• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • गायत्री के पांच मुख पांच दिव्य कोश
    • अन्नमय कोश का परिष्कार और प्रतिफल
    • मनोमय कोश का विकास परिष्कार
    • प्राणमय कोश में निहित प्रचंड जीवनी शक्ति
    • सूक्ष्म सिद्धियों का केन्द्र विज्ञानमय कोश
    • आनन्दमय कोश की समाधि स्वर्ग और मुक्ति का द्वार
    • पांच कोशों की साधना पंचमुखी गायत्री की सिद्धि
    • गायत्री माता की दस भुजायें
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • गायत्री के पांच मुख पांच दिव्य कोश
    • अन्नमय कोश का परिष्कार और प्रतिफल
    • मनोमय कोश का विकास परिष्कार
    • प्राणमय कोश में निहित प्रचंड जीवनी शक्ति
    • सूक्ष्म सिद्धियों का केन्द्र विज्ञानमय कोश
    • आनन्दमय कोश की समाधि स्वर्ग और मुक्ति का द्वार
    • पांच कोशों की साधना पंचमुखी गायत्री की सिद्धि
    • गायत्री माता की दस भुजायें
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - गायत्री के पाँच मुख पाँच दिव्य कोश

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


सूक्ष्म सिद्धियों का केन्द्र विज्ञानमय कोश

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 4 6 Last
विज्ञानमय कोश आत्म-चेतना का वह गहन अन्तराल है जिसका सीधा सम्बन्ध ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ बनता है। अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश व्यक्ति चेतना की परिधि में बंधे रहते हैं। उनके विकास का लाभ मनुष्य के निजी उत्कर्ष में दृष्टिगोचर होता है। सम्पर्क क्षेत्र के व्यक्ति उससे लाभ उठाते हैं। बलिष्ठ शरीर, प्रखर प्रतिमा और विद्या बुद्धि के सहारे कितने ही महत्वपूर्ण कार्य सधते हैं। व्यक्तित्व निखरता और क्षमता सम्पन्न बनता है। प्रगति के आरम्भिक चरण यही हैं। क्रमिक उन्नति करते हुए इसी मार्ग से चरम लक्ष्य तक पहुंचना सम्भव होता है।

ज्ञान, सामान्य लौकिक जानकारी को कहते हैं। दूसरे शब्दों में इसे शिक्षा भी कहा जा सकता है। विज्ञान का तात्पर्य है—विशेष ज्ञान। अध्यात्म प्रयोजनों में यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हैं, यों व्यवहार में विज्ञान का तात्पर्य ‘साइन्स’ समझा जाता है। उसे पदार्थ विज्ञान का संक्षेप माना गया है। पर अध्यात्म में वैसा नहीं है। सामान्य अर्थात् काम काजी, लौकिक, भौतिक, व्यावहारिक विशेष अर्थात् आन्तरिक अन्तरंग, सूक्ष्म, चेतन, आध्यात्मिक। विशेष ज्ञान अर्थात् विज्ञान। सामान्य बुद्धि-लौकिक कुशलता सम्पन्न होती है। असामान्य बुद्धि-ऋतम्भरा प्रज्ञा कहलाती है। इसके द्वारा आन्तरिक प्रगति और आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति का साधन जुटाया जाता है। विज्ञानमय कोश चेतना की वह परत है, जो अपने भीतर उच्चस्तरीय विभूतियों को छिपाये रहती है। कोश भण्डार को भी कहते हैं। विशेष अलौकिक जानकारी, विशेष शक्ति, अन्तःकरण की उच्चस्थिति इस संस्थान की उत्पत्ति एवं उपलब्धि है। इस सामर्थ्य के सूत्र यों रहते तो अपने ही अन्तःकरण में है, पर वस्तुतः उसका सम्बन्ध सूक्ष्म जगत में संव्याप्त ब्रह्माण्डीय चेतना से जुड़ा रहता है।

छोटे बैंक बड़े बैंकों से सम्बद्ध हो तो आवश्यकतानुसार उनके बीच आदान-प्रदान होता रहता है। जरूरत के समय छोटे बैंक बड़े संस्थानों से संरक्षण और सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार सूक्ष्म जगत की हलचलों की जानकारी और उपयोगी विभूतियों को उपलब्ध कर सकना उनके लिए सम्भव हो जाता है जिनका विज्ञानमय कोश समुन्नत स्तर का बन चुका है।

विज्ञानमय कोश की विभूतियों और क्षमताओं की जानकारी से पूर्व उसका स्वरूप जान लेना उपयुक्त रहेगा चेतना की इच्छा, ज्ञान और क्रिया-शक्ति की त्रिवेणी को ही अध्यात्म विज्ञान में विज्ञानमय कोश कहा जाता है। अध्यात्म शास्त्र के अनुसार जीवात्मा के तीन गुण गिनाये गये हैं (1) सत् (2) शिव (3) सुन्दर। जीवन तत्व की व्याख्या ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ के रूप में की गई है। विज्ञान की भाषा में—सत् को उत्कृष्टता के प्रति आस्था श्रद्धा कहा गया है। शिव का तात्पर्य है विवेक युक्त दूरदर्शी दृष्टिकोण तदनुरूप आकांक्षाओं का प्रवाह। सुन्दरम् सौन्दर्य बोध, कलात्मकता, सम्वेदना। आत्मभाव का जिस पर भी आरोपण होता है, वह सुन्दर लगने लगता है। कला दृष्टि से सौन्दर्य बन कर प्रतिबिम्बित होती है। अन्यथा इस जड़ जगत के पदार्थों जैसा कुछ दीखता नहीं।

आस्था, उमंग और सरसता के समन्वय को अन्तःकरण या अन्तरात्मा कहा जा सकता है। पुरानी परिभाषा में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को अन्तःकरण चतुष्ट्य कहा जाता रहा है। अस्तु यदि वस्तु स्थिति समझने में उस नामकरण में भ्रम उत्पन्न होता हो तो अन्तःकरण के स्थान पर अन्तरात्मा शब्द प्रयुक्त हो सकता है। मनःशास्त्र के अनुसार इसे चेतना की अत्यन्त परिष्कृत स्थिति कहते हैं। इसमें भौतिक तत्वों का कम और आत्मिक उत्कृष्टता का समावेश अधिक है। भौतिकता प्रधान मन पर वासना, तृष्णा अहंता ही छाई रहती है, उसमें स्वार्थ सिद्धि ही प्रधान आधार होती है। अन्तरात्मा का स्वार्थ विकसित होकर परमार्थ बन जाता है। उसकी आत्मीयता शरीर परिवार तक सीमित न रहकर सर्वजनीन बन जाती है। आस्थाएं वातावरण के सम्पर्क में नहीं—आदर्शों से प्रभावित होती हैं। आकांक्षाएं लाभ को दृष्टि में रख कर नहीं, उत्कृष्टता के समर्थन पर केन्द्रित होती रहती हैं। लाभ की दृष्टि से सौन्दर्य का आरोपण नहीं होता, वरन् पदार्थों के अन्तराल में थिरकने वाली कला का सूक्ष्म दर्शन ही अन्तरात्मा में हुलास उल्लास उत्पन्न करता है। संक्षेप में चेतना की वह उच्चस्तरीय परत जो आत्मा के अति समीप है, जो वातावरण से प्रभावित कम होती है और उस पर अपनी मौलिकता का प्रभाव अधिक छोड़ती है—अन्तरात्मा कही जायगी। किसी को आपत्ति न हो तो इसी को अन्तःकरण शब्द में भी सम्बोधित किया जा सकता है।

इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति चेतना त्रिवेणी के ही त्रिविध प्रवाह हैं। इनका उद्गम स्रोत अन्तरात्मा है। वहां की उमंगें ही इच्छा को दिशा देती हैं, उसका संकेत पाकर मस्तिष्कीय ताना-बाना बुना जाता है। वहां के निर्देशों का पालन बिना ननुनच किये शरीर स्वामिभक्त सेवक की तरह करता रहता है। इन तथ्यों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा और संसार का सम्पर्क सूत्र इसी केन्द्र से जुड़ता है। जीवन का स्वरूप यहीं बनता है और उसका प्रवाह यहीं से निसृत होता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे ‘सुपरचेतन’ कह सकते हैं। दार्शनिकों ने इसे अति मानस की व्याख्याएं परस्पर विरोधी हैं। तो भी उनका तात्पर्य चेतना के उस स्तर से है जिसे व्यक्तित्व का उद्गम अथवा मर्मस्थल कहा जा सके। प्रत्येक सूक्ष्मदर्शी व्यक्ति के अस्तित्व में मूल भूत सत्ता इस अन्तरात्मा की ही काम करती पाई है और उसी की सर्वोपरि गरिमा स्वीकार की है।

साधना विज्ञान में इसी अन्तरात्मा को ‘विज्ञानमय कोश’ कहा है। उसके परिष्कृत प्रयासों को योगाभ्यास में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। आस्थाओं का परिमार्जन होने से जीवन के बहिरंग स्वरूप में कायाकल्प होते देर नहीं लगती। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अम्बपाल, अजामिल, सूर, तुलसी आदि के जीवन परिवर्तन को एक प्रकार से आध्यात्मिक काया-कल्प ही कह सकते हैं। सामान्य स्थिति के मनुष्य असामान्य स्तर के महामानव बने हैं। इसमें भी आस्थाओं का उन्नयन ही प्रधान भूमिका निवाहता दृष्टिगोचर होता है। कबीर, दादू, रैदास, रामदास, रामकृष्ण, विवेकानन्द, शंकराचार्य, दयानन्द आदि महामानव परिस्थितियों के हिसाब से कुछ अच्छी स्थिति में नहीं जन्मे थे। लिंकन, वाशिंगटन आदि की प्रगति में उनकी परिस्थिति की नहीं मनःस्थिति की ही प्रधान भूमिका रही है। ध्रुव, प्रहलाद, बुद्ध, महावीर आदि जन्मे तो राज परिवारों में थे, पर व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाने का कोई वातावरण उपलब्ध नहीं था। नारद आदि की प्रेरणा से अथवा स्व सम्वेदनाओं से प्रभावित होकर उनने अपनी आस्थाओं में परिवर्तन किया और उतने ऊंचे जा पहुंचे जितने की सामान्यतया कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। यह अन्तःकरण में परिवर्तन एवं परिष्कार का ही चमत्कार है। यह विज्ञानमय कोश किस प्रकार परिष्कृत होता है इसके कितने ही मार्ग एवं उपाय हो सकते हैं। अनायास, दैवी अनुग्रह आदि अन्य कारण भी इस क्षेत्र के विकास परिष्कार के कारण हो सकते हैं पर प्रयत्न पुरुषार्थ पर क्रमिक गति से अंतःकरण का स्तर ऊंचा उठाने की प्रक्रिया विज्ञानमय कोश की साधना ही मानी गई है।

विज्ञानमय कोश का यही बहिरंग जीवन पक्ष हुआ। उसकी एक दिशा धारा सूक्ष्म जगत की ओर भी प्रवाहित होती है। अन्तःकरण की एक प्रक्रिया सामान्य मनुष्य को महात्मा, देवात्मा, परमात्मा स्तर तक ऊंचा उठा ले जाने वाली कहीं जा सकती है। दूसरी वह है जो सूक्ष्म जगत के साथ जीव-सत्ता का सम्पर्क जोड़ती है। दोनों के बीच महत्वपूर्ण आदान-प्रदान सम्भव करती है।

हम जिस दुनियां के सम्पर्क में हैं, वह स्थूल जगत है। यह इन्द्रियगम्य है। इसके भीतर प्रकृति की वह सत्ता है जो पदार्थ की तरह प्रत्यक्ष नहीं—शक्ति के रूप में विद्यमान और बुद्धिगम्य है। इस स्थूल जगत का परिचय, इन्द्रियों से, बुद्धि से यन्त्र उपकरणों से मिलता है। पदार्थों और प्रकृति शक्तियों का लाभ उठा सकना भी उपरोक्त स्थूल साधनों से सम्भव हो जाता है। इससे आगे सूक्ष्म जगत का अस्तित्व आरम्भ होता है, जो इन्द्रिय गम्य न होने से अतीन्द्रिय या इन्द्रियातीत कहा जाता है। प्रयोगशाला में उसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता और बुद्धि ही उनका आधार एवं कारण समझ सकने में समर्थ होती है। इतने पर भी उस सूक्ष्म जगत का आधार अपने स्थान पर चट्टान की तरह अडिग है। उसका अस्तित्व स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं।

