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Books - गायत्री के पाँच मुख पाँच दिव्य कोश

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प्राणमय कोश में निहित प्रचंड जीवनी शक्ति

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भारतीय तत्व दर्शन के अनुसार मनुष्य की स्थूल काया में व्याप्त उसी के अनुरूप एक प्राण शरीर भी होता है। प्राण शरीर—शरीरस्थ प्राण संस्थान को योगियों ने प्राणमय कोश कहा है। न केवल इसके अस्तित्व का वरन् इसके क्रिया कलापों, गुण धर्मों तारा प्रभावों आदि विशेषताओं का वर्णन भी भारतीय ग्रन्थों में विस्तार से मिलता है। इस मान्यता को स्थूल विज्ञान बहुत दिनों से झुठलाता रहा किन्तु जैसे-जैसे शरीर विज्ञान के संदर्भ में जानकारियां बढ़ती जा रही हैं, वैसे वैसे प्राण संस्थान के प्राणमय कोश के अस्तित्व को एक सुनिश्चित तथ्य के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है।

अब इस सूक्ष्म सत्ता के प्रभाव भौतिक विज्ञान के स्थूल उपकरणों की पकड़ में भी आने लगे हैं। इसके इलेक्ट्रानिक विज्ञान वेत्ता ऐमयोन फिर्लियान ने एक ऐसी फोटोग्राफी का आविष्कार किया जो मनुष्य के इर्द-गिर्द होने वाले विद्युतीय हलचलें का भी छायांकन करती हैं। इससे प्रतीत होता है कि स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म शरीर की भी सत्ता विद्यमान है और वह ऐसे पदार्थों से बनी है जो इलेक्ट्रानों से बने ठोस पदार्थ की अपेक्षा भिन्न स्तर की है और अधिक गतिशील भी।

इंग्लैंड के डा. किलनर एक बार अस्पताल में रोगियों का परीक्षण कर रहे थे। एक मरणासन्न रोगी की जांच करते समय उन्होंने देखा कि उनकी दूरबीन (माइक्रोस्कोप) के शीशे पर एक विचित्र प्रकार के रंगीन प्रकाश कण जम गये हैं जो आज तक कभी भी देखे नहीं गये थे। दूसरे दिन उसी रोगी के कपड़े उतरवा कर जांच करते समय डा. किलनर फिर चौंके उन्होंने देखा जो प्रकाश कण दिखाई दिया था, आज वह लहरों के रूप में माइक्रोस्कोप के शीशे के सामने उड़ रहा है। रोगी के शरीर के चारों ओर छह-सात इन्च परिधि में यह प्रकाश फैला है, उसमें कई दुर्लभ रासायनिक तत्वों के प्रकाश कण भी थे। उन्होंने देखा जब प्रकाश मन्द पड़ता है तब तक उसके शरीर और नाड़ी की गति में शिथिलता आ जाती है। थोड़ी देर बाद एकाएक प्रकाश पुंज विलुप्त हो गया। अब की बार जब उन्होंने नाड़ी पर हाथ रखा तो पाया कि उसकी मृत्यु हो गई। इस घटना को कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने के साथ-साथ डा. किलनर ने विश्वास व्यक्त किया कि जिस द्रव्य में जीवन के मौलिक गुण विद्यमान होते हैं वह पदार्थ से प्रथम अति सूक्ष्म सत्ता है। उसका विनाश होता हो ऐसा सम्भव नहीं है।

प्राण तत्व को एक चेतन ऊर्जा (लाइव एनर्जी) कहा गया है। भौतिक विज्ञान के अनुसार एनर्जी के छह प्रकार माने जाते हैं—1. ताप (हाट) 2. प्रकाश (लाइट) 3. चुम्बकीय (मैगनेटिक) 4. विद्युत (इलेक्ट्रिसिटी) 5. ध्वनि (साउण्ड) 6. घर्षण (फ्रिक्शन) अथवा यान्त्रिक (मैकेनिकल)। इस प्रकार की एनर्जी को किसी भी दूसरे प्रकार की एनर्जी इन विज्ञान सम्मत प्रकारों से भिन्न होते हुए भी उनके माध्यम से जानी समझी जा सकती है।

एनर्जी के बारे में वैज्ञानिक मान्यता है कि वह नष्ट नहीं होती बल्कि उसका केवल रूपान्तरण होता है। यह भी माना जाता है कि एनर्जी किसी भी स्थूल पदार्थ से सम्बद्ध रह सकती है, फिर भी उसका अस्तित्व उससे भिन्न है और वह एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में स्थानान्तरित (ट्रांसफर) की जा सकती है। प्राण के सन्दर्भ में भी भारतीय दृष्टाओं का यही कथन है। अब तो पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करने लगे हैं।

