। अब उस उड़न तश्तरी का लड़खड़ाना बन्द हो गया और वह नीचे आने की अपेक्षा ऊपर की ओर बढ़ी और उस लाल किरण के सहारे वहां तक उड़ती चली गई जहां एक लाल चंद्रमा की तरह नक्षत्र जैसी कोई वस्तु चमक रही थी दोनों वस्तुयें देखते-देखते एकाकार हुईं और फिर न जाने कहां खो गईं वे। 1961 में ऐसी ही घटना वियूला मिशान के पास घटी थी पर उसका विश्लेषण नहीं किया जा सका था। इस घटना से यह पता चला कि उड़न तश्तरियां किसी सुनियोजित ‘‘अन्तरिक्ष मिशन’’ का अंग होती हैं और जिस प्रकार पृथ्वी से चन्द्रमा की ओर जाने वाले चन्द्रयान कई चरण के होते हैं यह भी कई चरणों वाले तथा एक दूसरे से परस्पर सम्बद्ध होते हैं। एक-दूसरे से जुड़ने, एक-दूसरे को शक्ति देने, गलती ठीक करने की सारी क्रियाओं का नियन्त्रण कहीं और से ठीक इसी प्रकार होता है जिस प्रकार ह्यूस्टन में बैठे कुछ वैज्ञानिक चन्द्रमा की ओर जाने वाले यात्रियों का जमीन से ही संरक्षण और दिशा निर्देशन करते रहते हैं। प्रकाश शक्ति की ओर भी जानकारी के साथ-साथ अपने यहां से जाने वाले अन्तरिक्ष यानों के आकार-प्रकार गति और नियंत्रण में अन्तर पड़ सकता है और यह चन्द्रयान भी इन उड़न तश्तरियों जैसा रूप लेकर अनेक प्रकाश—वर्षों की दूरी वाले ग्रह-नक्षत्रों में भी जाना संभव हो सकता है। आस्ट्रेलिया की इस घटना की पुष्टि पीछे लिस्बन की वेधशाला के खगोल शास्त्रियों ने भी की थी।
कैलिफोर्निया में एक उड़न तश्तरी का जेट विमानों से पीछा भी किया गया पर वह विमान उसे पकड़ न सके जिससे पता चला कि अन्य लोकवासी बुद्धिमान भी हैं और विचारशील भी। हर संभावित खतरों का पूर्वानुमान करके ही वे अगले कदम निर्धारित करते हैं।
यह उड़न तश्तरियां केवल आकाश में उड़ने तक ही सीमित नहीं। लगता है प्रयोग के लिये वे यहां की मिट्टी वनस्पति आदि भी ले जाती और सृष्टि में जीव के उद्भव सम्बन्धी खोज कर्त्ताओं के खोज का रास्ता बनाती है। 26 मई 1962 को 23 हाईवे मसेचुसेट्स के पास एक अण्डाकार यान पृथ्वी पर उतरा पेड़ों के पीछे निर्जन एकान्त और सुरक्षित स्थान में खड़ा यह यान दो तरफ से तेज चमक रहा था लगता था भीतर कोई ऐसा यंत्र रखा है जिससे चिनगारियां फूट रही हैं। यह यन्त्र थोड़ी देर रहकर उड़ गया और अनंत अन्तरिक्ष में न जाने कहां विलीन हो गया पर जाते-जाते वह यह बात अवश्य समझा गया कि जीवन का अस्तित्व पृथ्वी तक सीमित नहीं बुद्धि और विचार की सत्तायें अन्य लोकों में भी विद्यमान हैं। उनके स्वरूप चाहे जैसे क्यों न हों?
यह समझना भूल होगी कि इस ब्रह्माण्ड में हम पृथ्वी निवासी मनुष्य ही अकेले उन्नतिशील हैं। वस्तुतः इस विराट् विश्व में हमारी जैसी अगणित पृथ्वी विद्यमान हैं और उनके निवासी हमसे भी अनेक बातों में आगे बढ़े चढ़े हैं। यदि आत्म तत्व के विकास द्वारा इन लोक लोकांतरों के बुद्धिजीवी प्राणी परस्पर सम्बन्ध बना सकें और समग्र-शान्ति की दिशा में कुछ मिल-जुलकर प्रयत्न कर सकें तो कितना अच्छा हो। सम्भव है उड़न तश्तरियों के पीछे अन्य लोक वासियों में से कोई ऐसे ही प्रयत्न कर रहे हों। अन्य लोकों से संपर्क के प्रयोग
25 अगस्त 1966 को नार्थडेकोटा में एक वायुसेना के अधिकारी को रेडियो तरंगों के द्वारा सन्देश भेजने में एकाएक बाधा अनुभव हुई। अधिकारी उसका कारण समझ नहीं पा रहा था, तभी एक दूसरे ऑफिसर ने आकर बताया कि उसने एक उड़न तश्तरी यू.एफ.ओ. (अन-आइडेन्टीफाइड आब्जेक्ट) देखी है। उससे गहरे लाल रंग का प्रकाश निकल रहा था। वह कभी ऊपर, कभी नीचे उड़ रही थी। इसी समय एक रैडार ने भी 100000 फीट ऊपर उड़ते हुए एक गोल तश्तरी पर्दे पर फ्लेश देखी। उड़न तश्तरी जब तक दिखाई देती रही, तब तक संचार-व्यवस्था (सिगनल-सिस्टम) बिल्कुल ठप्प रहा, इसके बाद सन्देशों का आवागमन फिर प्रारम्भ हो गया।
अब तक यह उड़न तश्तरी दक्षिण की ओर मुड़ चुकी थी और यह अनुमान था कि कोई 15 मील की दूरी पर वह पृथ्वी पर उतर गई है, इसलिये अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित वायुसेना का एक कुशल दस्ता (स्क्वेड्रेन) उधर दौड़ाया गया। किन्तु उनके वहां पहुंचने तक 8 मिनट में ही वह गोला न जाने कहां अदृश्य हो गया इसी बीच दूसरी तश्तरी उत्तर की ओर दिखाई दी, उसे भी रैडार ने देखा पर जब तक दस्ता उधर दौड़े वह भी गायब हो गई।
3 अगस्त 1965 की बात है, सांता आना (कैलिफोर्निया) के पास एक उड़न तश्तरी बाईं ओर से आई और सड़क पर देर तक इस तरह चक्कर लगाती रही, मानो वह किसी वस्तु को ढूंढ़ रही हो, फिर दायें मुड़ी और खेतों का चक्कर लगाया। सड़क निरीक्षक रेक्स हेफ्लिन उड़न तश्तरी की इन सारी हरकतों को देख रहा था। उसने इन दृश्यों को अपने कैमरे में खींच लिया। उसका एक चित्र धर्मयुग के 1 दिसम्बर 1968 के अंक में प्रकाशित भी हुआ है। उसमें सड़क के बाईं ओर ऊपर उड़न तश्तरी साफ दिखाई देती है। 5 अगस्त 1953 में एक और आश्चर्यजनक घटना ब्लैकहाक, साउथ डेकोटा में घटी। चालकों ने रात में आकाश की ओर अद्भुत वस्तुयें देखीं। वायुसेना के एक अड्डे पर रैडार ने भी इन उड़न तश्तरियों को देखा। वायुयान चालक ने बताया कि वह सबसे अधिक चमकने वाले तारे से भी अधिक चमकदार कोई वस्तु देख रहा है। वह वायुयान से दुगुनी गति से दौड़ रही थी। वायुयान के पीछा करते ही वह कहीं अदृश्य हो गई।
इसी तरह 6 नवम्बर 1957 के दिन ओटावा से 100 मील दूर वास्काटांग झील के पास एक उड़न तश्तरी रात के कोई 9 बजे आई, उसके कारण रेडियो की शॉर्ट और मीडियम दोनों लहरें बन्द हो गई थीं। उस उड़न तश्तरी के दर्शकों में एक इलेक्ट्रानिक्स इंजीनियर भी था, उसने अपने रिसीवर को चालू करना चाहा पर उसे तीव्र किट-किट की आवाज के अतिरिक्त कुछ सुनाई न पड़ा। वह आवाज उड़न तश्तरी के माध्यम से किसी अन्य लोक के नियन्त्रण केन्द्र का संकेत थी या और कुछ, उसकी कुछ भी जानकारी नहीं है।
4 अक्टूबर 1967 को एक शाम को कनाडा के समुद्रीतट पर ‘शागहार्बर’ के सैकड़ों निवासियों ने एक विचित्र वस्तु आकाश से निकल कर आते देखी। उसकी चमकदार किरणें पीछे एक कतार-सी छोड़ती आ रही थीं। इसके बाद उसे लोगों ने समुद्र की सतह पर उतरते देखा। किरणों की कतार समुद्र में जाकर विलीन हो गई। 20 मिनट के भीतर ही पुलिस कर्मचारी घटना-स्थल पर पहुंचे और उड़न तश्तरी के धंसने वाले स्थान की खोज करने लगे।
एक जहाज और आठ नावें भी उस खोज में सम्मिलित हुईं। सर्चलाइट के तेज प्रकाश में केवल समुद्र के एक स्थान से पीले रंग का झाग निकलता दिखाई दिया। बहुत से बुलबुले भी निकल रहे थे। ऐसा वहां पहले कभी नहीं देखा गया था। फिर भी उड़न तश्तरी का कोई प्रकाश नहीं दिखाई दिया। दो दिन तक नौ-सैनिक गोताखोर गोता लगाते रहे पर वहां किसी वस्तु या उड़न तश्तरी का कोई प्रमाण नहीं मिला।
हैसलबेक जर्मनी का वह जंगली हिस्सा जहां अमेरिका और रूस की सीमायें मिलती हैं, 11 जुलाई 1952 में एक विचित्र घटना घटित हुई। एक उड़न तश्तरी, जिसका व्यास कोई 8 मीटर होगा, के पास दो चमकीले लबादे पहने, छोटे-छोटे मनुष्य खड़े थे। वहां का एक निवासी अपनी 11 वर्षीया पुत्री के साथ जा रहा था। उसे देखते ही वह लबादाधारी उड़न तश्तरी में समा गये और देखते-देखते अन्तरिक्ष में विलीन हो गये।
एनिड ओकलाहोमा के पुलिस स्टेशन में 29 जुलाई 1952 को एक आदमी ने प्रवेश किया। वह डर के मारे थर-थर कांप रहा था। उसने अपना नाम सिड यूवैक बताया। वह इतनी बुरी तरह भयग्रस्त था कि कोई स्वप्न में भी उसके अभिनय करने की बात नहीं सोच सकता था। उसने बताया कि एक उड़न तश्तरी उसका अपहरण करना चाहती थी वाइसा और वाकोमिस के मध्य 81 हाइवे पर वह अपनी कार से जा रहा था कि एक जबर्दस्त उड़न तश्तरी बड़े वेग से कार के ऊपर गोता-सी लगाती हुई झपटी। उस झपट के कारण हवा का इतना तीव्र झकोरा आया कि कार थपेड़ा खाकर सड़क से बाहर जा गिरी। तश्तरी घड़ी के पैंडुलम की तरह कार के ऊपर थोड़ी देर तक झूलती रही और फिर एकाएक गायब हो गई।