जहां तक मानवी बुद्धि का सम्बन्ध है वहां अतीन्द्रिय कही जाने वाली ऐसी हलचलों का पता लगता है जो विदित आधारों से सर्वथा भिन्न हैं। मनुष्य, मनुष्यों के बीच चलने वाले विचार, संचार को टेलीपैथी कहते हैं। दूरवर्ती घटनाओं का अनायास आभास मिलने के असंख्य प्रमाण मिलते हैं। इसे दूर दर्शन कह सकते हैं। भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास मिलना ऐसा तथ्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। ऐसे घटनाक्रम यों सर्वदा सब पर प्रकट नहीं होते—फिर भी जब भी जिन्हें भी ऐसी अनुभूतियां हुई हैं, वे ऐसी हैं जिनके आधार पर किसी अविज्ञान सूक्ष्म जगत का परिचय मिलता है और विदित होता है कि उसमें भी अपनी ही दुनिया की तरह कुछ न कुछ हलचलें होती अवश्य हैं। मरणोत्तर जीवन को प्रमाणित करने में भूत प्रेतों के अस्तित्व और पुनर्जन्म के विवरण एक समस्या के रूप में सामने आते हैं। जीवन के उपरान्त जीवात्मा की सत्ता कहां रहती है? वहां उसका निवास निर्वाह कैसे होता है? इन प्रश्नों का समाधान सूक्ष्म जगत का अस्तित्व स्वीकार किये बिना और किसी तरह नहीं हो सकता। किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों में विचित्र प्रकार की अति मानवी क्षमताएं देखी गई हैं। इन्हें चमत्कारी सिद्धियां कहा जाता है। शाप, वरदान से लेकर आश्चर्यजनक कृत्य उपस्थित कर देने तक की विचित्रताएं कैसे, कहां से उत्पन्न होती हैं इसका उत्तर सूक्ष्म जगत की सत्ता स्वीकार किये बिना और किस प्रकार दिया जा सकता है? जन्म जात रूप से किन्हीं बालकों में ऐसी विशेषताएं पाई जाती हैं, जिनकी सामान्य विकास क्रम के साथ कोई संगति नहीं बैठती। किन्हीं की स्मृति, सूझ-बूझ ऐसी होती है जिसे विलक्षण कहा जा सकता है। भूमिगत जल स्रोतों को बनाकर जल समस्या के समाधान के चमत्कार कितने ही सिद्ध पुरुषों ने दिखाये हैं। बिना अन्न जल के निर्वाह शरीर विज्ञान की दृष्टि से असम्भव है पर पोहारी बाबा जैसे व्यक्तियों ने उस असम्भव का सम्भव होना सिद्ध किया है। पंजाब महाराजा रणजीतसिंह की निगरानी में हरिदास नामक साधु ने कई महीने की लम्बी भूमि समाधि ली थी। ऐसे चमत्कार अन्यत्र भी दृष्टिगोचर होते रहते हैं। देवताओं का अनुग्रह—मृतात्मा के सहयोग—मन्त्र साधना के प्रतिफल आदि ऐसे अनेकों तथ्य हैं जिन्हें अन्ध-विश्वास कहकर टाला नहीं जा सकता। मिस्र के पिरामिडों की खोज बीन करने वाले शोधकर्त्ताओं पर विपत्तियों के पहाड़ टूटते रहे हैं, उन्हें संयोग मात्र कहने से काम नहीं चलता। योगियों में पाई जाने वाली कई तरह की विचित्रताएं अकारण नहीं हो सकतीं। ईश्वर भक्तों को जो विशिष्टताएं उपलब्ध होती रही हैं, वे मूढ़ मान्यताएं भर नहीं हैं, दन्त कथाएं उनसे जुड़ी तो हो सकती हैं पर वह पूरे का पूरा अन्ध-विश्वास भर है यह कह देना तथ्यों से आंखें मीच लेने जैसा होगा। बुद्धि की समझ में जो न आये वही अप्रामाणिक, वही अविश्वस्त यह दुराग्रह कुछ समय पहले तक तो प्रबल था, पर अब विचारशीलता ने सन्तुलन साधा है और यह गम्भीरता पूर्वक सूक्ष्म जगत के अस्तित्व की शोध की जा रही है।

सूक्ष्म जगत की एक भौतिकवादी सत्ता ही ऐसी सामने आ खड़ी हुई है जो अध्यात्मवादियों के द्वारा प्रतिपादित सूक्ष्म जगत से भी विचित्र और सशक्त है। यह मान्यता प्रति पदार्थ की—प्रति विश्व की है। एन्टीमैटर-एैन्टी यूनिवर्स—के तथ्य इस प्रकार सामने आये हैं कि उनके आधार पर एक अपने साथ सटे हुए विलक्षण विश्व का अस्तित्व जुड़ा देखकर हतप्रभ रह जाना पड़ता है।

तन्त्र विज्ञान में ‘छाया पुरुष’ साधना का उल्लेख है। कहा गया है कि मनुष्य की सूक्ष्म सत्ता का प्रतिनिधित्व करने वाला एक जीवित प्रेत होता है और वह साथ ही रहता है—इसकी देवता या भूत-प्रेत जैसी साधना करके उसे आज्ञानुवर्ती बनाया जा सकता है। स्थूल शरीर—स्थूल कार्य करता है और सूक्ष्म शरीर—सूक्ष्म स्तर के काम कर सकता है। छाया पुरुष की सिद्धि में अपना ही एक और शरीर अपने हाथ में जाता है और इन दोनों शरीरों से दो प्रकार के काम एक साथ करना सम्भव हो जाता है। इस प्रतिपादन में एक प्रति मनुष्य का—छाया पुरुष का अस्तित्व और क्रिया-कलाप बताया गया है। देखा जाता है कि प्रकाश में अपनी ही एक ओर छाया उत्पन्न हो जाती है और साथ-साथ रहती है। सूक्ष्म शरीरधारी छाया पुरुष की स्थिति सजीव छाया जैसी समझी जा सकती है। यह नामकरण इसी आधार पर किया गया है।

मूर्धन्य वैज्ञानिकों के सामने ऐन्टी-एटम—एन्टी मैटर एन्टी युनिवर्स का अस्तित्व एक चुनौती के रूप में खड़ा है। उसे अस्वीकार करते नहीं बनता। यदि उस अस्तित्व के तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं और उसकी प्रतिविश्व गतिविधियों से मनुष्य का सम्बन्ध जुड़ जाता है तो निश्चित रूप से एक जादुई दैत्य युग में हम सब जा खड़े होंगे। प्रति परमाणु की शक्ति अपने जाने माने परमाणु की तुलना में अत्यधिक है। अपने परिचित संसार की तुलना में अपरिचित ‘एन्टी युनिवर्स’ की सम्पदा-क्षमता एवं विशालता बहुत बड़ी है। उसके सन्तुलन में यह अन्तर पड़ जाय तो देखते-देखते ‘एन्टी युनिवर्स’ का महादैत्य अपने प्रत्यक्ष संसार को निगल कर हजम कर सकता है और हिरण्याक्ष की उस पौराणिक कथा का एक प्रत्यक्ष दृश्य उपस्थित हो सकता है जिसमें यह महादैत्य, उस पृथ्वी को बगल में दबा कर पाताल लोक को भाग गया था।

