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Books - गुरुवर की धरोहर (द्वितीय भाग)

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गुरुतत्त्व की गरिमा एवं महिमा

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलिए,

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि

धियो यो नः प्रचोदयात् ।

देवियो एवं सज्जनो,

इस संसार में कुल मिलाकर तीन शक्तियां हैं, तीन सिद्धियां हैं। इन्हीं पर हमारा सारा जीवन व्यापार चल रहा है। लाभ सुख जो भी हम प्राप्त करते हैं इन्हीं तीन शक्तियों के आधार पर हमें मिलते हैं। पहली शक्ति है श्रम की शक्ति, शरीर के भीतर की शक्ति भगवान की दी हुई। इससे हमें धन व यश मिलता है। जमीन पहले भी थी, अभी भी है। यह मनुष्य का श्रम है। जब वह लगा तो वह सोना, धातुएं, अनाज उगलने लगी। जितना भी सफलताओं का इतिहास है, वह आदमी के श्रम की उपलब्धियों को इतिहास है। यही सांसारिक उन्नति का इतिहास है।

जमीन कभी ब्रह्माजी ने बनाई होगी तो ऐसी ही बनाई होगी जैसा कि चंद्रमा है। यहां गड्डा, वहां खड्डा, सब ओर यही। श्रम ने धरती को समतल बना दिया। नदियां चारों ओर उत्पात मचा देती थीं। जलपलावन से प्रलय सी आ जाती थी। रास्ते बंद हो जाते थे। ब्याह-शादियां भी बंद हो जाती थीं, उन चार महीनों में जिन्हें चतुर्मास कहा जाता है सुना होगा आपने नाम। आदमी जहां थे, वहीं कैद हो जाते थे। यह आदमी का श्रम है, आदमी की मशक्कत है कि आदमी ने पुल बनाए, नाव बनाई, बांध बनाए। अब वह बंधन नहीं रहा। सारी मानव जाति रम पर टिकी है आदमी का श्रम, जिसकी हम अवज्ञा करते हैं। दौलत हमेशा आदमी के पसीने से निकली है। आपको संपदा के लिए कहीं गिड़गिड़ाने, नाक रगड़ने की जरूरत नहीं है। एक ही देवता है—श्रम का देवता। वही देवता आपको दौलत दिला सकता है। उसी की आपको आराधना-उपासना करना चाहिए।

माना कि आपके बाप ने कमाकर रख दिया है, पर बिना श्रम के उसकी रखवाली नहीं हो सकती। श्रम कमाता भी है, दौलत की रखवाली भी कर सकता है। हम श्रम का महत्व समझ सकें उसे नियोजित कर सकें तो हम निहाल हो सकते हैं। मात्र संपत्तिवान-समृद्ध ही नहीं हम अन्यान्य दौलत के भी अधिकारी हो सकते हैं। सेहत मजबूती श्रम से ही आती है। शिक्षा, कला-कौशल, शालीनता, लोक व्यवहार में पारंगतता श्रम से ही प्राप्त होती है। बेईमानी से चालाकी से आदमी दौलत की छीन-झपट मात्र कर सकता है, पर उसे कमा नहीं सकता। आप यदि फसल बोना चाह रहे हैं तो बीज बोइए। यदि चालाकी करें, बीज खा जाएं तो कुछ नहीं होने वाला। हर आदमी को ईमानदारी से श्रम किए जाने की, मशक्कत की कीमत समझाइए। संपदा अभीष्ट हो, विनिमय करना चाहते हों तो कहिए श्रमरूपी पूंजी अपने पास रखें। उसका सही नियोजन करिए। यह है दौलत नंबर एक।

दूसरे नंबर की दौलत है हमारी ज्ञान की, विचार करने की शक्ति। हमें जो प्रसन्नता मिलती है इसी ज्ञान की शक्ति से मिलती है। खुशी दिमागी बैलेंस से प्राप्त होती है। यह बाहर से नहीं आती, भीतर से प्राप्त होती है। जब हमारा मस्तिष्क संतुलित होता है तो हर परिस्थिति में हमें चारों ओर प्रसन्नता ही प्रसन्नता दिखाई देती है। घने बादल दिखाई देते हैं तो एक सोच सकता है कि कैसे काले मेघ आ रहे हैं। अब बरसेंगे। दूसरा सोचने वाला कह सकता है कि कितनी सुंदर मेघमालाएं चली आ रही हैं। यह है प्रकृति का सौंदर्य।