इस सन्दर्भ में फोनोग्राफ, प्रकाश के बल्ब के आविष्कर्त्ता टामस एडिसन ने अत्यन्त बोधगम्य प्रकाश डालते हुए लिखा है—‘‘प्राणी की सत्ता उच्चस्तरीय विद्युत-कण गुच्छकों के रूप में तब भी बनी रहती है जब वह शरीर से पृथक हो जाती है। मृत्यु के उपरान्त यह गुच्छक विधिवत तो नहीं होते, पर वे परस्पर सम्बद्ध बने रहते हैं। यह बिखरते नहीं, वरन् आकाश में भ्रमण करते रहने के उपरान्त पुनः जीवन चक्र में प्रवेश करते और नया जन्म धारण करते हैं। इनकी बनावट बहुत कुछ मधुमक्खी के छत्ते की तरह होती है। पुराना छत्ता वे एक साथ छोड़ती हैं और नया एक साथ बनाती हैं। इसी प्रकार उच्चस्तरीय विद्युत कणों के गुच्छक अपने साथ स्थूल शरीर की सामग्री अपनी आस्थाओं और सम्वेदनाओं के साथ लेकर जन्मने-मरने पर भी अमर बने रहते हैं।

इन प्रमाणों से शरीर में अन्नमय कोश से सम्बद्ध किन्तु एक स्वतन्त्र अस्तित्व सम्पन्न प्राणमय कोश का होना स्वीकार करना ही पड़ता है। यों भी शरीर में विज्ञान सम्मत ताप आदि छहों प्रकार की एनर्जी ऊर्जा के प्रमाण पाये जाते हैं, किन्तु सारे शरीर में संव्याप्त प्राणमय कोश का स्वरूप सबसे अधिक स्पष्टतस से जैवीय विद्युत (बायो इलेक्ट्रिसिटी) के रूप में समझा जा सकता है।

शरीर विज्ञान में अब कायिक विद्युत पर पर्याप्त शोधें हो रही हैं। शरीर में कुछ केन्द्र तो निर्विवाद रूप से विद्युत उत्पादक केन्द्रों के रूप में स्वीकार कर लिये गये हैं। उनमें प्रधान हैं—मस्तिष्क, हृदय तथा नेत्र। मस्तिष्क में विद्युत उत्पादन केन्द्र को वैज्ञानिक ‘रेटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम’ कहते हैं। मस्तिष्क के मध्य भाग की गहराइयों में स्थित कुछ मस्तिष्कीय अवयवों में से विद्युत स्पंदन (इलैक्ट्रिक इम्पल्स) पैदा होते रहते हैं तथा सारे मस्तिष्क में फैलते जाते हैं। यह विद्युतीय आवेश ही मस्तिष्क से विभिन्न केन्द्रों को संचालित तथा परस्पर सम्बन्धित रखते हैं। चिकित्सा विज्ञान में प्रयुक्त मस्तिष्कीय विद्युत मापक यन्त्र (इलेक्ट्रो एन्कैफलोग्राफ) ई.ई.जी. द्वारा मस्तिष्कीय विद्युत धाराओं को नापा जाता है। उन्हीं के आधार पर मस्तिष्क एवं सिर से सम्बन्धित रोगों के बारे में निर्धारण किया जाता है सिर में विभिन्न स्थानों पर यन्त्र के रज्जु (कार्ड) लगाये जाते हैं। उनसे नापें गये विद्युत विभव (पोटैंशल) का योग लगभग 1 मिली वोल्ट आता है।

हृदय के संचालन में लगभग 20 तार शक्ति विद्युत की आवश्यकता पड़ती है। यह विद्युत हृदय में ही पैदा होती है। हृदय में जिस क्षेत्र से विद्युत स्पंदन पैदा होते हैं उसे ‘पेस मेकर’ कहते हैं। यह विद्युत स्पंदन पैदा होते ही लगभग 0.8 सैकिण्ड में एक विकसित मनुष्य के सारे हृदय में फैल जाते हैं। इतने ही समय में हृदय अपनी धड़कन पूरी करता है। हृदय की धड़कन के कारण तथा नियन्त्रक यही विद्युत स्पंदन होते हैं। इन विद्युत स्पंदनों का प्रभाव ई.सी.जी. (इलैक्ट्रो कार्डियोग्राफ) नामक यन्त्र पर अंकित होते हैं। हृदय रोगों से निर्धारण के लिये इन विद्युत स्पन्दनों को ही आधार मान कर चला जाता है।

नेत्रों में भी वैज्ञानिकों के मतानुसार फोटो इलैक्ट्रिक सैल जैसी व्यवस्था है। फोटो इलैक्ट्रिक सैल की विशेषता यह होती है कि वह प्रकाश को विद्युत तरंगों में बदल देता है। नेत्रों में भी इसी पद्धति से विद्युत उत्पादन की क्षमता वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। नेत्र रोगों के निर्धारण वर्गीकरण के लिये नेत्रों में उत्पन्न विद्युत स्पन्दनों को ई.आर.जी. (इलेक्ट्रो रैटिनोग्राफ) यन्त्र पर अंकित किया जाता है।

इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि शरीरस्थ कुछ केन्द्रों में विद्युतीय स्पंदनों के उत्पादन के साथ-साथ सारे शरीर में उनका संचार भी होता है। ई.ई.जी. द्वारा सिर के हर हिस्से में मस्तिष्कीय विद्युत के स्पंदन रिकार्ड किये जाते हैं। यही नहीं बहुत बार तो उनका प्रभाव गर्दन से नीचे वाले अवयवों में भी स्पष्टता से मिलता है। हृदय की विद्युत का प्रभाव तो ई.सी.जी. यन्त्र द्वारा पैर के टखनों तक पर रिकार्ड किया जाता है। हृदय के निकटतम तथा दूरतम सभी अंगों में यह स्पंदन समान रूप से शक्तिशाली पाये जाते हैं।