छाय पुरुष और ‘प्रतिविश्व’ की चर्चा यहां यह समझने के लिये की गई है कि सूक्ष्म जगत के समतुल्य अपने ही इर्द गिर्द बिखरे हुए एक सूक्ष्म जगत के अस्तित्व को समझने में सुविधा है। इन्द्रियों की पकड़ में न आने वाली यह दुनिया इतनी विलक्षण है कि उसकी हलचलों का दृश्य संसार पर भारी प्रभाव पड़ता है। पदार्थों, प्राणियों और परिस्थितियों पर उस सूक्ष्म जगत की हलचलें आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया उत्पन्न करती हैं। प्रयत्न पुरुषार्थ के महत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता, पर यह भी एक तथ्य है कि अदृश्य जगत का अति घनिष्ठ और अति प्रभावशाली सम्पर्क दृश्य जगत से है।

जीवधारी की चेतना ब्रह्माण्ड व्यापी महा चेतना का एक अंश है। अंश और अंशी के गुण, धर्म समान होते हैं। अन्तर विस्तार के अनुरूप क्षमता का होता है। हम सब चेतना के महासमुद्र में छोटी बड़ी मछलियों की तरह जीवन-यापन करते हैं। महाप्राण—ब्रह्म की सत्ता में ही अल्पप्राण जीव-अनुप्रमाणित होता है।

मैटर का—सूक्ष्मतम स्वरूप अब परमाणु नहीं रहा। उसके भीतर भी अनेक घटक स्वतन्त्र इकाइयों के रूप में काम करते हैं। वे इलेक्ट्रोन आदि के भीतर भी सूक्ष्म तत्व हैं। पदार्थ अन्ततः तरंगें न रहकर ‘ऊर्जा’ मात्र रह जाता है। यह ऊर्जा ‘इलालाजी’ विज्ञान के अनुसार जड़ नहीं, विवेक युक्त चेतन है। विज्ञान में पदार्थ का सूक्ष्म तम स्वरूप इन दिनों ‘क्वान्टा’ के रूप में निर्धारित किया है इसे चेतन और जड़ का सम्मिश्रित रूप कह सकते हैं। उसकी व्याख्या विचारशील ऊर्जा के रूप में की जाती है। आध्यात्म की भाषा में इसे अर्ध नारी नटेश्वर कह सकते हैं—प्रकृति पुरुष का सम्मिश्रण इस ‘क्वान्टा’ का विश्लेषण करते-करते शुद्ध ब्रह्म तक जा पहुंचेंगे और वेदान्त की तरह स्वीकार करेंगे कि सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म संव्याप्त है। चेतना का महा समुद्र ही सर्वत्र लहलहा सकता है। जड़ पदार्थ—दृश्य जगत तो उसकी हिलोरें मात्र हैं।

जीव और ब्रह्म के मध्य आदान-प्रदान के सुदृढ़ सूत्र विद्यमान हैं। उनमें अवरोध आत्मा पर चढ़े हुए कषाय कल्मषों के कारण उत्पन्न होता है। इन्हें हटाया जा सके तो ब्रह्माण्डीय चेतना और जीव चेतना के मध्य महत्वपूर्ण आदान-प्रदान चल पड़ते हैं। भौतिक अंश का भार बढ़ जाने से जीव प्रकृति परक हो जाता है। उसकी प्रवृत्ति भौतिक आकांक्षाओं और उपलब्धियों में ही सीमित हो जाती है। फलतः वह स्वल्प, सीमित और दरिद्र दिखाई पड़ता है। यदि जीव सत्ता को निर्मल रखा जा सके तो उसकी सूक्ष्मता—ब्रह्म-तत्व से, सूक्ष्म जगत से अपना घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर सकती है। यह आदान-प्रदान जिसके लिए भी सम्भव हुआ है वे देवोपम स्तर की स्थिति बना सका है। ऐसे लोगों को स्थूल जगत की अपेक्षा सूक्ष्म जगत से अधिक महत्वपूर्ण अनुदान अधिक मात्रा में मिलने लगते हैं। वह सम्पदा व्यक्ति को सच्चे अर्थों में समुन्नत बनाती है। इस उपलब्धि के सहारे वह अपने सम्पर्क क्षेत्रों के असंख्यों का तथा समूचे संसार का महत्वपूर्ण हित साधन कर सकता है।

सूक्ष्म जगत का अस्तित्व स्वीकार न करने की बात कुछ शताब्दियों पूर्व अनास्थावादियों की आग्रह पूर्वक कह सकने की स्थिति थी। तब विज्ञान और बुद्धिवाद का इतना विकास नहीं हुआ था। आज की स्थिति भिन्न है। एक के बाद एक तथ्य उभरता हुआ सामने आया है और उसने सूक्ष्म जगत का—विश्व चेतना का प्रतिपादन किया है। तत्वदर्शी मनीषियों ने तो उसे दृश्य जगत की तरह प्रत्यक्ष माना था और उसके साथ सम्पर्क बनाने का विशाल काल अध्यात्मवादी ढांचा खड़ा किया था। लगता है वह दिन दूर नहीं जब अध्यात्म और विज्ञान सूक्ष्मता के क्षेत्र में मिल जुलकर प्रवेश करेंगे और जड़ चेतन के क्षेत्र को एकाकार करके सर्वतोमुखी प्रगति का पथ-प्रशस्त करेंगे। छाया पुरुष साधना की तरह हम स्थूल के साथ-साथ सूक्ष्म जगत का भी ज्ञान वृद्धि एवं सुविधा सम्पदा के लिए उपयोग कर सकते हैं। दृश्य प्राणियों की तरह अदृश्य जगत में विद्यमान अशरीरी समर्थ आत्माओं के साथ सम्पर्क साध सकते हैं। जमीन पर लड़ी जाने वाली लड़ाई की तुलना में वायु सेना द्वारा लड़े जाने वाले युद्ध के परिणाम अधिक दूरगामी होते हैं। श्रम से ज्ञान का महत्व अधिक है। परमाणु के दृश्य अस्तित्व का मूल्य नगण्य है किन्तु उसके विस्फोट से उत्पन्न ऊर्जा का मूल्य अत्यधिक ही आंका जायगा। दृश्य शरीर से अदृश्य आत्मा का महत्व कितना है—यह सर्वविदित है। स्थूल जगत को प्रभावित करने वाले सूक्ष्म जगत से सम्पर्क साध सकने की जो क्षमता विज्ञानमय कोश की साधना से मिलती है, उसे महत्वहीन नहीं कहा जा सकता।