हम गंगोत्री जा रहे थे। चारों ओर सुनसान डरावना जंगल था। जरा सी पत्तों की सरसराहट हो तो लगे कि सांप है। हवा चले, वृक्षों के बीज सीटी सी बजे तो लगे कि भूत है। अच्छे-खासे मजबूत आदमी के नीरव एकाकी बियावान में होश उड़ जाएं। पर हमने उस सुनसान में भी प्रसन्नता का स्रोत ढूंढ़ लिया। ‘सुनसान के सहचर’ हमारी लिखी किताब आपने पढ़ी हो तो आपको पता लगेगा कि हर लमहे को जिया जा सकता है, प्रकृति के साथ एकात्मता रखी जा सकती है। अब हम बार-बार याद करते हैं उन स्थान की जहां हमारे गुरु ने हमें पहले बुलाया था। अब तो हम कहीं जा भी नहीं पाते पर प्रकृति के सान्निध्य में अवश्य रहते हैं। हमारे कमरे में आप चले जाइए। आपको सारी नेचर की, प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों की तस्वीरें वहां लगी मिलेंगी। बादलों में, झील में, वृक्षों के झुरमुटों में, झरनों में से खुशी छलकती दिखाई देती है। वहां कोई देवी-देवता नहीं है, मात्र प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों की तस्वीरें हैं। हमें उन्हीं को देखकर अंदर से बेइंतिहा खुशी मिलती है।

जीवन का आनंद सदैव भीतर से आता है। यदि हमारे सोचने का तरीका सही हो तो बाहर जो भी क्रिया-कलाप चल रहे हों, उन सभी में हमको खुशी ही खुशी बिखरी दिखाई पड़ेगी। बच्चों को देखकर, धर्मपत्नी को देखकर अंदर से आनंद आता है। सड़क पर चल रहे क्रिया-कलापों को देखकर आप आनंद लेना सीख लें यदि आपको सही विचारणा की शक्ति मिल जाए। स्वर्ग आप चाहते हैं तो स्वर्ग के लिए मरने की जरूरत नहीं है, मैं आपको दिला सकता हूं। स्वर्ग दृष्टिकोण में निहित है। इन आंखों से देखा जाता है। देखने को ‘दर्शन’ कहते हैं। दर्शन अर्थात् दृष्टि। दर्शन अर्थात् फिलॉसफी। जब हम किसी बात की गहराई में प्रवेश करते हैं, बारीकी मालूम करने का प्रयास करते हैं तब इसे दृष्टि कहते हैं। यही दर्शन है। किसी बात को गहराई से समझने का माद्दा आ गया अर्थात् दर्शन वाली दृष्टि विकसित हो गई। आपने किताब देखी, पढ़ पर उसमें क्या देखा? उसका दर्शन आपको समझ में आया या नहीं। सही अर्थों में तभी आपने दृष्टि डाली, यह माना जाएगा।

दृष्टिकोण विकसित होते ही ऐसा आनंद, ऐसी मस्ती आती है कि देखते ही बनता है। दाराशिकोह मस्ती में डूबते चले गए। जेबुन्निसा ने पूछा—‘‘अब्बाजान! आपको क्या हुआ है आज। आप तो पहले कभी शराब नहीं पीते थे। फिर यह मस्ती कैसी?’’ बोले-‘‘बेटी! आज मैं हिंदुओं के उपनिषद् पढ़कर आया हूं। जमीन पर पैर नहीं पड़ रहे हैं। जीवन का असली आनंद उनमें भरा पड़ा है। बस यह मस्ती उसी की है।’’

यह है असली आनंद। मस्ती, खुशी, स्वर्ग हमारे भीतर से आते हैं। स्वर्ग सोचने का एक तरीका है। किताब में क्या है? वह तो काला अक्षर भर है। हर चीज की गहराई में प्रवेश करने पर जो आनंद-खुशी मिलती है, वह सोचने के तरीके पर निर्भर है। इसी तरह बंधन-मुक्ति भी हमारे चिंतन में निहित है। हमें हमारे चिंतन ने बांध कर रखा है। हम भगवान के बेटे हैं। हमारे संस्कार हमें कैसे बांध सकते हैं। सारा शिकंजा चिंतन का है। इससे मुक्ति मिलते ही सही अर्थों में आदमी बंधन मुक्त हो जाता है। हमारी नाभि में खुशी रूपी कस्तूरी छिपी पड़ी है। ढूंढ़ते हम चारों ओर हैं। हर दिशा से वह आती लगती है पर होती अंदर है।