शरीरस्थ प्राण प्रवाह के माध्यम से रोगों के निदान पर चिकित्सा शास्त्रियों का विश्वास दृढ़ हो गया है मांस-पेशियों की निष्क्रियता तथा स्नायु संस्थान के रोगों में भी प्राणांकन पद्धति प्रयुक्त की जाती है। इसके लिये ई.एम.जी. (इलैक्ट्रो मायो ग्राफ) का प्रयोग होता है। शरीर के हर क्षेत्र के स्नायुओं अथवा मांस-पेशियों में विद्युतीय ऊर्जा की उपस्थिति तथा सक्रियता का यह स्पष्ट प्रमाण है। यहां तक कि शरीर की त्वचा जैसी पतली पर्त में भी उसकी अपने ढंग की विद्युत विद्यमान है। चिकित्सा शास्त्री त्वचा के परीक्षण में भी त्वक विद्युतीय प्रतिक्रिया (गैल्वानिक स्किन रिस्पान्स) पद्धति का प्रयोग करते हैं।

इन वैज्ञानिक प्रमाणों के अतिरिक्त सामान्य व्यवहारिक जीवन में भी मस्तिष्क से लेकर त्वचा तन में विद्युत संवेगों की क्षमता के प्रमाण मिलते रहते हैं। किसी व्यक्ति विशेष के प्रति आकर्षण तथा किसी के प्रति विकर्षण, यह शरीरस्य विद्युत की समानता, भिन्नता की ही प्रति-प्रतिक्रियायें हैं। दो मित्रों के परस्पर एक दूसरे को देखने, स्पर्श करने में विद्युतीय आदान प्रदान होता है। योगी तो स्पर्श से अपनी विद्युत का दूसरे व्यक्ति के शरीर में प्रवेश संकल्प शक्ति के सहारे विशेष रूप से कर सकते हैं किन्तु सामान्य स्पर्श से भी शरीरस्थ विद्युत का आंशिक आदान प्रदान होता रहता है। स्पर्श, सहलाने, हाथ मिलाने, गले मिलने आदि से जो स्पंदन अनुभव किये जाते हैं वे विद्युतीय आवेगों के आदान प्रदान के फलस्वरूप ही होते हैं, वैज्ञानिक भी इस तथ्य को अब स्वीकार करने लगे हैं।

विद्युतीय आवेगों के केन्द्र संस्थान को भारतीय योग विद्या के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो उसे प्राणमय कोश ही कहना पड़ेगा। प्राणमय कोश का स्पंदन विद्युतीय आवेग, प्राण ही जीवन का सार तत्व है। यह प्राण ही प्रगति का आधार है। समृद्धि उसी के मूल्य पर खरीदी जाती है। सिद्धियों और विभूतियों का उद्गम स्रोत वही है। यह प्राणतत्व अपने भीतर प्रचुर परिमाण में भरा पड़ा है। उसका चुम्बकत्व बढ़ा देने विश्व प्राण में भी उसे अभीष्ट मात्रा में उपलब्ध और धारण किया जा सकता है। मानवी सत्ता में सन्निहित इस प्राण भंडार को प्राणमय कोश कहते हैं। सामान्यतया यह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है और उससे शरीर निर्वाह भर के काम हो पाते हैं। उसे साधना विज्ञान के आधार पर जागृत किया जा सके तो सामान्य में से असामान्य प्रकटीकरण हो सकता है। प्राण की क्षमता असीम है। प्राण साधना से इस असीमता की दिशा में बढ़ चलना—प्रचुर सशक्तता प्राप्त कर सकना सम्भव हो जाता है।

अध्यात्मशास्त्र में प्राण तत्व की गरिमा का भाव भरा उल्लेख है। उसे ब्रह्म तुल्य माना और सर्वोपरि ब्राह्मी शक्ति का नाम दिया गया है। प्राण की उपासना करने आग्रह किया गया है यह प्राण आखिर क्या है? यह विचारणीय है।

विज्ञानवेत्ताओं ने इस संसार में ऐसी शक्ति का अस्तित्व पाया है जो पदार्थों की हलचल करने के लिए और प्राणियों को सोचने के लिये विवश करती है। कहा गया है कि यही वह मूल प्रेरक शक्ति है जिससे निःचेष्ट को सचेष्ट और निस्तब्ध की सक्रिय होने की सामर्थ्य मिलती है। वस्तुएं शक्तियां और प्राणियों की विविध विधि हलचलें इसी के प्रभाव से सम्भव हो रही हैं। समस्त अज्ञात और विज्ञात क्षेत्र के मूल में यही तत्व गतिशील है और अपनी गति से सब को अग्रगामी बनाता है। वैज्ञानिकों की दृष्टि में इसी जड़ चेतन स्तरों की समन्वित क्षमता का नाम प्राण होना चाहिये। पदार्थ को ही सब कुछ मानने वाले ग्रैविटी, ईथर, मैगनेट के रूप में उसकी व्याख्या करते हैं अथवा इन्हीं की उच्च स्तरीय स्थिति उसे बताते हैं।