अन्य कोशों की तरह विज्ञानमय कोश की सत्ता भी समूचे काय कलेवर में विद्यमान है किन्तु उसका प्रवेश द्वारा हृदय चक्र। यह हृदय वह नहीं जो शरीर में रक्त का संचार करता है। वह हृदय तो छाती के बांये हिस्से की पसलियों के पीछे रहता है पर जिस हृदय चक्र को विज्ञानमय कोश का प्रवेश द्वार माना गया है वह उस स्थान पर है जहां छाती के दोनों ओर की पसलियां मिलती हैं, तथा उसके तुरन्त बाद उदर कोश आरम्भ हो जाता है। सबसे नीचे की पसलियों के मिलन स्थान पर एक गड्ढा सा दिखाई देता है उसी स्थान को हृदय चक्र कहा गया है।

इस केन्द्र को कारण ‘शरीर’ का केन्द्र भी बताया गया है। योग शास्त्रों में इसका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि वह अंगुष्ठ मात्र आकार वाला प्रकाशमान् अंग है। इसी प्रकार विज्ञानमय कोश के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह ब्रह्मांड-व्यापी चेतना से जुड़ा है लक्ष उससे सीधा आदान-प्रदान करने में समर्थ है। इस चक्र को गुफा या गुहा भी कहा गया है। जिस प्रकार योगी जन विशिष्ट साधनाओं के लिए गुफा में प्रवेश करके सिद्धियां प्राप्त करते हैं। उसी प्रकार इस हृदय गुफा में प्रवेश करके दिव्य उपलब्धियां प्राप्त की जाती हैं। बोलचाल की भाषा में हृदय का शब्द का उपयोग संवेदनाओं के लिए किया जाता है। सहृदय, का अर्थ कोमल भावनाओं वाला। हृदयहीन अर्थ निष्ठुर। यह रक्त फेंकने वाली थैली के गुण नहीं वरन् उस सचेतन हृदय तत्व के गुण हैं जिसे अध्यात्म की भाषा में हृदय चक्र, ब्रह्म चक्र कहा जाता है। यह विज्ञानमय कोश का प्रवेश द्वार है। इसी केन्द्र को ध्यान धारणा के सहारे जागृत करके अति मानस जगाया जाता है। अतीन्द्रिय क्षमता की दिव्य सिद्धियां प्राप्त करने के लिए साधना की आधारशिला यही है। अन्तःकरण एवं अन्तरात्मा का केन्द्र संस्थान भी यही माना गया है। आत्म परिचय देते हुए प्रायः लोग छाती ठोक कर अपने वर्चस्व का परिचय देते हैं और वे क्या करने जा रहे हैं इस संकल्प का परिचय देते हैं।

हृदय गुहा में प्रवेश करके आत्म साधना करने का निर्देश साधना शास्त्रों में इस प्रकार मिलता है—

संत्यज्य हृद्गुहशानं देवमन्यं प्रयान्तिये । ते रत्नमभिवांछन्ति त्यक्त हस्तस्थ कौस्तुभा ।। —योग वशिष्ठ

हृदय रूपी गुफा में निवास करने वाले भगवान को छोड़कर अन्यत्र ढूंढ़ता फिरता है वह हाथ की कौस्तुभमणि छोड़ कर कांच ढूंढ़ते फिरने वाले मूर्ख के समान है।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिकस्यमध्ये विश्वस्य स्रष्टा रमनेकरूपम् । विश्वस्यैक परिवेष्टितारं ज्ञात्वाशिवं शान्ति मत्यन्तमेति ।। —श्वेताश्वतरोपनिषद्

जो सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म, हृदय गुहा रूप गुह्य स्थान के भीतर स्थित सम्पूर्ण विश्व की रचना करने वाला, अनेक रूप धारण करने वाला तथा समस्त जगत् को सब ओर से घेरे रखने वाला है, उस एक अद्वितीय करुणा स्वरूप महेश्वर को जान कर मनुष्य सदा रहने वाली शांति को प्राप्त होता है।

एष देवो विश्वकर्म्मा महात्मा सदा जनाना हृदये सन्निविष्टः । हृदा मनीषा मनसाभिल्कृप्तो यं एतहिदुरमृतास्ते भवन्ति ।। —श्वेताश्वतरोपनिषद् 4।17

यह देवता विश्व के बनाने वाले और महात्मा हैं, सदा लोगों के हृदय में सन्निविष्ट हैं। हृदय, बुद्धि और मन के द्वारा पहिचाने जाते हैं जो इसे जानते हैं वे अमृत होते हैं। सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमेन् । सोऽश्नुते सर्वान् कामान्सह ब्रह्मणा विपश्चितेति । —तैज्ञरीय

जो हृदय गुहा में अवस्थित, ज्ञानस्वरूप व्यापक परमेश्वर को जानता है वह ब्रह्म के साथ ही सब भोगों का उपभोग करता है। निहितं गुहायाममृतं विभ्राजमानमानन्दं त पश्यन्ति ।। —सुवालोपनिषद्

परब्रह्म हृदय रूपी गुफा में रहने वाला है, वह अविनाशी और प्रकाश स्वरूप है, ज्ञानी उसे आनन्द रूप में अनुभव करते हैं और उसी में लीन हो जाते हैं। पुरुष एवेदं विश्वं कर्म तपो ब्रह्म परामृतम् । एतद्यो वेद निहितं गुहाया सोऽविद्याग्रन्थि विंकिरतीह सोम्य ।। —मुण्डोपनिषद्

महर्षि अंगिरा ने कहा कि हे प्यारे शौनक! क्रिया, ज्ञान और नित्य वेद तथा सारा जगत् उसी परब्रह्म के आधार से ठहरा हुआ है। बस जो मनुष्य उस ब्रह्म को अपनी हृदय रूपी गुहा में स्थित जानता है वह अज्ञान की गांठ को काट देता है, अर्थात् मुक्त हो जाता है।

न पाताल न च विवरं गिरीणां नैवान्धकारं कुक्षयो नोदधीनाम् । गुहा यस्यां निहितं ब्रह्म शाश्वतं बुद्धिवृत्तिमविशिष्टां कवयो वेदयन्ते ।। —ध्यास भाष्य

जिस गुफा में ब्रह्म का निवास है वह न तो पाताल है, न पर्वतों की कन्दरा, न अन्धकार है, न समुद्र की खाड़ी। चेतन से अभिन्न जो चित्त वृत्ति है, ज्ञानवान लोग उसे ही ‘ब्रह्म गुहा’ कहते हैं।

ईश्वरः सर्व भूतानां ह्रद्देशेऽर्जुन तिष्ठति । भ्रामयन् सर्वभूताति यश्त्रारूढानि मायया ।। तनेव शारणं गच्छ सर्व भावेन भारत । तन्प्रसादात् परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् । गीता 18।61, 62