काल्पनिक-सी लगने वाली उड़न तश्तरियों की यह घटनायें अब तथ्यों के इतने समीप आ गई हैं कि उन्हें झूठ कहकर टाला नहीं जा सकता, यदि हमारी धरती में विज्ञान का विकास हो सकता है कि यहां के लोग समुद्र में कूद कर कई दिन तक उसके भीतर रह सकते हैं, खेतों, खलिहानों, सड़कों, शैलाबग्रस्त क्षेत्रों का निरीक्षण कर सकते हैं। आकाश में दूर-दूर तक मंगल, शुक्र को और चन्द्रमा की सतह तक अपने स्पूतनिक (राकेट) पहुंचा सकते हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है कि ब्रह्माण्ड के किसी और नक्षत्र में भी इस तरह का वैज्ञानिक विकास हो चुका हो और वहां के निवासी भी पृथ्वी-वासियों से सम्पर्क या सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हों। या फिर यहां की परिस्थितियों का अध्ययन कर रहे हों, ताकि एक दिन यहां के लोगों से उसे छीन कर अपने यहां के निवासियों को लाकर बसा सकें।
19वीं शताब्दी में यह सारी बातें यों ही झुठला देने की हो सकती थीं बीसवीं सदी में नहीं। भगवान् राम को विरथ देखकर आकाश से इन्द्र ने विमान भेजा, मातुतिन उसका चालक था, लंका से अयोध्या पहुंचाने के लिये भी पुष्पक विमान आया था। ‘‘बैबिलोन के हिब्रू भविष्यवक्ता इजकिल ने भी इस तरह का एक विवरण ईसा से 1130 वर्ष पूर्व लिखा था और बताया कि एक दिन उसने देखा कि एक तूफान सा उठ रहा है। उसमें एक प्रचण्ड बादल फंस गया है। धीरे-धीरे उस बादल से एक गोला निकला, उसे देखकर आंखें चौंधिया जाती उसमें से चार जीवित प्राणी निकले। मुझे पृथ्वी से एक चक्का ऊपर उठता भी दिखाई दिया, तब वह चारों जीवित प्राणी भी नहीं दिखाई दिये।’’ उसके इस कथन को तब भ्रान्त प्रलाप कहा गया था पर आज का वैज्ञानिक यह मानने को विवश हैं कि पृथ्वी का सम्बन्ध यदि करोड़ों वर्ष पूर्व से ही लोकान्तर वासियों से रहा हो तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।
शक्तिशाली दूरवीक्षण यन्त्रों और गणकों द्वारा, अनेक वैज्ञानिक अथाह अन्तरिक्ष में तैरते हुए ग्रहों के सम्बन्ध में सही जानकारी प्राप्त करने के लिये दिन रात जुटे रहते हैं, अब वे भी मानने लगे हैं कि ब्रह्माण्ड के करोड़ों ग्रहों में से किसी न किसी में बुद्धिमान प्राणियों का आविर्भाव अवश्य है और वे भी हमारी तरह दूसरे जगतों से सम्पर्क स्थापित करने के प्रयत्न में संलग्न हैं। मनुष्य ने स्वयं ऐसे रेडार स्टेशन बना लिये हैं जो दस प्रकाश वर्षों की दूरी तक आपस में संचार सम्बन्ध बनाये रख सकते हैं। यहां यह समझ लेना आवश्यक है कि ग्रह-नक्षत्रों की दूरी इतनी अधिक है कि उसे गज, फिट, इंच या मीलों, मीटरों में नहीं नापा जाता है। प्रकाश की गति एक सेकिण्ड में एक लाख छियासी हजार मील है। एक प्रकाश वर्ष की दूरी का अर्थ यह होगा कि उस नक्षत्र तक हमारी पृथ्वी से 1 लाख 86 हजार मील प्रति सेकिण्ड की गति से चलने में 1 वर्ष लगेगा।
खगोल शास्त्रियों का मत है कि 10 प्रकाश वर्ष की दूरी में कुछ 10 नक्षत्र ही ऐसे हैं, जिनमें थोड़ा बहुत बुद्धिमान प्राणियों के अस्तित्व की सम्भावना है पर यदि हजार या करोड़ प्रकाश वर्ष की सीमा से ऊपर उठ जायें तो सम्भव है, वहां अधिक बुद्धिमान प्राणी मिलें किन्तु पृथ्वी वासी की आयु हजार वर्ष की हो नहीं सकती, इसलिये 1 हजार वर्ष की प्रतीक्षा में न तो वहां भेजे गये संकेतों का ही कोई लाभ है और न ही वहां जाने का क्योंकि यदि किसी वैज्ञानिक यन्त्र के माध्यम से वहां जाने का प्रयत्न किया भी जाय तो मनुष्य बीच में ही कहीं मर जायेगा।
यहां बात दूसरे लोगों से आने वाले प्राणियों के लिये भी है, इसलिये वैज्ञानिक सन्देह करते हैं कि उड़न तश्तरियों के उतरने की बात कुछ बुद्धि संगत है भी या नहीं। पर उन्हीं के कुछ अनुसंधान इस असम्भावना को भी भगा देते हैं। जीव-जन्तुओं पर किये गये अनुसन्धानों से पता चला है कि यदि किसी प्राणी को जीवित अवस्था में बहुत अधिक ठण्डा कर दिया जाये तो वह एक प्रकार की सुषुप्तावस्था (हाइबरनेशन) में चला जाता है। उस समय इतनी गहरी नींद आ जाती है कि कोई पास से गुजरे तो यही समझेगा कि यह किसी की लाश है, किन्तु सौ वर्ष या उससे भी अधिक समय बाद वह नींद टूटने पर प्राणी बिल्कुल वैसा ही स्वस्थ और थकावट रहित अनुभव कर सकता है, जैसा कि सोकर जागने के पश्चात्। यदि इस सिद्धान्त को व्यवहारिक बनाया जा सके तो सम्भव है कि हजार प्रकाश वर्ष की दूरी मनुष्य सुषुप्तावस्था में पार कर ले और किसी नक्षत्र में पहुंचने पर फिर जाग उठे। वहां के अध्ययन के पश्चात् फिर उसी स्थिति में एक हजार वर्ष बाद पृथ्वी पर लौट आये। तब अधिक से अधिक यही होगा कि यहां के लोग कई सभ्यतायें बदल चुके होंगे और अन्तरिक्षवादी का अपना ही परिचय देना कठिन हो जाये।
यह समस्या दूसरी तरह से सुलझ सकती है। हमारे शास्त्रों में मनुष्यों की आयु कई कई हजार वर्ष बताई गई है शंकर की द्वितीय पत्नी उमा ने तो कई हजार वर्ष केवल तपश्चर्या ही की थी। लोग उसे गप्प कहते हैं पर आज का वैज्ञानिक वह भूल नहीं करना चाहता। वह मानता है कि वृद्धावस्था एक रोग है और उसे दूर किया जा सकता है। जीव कोशिका पर चल रहे अनुसन्धान एक दिन मनुष्य की आयु को इच्छानुवर्ती बना सकते हैं, अब इसमें सन्देह नहीं रह गया, श्रम और समय ही अपेक्षित रहा है। अन्तरिक्ष यानों से रेडियो सन्देश प्राप्त करने में जो समय लगता है, उसे बहुत कम करने के लिए वैज्ञानिक किसी ऐसे ‘क्रिस्टल’ की खोज में हैं, जो ‘मन’ की गति से काम कर सकता हो। उस अवस्था में यह देरी सिकुड़ कर इतनी रह जायेगी, जितनी परस्पर बातचीत में होगी। किसी ऐसे तत्व की सम्भावना से वैज्ञानिकों ने उसकी पुष्टि में आपेक्षिक तीव्र गति (रिलेटिव वेलोसिटी) का एक सिद्धान्त भी खोज लिया है, उसके अनुसार जो रेडियो सन्देश किसी स्थान को पहुंचाने में या कोई वस्तु अन्य ग्रह में पहुंचाने में दस हजार वर्ष लेती हो वह केवल 20 वर्ष में ही पहुंचाई जा सके। यद्यपि ब्रह्माण्ड की अनन्तता और असीमितता के आगे यह आपेक्षित तीव्र गति भी बहुत न्यून है। पर उससे इस सम्भावना की पुष्टि तो हो ही जाती है कि ऊपर ब्रह्माण्ड के किसी नक्षत्र में पहुंचने के लिये समय और गति को नियन्त्रित और आपेक्षित बनाया जा सकता है।
इस प्रयास में बहुत कुछ सहयोग ब्रह्माण्ड भी देखा। हमें यह पता है कि पृथ्वी एक भयंकर गति से घूमती है और सूर्य का भी चक्कर लगाती है। सूर्य स्वयं भी भ्रमण करता है और अपने सौरमण्डल के दूसरे नक्षत्रों को भी चक्कर लगाने के लिये विवश करता है। सौर-मण्डल में चक्कर काटते हुए नक्षत्र सामूहिक रूप से किसी और दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। अनुमान है कि वह किसी अन्य नक्षत्र का चक्कर काटता है। ऐसे-ऐसे अनेक सौर-मण्डल परिक्रमा करने में लगे हुए हैं। परिक्रमाशील नक्षत्र की ओर उड़ने वाला पृथ्वी के यान को गणित के ऐसे सिद्धान्त के सहारे भेजा जाना सम्भव है, जिससे आधी दूरी तो वह चले और शेष आधा भाग वह नक्षत्र चलकर पास आ जावे जिसमें उसे जाना है।
