
क्या न इतनी कृपा अब
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मुक्तक-
ढूँढ़ रहे हैं तुमको गुरुवर, हर कण- कण में आठों याम।
हृदय गुहा में दरश दिखाकर, धन्य बना दो हे सुखधाम॥
क्या न इतनी कृपा अब
क्या न इतनी कृपा, अब करेंगे प्रभो,
आपके हाथ के उपकरण बन सकें।
शेष जो भी बचे, नाथ कण और क्षण,
लोकहित में समर्पित सभी हो सकें॥
मोह में लोभ में ये, अभी तक खपें,
व्यक्ति परिवार में ही बँधे रह गये।
जिन्दगी घिस गई बस इन्हीं के लिए,
स्वार्थ में ही अभी तक सधे रह गये।
किन्तु होकर द्रवित आप करुणा करें,
तो क्षरित प्राण तन की शरण बन सकें॥
यह सही है कि तन पात्र तो है नहीं,
भोग में, वासना में, घिसी अस्थियाँ।
और यह भी सही है कि, समिधा कहाँ,
जो यजन में, बनें स्वर्ग की सीढ़ियाँ॥
आपके हाथ, यदि साध लें प्यार से,
तो सुनिश्चित है फिर, ये हवन बन सकें॥
लोकमंगल महायज्ञ जो चल रहा,
बस उसी में हमें, सम्मिलित कीजिए।
आप ब्रह्मा बनें हैं महायज्ञ के,
नाथ! मन, प्राण, पावन बना दीजिए॥
क्यों न पावन बने,आपके सुत सभी,
आप हो यदि द्रवित,आचमन बन सकें॥
आप सृष्टा बने हैं नये विश्व के,
स्वर्ग का इस धरा पर सृजन कर रहे।
सुप्त देवत्व को, मानवों में जगा,
आप उज्ज्वल भविष्यत् सृजन कर रहे॥
आपके शिल्प की ही कृपा दृष्टि से,
क्यों न अनगढ़, सुगढ़ आचरण बन सकें॥
ढूँढ़ रहे हैं तुमको गुरुवर, हर कण- कण में आठों याम।
हृदय गुहा में दरश दिखाकर, धन्य बना दो हे सुखधाम॥
क्या न इतनी कृपा अब
क्या न इतनी कृपा, अब करेंगे प्रभो,
आपके हाथ के उपकरण बन सकें।
शेष जो भी बचे, नाथ कण और क्षण,
लोकहित में समर्पित सभी हो सकें॥
मोह में लोभ में ये, अभी तक खपें,
व्यक्ति परिवार में ही बँधे रह गये।
जिन्दगी घिस गई बस इन्हीं के लिए,
स्वार्थ में ही अभी तक सधे रह गये।
किन्तु होकर द्रवित आप करुणा करें,
तो क्षरित प्राण तन की शरण बन सकें॥
यह सही है कि तन पात्र तो है नहीं,
भोग में, वासना में, घिसी अस्थियाँ।
और यह भी सही है कि, समिधा कहाँ,
जो यजन में, बनें स्वर्ग की सीढ़ियाँ॥
आपके हाथ, यदि साध लें प्यार से,
तो सुनिश्चित है फिर, ये हवन बन सकें॥
लोकमंगल महायज्ञ जो चल रहा,
बस उसी में हमें, सम्मिलित कीजिए।
आप ब्रह्मा बनें हैं महायज्ञ के,
नाथ! मन, प्राण, पावन बना दीजिए॥
क्यों न पावन बने,आपके सुत सभी,
आप हो यदि द्रवित,आचमन बन सकें॥
आप सृष्टा बने हैं नये विश्व के,
स्वर्ग का इस धरा पर सृजन कर रहे।
सुप्त देवत्व को, मानवों में जगा,
आप उज्ज्वल भविष्यत् सृजन कर रहे॥
आपके शिल्प की ही कृपा दृष्टि से,
क्यों न अनगढ़, सुगढ़ आचरण बन सकें॥