चेतना का स्वतन्त्र अस्तित्व मानने वाले वैज्ञानिक इसे ‘साईकिक कोर्स लेटेन्ट हीट’ कहते हैं और भारतीय मनीषी उसे प्राणत्व कहते हैं। इस सन्दर्भ में भारतीय तत्व दर्शन का मत रहा है कि प्राण द्वारा ही शरीर का अस्तित्व बसा रहता है। उसी के द्वारा शरीर का पोषण, पुनर्निर्माण, विकास एवं संशोधन कहने का अर्थ यह कि हर क्रिया प्राण द्वारा ही संचालित होती है। अन्नमय कोश में व्याहा प्राणमय कोश ही उनका संचालन और नियंत्रण करता है। शरीर संस्थान की छोटी से छोटी इकाई में भी प्राण विद्युत का अस्तित्व अब विज्ञान ने स्वीकार कर लिया है। शरीर की हर कोशिका विद्युत विभव (इलैक्ट्रिक चार्ज) है। यही नहीं किसी कोशिका के नाभिक (न्यूक्लियम) में लाखों की संख्या में रहने वाले प्रजनन क्रिया के लिये उत्तरदायी जीन्स जैसे अति सूक्ष्म घटक भी विद्युत आवेश युक्त पुटिकाओं (पैक्टिस) के रूप में जाने और माने जाते हैं। तात्पर्य यह है कि विज्ञान द्वारा जानी जा सकी शरीर की सूक्ष्मतम इकाई में भी विद्युत आवेश रूप में प्राणतत्व की उपस्थिति स्वीकार की जाती है।

शरीर की हर क्रिया का संचालन प्राण द्वारा होने की बात भी सदैव से कही जाती रही है। योग ग्रन्थों में शरीर की विभिन्न क्रियाओं को संचालित करने वाले प्राण-तत्व को विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है। उन्हें पंच-प्राण कहा गया है। इस प्रकार शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय प्राण को पंच उप प्राण कहा गया है। वर्तमान शरीर विज्ञान ने भी शारीरिक अंतरंग क्रियाओं की व्याख्याएं विद्युत संचार क्रम के ही आधार पर की है। शरीर के एक सिरे तक जो संचार क्रम चलता है वह विद्युतीय संवहन प्रक्रिया के माध्यम से ही है। संचार कोशिकाओं में ऋण और धन प्रभार (निगेटिव तथा पौजिटिव चार्ज) अन्दर बाहर होते रहते हैं। और इसी से विभिन्न संचार क्रम चलते रहते हैं। इसे वैज्ञानिक भाषा में सैल का डिपोलराइजेशन तथा ‘रीपोलराइजेशन’ कहते हैं। यह प्रक्रिया भारतीय मान्यतानुसार पंच-प्राणों में वर्णित ‘व्यान’ के अनुरूप है। आमाशय तथा आंतों में भोजन का पाचन होकर उसे शरीर के अनुकूल रासायनिक रसों में बदल दिया जाता है। वह रस आंत की झिल्ली में से पार होकर रस में मिलते हैं तब सारे शरीर में फैल पाते हैं। कुछ रसायन तो सामान्य संचरण क्रम से ही रक्त में मिल जाते हैं, किन्तु कुछ के लिए शरीर को शक्ति खर्च करनी पड़ती है। इस विधि को ‘एक्टिव ट्रांसपोर्ट’ (सक्रिय परिवहन) कहते हैं। यह परिवहन आंतों में जो विद्युतीय प्रक्रिया होती है। उसे वैज्ञानिक सोडियम पंप के नाम से सम्बोधित करते हैं। सोडियम कणों में ऋण और धन प्रभार बदलने से वह सेलों की दीवार के इस पार से उस पार जाते हैं। उनके संसर्ग से शरीर के पोषक रसों (ग्लूकोस, वसा आदि) की भेदकता बढ़ जाती है तथा वह भी उसके साथ संचरित हो जाते हैं। यह प्रक्रिया पंच-प्राणों में ‘प्राण’ वर्ग के अनुसार कही जा सकती है।

ऐसी प्रक्रिया हर सैल में चलती है। हर सैल अपने उपयुक्त आहार खींचता है तथा उसे ताप ऊर्जा में बदलता है। ताप ऊर्जा भी हर समय सारे शरीर में लगातार पैदा होती और संचारित होती रहती है। पाचन केवल आंतों में नहीं शरीर के हर सैल में होता है। उसके लिए रसों को हर सैल तक पहुंचाया जाता है। यह प्रक्रिया जिस प्राण ऊर्जा के सहारे चलती है उसे भारतीय प्राणवेत्ताओं ने ‘समान’ कहा है। इसी प्रकार हर कोशिका में रस परिपाक के दौरान तथा पुरानी कोशिकाओं के विखंडन से जो मल बहता है उसके निष्कासन के लिए भी विद्युत रासायनिक (इलेक्ट्रो कैमिकल) क्रियाएं उत्तरदायी है। प्राण विज्ञान में इसे ‘अपान’ की प्रक्रिया कहा गया है।

पंच-प्राणों में एक वर्ग ‘उदान’ भी है। इसका कार्य शरीर के अवयवों को कड़ा रखना है। वैज्ञानिक भाषा में इसे इलैक्ट्रिकल स्टिमुलाइजेशन कहा जाता है। शरीरस्थ विद्युत संवेगों से अन्नमय कोश के सैल किसी भी कार्य के लिये कड़े अथवा ढीले होते रहते हैं।

शरीर में इस प्रकार की अनेक अन्तरंग प्रक्रियाएं कैसे चलती हैं इसकी व्याख्या वैज्ञानिक पूरी तरह नहीं कर सके हैं। उसके लिये उन्होंने कई तरह के स्थूल सिद्धान्त बनाये हैं। उनमें सोडियम पोटेशयम साइकिल, पोटेशयम पंप, ए.टी.फी.—ए.डी.पी. सिस्टम, तथा साइकिलिक ए.एम.पी. आदि के हैं। इनकी क्रिया पद्धति तो कोई रसायन विज्ञान का विद्यार्थी ही ठीक से समझ सकता है, किन्तु है यह सब ‘विद्युत रासायनिक’ सिद्धान्त ही। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी घोल में रासायनिक पदार्थों के अणु ऋण और धन प्रभार युक्त भिन्न-भिन्न कणों में विभक्त हो जाते हैं। इन्हें अयन कहा जाता है। अयनों की संचार क्षमता बहुत अधिक होती हैं। इच्छित संचार के बाद ऋण और धन प्रभार युक्त अयन मिलकर पुनः विद्युतीय दृष्टि से उदासीन (न्यूट्रल) अणु बना लेते हैं। शरीर में पाचन, शोधन, विकास एवं निर्माण की अगणित प्रक्रियाएं इसी आधार पर चल रही हैं। तत्व दृष्टि से देखा जाय तो सारे शरीर संस्थान में प्राणतत्व की सत्ता और सक्रियता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ेगी।

इन मोटी गतिविधियों से आगे बढ़कर शरीर की सूक्ष्म, गहन गतिविधियों का विश्लेषण करने पर उनमें भी प्राण शरीरस्थ प्राणतत्व का नियन्त्रण तथा प्रभाव दिखाई देता है। शरीर में हारमोनों और एन्झाइमों की अद्भुत सर्व-सा विदित है। इन दोनों की सक्रियता शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाने एवं शक्ति संचार करने में समर्थ है, इन सभी को शरीर की सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधियों को विद्युतीय संवेगों द्वारा प्रभावित किया जा सकता है। वह अभी ऐसा कर वही सके हैं पर अध्यात्म विज्ञान के द्वारा, प्राणमय कोश को परिष्कृत कर भारतीय ऋषियों ने यह सब कर दिखाया है वरन् ऐसे प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं कि अपने प्राण परिष्कार से दूसरे व्यक्तियों को, समाज को, यहां तक कि पूरे विश्व को प्रभावित किया जा सके।

प्राण से ऋषियों का क्या अथिप्राय है, इसका परिचय उस शब्द से नामकरण के आधार पर प्राप्त होता है। प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से होती है। ‘अन्’ धातु जीवन, शक्ति, चेतनावाचक हैं। इस प्रकार उसका अर्थ प्राणियों की जीवनी शक्ति के रूप में किया जाता है।

अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि चेतन की जीवनी शक्ति क्या हो सकती है। यहां उसका उत्तर ‘संकल्प’ के रूप में दिया जा सकता है जिजीविषा से लेकर प्रगति शीलता ही तक उसके असंख्य रूप हैं। अन्तःकरण की आकांक्षा ही विचार शक्ति और क्रिया शक्ति की उत्तेजना एवं दिशा देती है। मात्र आकांक्षा रहने से काम नहीं चलेगा। उसे तो कल्पना या ललक मात्र कहा जा सकता है। आकांक्षा के साथ उसे पूरा करने की साहसिकता भी जुड़ी हुई हो तो उसे संकल्प कहा जा सकेगा। संकल्प में आकांक्षा, निष्कर्ष, योजना और अग्रगमन के लायक अभीष्ट साहसिकता जुटी रहती है। यह संकल्प ही मनुष्य जीवन का वास्तविक बल है उसी के सहारे पतन उत्थान के आधार बनते हैं। परिस्थितियां इसी संकल्प भरी मनःस्थिति के आधार पर खिचती चली जाती है। इसी संकल्प तत्व को चेतन का प्राण कहा जा सकता है। इसी की उपासना करने के लिये अभिवर्धन के लिये तत्व दर्शियों ने निर्देश दिये हैं। प्रश्नोपनिषद ने प्राण की व्याख्या संकल्प रूप में की है।

यच्चित्तस्तेनैष प्राणामायाति प्राणस्तेजसा युक्तः महात्मना यथा संकल्पितं लोकं नयति। —प्रश्नोपनिषद् 3।10

आत्मा का जैसा संकल्प होता है वैसा ही स्वरूप होता संकल्प इस प्राण का बन जाता है। यह प्राण ही जीव के संकल्पानुसार उसे विभिन्न योनियां प्राप्त कराता है। विकासवाद के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए एक कोशीय जीवाणु इसी संकल्प शक्ति की प्रेरणा से क्रमशः आगे बढ़े और विकसित हुए हैं। अध्यात्म शास्त्र के अनुसार ब्रह्म ने एक से बहुत होने की इच्छा की और ब्रह्म इच्छा शक्ति ही प्रकारान्तर से परा-अपरा प्रकृति बनकर जगत् बन गई। उसी का विस्तार पंचतत्वों और पंच प्राणों में होता चला गया है।

विश्व के अन्तराल में काम करने वाली समग्र सामर्थ्य को व्याख्या के रूप में प्राण कहा जाता है। वह जड़ और चेतन दोनों को ही प्रभावित करती हैं। उपासना उसके इस एक पक्ष की ही की जाती है। जो मनुष्य को सत्प्रयोजनों की स्थिति में अग्रसर करने के लिये प्रयुक्त होती है। चेतना की सामर्थ्य तो उभय पक्षीय है। वह दुष्टता के क्षेत्र में दुस्साहस बनकर भी काम करती है। इस निषिद्ध पक्ष को नहीं जीवन को उत्कृष्टता की ओर अग्रसर करने वाले सत्संकल्पों को उपास्य प्राण माना गया है। उसको जितना मात्र उपलब्ध होता है उसी अनुपात से प्रगतिशीलता का लाभ मिलता है। इन विशेषताओं को देखते हुए उसे ब्राह्मी शक्ति—ब्रह्म प्रेरणा एवं साक्षात् ब्रह्म कहा गया है। सुविधा के लिये इसे अन्तरात्मा की पुकार भी कह सकते हैं। शास्त्र की दृष्टि में प्राण तत्व की व्याख्या इस प्रकार होती है—

प्राणो ब्रह्मेति ह स्माह कोषीतकिस्तस्य ह वा एतस्य प्राणस्य ब्रह्मणो मनो दूतं वाक्परिवेष्ट्री चक्षुर्गात्र श्रोत्रं संश्रावयितृ यो ह वा एतस्य प्राणस्य ब्रह्मणो मनो दूतं वेद दूतवान्भवति यश्चक्षु गोप्तृ गोप्तृमान्भवति यः श्रोत्रं संश्रावयितृ संश्रावयितृसान्भवति यो वाचं परिवेष्ट्री परिवेष्ट्रीमान्भवति।

—कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् 2।1

यह प्राण ही ब्रह्म है। यह सम्राट है। वाणी उसकी रानी है। कान उसके द्वारपाल हैं। नेत्र अंग रक्षक मन दूत, इन्द्रियां दासी, देवताओं द्वारा यह उपहार उस प्राण ब्रह्म को भेंट किये गये हैं।

प्राणाय नमो यस्य सर्वमिद वशे। यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन् सर्वप्रतिष्ठितम् । —अथर्व. का. 11

उस प्राण को मेरा नमस्कार है, जिसके अधीन यह सारा जगत है, जो सबका ईश्वर है, जिसमें यह सारा जगत् प्रतिष्ठित है। प्राणोऽस्मि प्राज्ञात्ना । तं मामायुरमृत भित्युपमृत भित्युपास्स्वाऽऽयुः प्राणः प्राणोवा आयुः । यावदस्मिंछरीरे प्राणो वसति तावदायुः । प्राणेन हि एवगास्मिन् लोकेऽमृतत्व माप्नोति । —शांखायन

मैं ही प्राणी रूप प्रज्ञा हूं। मुझे ही आयु और अमृत जानकर उपासना करो। जब तक प्राण है, तभी एक जीवन है। इस लोक में अमृतत्व प्राप्ति का आधार प्राण ही है। स एष वैश्वानरो विश्वरूपः प्रोणोग्निरुदयते । प्रश्नो. 1।7

वह प्राण रूपी तेजस सूर्य से उदय के साथ समस्त विश्व में फैलने लगता है। प्राणो भवत् परब्रह्म जगत्कारणमंयव्ययम् । प्राणो भवेत् यथामंत्र ज्ञानकोश गतोऽपिवा ।। —ब्रह्मोपनिषद्

प्राण ही जगत का कारण परमब्रह्म है। मन्त्र ज्ञान तथा पंच कोश प्राण पर आधारित है।

प्राण शक्ति का वही ब्रह्म तेज आंखों में वाणी में चिन्तन और क्रिया में चमकता है। यह चमक ही बौद्धिक क्षेत्र में तेजस्विता और क्रिया क्षेश में ओजस्विता कहलाती है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में यही मनस्विता प्रतिभा बनकर दीप्तिवान होती है। प्राण शक्ति ही सर्वतोमुखी समर्थता कही जाती है।

एषोऽग्निस्तपत्येष सूर्य एष पर्जन्यो मद्यवानष् । एष पथिवी रयिर्देवः सदसच्चामृतं चयत् ।। —प्रश्नो. 2।5

यह प्राण ही अग्निरूप धारण करके तपता है। यही सूर्य, मेघ, इन्द्र, वायु, पृथ्वी तथा भूत समुदाय है। सत्-असत् तथा अमृत स्वरूप ब्रह्म भी यही है। अन्यत्र भी ऐसे ही उल्लेख है— अमृत सु वै प्राणः । —शतपथ