इन सब सम्भावनाओं के व्यक्त करने का एक ही कारण है और वह यह है कि यदि इन सब सम्भावनाओं का विकास किसी अन्य नक्षत्र ने कर लिया होगा और वे पृथ्वी से सम्पर्क साधना चाहते होंगे तो वे निश्चय ही उड़न तश्तरियों में बैठकर पृथ्वी में आते होंगे। इसलिये उड़न तश्तरियों के इन प्रसंगों को मिथ्या नहीं कहा जा सकता। अपनी-अपनी जानकारी गुप्त रखने की भी एक परम्परा वैज्ञानिक देशों में है। इसलिये विज्ञान के जो आविष्कार और तथ्य सामने आ चुके हैं, उससे अधिक वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों की डायरियों में गुप्त हैं, उन सबकी जानकारी चौंकाने वाली हो सकती है। वह जैसे-जैसे सामने आती जायेंगी, यह सिद्ध होता जायेगा कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्र एक ही कुटुम्ब के सदस्य हैं, उनमें उसी तरह सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है, जैसे एक गांव वाले दूसरे गांव से रखते हैं।
अर्जेन्टीना के शोध विज्ञानी डा. पेड्रो रोमनुक ने व्यूनस एरस में लगभग इसी तथ्य को प्रमाणित करते हुए बताया कि रूस और अमेरिका दोनों के पास दूसरे ग्रहों से आई हुई टूटी-फूटी उड़न तश्तरियां हैं। वह कैनेडी विश्व-विद्यालय के अन्तर्गत—‘बायोसाइको सिंथेसिस’ भाषणमाला के उद्घाटन समारोह में बोल रहे थे। उन्होंने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा—‘‘रूस को एक ‘नर्स-शिप’ मिला है, जिसका अध्ययन वहां के विद्वानों ने किया है पर उन्होंने उस सम्बन्ध में कोई बात नहीं बताई। इसी प्रकार अमेरिका को आलामो गोर्डो, न्यूमैक्सिको क्षेत्र में एक उड़न तश्तरी मिली।
उत्तर पश्चिमी अमेरिकी वेधशाला के निर्देशक श्री सिलास न्यूटन ने अमेरिकी वायु गुप्तचरी केन्द्र को इसकी सूचना दी। उन्होंने यह भी बताया कि इस उड़न तश्तरी में दरवाजों की जगह बाहर निकलने के छोटे-छोटे छेद बने हुए हैं। इनमें से केवल छोटे आकार के प्राणी गुजर सकते हैं। स्वच्छ और कड़ी धातु की इस उड़न तश्तरी में छोटे आकार के 6 शव भी पाये गये। इनमें पाये गये प्राणियों का आकार-प्रकार मनुष्यों से मिलता-जुलता है। ऐसा लगता है, उड़न तश्तरी का द्वार खराब हो गया तो वायु मंडलीय प्रभाव से उनकी मृत्यु हो गई। यह अन्तरिक्ष यान सौर-शक्ति से चलता है। इन प्राणियों ने किसी धातु का पारदर्शी नीला वस्त्र-सा धारण किया हुआ था, इस धातु पर किसी कैंची या ज्वलनशील टार्च का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता।’’
डा. रोमनिक ने उस सौर-शक्ति के बारे में विस्तार से कुछ नहीं बताया पर अब यह निश्चित हो चुका है कि कभी यहां जीवित प्राणी दूसरे नक्षत्रों से अवश्य आते रहे होंगे और उनका पृथ्वीवासियों से घनिष्ठ सम्बन्ध भी रहा होगा इस सम्बन्ध में कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण प्राचीन अवशेषों का विवरण किसी अगले अंक में देंगे।
अन्यान्य ग्रह नक्षत्रों में क्या पृथ्वी जैसी सुसंस्कृत मानव जाति निवास करती है? क्या उन लोगों का विकास मनुष्य जितना अथवा उससे अधिक हो चुका है? क्या वे कभी-कभी पृथ्वी निवासियों के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिए वैसा ही प्रयत्न करते हैं जैसा कि हम लोग सौर-मण्डल की परिधि के ग्रह-उपग्रहों तक पहुंचने का प्रयास करते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर विद्वान् ‘‘एरिद फोन डानिकेन’’ ने अपनी पुस्तक ‘‘चैरियट्स गाडस्’’ नामक पुस्तक में तथ्य और प्रमाण उपस्थित करते हुए दिया है। उन्होंने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है कि किसी सुविकसित सभ्यता के मनुष्य से बढ़ कर सुयोग्य प्राणी समय-समय पर धरती के साथ सम्पर्क स्थापित करते रहे हैं और यहां की स्थिति को समझने के लिए उनने बहुत सारी कुरेदबीन की है जिसके प्रमाण अभी भी विद्यमान हैं।
अठारहवीं सदी का बना एक ऐसा नक्शा तुर्की के टोपकापी पैलेस में पाया गया है, जिसमें भूमध्यसागर, मृतसागर उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका, अटाकैटिक आदि इस के प्रकार दिखाये गये हैं मानो उन्हें किसी विमान पर चढ़ कर खींचा गया हो। तात्कालीन साधनों को देखते हुए वैसे कोई साधन उन दिनों नहीं थे। जो भी नक्शे भूतकाल में बने हैं, वे इतने विस्तृत क्षेत्र का इतना अधिक सही विवरण प्रस्तुत करने वाले नहीं हैं, जैसा कि यह नक्शा है। यह नक्शा उन्हीं देव मानवों का बनाया हो सकता है जो अन्य लोकों से अपने विशेष यानों पर सवार होकर धरती पर उतरे होंगे।
लाइमा के दक्षिण में केडिक्लिफ दीवार पर 80 फीट ऊंचा स्तम्भ बना हुआ है। जिस स्थान पर जितना धन लगा कर और जिस तरह वह बना है वहां उसका कोई उद्देश्य प्रतीत नहीं होता। सम्भवतः वह पृथ्वी के किसी स्थान विशेष का संकेत उन अन्तरिक्ष यात्रियों को देता होगा ताकि वे उतरने के लिए उपयुक्त स्थान की जानकारी प्राप्त कर सकें। ईरान का गोवी मरुस्थल और केवाड़ा मरुस्थल का विश्लेषण करने पर वहां किसी परमाणु विस्फोट की स्थिति का आभास मिलता है। दक्षिण रोडेशिया, उत्तर अमेरिका, सहारा, पेरू, फ्रांस, कोहिस्तान की गुफाओं में ऐसी चित्रकला पाई गई है, जिसमें मनुष्य को अन्तरिक्ष यात्री की पोशाक पहने हुए चित्रित किया गया है। अकारण ऐसे चित्र क्यों बनते?
दिल्ली का कुतुबमीनार का स्तम्भ इस प्रकार शुद्ध धातु से बना है, जिस पर दो हजार वर्ष बीत जाने पर भी हवा, पानी का कोई असर नहीं हुआ। यह फास्फोरस और गन्धक से रहित स्पात का बना है। उस जमाने की समुन्नत टेक्नालॉजी पर आज के वैज्ञानिक स्तब्ध हैं और विधि ढूंढ़ नहीं पाये जिसके आधार पर उस लौह स्तम्भ जैसी शुद्ध धातु बना सकें। मिश्र में मुर्दों को सुरक्षित रखने की विधि, पुरातन गुफाओं की चित्रकला में खराब न होने वाले रंग भी आज के रसायन शास्त्र के लिए एक चुनौती हैं। डानिकेन का कथन है ऐसे समुन्नत विज्ञान अन्तरिक्ष मानवों जैसा धरती निवासियों को दिया हुआ अनुदान ही हो सकता है।
डानकेन कहते हैं कि अपनी आकाश गंगा में 18 हजार तारे ऐसे हैं जिनमें जीवन विकास की अनुकूल स्थिति मौजूद है। यदि यह माना जाय कि इनमें से एक प्रतिशत में ही समुन्नत प्राणी होंगे तो भी 180 नक्षत्रों में सुविकसित जीवन आवश्यक होगा। उनकी समुन्नत स्थिति ऐसी हो सकती है, जिसे हम अपने साथ तुलना करने पर अतिमानव या देवता कह सकें। आश्चर्य नहीं उन दिनों अन्य लोकवासी समुन्नत लोग अपनी धरती के साथ अधिक सम्पर्क स्थापित करने में सफल हो गये हों और उनकी हलचलें उस रूप में सामने आती रही हों जैसी कि पुराणों में वर्णित हैं।
इन घटनाओं को अन्य ग्रहों पर विद्यमान जीवन के तथ्यों को जान कर यह नहीं समझना चाहिये कि मनुष्य ब्रह्माण्ड में अकेला है या पृथ्वी पर ही है। परमात्मा ने अन्य ग्रहों पर भी वैसी ही सम्भावनायें उत्पन्न कर रखी हैं जैसी कि पृथ्वी पर हैं और उन परिस्थितियों में मानव जैसे प्राणी का विकास हो सका। यह भी नहीं मानना चाहिये कि परमात्मा ने मनुष्य को मात्र अतिरिक्त लाड़ दुलार के कारण ही विशेष अधिकार दिये। यदि ऐसा ही होता तो अन्य ग्रहों में मनुष्य से भी उन्नत प्राणी किस प्रकार रह सकते हैं, अन्तरिक्षयान जिनके प्रमाण हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि मनुष्य को परमात्मा ने विशिष्ट प्रयोजन से वित्तीय क्षमतायें और विशेष अधिकार दिये हैं। इनका सदुपयोग कर वर्तमान स्थिति से और भी उन्नत दशा प्राप्त की जा सकती है, और उच्छृंखलता बरतने पर विनाश का संकट प्रस्तुत ही समझना चाहिए।
उस विश्व नियन्ता के क्रियाकलापों का विस्तार इस पृथ्वी तक ही सीमित नहीं है। पृथ्वी जैसे असंख्यों पिण्ड इस विशाल ब्रह्मांड में भरे पड़े हैं। उनमें से कितने ही ग्रहों के निवासी हम धरती के मनुष्यों की अपेक्षा अत्यधिक ज्ञान सम्पन्न और साधन सम्पन्न हैं। जिस तरह हम लोग चन्द्रमा पर उतर चुके, सौर-मण्डल के अन्य ग्रहों की खोज के लिए अन्तरिक्ष यान भेज रहे हैं, सौर-मण्डल से बाहर के तारकों के साथ रेडियो सम्पर्क जोड़ रहे हैं, उसी प्रकार अन्य ग्रहों के बुद्धिमान मनुष्यों का हमारी धरती के साथ सम्पर्क बनाने, अनुसंधान करने का प्रयत्न चल रहा हो तो उसमें कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है।