ईश्वर सब प्राणियों के हृद् देश में रहता है। वह अपने कौशल से सब प्राणियों को चलाता है। सर्व प्रकार से उसी की उपासना करो। उसकी कृपा से परम शांति, परम पद मिलता है। हृदय चक्र की उपमा कमल पुष्प से दी गई है। इसे हृदय कमल भी कहते हैं। कमल का तात्पर्य यहां आकृति से कम और संवेदना से अधिक है। कमल-कोमलता का, सौन्दर्य का, सुगन्ध का, सात्विकता का प्रतीक है। उसे पुष्पों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। अस्तु चक्र को कमल की संज्ञा भी दी गई है।

आविः संनिहित गुहाचरन्नाम महत्पदमत्रैतत्समर्पितम् । —मुण्डोकोपनिषद्

वह ज्ञानियों के हृदय रूपी गुफा में प्रकट है, सदा सब के समीप रहता है, ज्ञानियों की बुद्धि में वर्तमान रहता है, वह सबसे बड़ा परम धाम है।

हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिताः । हृदि ज्योतिषि भूयश्च हृदि सवं प्रतिष्ठितम् ।। —शंख संहिता

हृदय में सब देवताओं का, सब प्राणों का निवास है। हृदय में ही परम ज्योति है। सब कुछ उसी में विद्यमान है।

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः । अथ मर्त्योंऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समुश्नुते ।। —कठोपनिषद्

जब मनुष्य के हृदय की सारी कामनाएं नष्ट हो जाती हैं तब यह मरणधर्मा मनुष्य मुक्त हो जाता है और मुक्ति दशा में ब्रह्म को प्राप्त करता है।

दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यत्स्विहैव निहितं गुहायाम् ।। —मुण्डकोपनिषद्

वह दूर से भी दूर है तो भी वह बहुत पास है, ज्ञानी योगियों के लिए वह यही हृदय गुफा में विराजमान है। अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति । ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सत एतद्वै तत ।। —कठोपनिषद्

वह सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा शरीर के हृदय स्थान में भी जहां अंगुष्ठमात्र स्थान में लिंग शरीर सहित आत्मा रहता है। योगी जन उसकी प्राप्ति के लिए इसी स्थान पर ध्यान लगाते हैं। वह ईश्वर भूत और भविष्य सब का स्वामी है, जो मनुष्य उसको जान लेता है वह फिर ग्लानि को प्राप्त नहीं होता।

हृदय चक्र में ध्यान करते समय अंगुष्ठ आकार को प्रकाश ज्योति का दर्शन साधकों को होता है। दीप शिक्षा जैसी वह जलती प्रतीत होती है। इस दिव्य दर्शन को आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्म दर्शन का प्रतीक माना गया है। विज्ञानमय कोश की विशिष्ट साधनाओं द्वारा इस केन्द्र में—हृदय चक्र में सन्निहित क्षमताओं का अभिवर्धन किया जा सकता है।

साधना के अनेक प्रकार हैं उनमें से कुछ योगाभ्यास एवं तपश्चर्या स्तर के हैं। कुछ ऐसे हैं जिनमें चरित्र निष्ठा एवं समाज निष्ठा में संलग्न रहकर चेतना के अन्तराल को परिष्कृत किया जाता है। आत्म-निर्माण एवं लोक-निर्माण में आदर्शवादी श्रद्धा सद्भावना को अपनाते हुए तत्पर रहा जाय तो वे क्रिया-कलाप भी उच्चस्तरीय साधना का प्रयोजन पूरा करते हैं। चरित्र को स्वर्ण की तरह तपा लेना संयम की अग्नि में अपने कषाय-कल्मषों को जला डालना विशुद्ध तप साधना ही है। अपने स्वार्थों को परमार्थ में जोड़ देना—व्यष्टि को समष्टि में विलय कर देना—इसे योग ही कहा जायगा। कितने ही महामानव अपनी जीवन प्रक्रिया को उत्कृष्ट आदर्शवादिता में ढाल कर एक प्रकार से सन्त ही बने रहे हैं, भले ही उनने वैसी वेषभूषा धारण न की हो। ऐसे लोगों को भी विज्ञानमय कोश की साधना का परिपूर्ण लाभ मिलता रहा है।

साधना इस प्रकार से की गई या उस तरह इसका कोई विशेष महत्व नहीं है। बात कर्मकाण्डों के विधि-विधानों की नहीं, अन्तराल में आदर्शवादी उत्कृष्टता को प्रतिष्ठापित करने की है। उसे जिस प्रकार बो लिया जाय अंकुर उगेगा और समयानुसार विशाल वृक्ष बनकर पल्लवित और फलित होगा।

साधना से सिद्धि का तात्पर्य यदि चमत्कारी कौतुक कौतूहलों का प्रदर्शन और उस आधार पर कीर्ति सम्पादन हो तो उस उपलब्धि को ओछे स्तर की विडम्बना मात्र ही कहा जायगा। इसीलिए लोक प्रचलन की यह मान्यता गलत ही कही जायगी कि साधना की सफलता सिद्धि से आंकी जानी चाहिये। कितने ही महामानव लौकिक सफलता की दृष्टि से नितान्त असफल रहे हैं। फिर भी उनकी सिद्धि पर उंगली उठाये जाने का कोई कारण नहीं बना।