यह प्राण ही निश्चित रूप से अमृत है। प्राणोवाव आशाय भूयान्यथा । —छान्दोग्य

इस प्राण शक्ति की सम्भावना आशा से अधिक है। प्राण वैयशो वलम् । —वृहदारण्यक

प्राण ही यश और बल है। प्राणश्च मे यरोन कल्पन्ताम् । —यजुर्वेद

मेरी प्राण शक्ति सत्कर्मों में प्रवृत्त हो।

प्राण को कई व्यक्ति वायु या सांस समझते हैं और श्वांस प्रश्वांस क्रिया के साथ वायु का जो आवागमन निरन्तर चलता रहता है उसके साथ प्राण की संगति बिठाते हैं। यह भूल इसलिए हो जाती है कि अक्सर प्राण के साथ ‘वायु’ शब्द और जोड़ दिया जाता है। यह समावेश सम्भवतः वायु के समान मिलते-जुलते गुण प्राण में होने के कारण उदाहरण की तरह हुआ हो। चूंकि प्राण भी अदृश्य है और वायु भी। प्राण भी गतिशील है और वायु भी। प्राण भी सारे शरीर एवं विश्व में व्याप्त है और वायु भी, इसलिए प्राण की स्थिति मोटे रूप में समझने के लिए उसे वायु के उदाहरण सहित प्रस्तुत किया गया है। किन्तु वास्तविक बात ऐसी नहीं है। वायु पंचतत्वों में से एक होने के कारण जड़ है, किन्तु प्राण तो चेतना का पुंज होने से उसका वस्तुतः कोई सदृश हो नहीं सकता। प्राण को प्रकृति की उत्कृष्ट सूक्ष्म शक्तियों (नेचर्स फाइनर फोर्सेज) में से एक कह सकते हैं। भारतीय योगियों ने इसे मानसिक या इच्छा सम्बन्धी श्वास प्रक्रिया (रेशपाइरेशन) के रूप में लिया है। वास्तव में ऐसी ही दिव्य धारा के प्रभाव से उच्चकोटि की आत्मिक शक्तियां प्राप्त होनी सम्भव हैं। श्वास-प्रश्वास क्रिया का प्रभाव तो फेफड़ों तक अधिक से अधिक भौतिक शरीर के बलवर्धन तक सीमित हो सकता है। प्राणोऽयास्तीति प्राण ।

अर्थात् प्राणवान् को प्राणी कहते हैं। सांख्यकार से प्राण को तत्व नहीं अन्तःकरण का धर्म माना है। सांख्य सारिका में कहा गया है—

स्वालक्षण्यं वृत्तिस्त्रयस्य तैषा भवत्य सामान्या । सामान्यकरण वृत्तिः प्राणद्या वायवः पंच ।

अन्तःकरण के चार पक्ष हैं। चारों का अपना अपना धर्म है। मन का संकल्प, बुद्धि का विवेक, चित्त का धारणा और अहं का अभिमान। इन चारों का सम्मिलित स्वरूप समग्र प्राण है। विभिन्न कार्यों में होने वाले उसके प्रयोगों को देखते हुए प्राण, अपान, समान, उदान, ध्यान भेद से उसे पांच प्रकार का कहा गया है।

न्याय दर्शन में प्राण को वायु अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। सम्भवतः उनका तात्पर्य 'ऑक्सीजन’ या वैसी ही किसी अन्य प्रकृति क्षमता से रहा हो। वैशेषिक के अनुसार— शरीरान्तः संचारी वायुः प्राणः संचैकोऽपि उपाधि भेदात् प्राणायानादि संज्ञां लभते।

शरीर के भीतर संचारित होने वाले वायु प्राण है। वह एक होने पर भी उपाधि भेद से पांच प्रकार की है। योग दर्शन का अभिमत भी उसी से मिलता जुलता प्रतीत होता है। वेदान्तकार ने इससे अपना मतभेद व्यक्त किया है। ब्रह्म सूत्र में कहा गया है—ना वायु क्रिये प्रथगुपरेशात्। अर्थात् वायु प्राण नहीं है, उनकी क्रिया और सत्ता में भेद है। छान्दोग्य और प्रश्नोपनिषद् में प्रजापति द्वारा इन्द्रियों की शक्ति परीक्षा के सम्बन्ध में आती है। वे समर्थ पर दीखती तो थीं पर प्राण शक्ति के बिना कुछ भी कर सकने में समर्थ न हो सकीं। तब उन सब ने मिलकर प्राण की श्रेष्ठता स्वीकार की और उसे नमन किया।

अधिकांश उपनिषद्कारों ने प्राण को आत्मसत्ता की क्रिया शक्ति माना है और उससे अविच्छिन्न कहा है। आत्मा को ब्रह्म भी कहा जाता है। दोनों की एकता बोधक कितने ही प्रतिपादन मिलते हैं। इस दृष्टि से प्राण को ब्राह्म शक्ति भी कहा गया है।

प्रश्नोपनिषद् में प्राण को ब्रात्य ऋषि कहा गया है—व्रात्यस्त्वं प्राणैकर्षि हे प्राण, तू (ब्रात्य) कर्तव्य च्युत तो रहता है फिर भी मूलतः ऋषि ही है। व्याख्याकारों ने अन्य कई ऋषियों के नामों पर प्राण का उल्लेख किया है। उसे गृत्समदं कहा गया है। ‘गृत्स’ कहते हैं नियंत्रण कर्त्ता को, मद कहते हैं कामुकता एवं अहंकार को। जो इन पर नियन्त्रण कर सके वह ‘गृत्स मद’ सब का मित्र होने से उसे विश्वामित्र कहा गया है। पापों से बचाने वाला—अत्रि। पोषक होने से भारद्वाज और विशिष्ट होने से उसकी संज्ञा वशिष्ट बताई गई है।

कषाय कल्मषों और कुसंस्कारों का निराकरण उन्मूलन इस प्रचण्ड संकल्प शक्ति के सहारे ही सम्भव होता है। ढीले-पोले स्वभाव वाले आत्म परिष्कार की बात सोचते भर हैं, पर वैसा कुछ कर नहीं पाते। कल्पना जल्पनाओं में उलझे रहते हैं प्रचण्ड संकल्प के बल पर उत्पन्न आत्मिक साहस ही दुर्भावना, दुष्प्रवृत्तियों और कुसंस्कारों से जूझता है। उत्कृष्टता की दिशा में बढ़ चलने के लिए प्रेरणा और अवरोधों से जूझने की क्षमता उसी आत्मबल से मिलती है जिसे प्राण कहा जाता है। प्राण देवता के अनुग्रह से मनोविग्रह और विकृतियों के उन्मूलन होने की बात वृहदारण्यक उपनिषद् में इस प्रकार कही गई है—

सां वा एष्प देवतैतासां देवतानां पाप्मानं मृत्युमहत्य यत्रासां दिशामन्तस्तद्गमयांचकारं तदासां पाप्मनो विन्यदधात् तस्मान्न जनमियान्नान्तमियान्नेत्पाप्मानं मृत्युमन्ववानीति । वृ.उ. 1।3।10

प्राण देवता ने इन्द्रियों के पापों को दिगन्त तक पहुंचा कर विनष्ट कर दिया। क्योंकि वह ही इन्द्रियों के मरण का कारण था। इन कल्मषों को इस निश्चय के साथ भगाया कि पुनः न लौट सकें।

अथ चक्षु रत्यवहत् तद् यदा मृत्युमत्यमुच्य सं आदित्योऽभवत् । सोऽसावादित्यः परेण मृत्युमत्तिक्रान्तस्तपति । —वृ.उ. 1।3।19

जब प्राण की प्रेरणा से चक्षु निष्पाप हुए तो वे आदित्य बनकर अमर हो गये और तपते हुए सूर्य की तरह अपने तप से ज्योतिर्मय हो उठे।

इसी प्राण शक्ति को गायत्री कहते हैं। यों वह क्षमता स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के कण-कण में संव्याप्त है, पर उसका केन्द्र संस्थान मल मूत्र छिद्रों के मध्य मूलाधार चक्र गह्वर में माना गया है। प्राण शक्ति के अभिवर्धन से इसी मूलाधार संस्थान का द्वार खटखटाना पड़ता है। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए उसका फाटक खोलना या तोड़ना पड़ता है। मूलाधार चक्र की साधना से यही प्रयोजन पूरा होता है। गायत्री की प्राणशक्ति मूलाधार चक्र से सम्बन्धित होने का उल्लेख गायत्री मंजरी में मिलता है—

यौगिकानां समस्ताना साधनाना तु हे प्रिये । गायत्र्येव मतालोके मूलाधारा विदो वरैः ।। —गायत्री मंजरी

विद्वानों का मता है कि समस्त यौगिक साधनाओं का मूलाधार गायत्री ही है। प्राणाग्नय एवास्मिन् ब्रह्मपुरे जागृति । —प्रश्नोपनिषद्

इस ब्रह्मपुरी में प्राण की अग्नियां ही सदा जलती रहती हैं। यद्वाव प्राणा जागर तदेवं जागारितम् इति । —ताण्डय.

प्राण को जागृत करना ही महान् जागरण है।

प्राण का ज्ञान एवं जागरण ही अमृतत्व एवं मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग है। उसी से यह लोक परलोक सुधरता है। इसी से भौतिक और आध्यात्मिक विभूतियां प्राप्त होती हैं। इसलिये वेद ने कहा है—हे विचारशीलों प्राण की उपासना करो—गायत्री महामन्त्र का आश्रय लो और आत्म कल्याण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ चलो।

य एष विद्वान्प्राणं वेद रहस्य प्रज्ञा हीयतेऽमृतो भवति तयेव श्लोकः । —प्रश्नोपनिषद्

जो ज्ञानी इस प्राण के रहस्य को जानता है उसकी परम्परा कभी नष्ट नहीं होती वह अमर हो जाता है।

प्राण के रहस्य को जान कर उसके द्वारा शरीर संस्थान में चमत्कारी परिवर्तन की बात भारतीय महर्षियों ने बलपूर्वक कही है। इसके लिए प्राणमय कोश की शुद्धिः शरीरस्थ प्राण ऊर्जा के प्रयोग को ही एक मेव मार्ग बताया गया है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। स्थूल विज्ञान की दृष्टि से ही मस्तिष्क एवं हृदय जैसे विलक्षण केन्द्रों से लेकर त्वचा तक में व्याप्त प्राण संस्थान तथा उसके प्रभाव को स्वीकार किया जा रहा है। योगदृष्टि तो उससे भी सूक्ष्म रही है, उसके द्वारा जो निष्कर्ष निकाले गये हैं वे और भी अधिक गहन तथा व्यापक स्तर के रहस्यों एवं तथ्यों को प्रकट करने वाले होने ही चाहिये अस्तु प्राणमय कोश को परिष्कृत एवं सबल बना कर न केवल अपने शरीर बल्कि दूसरे शरीरों को भी प्रभावित एवं विकसित करने की बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
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