अति दूरवर्ती यात्राओं में साधारण ईंधन कारगर नहीं हो सकते उनमें परमाणु शक्ति को ही आधार बनाया जा सकता है। सम्भव है कि अन्य ग्रहों का अन्तरिक्ष यान पृथ्वी से सम्पर्क स्थापित करने आया हो और किसी गैर जानकारी और खराबी के कारण वह नष्ट हो गया हो, उसे ही साइबेरिया में हुए अणु-विस्फोट जैसी स्थिति में देखा गया हो। इससे पूर्व भी ऐसे कितने ही बिखरे हुए प्रमाण मिलते रहे हैं जिनसे यह अनुमान लगाया जाता है कि किन्हीं ग्रह लोकों के निवासी पृथ्वी पर आवागमन करने में किसी हद तक सफलता प्राप्त भी कर चुके हैं।
सहारा के रेगिस्तान में—सेफारा पर्वत पर ऐसी विचित्र गुफायें पाई गईं जिनमें अन्य लोकवासी मनुष्यों की आकृतियां थीं। प्रो. हेनरी ल्होत के अन्वेषक दल ने इन विचित्र अवशेषों को देख कर उन्हें विशाल मंगल ग्रही देवता की अनुकृति बताया।
रूस के इटरुस्किया प्रदेश में भी ऐसे ही अवशेष मिले हैं जिनसे अन्य ग्रह निवासियों के साथ पृथ्वी वासियों का संबंध होने पर प्रकाश पड़ता है।
दक्षिणी अमेरिका की ऐडीज पर्वत माला में चस्का पठार पर ऐसे चमकीले पत्थर जड़े हुए पाये गये हैं जो अन्तरिक्षयानों के प्रकाश से प्रकाशित होकर उन्हें सिगनल देते रहे होंगे। इसी पर्वतमाला पर एक जगह विचित्र भाषा में कलेण्डर खुदा मिला है। तत्ववेत्ताओं ने इस कलेण्डर में 290 दिन का वर्ष और 24 तथा 25 दिन के महीने प्रदर्शित किये गये हैं। ऐसा वर्ष किसी अन्य ग्रह पर ही हो सकता है।
आस्ट्रिया में सौ वर्ष पूर्व 785 ग्राम भारी एक ऐसी इस्पात नली मिली है जिसे 5 करोड़ वर्ष पुरानी बताया जाता है। तब मनुष्य अपने पूर्वज बन्दरों के रूप में था। उस समय तक आग का आविष्कार नहीं हुआ था तब इस्पात कौन ढालता। सोचा जाता है कि यह भी किन्हीं अन्तर्ग्रही यात्रियों को छोड़ा हुआ उपकरण है। गोवी मरुस्थल के चपटे पत्थरों पर पाये गये पद चिन्हों की करोड़ों वर्ष पुरानी स्थिति में किन्हीं अन्य ग्रह निवासियों के आगमन की स्मृति आंकी जाती है।
समृद्ध लोगों में समुन्नत प्राणियों के अस्तित्व की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। विज्ञान इसकी शक्यता स्वीकार करता है। अन्य लोकों से आने वाली ध्वनि तरंगों से किन्हीं प्रसारणों को सुना गया है और उनका विश्लेषण हो रहा है।
भौतिक उपकरण और भौतिक क्रिया-कलाप इस दिशा में किस हद तक कब तक सफल होगा इसे भविष्य ही बतावेगा। पर भूतकाल यह बताता है कि आत्मिक सशक्तता बढ़ाकर उसके आधार पर लोक-लोकान्तर की समुन्नत आत्माओं से न केवल सम्पर्क ही संभव है वरन् उनके साथ महत्वपूर्ण सहयोगात्मक आदान-प्रदान भी सम्भव है। स्वर्गलोक वासी देवताओं के साथ मनुष्यों के सम्पर्क सम्बन्ध की पौराणिक गाथाओं में ऐसे ही तथ्य विद्यमान हैं। उस विज्ञान को पुनः समुन्नत करके लोकान्तर व्यापी आत्मचेतना के साथ घनिष्ठता उपलब्ध की जा सकती है और इस प्रकार विश्व बन्धुत्व के लक्ष्य को ब्रह्माण्ड बन्धुत्व तक विकसित किया जा सकता है। इस शताब्दी के आरम्भ में साइबेरिया में हुआ एक अकल्पनीय विस्फोट इसी दिशा की ओर निर्देश करता है।
30 जून 1908 साइबेरिया के ताइना प्रदेश में एक भयंकर धमाका हुआ। अचानक सारा आसमान ऐसे तेज प्रकाश से जगमगा उठा मानो कई सूर्य एक साथ निकल पड़े हों। गर्मी इतनी बढ़ी कि लोग प्राण बचाने के लिए जहां-तहां दौड़े। हजारों हवाई जहाज एक साथ उड़ने जैसी भर्राहट आसमान में गूंजने लगी, उसी समय ऐसी तेज-आंधी पैदा हुई कि सैकड़ों वर्ग मील के पेड़ उखड़ गये और मकानों की छतें उड़ गईं।
इस भयंकर विस्फोट को दूर दूर तक सुना, समझा, देखा और अनुभव किया गया। जहाजों जैसी भर्राहट हजारों मील तक सुनी गई। यूरोप भर में तीन रातें अंधेरे से रहित पूरे प्रकाश में बीतीं। आकाश में बादल छाये रहे। लाल, नीले और हरे रंग की किरणें चमकती रहीं, वेधशालाओं के यन्त्रों ने भूकम्प अंकित किया। इर्कतुस्क की वेधशाला ने लम्बी पूंछ वाली तेज प्रकाश जैसी कोई वस्तु दौड़ती हुई नोट की और पुंछल तारे जैसी आकृति बताई।
बेनोबरा तक पहुंचते-पहुंचते यह प्रकाश और भी अधिक चमक से भर गया। आग के गोले जैसा उछला और भयंकर धमाके के साथ फट गया। इस विस्फोट की गर्मी तीन दिन तक छाई रही। इसके बाद स्थिति संभली तो जांच-पड़ताल की जा सकी। देखा गया तो सारा जंगल जलकर खाक हो गया था। बड़े पेड़ों के ठंट जहां-तहां सुलग रहे थे। पशु-पक्षी कोयले की तरह जले-भुने पड़े थे। उस समय यही अनुमान लगाया कि आकाश से कोई उल्का जमीन पर गिरी है और उसी के पृथ्वी के पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करने पर जलने से यह विस्फोट हुआ है। पर यह समाधान भी पूरा और संतोषजनक नहीं था।
घटना के बीस वर्ष बाद सुयोग्य वैज्ञानिकों का एक दल नये सिरे से उस दुर्घटना की जांच करने भेजा गया। दल ने पूरे इलाके में छानबीन की पर इस घटना का कोई कारण समझ में नहीं आया। एक विशेषता यह देखी गयी कि पूरे ताइना प्रदेश की जमीन पर राख फैली पड़ी थी और उसमें रेडियो सक्रिय तत्व बड़ी मात्रा में मौजूद थे। उल्काओं में ऐसे तत्व कभी नहीं होते।
वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जमीन से 3 मील ऊपर अति शक्तिशाली हाइड्रोजन बम जैसा विस्फोट हुआ पर यह हुआ कैसे? किया किसने? बम बना कहां? आया कहां से? उस समय सब संसार में विज्ञान की जो स्थिति थी उसमें इस प्रकार अणुबम की सम्भावनायें जरा भी नहीं थीं।
1959 में रूसी वैज्ञानिकों के अग्रणी एलेक्जेण्डर काजनसोब ने अपना यह प्रतिपादन प्रस्तुत किया कि अणुशक्ति से चलने वाला कोई अंतरिक्षयान धरती पर आया। उतरने की टैक्नीक ठीक तरह न बन पड़ने से ही यान का आकाश में विस्फोट हो गया।
अन्य लोकों से आने वाले अन्तरिक्षीय यान जिन्हें हम आमतौर से ‘उड़न तश्तरी’ कहते हैं। हमारे मानव रहित शोध राकेटों की तरह नहीं होते, वरन् उनमें जीवित प्राणी रहते हैं इस बात के भी प्रमाण मिले हैं। यह प्राणी अपनी पृथ्वी की परिस्थितियों का अध्ययन करते हैं और आवश्यक सूचनायें अपने लोकों को भेजते हैं। इतना ही नहीं वे यहां के मनुष्यों से भी सम्पर्क स्थापित करते हैं ताकि उनकी जानकारियों के आधार अधिक विस्तृत एवं प्रामाणिक बन सके।
उड़न तश्तरी अनुसन्धान संस्था ‘निकैप’ ने ऐसी अनेक घटनाओं का विवरण प्रकाशित कराया है। जिनसे अन्य लोकों के प्रबुद्ध व्यक्तियों का अपनी धरती पर आना सिद्ध होता है। मई 1967 में कालरैडो अड्डे के रेडार से उड़न तश्तरी के आगमन की जो सूचना प्राप्त हुई थी उसे झुठलाना उनसे भी नहीं बन पड़ा जो उड़न तश्तरी मान्यता का उपहास उड़ाते थे। अमेरिकी सरकार ने इस संदर्भ में एक अनुसन्धान समिति की स्थापना की थी। उसके एक सदस्य जेम्समेकओनल्ड ने दल की रिपोर्ट से प्रथम अपनी पुस्तक लिखी है—‘‘उड़न तश्तरियां हां’’ इसमें उन्होंने इन यानों की सम्भावना का समर्थन किया है।
डा. एस. मिलर और डा. विलीले का कथन है इस विशाल ब्रह्माण्ड में एक लाख से अधिक ऐसे ग्रह पिण्ड हो सकते हैं। जिनमें प्राणियों का अस्तित्व हो। इनमें से सैकड़ों ऐसे भी होंगे जिनमें हम मनुष्यों से अधिक विकसित स्तर के प्राणी रहते हों। हम पृथ्वी निवासियों के लिये ऑक्सीजन और नाइट्रोजन गैसें आवश्यक हो सकती है, पर अन्य लोकों के प्राणी ऐसे पदार्थों से बने हो सकते हैं जिनके लिये इन गैसों की तनिक भी आवश्यकता न हो। इसी प्रकार जितना शीत-ताप हमारे शरीर सह सकते हैं उसकी तुलना में हजारों गुने शीत, ताप से जीवित बने रहने वाले प्राणियों का अस्तित्व होना भी पूर्णतया सम्भव है। हम अन्न, जल और वायु के जिस आहार पर जीवन धारण करते हैं अन्य लोकों के निवासी अपनी स्थानीय उपलब्धियों से भी निर्वाह प्राप्त कर सकते हैं।