महा प्रभु ईसा मसीह के जीवन में मात्र तेरह उनके शिष्य थे और वे भी परीक्षा की घड़ियों में दुर्बल सिद्ध हुए। ईसा को फांसी लगी। यह प्रत्यक्ष असफलता ही है फिर भी उनकी महानता में इससे कोई अन्तर नहीं आया। दधीचि के अस्थिदान से लेकर सुकरात के विष पान तक का लम्बा इतिहास उनका है जिन्होंने कष्ट उठाये और घाटे सहे। सीता से लेकर लक्ष्मीबाई रानी तक की कथा-गाथाओं में असफलताओं का ही समावेश है। गुरु गोविन्दसिंह से लेकर भगतसिंह तक की परम्परा अपनाने वाले को न सफल कहा जा सकता है न सिद्ध। अस्तु साधना से सिद्धि का तात्पर्य यदि लौकिक सफलता, चमत्कार या ख्याति के रूप में देखा जायगा तो उस परख प्रक्रिया को खोटी कहना पड़ेगा। हां आदर्शों की स्थापना में सफलता की बात कही जाय तो उसे तथ्यपूर्ण माना जायगा। कितने ही महामानव ऐसे हुए हैं, जो जीवन भर कष्ट सहते रहे, घाटे में रहे, ठगे गये, पग-पग पर असफल हुए, तिरस्कृत एवं उपहासास्पद बने, फिर भी उन्होंने ऐसे आदर्शों की स्थापना की, जिनके पद चिन्हों पर चलकर असंख्यों ने प्रकाश पाया अपना जीवन धन्य बनाया। उच्चस्तरीय आध्यात्मिक साधना की यही सच्ची सिद्धि है कि उन कठिनाइयों की अग्निपरीक्षा में साधक खरा उतरे। प्रलोभन और भय उसे विचलित न कर सकें। दूसरों के लिए ऐसी परम्परा छोड़े जिसका अनुकरण करने वाले मनुष्य जन्म को सार्थक बना सके। राजा हरिश्चन्द्र का नाटक बचपन में गांधी जी ने देखा और वे उससे इतने प्रभावित हुए कि दूसरे हरिश्चन्द्र ही बनकर रहे। महामानव साथियों के लिये—अगली पीढ़ियों के लिए—ऐसे ही अनुकरणीय उदाहरण छोड़कर जाते हैं। यही उनके स्मरणीय और सराहनीय अनुदान होते हैं। सच्चे अर्थों में साधना की सिद्धि यही है। जीवन साधना का योगाभ्यास उसी प्रकार की सिद्धियों से भरा पूरा होता है। संसार के महामानवों में से अधिकांश विपन्न परिस्थितियों और दरिद्र परिवारों में जन्मे। उन्हें न तो बड़े लोगों का परिचय सहयोग प्राप्त था और न साधनों का—परिस्थितियों का ही ऐसा सुयोग प्राप्त था। जिसके सहारे प्रगति की सम्भावना सोची जा सके। सामान्य लोग उस स्थिति में किसी प्रकार जिन्दगी की लाश ही ढोते हैं। किन्तु जिनके व्यक्तित्व में सद्गुणों की सम्पदा भरी होती है, वे अपने साथियों का हृदय जीतते हैं, सहयोग खींचते हैं। साधन उनके पास दौड़ते चले आते हैं और प्रगति की सम्भावनाएं विकसित होती चली जाती हैं। कुछ उदाहरण गिना देने की आवश्यकता नहीं। व्यक्तित्व की महानता उत्कृष्ट चरित्र, उदात्त व्यवहार एवं परिष्कृत दृष्टिकोण के कारण ही उनकी चुम्बकीय शक्ति प्रखर बनी है। उसी ने उन्हें ऐतिहासिक महामानवों की पंक्ति में खड़ा किया है। उनके व्यक्तिगत उत्कर्ष और समाज को दिये अनुदानों का मूल्यांकन करने से स्पष्ट हो जाता है कि उनने साधना से सिद्धि का सिद्धान्त पूरी तरह प्रमाणित कर दिया। जीवन साधना का योगाभ्यास ऐसा है जिसकी सिद्धि बाजीगरी कौतुक जैसी चमक दिखाकर समाप्त नहीं होती, वरन् अद्भुत सफलताओं के रूप में—लोक-श्रद्धा के रूप में—इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित अमिट अक्षरों के रूप में—सदा सर्वदा जीवन्त बनी रहती है। ऐसे महामानवों की नामावली, जीवन चरित्रों का पर्व तो जितना साहित्य उलट कर हम जीवन भर तैयार करते रह सकते हैं।

कौतूहलों की बात ही यदि ‘सिद्धि’ मानी जाय तो सज्जनता से प्रभावित होकर दिव्य शक्तियों द्वारा अनुग्रह बरसाने की कथा-गाथाएं पुराणों के पन्ने-पन्ने पर पढ़ी जा सकती हैं। हनुमान को राम का, अर्जुन को कृष्ण का अनुग्रह अकारण ही नहीं मिला था। अपनी पात्रता सिद्ध करके ही वे भगवान के प्रिय पात्र और शक्ति सम्पन्न बने थे। सुकन्या, सावित्री, अनुसूया, दमयन्ती, गान्धारी आदि महिलाओं में दिव्य सामर्थ्य होने की कथाएं बताती हैं कि उनने कोई विशेष योगाभ्यास नहीं किये थे, वरन् उच्च चरित्र के आधार पर ही वे वैसे चमत्कार दिखाने में समर्थ हुईं जो उनके चरित्रों में बताये जाते हैं। शबरी, सुदामा, कर्ण, अम्बरीष, रैदास, कबीर, नानक, सूर, तुलसी, एकनाथ, रामदास, विवेकानन्द, गान्धी आदि की जीवन गाथाओं में योगाभ्यास का कम और लोक साधना का स्थान प्रमुख रहा है। फिर भी उन्हें दैवी अनुग्रह का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। यहां तक कि जटायु जैसे पक्षी और सेतुबन्ध के समय पुरुषार्थ करने वाली गिलहरी तक को भगवान का प्यार प्राप्त हुआ था।

आत्मा अनन्य शक्तियों का भाण्डागार है। उसमें अपने उद्गम केन्द्र परमेश्वर की समस्त शक्तियां बीज रूप में सन्निहित हैं। उन्हें उगाने और बढ़ाने के लिए चरित्र निष्ठा का खाद और उदार सेवा साधना का पानी लगाना पड़ता है। इस नीति को अपना कर कोई भी साधक बुद्धिमान माली की तरह अपने अन्तःक्षेत्र में ऋद्धि-सिद्धियों से भरा पूरा उद्यान खड़ा कर सकता है। इसके लिये बाहर से कुछ ढूंढ़ने, लाने या पाने की आवश्यकता नहीं है। मात्र कषाय-कल्मषों की परतों को हटा देने भर का साहस संजो लेना पर्याप्त है। आत्म-शोधन और आत्म-परिष्कार ही विभिन्न साधनाओं का वास्तविक उद्देश्य है। अंगारे पर चढ़ी राख की परत ही उसे धूमिल और निस्तेज बना देती है। यह परत हटते ही अंगारा फिर अपनी गर्मी और चमक का परिचय देने लगता है। निकृष्ट चिन्तन और घृणित कर्तृत्व से यदि हाथ खींच लिया जाय तो फिर आत्मिक प्रखरता के कारण उपलब्ध होने वाली असंख्य ऋद्धि-सिद्धियों के मार्ग में और कोई बड़ा व्यवधान शेष नहीं रह जाता।