यदि आपको सुख-शांति मुस्कराहट चाहिए तो दृष्टिकोण बदलिए। खुशी सब ओर बांट दीजिए। मां को दीजिए, पत्नी को दीजिए, मित्रों को दीजिए। राजा कर्ण प्रतिदिन सवा मन सोना दान करता था। आपकी परिस्थितियां नहीं हैं देने की किंतु आप सोने से भी कीमती आदमी की खुशी बांट सकते हैं। आप जानते नहीं हैं, आज आदमी खुशी के लिए तरस रहा है। जिंदगी की लाश इतनी भारी हो गई है कि वजन ढोते-ढोते आदमी की कमर टूट गई है। वह खुशी ढूंढ़ने के लिए सिनेमा, क्लब, रेस्टोरेंट, कैबरे डांस सब जगह जाता है पर वह कहीं मिलती नहीं। खुशी दृष्टिकोण है, जिसे मैं ज्ञान की संपदा कहता हूं। जीवन की समस्याओं को समझकर अन्यान्य लोगों से जो डीलिंग की जाती है वह ज्ञान की देन है। वही व्यक्ति ज्ञानवान होता है जिसे खुशी तलाशना व बांटना आता है। ज्ञान पढ़ने-लिखने को नहीं कहते। वह तो कौशल है। ज्ञान अर्थात् नजरिया, दृष्टिकोण, व्यवहारिक बुद्धि।

मैंने आपको दो शक्तियों के बारे में बताया। पहली श्रम की शक्ति जो आपको दौलत, कीर्ति, यश देती है। दूसरी विचारणा की शक्ति जो आपको प्रसन्नता व सही दृष्टिकोण देती है। तीसरी शक्ति रूहानी है। वह है आदमी का व्यक्तित्व। व्यक्ति का वजन। कुछ आदमी रुई के होते हैं व कुछ भारी। जिनकी हैसियत वजनदार व्यक्तित्व की होती है, वे जमाने को हिलाकर रख देते हैं। कीमत इनकी करोड़ों की होती है। वजनदार आदमी यदि हिंदुस्तान की तवारीख से काट दें तो इसका बेड़ा गर्क हो जाए। जिसके लिए हम फूले फिरते हैं, वह वजनदार आदमियों का इतिहास है। वजनदारों में बुद्ध को शामिल कीजिए। वे पढ़े-लिखे थे कि नहीं किंतु वजनदार थे। हजारों सम्राटों ने, दौलतमंदों ने थैलियां खाली कर दीं। बुद्ध ने जो मांगा वह उनने दिया। हरिश्चंद्र, सप्तर्षि, व्यास, दधीचि, शंकराचार्य, गांधी, विवेकानंद के नाम हमारी कौम के वजनदारों में शामिल कीजिए। इन्हीं पर हिंदुस्तान की हिस्ट्री टिकी हुई है। यदि इन्हें खरीदा जा सका होता तो बेशुमार पैसा मिला होता।

आदमी की कीमत है उसका व्यक्तित्व। ऐसे व्यक्ति दुनिया की फिजां को बदलते हैं, देवताओं को अनुदान बरसाने के लिए मजबूर करते हैं। पेड़ अपनी आकर्षण शक्ति से बादलों को खींचते व बरसने के लिए मजबूर करते हैं। वजनदार आदमी अपने व्यक्तित्व की मैग्नेट की शक्ति से देव शक्तियों को खींचते हैं। यदि आप भी दैवी अनुदान चाहते हों तो अपने व्यक्तित्व को वजनदार बनाना होगा। दैवी शक्तियां सारे ब्रह्मांड में छिपी पड़ी हैं। सिद्धियां जो आदमी को देवता, महामानव, ऋषि बनाती हैं, सब यहीं हमारे आसपास हैं। कभी इस धरती पर तैंतीस कोटि देवता बसते थे। सभी व्यक्तित्ववान थे। व्यक्तित्व एक बेशकीमती दौलत है, यह तथ्य आप समझिए। व्यक्तित्व सम्मान दिलाता है, सहयोग प्राप्त कराता है। गांधी को मिला क्योंकि उनके पास वजनदार व्यक्तित्व था।

व्यक्तित्व श्रद्धा से बनता है। श्रद्धा अर्थात् सिद्धांतों वे आदर्शों के प्रति अटूट व अगाध विश्वास। आदमी आदर्शों के तई मजबूत हो जाता है तो व्यक्तित्व ऐसा वजनदार बन जाता है कि देवता तक नियंत्रण में आ जाते हैं। विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस की शक्ति पाई क्योंकि स्वयं को वजनदार वे बना सके। भिखारी को दस पैसे मिलते हैं। कीमत चुकाने वाले को वजनदार व्यक्तित्व वाले को सिद्ध पुरुष का आशीर्वाद मिलता है।

यदि आप किसी आशीर्वाद की कामना से, देवी-देवता की सिद्धि की कामना से यहां आए हैं तो मैं आपसे कहता हूं कि आप अपने व्यक्तित्व को विकसित कीजिए ताकि आप निहाल हो सकें। दैवी कृपा मात्र इसी आधार पर मिल सकती है और इसके लिए माध्यम है श्रद्धा। श्रद्धा मिट्टी से गुरु बना लेती है। पत्थर से देवता बना देती है। एकलव्य के द्रोणाचार्य मिट्टी की मूर्ति के रूप में उसे तीरंदाजी सिखाते थे। रामकृष्ण की काली भक्त के हाथों भोजन करती थी। उसी काली के समक्ष जाते ही विवेकानंद नौकरी-पैसा भूलकर शक्ति-भक्ति मांगने लगे थे। आप चाहे मूर्ति किसी से भी खरीद लें। मूर्ति बनाने वाला खुद अभी तक गरीब है। पर मूर्ति में प्राण श्रद्धा से आते हैं। हम देवता का अपमान नहीं कर रहे। हमने खुद पांच गायत्री माताओं की मूर्ति स्थापित की हैं, पर पत्थर में से हमने भगवान पैदा किया है श्रद्धा से। मीरा का गिरधर गोपाल चमत्कारी था। विषधर सर्पों की माला, जहर का प्याला उसी ने पी लिया व भक्त को बचा लिया। मूर्ति में चमत्कार आदमी की श्रद्धा से आता है। श्रद्धा ही आदमी के अंदर से भगवान पैदा करती है।

श्रद्धा का आरोपण करने के लिए ही यह गुरु पूर्णिमा का त्यौहार है। श्रद्धा से हमारे व्यक्तित्व का सही मायने में उदय होता है। मैं अंधश्रद्धा की बात नहीं करता। उसने तो देश को नष्ट कर दिया। श्रद्धा अर्थात् आदर्शों के प्रति निष्ठा। जितने भी ऋषि संत हुए हैं उनमें श्रेष्ठता के प्रति अटूट निष्ठा देखी जा सकती है। जो कुछ भी आप हमारे अंदर देखते हैं, श्रद्धा का ही चमत्कार है। आज से 55 वर्ष पूर्व हमारे गुरु की सत्ता हमारे पूजाकक्ष में आई। हमने सिर झुकाया व कहा कि आप हुक्म दीजिए, हम पालन करेंगे। अनुशासन व श्रद्धा-गुरु पूर्णिमा इन दोनों का त्यौहार है। अनुशासन-आदर्शों के प्रति। यह कहना कि जो आप कहेंगे वही करेंगे। श्रद्धा अर्थात् प्रत्यक्ष नुकसान दीखते हुए भी आस्था, विश्वास, आदर्शों को न खोना। श्रद्धा से ही सिद्धि आती है। हमें अपने आप पर घमंड नहीं है पर विनम्रतापूर्वक कहते हैं कि यह देवशक्तियों के प्रति हमारी गहन श्रद्धा का ही चमत्कार है जिसके बलबूते हमने किसी को खाली हाथ नहीं जाने दिया। गायत्री माता श्रद्धा में से निकलीं। श्रद्धा में मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं व सिद्धांतों का संरक्षण करना पड़ता है। हमारे गुरु ने कहा-संयम करो, कई दिक्कतें आएंगी पर उनका सामना करो। हमने चौबीस वर्ष तक तप किया। जायके को मारा। हम जौ की रोटी खाते। हमारी मां बड़ी दुःखी होतीं। हमारी तपस्या की अवधि में उनने भी हमारी वजह से कभी मिठाई का टुकड़ा तक न चखा। हमारे गायत्री मंत्र में चमत्कार इसी तप से आया।

आप चाहते हैं कि आपको कुछ मिले। तो वजन उठाइए। हम आपको मुफ्त देना नहीं चाहते। क्योंकि इससे आपका अहित होगा। वह हम चाहते नहीं। आप हमारा कहना मानें तो हम देने को तैयार हैं। गुरु-शिष्य की परीक्षा एक ही कि अनुशासन मानते हैं हम आपके शिष्य। ऐसा कहें वे मानें। समर्थ ने अपने शिष्य की परीक्षा ली थी व सिंहनी का दूध लाने को कहा था। अपनी आंख की तकलीफ का बहाना करके। सिंहनी कहां थी? वह तो हिप्नोटिज्म से एक सिंहनी खड़ी कर दी थी। शिवाजी का संकल्प था दृढ़। वे ले आए सिंहनी का दूध व अक्षय तलवार का उपहार गुरु से पा सके। राजा दिलीप की गायों को जब माया के सिंह ने पकड़ लिया तो उनने स्वयं को सौंप दिया। इस स्तर का समर्पण हो तो ही गुरु की शक्ति-दैवी अनुदान मिलते हैं। यह आस्थाओं का इम्तिहान है जो हर गुरु ने अपने शिष्य का लिया है।

श्रद्धा अर्थात् सिद्धांतों का, भावनाओं का आरोपण! कहा गया है-‘‘भावे न विद्यतो देव तस्मात् भावो हि कारणम्’’ भावना का आरोपण करते ही भगवान प्रकट हो जाते हैं। भगवान अर्थात् सिद्धि। हर आशीर्वाद, सिद्धि का आधार, फीस एक ही है—श्रद्धा। उसे विकसित करने के लिए अभ्यास हेतु गुरु पूर्णिमा पर्व। गुरुतत्व के प्रति श्रद्धा का अभ्यास आज के दिन किया जाता है। गुरु अंतरात्मा की उस आवाज का नाम है जो भगवान की गवर्नर है हमारी सत्ता उसी को समर्पित है। वही हमारी सद्गुरु है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया है अर्थात् हमारी सुपर कांशसनेस हमारी अतिमानस। अच्छा काम करते ही यह हमें शाबाशी देता है। गलत काम करते ही धिक्कारता है। गुरु ही ब्रह्मा है, विष्णु है, महेश है। गुरु अर्थात् भगवान का प्रतिनिधि। गुरु को जाग्रत-जीवंत करने के लिए एक खिलौना बनाकर श्रद्धा का आरोपण हम जिस पर भी करते हैं, वही गुरु बन जाता है। इसमें दोनों बातें हैं। मानवी कमजोरियां भी हो सकती हैं। उनको न देखकर हम अच्छाइयों के प्रति श्रद्धा विकसित करें। आप हमें मानते हैं तो हमारा चित्र देखते ही श्रेष्ठतम पर विश्वास करने का अभ्यास करें। यह एक व्यायाम है, रिहर्सल है। इसी के आधार पर हम अपने अंदर का सुपर चेतन जगाते हैं। प्रतीक की आवश्यकता इसी कारण पड़ती है।

हमारी अटूट श्रद्धा की प्रतिक्रिया लौट कर हमारे पास ही आ जाती है। एक शिष्य गुरु के चरणों की धोवन को श्रद्धापूर्वक दुःखी-कष्ट पीड़ितों को देता था। सब ठीक हो जाते थे। पर जब गुरु ने उसी धोवन का चमत्कार जान कर अपने पैरों को जल से धोकर वह जल औरों को दिया तो कुछ भी न हुआ। दोनों जल एक ही हैं, पर एक में श्रद्धा का चमत्कार है। उसी कारण वह अमृत बन गया। जबकि दूसरा मात्र धोवन का जल रह गया है। श्रद्धा आध्यात्मिक जीवन का प्राण है, रीढ़ है। देवपूजन आपको सफलता की कामना से करना हो तो श्रद्धा विकसित करके कीजिए। साधनाएं मात्र क्रिया हैं यदि उनमें श्रद्धा का समन्वय नहीं है। आदमी की जो भी कुछ आध्यात्मिक उपलब्धियां हैं, वे श्रद्धा पर टिकी हैं। आपकी अपने प्रति यदि श्रेष्ठ मान्यता है, आपकी श्रद्धा वैसी है तो असल में वही हैं आप। यदि इससे उल्टा है तो वैसे ही बन जाएंगे आप। गुरु पूर्णिमा श्रद्धा के विकास का त्यौहार है। हमारे गुरु ने अनुशासन की कसौटी पर कसकर हमें परखा है तब दिया है। हमारे जीवन की हर उपलब्धि उसी अनुशासन की देन है। वेदों के अनुवाद से लेकर ब्रह्मवर्चस के निर्माण तथा चार हजार शक्तिपीठों को खड़ा करने का काम एक ही बलबूते हुआ। गुरु ने कहा-कर। हमने कहा-‘करिष्ये वचनं तब’। गुरु श्रीकृष्ण के द्वारा गीता सुनाए जाने पर शिष्य अर्जुन ने यही कहा कि सारी गीता सुन ली। अब जो आप कहेंगे, वही करूंगा।

आज गुरु पूर्णिमा का त्यौहार है। हम आपको बता रहे हैं कि भगवान का नया अवतार होने जा रहा है। आप की परिस्थितियों के अनुरूप यह अवतार है। जब-जब दुष्टता बढ़ती है तब-तब देश काल की परिस्थितियों के अनुरूप भगवान अवतार के रूप में जन्म लेते हैं। आज आस्थाओं में, जन-जन के मन-मन में असुर घुस गया है। इसे विचारों की विकृति कह सकते हैं। एक किश्त आज के अवतार की आज से 2500 वर्ष पूर्व बुद्ध के रूप में, विचारशीलता के रूप में आई थी। वही प्रज्ञा की, विवेक की, विचारों की अब पुनः आई है। वह है गायत्री मंत्र ऋतंभरा प्रज्ञा के रूप में। यह अवतार जो आ रहा है विचारों के संशोधन के रूप में दिमागों में ही नहीं, आस्थाओं में भी हलचलें पैदा करेगा। विचार क्रांति के रूप में जो आ रही है वह युगशक्ति गायत्री है। यह गायत्री हिंदुस्तान मात्र की नहीं सारे विश्व की है। नए विश्व की माइक्रोफिल्म इसमें छिपी पड़ी है। गायत्री मंत्र विश्व मंत्र है। व्यक्ति का अंतस व बहिरंग बदलने वाले बीज इस मंत्र के अंदर छिपे पड़े हैं। यदि आपको यह बात समझ में आ गई तो आप हमारे साथ नवयुग का स्वागत करने में जुट जाएंगे। हम अपने लिए एक ही नाम बताते हैं—मुर्गा। मुर्गा वह जो प्रभाव के आगमन का उद्घोष करता है। गायत्री ने हमें फिर मुर्गा बना दिया है। आइए जोर से उद्घोष करें कि नव प्रभाव आ रहा है, नया युग आ रहा है, युग शक्ति का अवतरण हो रहा है। कुकुडूकूं....। यह तो मुर्गा करता है। हम नए युग की अगवानी करें।

हम गायत्री की फिलॉसफी व युग के देवता विज्ञान की बात आपको बताते आए हैं। यह ब्रह्म विद्या घर-घर पहुंचे, इसमें आप सबका सहयोग चाहते हैं। जैसे सेतुबंध के लिए, गोवर्धन के लिए, अवतारों को सहयोग मिला हम भी चाहते हैं कि आप भी इस प्रवाह में सम्मिलित हो जाएं। आपको भी बाद में लगेगा कि हम भी समय पर जुड़ गए होते तो अच्छा रहता। युग शक्ति का उदय एवं अवतरण हो रहा है। आप इस अवतरण में एक हाथ भर लगा दें। आपकी भी गणना युगांतरकारी पुरुषों में होने लगेगी। आप समय दीजिए, पैसा दीजिए। यह सोचकर नहीं कि हमारा काम रुकेगा। आप अपनी श्रद्धा को परिपक्व करने के लिए जो भी कर सकें वह करिए । हमें देने से, हमें गुरुदीक्षा से मतलब है। घर-घर जन-जन तक गायत्री का सद्ज्ञान पहुंचाने का काम करना। दवा तो हमारे पास है आस्थाओं में छाई विषाक्तता की। आप मात्र सुई बन जाइए। आज की गुरु पूर्णिमा के दिन संपूर्ण समर्पण की युग देवता के काम के लिए खपने की मैं आपसे अपेक्षा रखता हूं। आशा है आप मेरी इच्छा पूरी करेंगे।

अंत में यह कामना करते हैं कि जिस श्रद्धा ने हमारा कल्याण किया वह आपका भी कल्याण करे ताकि आप महान बनने के अधिकारी हो सकें। आप सबका कल्याण हो, सब स्वस्थ हों, सबका समर्पण भाव बढ़ता रहे। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तुम माकश्चिद् दुख माप्नुवात् ।’

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।
(20 जुलाई 1978)
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