डा. ले के कथनानुसार अन्तरिक्ष में 1000 अरब तारे हैं, उनमें से 1 करोड़ जीवित प्राणियों के रह सकने योग्य अवश्य होंगे।
अन्तरिक्ष विज्ञानी डा. फानवन का कथन है कि इस विशाल ब्रह्माण्ड में ऐसे प्राणियों का अस्तित्व निश्चित रूप से विद्यमान है जो हम मनुष्यों की तुलना में कहीं अधिक समुन्नत हैं।
कैलीफोर्निया के रेडियो एस्ट्रानामी इन्स्टीट्यूट के डायरेक्टर डा. रोनाल्ड एन. ब्रैस्वेल ने ऐसे आधार प्रस्तुत किये हैं जिनमें सिद्ध होता है कि अन्य ग्रह तारकों में समुन्नत सभ्यता वाले प्राणी निवास करते हैं और वे अपनी पृथ्वी के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील हैं। वे इस प्रयोजन के लिए लगातार संचार उपग्रह भेज रहे हैं। ये उपग्रह कैसे हैं इसका विशेष विवरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा है, वे फुटबाल की गेंद जितने होते हैं। उनमें कितने ही रेडियो यन्त्र और कम्प्यूटर लगे रहते हैं उनमें सचेतन जीव सत्ता भी उपस्थित रहती है जो बुद्धि पूर्वक देखती सोचती और निर्णय लेती है। इन उपग्रहों द्वारा पृथ्वी निवासियों के लिये कुछ विशेष रेडियो सन्देश भी प्रेरित किये जाते हैं जिन्हें सुन तो सकते हैं पर समझ नहीं पाते।
अन्य ग्रहों पर निवास करने वाले प्राणी आवश्यक नहीं कि मनुष्य जैसी आकृति-प्रकृति के ही हों, वे वनस्पति कृमि-कीटक, झाड़, धुंआ जैसे भी हो सकते हैं और महादैत्यों जैसे विशालकाय भी। जिस प्रकार की इन्द्रियां हमारे पास हैं उनसे सर्वथा भिन्न प्रकार के ज्ञान तथा कर्म साधन उनके पास हो सकते हैं।
उड़न तश्तरियों के क्रिया-कलाप में मनुष्य जाति की अधिक दिलचस्पी लेना शायद उनके संचालकों को पसन्द नहीं आया है अथवा वे प्राणी एवं वाहन ऐसी विलक्षण शक्ति से सम्पन्न हैं जिसके सम्पर्क में आने पर मनुष्य की सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है।
24 जून 1967 को न्यूयार्क में उड़न तश्तरी शोध सम्मेलन चल रहा था। उसी समय सूचना मिली इस रहस्य की अनेकों जानकारियां संग्रह करने वाले फ्रेंक एडवर्ड का अचानक हृदय गति रुक जाने से स्वर्गवास हो गया। यह मृत्यु ठीक उसी तारीख को हुई जिससे कि उनने यह शोध कार्य हाथ में लिया था। 24 जून ऐसा अभागा दिन है जिसमें इस शोध कार्य में संलग्न बहुत से वैज्ञानिक एक एक करके मरते चले गये हैं। अकेले फ्रेंक एडवर्ड ही नहीं, क्वीन अरनोल्ड, आर्थर ब्राथेट, रिचर्ड चर्च, फ्रेंक सकली, विले ली आदि सभी इसी तारीख को मरे हैं। दस वर्षों में 137 उड़न तश्तरी विज्ञानियों का मरना अत्यन्त आश्चर्यजनक है। इस अनुपात से तो कभी किसी विज्ञान क्षेत्र के शोध कर्ताओं की मृत्यु दर नहीं पहुंची। जार्ज आज मस्की ने केलीफोर्निया के दक्षिण पार्श्व में एक उड़न तश्तरी आंखों देखी थी। दर्शकों में एक प्रत्यक्षदर्शी जार्ज हैट विलियम सन भी था। वे घटना का विस्तृत विवरण प्रकाशित कराने में संलग्न थे। इतने में आदमस्की की हृदय गति रुकने से मृत्यु हो गई और हैट न जाने कहां गुम हो गया फिर कभी किसी ने उसका अता-पता नहीं पाया। ट्रमेन वैथाम अपनी आंखों देखी गवाही छपाने की तैयारी ही कर रहे था कि अपने बिस्तर पर ही अचानक लुढ़क कर मर गया। ऐसी ही दुर्गति, बर्नी हिल नामक एक गवाह की हुई।
डा. रेमेण्ड बर्नाड ने उड़न तश्तरियों पर कई पुस्तकें लिखी हैं। अचानक एक दिन उनकी मृत्यु घोषणा कर दी गई। पर कोई नहीं जानता था कि वे कब मरे, कहां मरे, कैसे मरे? सन्देह है कि वे अभी भी जीवित हैं पर कोई नहीं जानता कि वे कहां हैं? इसी विषय पर एक अन्य पुस्तक प्रकाशित करने वाले डा. मौरिस केजेसप ने खुद ही आत्महत्या करली। अपने मोजों से गला घोंट कर आत्महत्या करने वाली ‘डोली’ और अनशन करके प्राण छोड़ने वाली ग्लोरा के बारे में कहा जाता है कि एक उड़न तश्तरी के चालकों से भेंट के उपरान्त उन्हें ऐसा ही निर्देश मिला था जिसे वे टाल नहीं सकीं। कैप्टन एडवर्ड रूपेष्ट और विलवर्ट स्मिथ अपनी मौत के स्वयं ही उत्तरदायी थे। राष्ट्रसंघ के प्रमुख डाग हेमर शोल्ड का वायुयान 19 सितम्बर 1961 को जल कर नष्ट हुआ। दुर्घटना के प्रत्यक्षदर्शी स्मिथ मानास्का ने कहा कि उसने उस यान पर एक चमकदार तश्तरी झपट्टी मारती देखी थी। ये सभी लोग वे थे जिन्होंने उड़न तश्तरियों का पता लगाने के सम्बन्ध में गहरी दिलचस्पी ली थी।
सन् 1952 में दो इंजीनियरों ने उड़न तश्तरियों को देखा। मोण्टाना के ग्रेटफालन के समीप बैठे दो इंजीनियर आपस में बातचीत कर रहे थे तभी उन्हें आकाश से उतरती हुई दो गोल-गोल सी वस्तुयें दिखाई दीं। सन् 1952 की बात है। उन दिनों उड़न तश्तरियों पर दुनिया भर में तरह-तरह के विवाद और किम्वदन्तियां फैल रही थीं कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिल रहा था जिसके आधार पर सरकारी तौर पर उड़न तश्तरियों के किसी ग्रह-नक्षत्र से धरती पर उतरने की बात सत्य घोषित की जाती।
दोनों इंजीनियरों ने बात की बात में तय कर लिया कि यह गोल वस्तुयें उड़न तश्तरियां ही हैं। उन्होंने अपने कैमरे निकाल लिये और जब तक वह गायब हों, उनके सैकड़ों चित्र उतार लिए। सरकारी तौर पर इन चित्रों को नकली सिद्ध करने की लगातार कोशिश की गई पर वैसा हो नहीं सका। पहली बार यह निर्विवाद सिद्ध हो गया कि उड़न तश्तरियां आकाश के किसी ग्रह नक्षत्र से भेजे गये कोई विशेष शोध-यन्त्र हैं। कुछ तो यानों जैसी बड़ी भी दिखाई दी हैं जो इस बात का प्रमाण है कि बुद्धि का अस्तित्व, मात्र पृथ्वी तक सीमित नहीं। जीवन का स्वरूप कुछ भी हो पर उसकी सत्ता लोकान्तर ग्रहों में भी विद्यमान अवश्य है।
सन् 1957 में इसी प्रकार की घटना घटी, न्यूमैक्सिको के पास। यहां के प्रक्षेपास्त्र विकास केन्द्र में काम करने वाले एक इंजीनियर श्री अलामागोर्दो कहीं जा रहे थे। कार के सभी यन्त्र ठीक काम कर रहे थे, तभी वह एकाएक जाम हो गई, कार में लगा रेडियो भी चुप हो गया। कौतूहलवश अलामागोर्दो ने दृष्टि ऊपर उठाई और उसने जो कुछ देखा उससे हक्का-बक्का रह गया। एक भीमकाय यंत्र जो अनुमानतः दो-ढाई हजार मील प्रति घण्टे की रफ्तार से आकाश की ओर जा रहा था, सिर के ऊपर से होकर गुजर रहा था। देखते देखते वह जाकर कहीं आकाश में विलीन हो गया। ज्यों-ज्यों यह दूर हटा, कार के पुर्जे, बैट्री, रेडियो काम करने लायक होते गये। इस यन्त्र की सूचना देते हुये अलामागोर्दो ने बताया यह यन्त्र विद्युत चुम्बकीय शक्ति द्वारा ही चालित होना चाहिये जो इस बात का प्रमाण है कि अन्य लोकों में बुद्धि ही नहीं विज्ञान भी सम्भावित है।
दो महा बाद ऐसी ही एक घटना घटी ब्राजील में। समुद्र में खड़ा ब्राजीलियन जलपोत कुछ परीक्षण कर रहा था। उसके ऊपर उतरती हुई वैसी ही एक गोल तश्तरीनुमा वस्तु दिखाई दी। फोटोग्राफर बैरोना ने बात की बात में उसके चार फोटो ले लिये। फोटो धुलकर आये वैज्ञानिकों ने उनका अध्ययन कर पाया कि यह छल्लेनुमा प्लेटफार्म पर बना था और चित्र वास्तविक था। इस घटना ने यह भी सिद्ध कर दिया कि अन्य लोकों में बुद्धि और विज्ञान ही नहीं कला-कौशल भी है। शायद वे लोग पृथ्वी के निवासियों के ज्ञान विज्ञान की जानकारी और लाभ लेना चाहते हों तभी यह उड़न तश्तरियां प्रायः विशेष स्थानों के पास ही उतरती पाई गई हैं।
‘‘वर्ल्ड काउन्सिल आफ चर्वेज’’ तस्मानियां के सेक्रेटरी श्रीमान् लियोनेल ब्राउनिंग का इस प्रकार की खबरों में कोई विश्वास नहीं था। उड़न तश्तरियों को वे कल्पना की उड़ान, कहा करते थे। दैवयोग से 4 अक्टूबर 1960 को एक घटना तस्मानियां के पास कैस्सी में ही घट गई। एक साथ छह हवाई जहाज उतरते दिखाई दिये, आकाश उनकी चमक और गड़गड़ाहट से गूंज उठा तभी आकाश को चीर कर आती हुई गोल तश्तरियां उतरती दिखाई दीं। वे इन जहाजों की ओर विचित्र प्रकार से झपटी। तश्तरियां नीचे चपटी थीं और उनके ऊपर की शक्ल गुम्बदाकार थी। इन्हें देखने के लिये हजारों लोग सड़कों पर इकट्ठा हो गये, पर तभी वह सब के सब यान बादलों के बीच कहीं इस तरह खो गये कि उनका पता ही न चला—जाने कहां गये।
इस घटना की कई बातें काफी समय तक रहस्य जैसी रहीं। इसके पांच वर्ष बाद सन् 1965 में कैनबरा (आस्ट्रेलिया) में फिर वैसी ही घटना घटी। आकाश में से एक गोल वस्तु लड़खड़ाती हुई नीचे गिरती-सी जान पड़ी। इसी बीच एक विलक्षण लाल किरण इस तश्तरी की ओर झपटी और ऐसा लगा जैसे वह उस सफेद वस्तु के भीतर घुस गई होगी। अब उस उड़न तश्तरी का लड़खड़ाना बन्द हो गया और वह नीचे आने की अपेक्षा ऊपर की ओर बढ़ी और उस लाल किरण के सहारे वहां तक उड़ती चली गई जहां एक लाल चंद्रमा की तरह नक्षत्र जैसी कोई वस्तु चमक रही थी दोनों वस्तुयें देखते-देखते एकाकार हुईं और फिर न जाने कहां खो गईं वे। 1961 में ऐसी ही घटना वियूला मिशान के पास घटी थी पर उसका विश्लेषण नहीं किया जा सका था। इस घटना से यह पता चला कि उड़न तश्तरियां किसी सुनियोजित ‘‘अन्तरिक्ष मिशन’’ का अंग होती हैं और जिस प्रकार पृथ्वी से चन्द्रमा की ओर जाने वाले चन्द्रयान कई चरण के होते हैं यह भी कई चरणों वाले तथा एक दूसरे से परस्पर सम्बद्ध होते हैं। एक-दूसरे से जुड़ने, एक-दूसरे को शक्ति देने, गलती ठीक करने की सारी क्रियाओं का नियन्त्रण कहीं और से ठीक इसी प्रकार होता है जिस प्रकार ह्यूस्टन में बैठे कुछ वैज्ञानिक चन्द्रमा की ओर जाने वाले यात्रियों का जमीन से ही संरक्षण और दिशा निर्देशन करते रहते हैं। प्रकाश शक्ति की ओर भी जानकारी के साथ-साथ अपने यहां से जाने वाले अन्तरिक्ष यानों के आकार-प्रकार गति और नियंत्रण में अन्तर पड़ सकता है और यह चन्द्रयान भी इन उड़न तश्तरियों जैसा रूप लेकर अनेक प्रकाश—वर्षों की दूरी वाले ग्रह-नक्षत्रों में भी जाना संभव हो सकता है। आस्ट्रेलिया की इस घटना की पुष्टि पीछे लिस्बन की वेधशाला के खगोल शास्त्रियों ने भी की थी।
कैलिफोर्निया में एक उड़न तश्तरी का जेट विमानों से पीछा भी किया गया पर वह विमान उसे पकड़ न सके जिससे पता चला कि अन्य लोकवासी बुद्धिमान भी हैं और विचारशील भी। हर संभावित खतरों का पूर्वानुमान करके ही वे अगले कदम निर्धारित करते हैं।
यह उड़न तश्तरियां केवल आकाश में उड़ने तक ही सीमित नहीं। लगता है प्रयोग के लिये वे यहां की मिट्टी वनस्पति आदि भी ले जाती और सृष्टि में जीव के उद्भव सम्बन्धी खोज कर्त्ताओं के खोज का रास्ता बनाती है। 26 मई 1962 को 23 हाईवे मसेचुसेट्स के पास एक अण्डाकार यान पृथ्वी पर उतरा पेड़ों के पीछे निर्जन एकान्त और सुरक्षित स्थान में खड़ा यह यान दो तरफ से तेज चमक रहा था लगता था भीतर कोई ऐसा यंत्र रखा है जिससे चिनगारियां फूट रही हैं। यह यन्त्र थोड़ी देर रहकर उड़ गया और अनंत अन्तरिक्ष में न जाने कहां विलीन हो गया पर जाते-जाते वह यह बात अवश्य समझा गया कि जीवन का अस्तित्व पृथ्वी तक सीमित नहीं बुद्धि और विचार की सत्तायें अन्य लोकों में भी विद्यमान हैं। उनके स्वरूप चाहे जैसे क्यों न हों?
यह समझना भूल होगी कि इस ब्रह्माण्ड में हम पृथ्वी निवासी मनुष्य ही अकेले उन्नतिशील हैं। वस्तुतः इस विराट् विश्व में हमारी जैसी अगणित पृथ्वी विद्यमान हैं और उनके निवासी हमसे भी अनेक बातों में आगे बढ़े चढ़े हैं। यदि आत्म तत्व के विकास द्वारा इन लोक लोकांतरों के बुद्धिजीवी प्राणी परस्पर सम्बन्ध बना सकें और समग्र-शान्ति की दिशा में कुछ मिल-जुलकर प्रयत्न कर सकें तो कितना अच्छा हो। सम्भव है उड़न तश्तरियों के पीछे अन्य लोक वासियों में से कोई ऐसे ही प्रयत्न कर रहे हों। अन्य लोकों से संपर्क के प्रयोग
25 अगस्त 1966 को नार्थडेकोटा में एक वायुसेना के अधिकारी को रेडियो तरंगों के द्वारा सन्देश भेजने में एकाएक बाधा अनुभव हुई। अधिकारी उसका कारण समझ नहीं पा रहा था, तभी एक दूसरे ऑफिसर ने आकर बताया कि उसने एक उड़न तश्तरी यू.एफ.ओ. (अन-आइडेन्टीफाइड आब्जेक्ट) देखी है। उससे गहरे लाल रंग का प्रकाश निकल रहा था। वह कभी ऊपर, कभी नीचे उड़ रही थी। इसी समय एक रैडार ने भी 100000 फीट ऊपर उड़ते हुए एक गोल तश्तरी पर्दे पर फ्लेश देखी। उड़न तश्तरी जब तक दिखाई देती रही, तब तक संचार-व्यवस्था (सिगनल-सिस्टम) बिल्कुल ठप्प रहा, इसके बाद सन्देशों का आवागमन फिर प्रारम्भ हो गया।
अब तक यह उड़न तश्तरी दक्षिण की ओर मुड़ चुकी थी और यह अनुमान था कि कोई 15 मील की दूरी पर वह पृथ्वी पर उतर गई है, इसलिये अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित वायुसेना का एक कुशल दस्ता (स्क्वेड्रेन) उधर दौड़ाया गया। किन्तु उनके वहां पहुंचने तक 8 मिनट में ही वह गोला न जाने कहां अदृश्य हो गया इसी बीच दूसरी तश्तरी उत्तर की ओर दिखाई दी, उसे भी रैडार ने देखा पर जब तक दस्ता उधर दौड़े वह भी गायब हो गई।
3 अगस्त 1965 की बात है, सांता आना (कैलिफोर्निया) के पास एक उड़न तश्तरी बाईं ओर से आई और सड़क पर देर तक इस तरह चक्कर लगाती रही, मानो वह किसी वस्तु को ढूंढ़ रही हो, फिर दायें मुड़ी और खेतों का चक्कर लगाया। सड़क निरीक्षक रेक्स हेफ्लिन उड़न तश्तरी की इन सारी हरकतों को देख रहा था। उसने इन दृश्यों को अपने कैमरे में खींच लिया। उसका एक चित्र धर्मयुग के 1 दिसम्बर 1968 के अंक में प्रकाशित भी हुआ है। उसमें सड़क के बाईं ओर ऊपर उड़न तश्तरी साफ दिखाई देती है। 5 अगस्त 1953 में एक और आश्चर्यजनक घटना ब्लैकहाक, साउथ डेकोटा में घटी। चालकों ने रात में आकाश की ओर अद्भुत वस्तुयें देखीं। वायुसेना के एक अड्डे पर रैडार ने भी इन उड़न तश्तरियों को देखा। वायुयान चालक ने बताया कि वह सबसे अधिक चमकने वाले तारे से भी अधिक चमकदार कोई वस्तु देख रहा है। वह वायुयान से दुगुनी गति से दौड़ रही थी। वायुयान के पीछा करते ही वह कहीं अदृश्य हो गई।
इसी तरह 6 नवम्बर 1957 के दिन ओटावा से 100 मील दूर वास्काटांग झील के पास एक उड़न तश्तरी रात के कोई 9 बजे आई, उसके कारण रेडियो की शॉर्ट और मीडियम दोनों लहरें बन्द हो गई थीं। उस उड़न तश्तरी के दर्शकों में एक इलेक्ट्रानिक्स इंजीनियर भी था, उसने अपने रिसीवर को चालू करना चाहा पर उसे तीव्र किट-किट की आवाज के अतिरिक्त कुछ सुनाई न पड़ा। वह आवाज उड़न तश्तरी के माध्यम से किसी अन्य लोक के नियन्त्रण केन्द्र का संकेत थी या और कुछ, उसकी कुछ भी जानकारी नहीं है।
4 अक्टूबर 1967 को एक शाम को कनाडा के समुद्रीतट पर ‘शागहार्बर’ के सैकड़ों निवासियों ने एक विचित्र वस्तु आकाश से निकल कर आते देखी। उसकी चमकदार किरणें पीछे एक कतार-सी छोड़ती आ रही थीं। इसके बाद उसे लोगों ने समुद्र की सतह पर उतरते देखा। किरणों की कतार समुद्र में जाकर विलीन हो गई। 20 मिनट के भीतर ही पुलिस कर्मचारी घटना-स्थल पर पहुंचे और उड़न तश्तरी के धंसने वाले स्थान की खोज करने लगे।
एक जहाज और आठ नावें भी उस खोज में सम्मिलित हुईं। सर्चलाइट के तेज प्रकाश में केवल समुद्र के एक स्थान से पीले रंग का झाग निकलता दिखाई दिया। बहुत से बुलबुले भी निकल रहे थे। ऐसा वहां पहले कभी नहीं देखा गया था। फिर भी उड़न तश्तरी का कोई प्रकाश नहीं दिखाई दिया। दो दिन तक नौ-सैनिक गोताखोर गोता लगाते रहे पर वहां किसी वस्तु या उड़न तश्तरी का कोई प्रमाण नहीं मिला।
हैसलबेक जर्मनी का वह जंगली हिस्सा जहां अमेरिका और रूस की सीमायें मिलती हैं, 11 जुलाई 1952 में एक विचित्र घटना घटित हुई। एक उड़न तश्तरी, जिसका व्यास कोई 8 मीटर होगा, के पास दो चमकीले लबादे पहने, छोटे-छोटे मनुष्य खड़े थे। वहां का एक निवासी अपनी 11 वर्षीया पुत्री के साथ जा रहा था। उसे देखते ही वह लबादाधारी उड़न तश्तरी में समा गये और देखते-देखते अन्तरिक्ष में विलीन हो गये।
एनिड ओकलाहोमा के पुलिस स्टेशन में 29 जुलाई 1952 को एक आदमी ने प्रवेश किया। वह डर के मारे थर-थर कांप रहा था। उसने अपना नाम सिड यूवैक बताया। वह इतनी बुरी तरह भयग्रस्त था कि कोई स्वप्न में भी उसके अभिनय करने की बात नहीं सोच सकता था। उसने बताया कि एक उड़न तश्तरी उसका अपहरण करना चाहती थी वाइसा और वाकोमिस के मध्य 81 हाइवे पर वह अपनी कार से जा रहा था कि एक जबर्दस्त उड़न तश्तरी बड़े वेग से कार के ऊपर गोता-सी लगाती हुई झपटी। उस झपट के कारण हवा का इतना तीव्र झकोरा आया कि कार थपेड़ा खाकर सड़क से बाहर जा गिरी। तश्तरी घड़ी के पैंडुलम की तरह कार के ऊपर थोड़ी देर तक झूलती रही और फिर एकाएक गायब हो गई।
काल्पनिक-सी लगने वाली उड़न तश्तरियों की यह घटनायें अब तथ्यों के इतने समीप आ गई हैं कि उन्हें झूठ कहकर टाला नहीं जा सकता, यदि हमारी धरती में विज्ञान का विकास हो सकता है कि यहां के लोग समुद्र में कूद कर कई दिन तक उसके भीतर रह सकते हैं, खेतों, खलिहानों, सड़कों, शैलाबग्रस्त क्षेत्रों का निरीक्षण कर सकते हैं। आकाश में दूर-दूर तक मंगल, शुक्र को और चन्द्रमा की सतह तक अपने स्पूतनिक (राकेट) पहुंचा सकते हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है कि ब्रह्माण्ड के किसी और नक्षत्र में भी इस तरह का वैज्ञानिक विकास हो चुका हो और वहां के निवासी भी पृथ्वी-वासियों से सम्पर्क या सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हों। या फिर यहां की परिस्थितियों का अध्ययन कर रहे हों, ताकि एक दिन यहां के लोगों से उसे छीन कर अपने यहां के निवासियों को लाकर बसा सकें।
19वीं शताब्दी में यह सारी बातें यों ही झुठला देने की हो सकती थीं बीसवीं सदी में नहीं। भगवान् राम को विरथ देखकर आकाश से इन्द्र ने विमान भेजा, मातुतिन उसका चालक था, लंका से अयोध्या पहुंचाने के लिये भी पुष्पक विमान आया था। ‘‘बैबिलोन के हिब्रू भविष्यवक्ता इजकिल ने भी इस तरह का एक विवरण ईसा से 1130 वर्ष पूर्व लिखा था और बताया कि एक दिन उसने देखा कि एक तूफान सा उठ रहा है। उसमें एक प्रचण्ड बादल फंस गया है। धीरे-धीरे उस बादल से एक गोला निकला, उसे देखकर आंखें चौंधिया जाती उसमें से चार जीवित प्राणी निकले। मुझे पृथ्वी से एक चक्का ऊपर उठता भी दिखाई दिया, तब वह चारों जीवित प्राणी भी नहीं दिखाई दिये।’’ उसके इस कथन को तब भ्रान्त प्रलाप कहा गया था पर आज का वैज्ञानिक यह मानने को विवश हैं कि पृथ्वी का सम्बन्ध यदि करोड़ों वर्ष पूर्व से ही लोकान्तर वासियों से रहा हो तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।
शक्तिशाली दूरवीक्षण यन्त्रों और गणकों द्वारा, अनेक वैज्ञानिक अथाह अन्तरिक्ष में तैरते हुए ग्रहों के सम्बन्ध में सही जानकारी प्राप्त करने के लिये दिन रात जुटे रहते हैं, अब वे भी मानने लगे हैं कि ब्रह्माण्ड के करोड़ों ग्रहों में से किसी न किसी में बुद्धिमान प्राणियों का आविर्भाव अवश्य है और वे भी हमारी तरह दूसरे जगतों से सम्पर्क स्थापित करने के प्रयत्न में संलग्न हैं। मनुष्य ने स्वयं ऐसे रेडार स्टेशन बना लिये हैं जो दस प्रकाश वर्षों की दूरी तक आपस में संचार सम्बन्ध बनाये रख सकते हैं। यहां यह समझ लेना आवश्यक है कि ग्रह-नक्षत्रों की दूरी इतनी अधिक है कि उसे गज, फिट, इंच या मीलों, मीटरों में नहीं नापा जाता है। प्रकाश की गति एक सेकिण्ड में एक लाख छियासी हजार मील है। एक प्रकाश वर्ष की दूरी का अर्थ यह होगा कि उस नक्षत्र तक हमारी पृथ्वी से 1 लाख 86 हजार मील प्रति सेकिण्ड की गति से चलने में 1 वर्ष लगेगा।
खगोल शास्त्रियों का मत है कि 10 प्रकाश वर्ष की दूरी में कुछ 10 नक्षत्र ही ऐसे हैं, जिनमें थोड़ा बहुत बुद्धिमान प्राणियों के अस्तित्व की सम्भावना है पर यदि हजार या करोड़ प्रकाश वर्ष की सीमा से ऊपर उठ जायें तो सम्भव है, वहां अधिक बुद्धिमान प्राणी मिलें किन्तु पृथ्वी वासी की आयु हजार वर्ष की हो नहीं सकती, इसलिये 1 हजार वर्ष की प्रतीक्षा में न तो वहां भेजे गये संकेतों का ही कोई लाभ है और न ही वहां जाने का क्योंकि यदि किसी वैज्ञानिक यन्त्र के माध्यम से वहां जाने का प्रयत्न किया भी जाय तो मनुष्य बीच में ही कहीं मर जायेगा।
यहां बात दूसरे लोगों से आने वाले प्राणियों के लिये भी है, इसलिये वैज्ञानिक सन्देह करते हैं कि उड़न तश्तरियों के उतरने की बात कुछ बुद्धि संगत है भी या नहीं। पर उन्हीं के कुछ अनुसंधान इस असम्भावना को भी भगा देते हैं। जीव-जन्तुओं पर किये गये अनुसन्धानों से पता चला है कि यदि किसी प्राणी को जीवित अवस्था में बहुत अधिक ठण्डा कर दिया जाये तो वह एक प्रकार की सुषुप्तावस्था (हाइबरनेशन) में चला जाता है। उस समय इतनी गहरी नींद आ जाती है कि कोई पास से गुजरे तो यही समझेगा कि यह किसी की लाश है, किन्तु सौ वर्ष या उससे भी अधिक समय बाद वह नींद टूटने पर प्राणी बिल्कुल वैसा ही स्वस्थ और थकावट रहित अनुभव कर सकता है, जैसा कि सोकर जागने के पश्चात्। यदि इस सिद्धान्त को व्यवहारिक बनाया जा सके तो सम्भव है कि हजार प्रकाश वर्ष की दूरी मनुष्य सुषुप्तावस्था में पार कर ले और किसी नक्षत्र में पहुंचने पर फिर जाग उठे। वहां के अध्ययन के पश्चात् फिर उसी स्थिति में एक हजार वर्ष बाद पृथ्वी पर लौट आये। तब अधिक से अधिक यही होगा कि यहां के लोग कई सभ्यतायें बदल चुके होंगे और अन्तरिक्षवादी का अपना ही परिचय देना कठिन हो जाये।
यह समस्या दूसरी तरह से सुलझ सकती है। हमारे शास्त्रों में मनुष्यों की आयु कई कई हजार वर्ष बताई गई है शंकर की द्वितीय पत्नी उमा ने तो कई हजार वर्ष केवल तपश्चर्या ही की थी। लोग उसे गप्प कहते हैं पर आज का वैज्ञानिक वह भूल नहीं करना चाहता। वह मानता है कि वृद्धावस्था एक रोग है और उसे दूर किया जा सकता है। जीव कोशिका पर चल रहे अनुसन्धान एक दिन मनुष्य की आयु को इच्छानुवर्ती बना सकते हैं, अब इसमें सन्देह नहीं रह गया, श्रम और समय ही अपेक्षित रहा है। अन्तरिक्ष यानों से रेडियो सन्देश प्राप्त करने में जो समय लगता है, उसे बहुत कम करने के लिए वैज्ञानिक किसी ऐसे ‘क्रिस्टल’ की खोज में हैं, जो ‘मन’ की गति से काम कर सकता हो। उस अवस्था में यह देरी सिकुड़ कर इतनी रह जायेगी, जितनी परस्पर बातचीत में होगी। किसी ऐसे तत्व की सम्भावना से वैज्ञानिकों ने उसकी पुष्टि में आपेक्षिक तीव्र गति (रिलेटिव वेलोसिटी) का एक सिद्धान्त भी खोज लिया है, उसके अनुसार जो रेडियो सन्देश किसी स्थान को पहुंचाने में या कोई वस्तु अन्य ग्रह में पहुंचाने में दस हजार वर्ष लेती हो वह केवल 20 वर्ष में ही पहुंचाई जा सके। यद्यपि ब्रह्माण्ड की अनन्तता और असीमितता के आगे यह आपेक्षित तीव्र गति भी बहुत न्यून है। पर उससे इस सम्भावना की पुष्टि तो हो ही जाती है कि ऊपर ब्रह्माण्ड के किसी नक्षत्र में पहुंचने के लिये समय और गति को नियन्त्रित और आपेक्षित बनाया जा सकता है।
इस प्रयास में बहुत कुछ सहयोग ब्रह्माण्ड भी देखा। हमें यह पता है कि पृथ्वी एक भयंकर गति से घूमती है और सूर्य का भी चक्कर लगाती है। सूर्य स्वयं भी भ्रमण करता है और अपने सौरमण्डल के दूसरे नक्षत्रों को भी चक्कर लगाने के लिये विवश करता है। सौर-मण्डल में चक्कर काटते हुए नक्षत्र सामूहिक रूप से किसी और दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। अनुमान है कि वह किसी अन्य नक्षत्र का चक्कर काटता है। ऐसे-ऐसे अनेक सौर-मण्डल परिक्रमा करने में लगे हुए हैं। परिक्रमाशील नक्षत्र की ओर उड़ने वाला पृथ्वी के यान को गणित के ऐसे सिद्धान्त के सहारे भेजा जाना सम्भव है, जिससे आधी दूरी तो वह चले और शेष आधा भाग वह नक्षत्र चलकर पास आ जावे जिसमें उसे जाना है।
इन सब सम्भावनाओं के व्यक्त करने का एक ही कारण है और वह यह है कि यदि इन सब सम्भावनाओं का विकास किसी अन्य नक्षत्र ने कर लिया होगा और वे पृथ्वी से सम्पर्क साधना चाहते होंगे तो वे निश्चय ही उड़न तश्तरियों में बैठकर पृथ्वी में आते होंगे। इसलिये उड़न तश्तरियों के इन प्रसंगों को मिथ्या नहीं कहा जा सकता। अपनी-अपनी जानकारी गुप्त रखने की भी एक परम्परा वैज्ञानिक देशों में है। इसलिये विज्ञान के जो आविष्कार और तथ्य सामने आ चुके हैं, उससे अधिक वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों की डायरियों में गुप्त हैं, उन सबकी जानकारी चौंकाने वाली हो सकती है। वह जैसे-जैसे सामने आती जायेंगी, यह सिद्ध होता जायेगा कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्र एक ही कुटुम्ब के सदस्य हैं, उनमें उसी तरह सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है, जैसे एक गांव वाले दूसरे गांव से रखते हैं।
अर्जेन्टीना के शोध विज्ञानी डा. पेड्रो रोमनुक ने व्यूनस एरस में लगभग इसी तथ्य को प्रमाणित करते हुए बताया कि रूस और अमेरिका दोनों के पास दूसरे ग्रहों से आई हुई टूटी-फूटी उड़न तश्तरियां हैं। वह कैनेडी विश्व-विद्यालय के अन्तर्गत—‘बायोसाइको सिंथेसिस’ भाषणमाला के उद्घाटन समारोह में बोल रहे थे। उन्होंने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा—‘‘रूस को एक ‘नर्स-शिप’ मिला है, जिसका अध्ययन वहां के विद्वानों ने किया है पर उन्होंने उस सम्बन्ध में कोई बात नहीं बताई। इसी प्रकार अमेरिका को आलामो गोर्डो, न्यूमैक्सिको क्षेत्र में एक उड़न तश्तरी मिली।
उत्तर पश्चिमी अमेरिकी वेधशाला के निर्देशक श्री सिलास न्यूटन ने अमेरिकी वायु गुप्तचरी केन्द्र को इसकी सूचना दी। उन्होंने यह भी बताया कि इस उड़न तश्तरी में दरवाजों की जगह बाहर निकलने के छोटे-छोटे छेद बने हुए हैं। इनमें से केवल छोटे आकार के प्राणी गुजर सकते हैं। स्वच्छ और कड़ी धातु की इस उड़न तश्तरी में छोटे आकार के 6 शव भी पाये गये। इनमें पाये गये प्राणियों का आकार-प्रकार मनुष्यों से मिलता-जुलता है। ऐसा लगता है, उड़न तश्तरी का द्वार खराब हो गया तो वायु मंडलीय प्रभाव से उनकी मृत्यु हो गई। यह अन्तरिक्ष यान सौर-शक्ति से चलता है। इन प्राणियों ने किसी धातु का पारदर्शी नीला वस्त्र-सा धारण किया हुआ था, इस धातु पर किसी कैंची या ज्वलनशील टार्च का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता।’’
डा. रोमनिक ने उस सौर-शक्ति के बारे में विस्तार से कुछ नहीं बताया पर अब यह निश्चित हो चुका है कि कभी यहां जीवित प्राणी दूसरे नक्षत्रों से अवश्य आते रहे होंगे और उनका पृथ्वीवासियों से घनिष्ठ सम्बन्ध भी रहा होगा इस सम्बन्ध में कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण प्राचीन अवशेषों का विवरण किसी अगले अंक में देंगे।
अन्यान्य ग्रह नक्षत्रों में क्या पृथ्वी जैसी सुसंस्कृत मानव जाति निवास करती है? क्या उन लोगों का विकास मनुष्य जितना अथवा उससे अधिक हो चुका है? क्या वे कभी-कभी पृथ्वी निवासियों के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिए वैसा ही प्रयत्न करते हैं जैसा कि हम लोग सौर-मण्डल की परिधि के ग्रह-उपग्रहों तक पहुंचने का प्रयास करते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर विद्वान् ‘‘एरिद फोन डानिकेन’’ ने अपनी पुस्तक ‘‘चैरियट्स गाडस्’’ नामक पुस्तक में तथ्य और प्रमाण उपस्थित करते हुए दिया है। उन्होंने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है कि किसी सुविकसित सभ्यता के मनुष्य से बढ़ कर सुयोग्य प्राणी समय-समय पर धरती के साथ सम्पर्क स्थापित करते रहे हैं और यहां की स्थिति को समझने के लिए उनने बहुत सारी कुरेदबीन की है जिसके प्रमाण अभी भी विद्यमान हैं।
अठारहवीं सदी का बना एक ऐसा नक्शा तुर्की के टोपकापी पैलेस में पाया गया है, जिसमें भूमध्यसागर, मृतसागर उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका, अटाकैटिक आदि इस के प्रकार दिखाये गये हैं मानो उन्हें किसी विमान पर चढ़ कर खींचा गया हो। तात्कालीन साधनों को देखते हुए वैसे कोई साधन उन दिनों नहीं थे। जो भी नक्शे भूतकाल में बने हैं, वे इतने विस्तृत क्षेत्र का इतना अधिक सही विवरण प्रस्तुत करने वाले नहीं हैं, जैसा कि यह नक्शा है। यह नक्शा उन्हीं देव मानवों का बनाया हो सकता है जो अन्य लोकों से अपने विशेष यानों पर सवार होकर धरती पर उतरे होंगे।
लाइमा के दक्षिण में केडिक्लिफ दीवार पर 80 फीट ऊंचा स्तम्भ बना हुआ है। जिस स्थान पर जितना धन लगा कर और जिस तरह वह बना है वहां उसका कोई उद्देश्य प्रतीत नहीं होता। सम्भवतः वह पृथ्वी के किसी स्थान विशेष का संकेत उन अन्तरिक्ष यात्रियों को देता होगा ताकि वे उतरने के लिए उपयुक्त स्थान की जानकारी प्राप्त कर सकें। ईरान का गोवी मरुस्थल और केवाड़ा मरुस्थल का विश्लेषण करने पर वहां किसी परमाणु विस्फोट की स्थिति का आभास मिलता है। दक्षिण रोडेशिया, उत्तर अमेरिका, सहारा, पेरू, फ्रांस, कोहिस्तान की गुफाओं में ऐसी चित्रकला पाई गई है, जिसमें मनुष्य को अन्तरिक्ष यात्री की पोशाक पहने हुए चित्रित किया गया है। अकारण ऐसे चित्र क्यों बनते?
दिल्ली का कुतुबमीनार का स्तम्भ इस प्रकार शुद्ध धातु से बना है, जिस पर दो हजार वर्ष बीत जाने पर भी हवा, पानी का कोई असर नहीं हुआ। यह फास्फोरस और गन्धक से रहित स्पात का बना है। उस जमाने की समुन्नत टेक्नालॉजी पर आज के वैज्ञानिक स्तब्ध हैं और विधि ढूंढ़ नहीं पाये जिसके आधार पर उस लौह स्तम्भ जैसी शुद्ध धातु बना सकें। मिश्र में मुर्दों को सुरक्षित रखने की विधि, पुरातन गुफाओं की चित्रकला में खराब न होने वाले रंग भी आज के रसायन शास्त्र के लिए एक चुनौती हैं। डानिकेन का कथन है ऐसे समुन्नत विज्ञान अन्तरिक्ष मानवों जैसा धरती निवासियों को दिया हुआ अनुदान ही हो सकता है।
डानकेन कहते हैं कि अपनी आकाश गंगा में 18 हजार तारे ऐसे हैं जिनमें जीवन विकास की अनुकूल स्थिति मौजूद है। यदि यह माना जाय कि इनमें से एक प्रतिशत में ही समुन्नत प्राणी होंगे तो भी 180 नक्षत्रों में सुविकसित जीवन आवश्यक होगा। उनकी समुन्नत स्थिति ऐसी हो सकती है, जिसे हम अपने साथ तुलना करने पर अतिमानव या देवता कह सकें। आश्चर्य नहीं उन दिनों अन्य लोकवासी समुन्नत लोग अपनी धरती के साथ अधिक सम्पर्क स्थापित करने में सफल हो गये हों और उनकी हलचलें उस रूप में सामने आती रही हों जैसी कि पुराणों में वर्णित हैं।
इन घटनाओं को अन्य ग्रहों पर विद्यमान जीवन के तथ्यों को जान कर यह नहीं समझना चाहिये कि मनुष्य ब्रह्माण्ड में अकेला है या पृथ्वी पर ही है। परमात्मा ने अन्य ग्रहों पर भी वैसी ही सम्भावनायें उत्पन्न कर रखी हैं जैसी कि पृथ्वी पर हैं और उन परिस्थितियों में मानव जैसे प्राणी का विकास हो सका। यह भी नहीं मानना चाहिये कि परमात्मा ने मनुष्य को मात्र अतिरिक्त लाड़ दुलार के कारण ही विशेष अधिकार दिये। यदि ऐसा ही होता तो अन्य ग्रहों में मनुष्य से भी उन्नत प्राणी किस प्रकार रह सकते हैं, अन्तरिक्षयान जिनके प्रमाण हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि मनुष्य को परमात्मा ने विशिष्ट प्रयोजन से वित्तीय क्षमतायें और विशेष अधिकार दिये हैं। इनका सदुपयोग कर वर्तमान स्थिति से और भी उन्नत दशा प्राप्त की जा सकती है, और उच्छृंखलता बरतने पर विनाश का संकट प्रस्तुत ही समझना चाहिए।