इसके अतिरिक्त विज्ञानमय कोश के परिष्कार द्वारा जब जीव सत्ता का प्रत्यक्ष संबंध ब्रह्मांडीय चेतना से जुड़ने लगता है तब तो और भी अनेकों शक्तियां आ जाती हैं। इस तरह की सिद्धियों का वर्णन साधना शास्त्र में स्थान-स्थान पर मिल सकता है। विज्ञानमय कोश की जागृति के बाद प्राप्त होने वाली सफलताओं के संदर्भ में कुछ संकेत इस प्रकार मिलते हैं—

वपुषः कान्तिरुत्कृष्टा जठराग्निविवर्धनम् । आरोग्यं च पटुत्वं च सर्वज्ञत्वं च जायते ।। भूतं भव्यं भविष्यच्च वेत्ति सर्वं सकारणम् । अश्रु तान्यपि शास्त्राणि सरहस्य वदेद् ध्रुवम् ।। वक्त्रं सरस्वती देवी सदा नृत्यति निर्भरम् । मन्त्र सिद्धिभवेत्तस्य जपादेव न संशयः ।। —शिव संहिता 87-88-89

आत्म साधना से शरीर में उत्तम कान्ति उत्पन्न होती है। जठराग्नि बढ़ती है, शरीर निरोग होता है, पटुता और सर्वज्ञता प्राप्त होती है तथा सब वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त होता है।

भूत, भविष्य और वर्तमान काल की सब वस्तुओं के कारण का ज्ञान होता है। जो शास्त्र सुने नहीं है उनके रहस्य जानने तथा व्याख्या करने की शक्ति प्राप्त होती है। उस योग साधक की जिह्वा पर सरस्वती नृत्य करती और मन्त्र आदि सरलता पूर्वक सिद्ध होते हैं।

यथा वा चित्तसामार्थ्य जायते योगिनो ध्रुवम् । दूरश्रुतिर्दूरदृष्टिः अणाद् दूरागमस्तथा ।। वाक् सिद्धिः कामरूपत्वमदृश्यकरणी तथा । —योग तत्वोपनिषद्

जैसे-जैसे चित्त की सामर्थ्य बढ़ती है, वैसे ही वैसे दूर श्रवण, दूर दर्शन, वाक् सिद्धि, कामना पूर्ति, आदि अनेकों दिव्य सिद्धियां मिलती चली जाती हैं।

अ सनेन रुजो हन्ति प्राणायामेन पातकम् । विकारं मानसं योगी प्रत्याहारेण सर्वदा ।। धारणाभिर्मनोधैर्यं ध्यानादैश्वर्यमुत्तमम् । समाधौ मोक्षमाप्नोति त्यक्तकर्मशुभाशुभः ।। —वशिष्ठ संहिता

आसन से रोग, प्राणायाम से पातक, प्रत्याहार से मनोविकार दूर होते हैं और धारणा से धैर्य, ध्यान से ऐश्वर्य और समाधि से मोक्ष प्राप्त होता है। कर्म बंधन कटते हैं।

ऊहः शब्दोऽध्ययनं दुःख विधातास्त्रयः सुहृत्प्राप्तिः । दान च सिद्धयोऽष्टो सिद्धेः पूर्वोःङ्कुशस्त्रिविधः ।। —सां. का. 59

ऊह, शब्द, अध्ययन, सुहृद प्राप्ति, दान, आध्यात्मिक दुःखहीन, आधिदैविक दुखहीन यह आठ सिद्धियां हैं।

(1) ऊह सिद्धि अर्थात् पूर्व जन्म के स्वरूप का ज्ञान। (2) शब्द सिद्धि अर्थात्—शब्दों का ठीक तात्पर्य समझना। (3) अध्ययन सिद्धि—अध्ययन में अभिरुचि और उससे प्रकाश ग्रहण करने की क्षमता। (4) सुहृत्प्राप्ति अर्थात् भावनाशील मित्र की प्रापित। (5) दान सिद्धि-उदार स्वभाव एवं परमार्थ परायण प्रवृत्ति। (6) आध्यात्मिक दुःखों का नाश। (7) आधिदैविक दुःखों का नाश। आधि भौतिक दुःखों का नाश जिससे हो सके ऐसी विवेक दृष्टि की प्राप्ति।

करामलकवद्विश्व तेन योगी प्रपश्यति । दूरतो दर्शनं दूरश्रवणं चापि जायते ।। भूतं भव्यं भविष्यं च वेत्ति सर्व सकारणम् । ध्यानमात्रेण सर्वेषां भूतनां च मनोगतम् ।। अंतर्लीनभना योगी जगत्सर्व प्रपश्यति । सर्वगुप्तपदार्थानां प्रत्यक्षत्वं च जायते ।। —योग रसायन

योगी को अदृश्य जगत दृश्यवत् दीखता है। उसे दूर दर्शन, दूर श्रवण आदि की सिद्धियां उपलब्ध रहती हैं। ध्यान मात्र से योगी भूत, भविष्य, वर्तमान तथा प्राणियों के मनोगत भाव जान लेता है।

अन्तर्लीन मन द्वारा योगी विश्व के गुप्त पदार्थों एवं रहस्यों को प्रत्यक्षवत् देख और जान लेता है।
First 4 6 Last


Other Version of this book



गायत्री के पाँच मुख पाँच दिव्य कोश
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गायत्री के पाँच मुख पाँच दिव्य कोश
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books



21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

संत विनोबा भावे
Type: SCAN
Language: HINDI
...

त्योहार और व्रत
Type: SCAN
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भक्ति- एक दर्शन, एक विज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भक्ति- एक दर्शन, एक विज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भक्ति- एक दर्शन, एक विज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भक्ति- एक दर्शन, एक विज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भगवान को मत बहकाइए
Type: TEXT
Language: EN
...

भगवान को मत बहकाइए
Type: TEXT
Language: EN
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं पूरक हैं
Type: TEXT
Language: HINDI
...

धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं पूरक हैं
Type: TEXT
Language: HINDI
...

वाल्मीकि रामायण से प्रगतिशील प्रेरणा
Type: TEXT
Language: HINDI
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन देवता की साधना आराधना
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन देवता की साधना आराधना
Type: SCAN
Language: EN
...

जीवन देवता की साधना आराधना
Type: SCAN
Language: EN
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Articles of Books

  • गायत्री के पांच मुख पांच दिव्य कोश
  • अन्नमय कोश का परिष्कार और प्रतिफल
  • मनोमय कोश का विकास परिष्कार
  • प्राणमय कोश में निहित प्रचंड जीवनी शक्ति
  • सूक्ष्म सिद्धियों का केन्द्र विज्ञानमय कोश
  • आनन्दमय कोश की समाधि स्वर्ग और मुक्ति का द्वार
  • पांच कोशों की साधना पंचमुखी गायत्री की सिद्धि
  • गायत्री माता की दस भुजायें
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj