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Books - महायोगी अरविंद

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योगाभ्यास की प्रगति

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यद्यपि श्री अरविंद को अध्यात्म तथा योग की आंतरिक प्रेरणा बड़ौदा आने से पहले भी प्राप्त होती रहती थी, पर उस समय वे साहित्य और काव्य के प्रवाह में विशेष रूप से बह रहे थे। इसलिए उस समय उन्होंने अध्यात्म पर विचार नहीं किया। भारतवर्ष आकर जब उन्होंने यहाँ के प्राचीन साहित्य का अध्ययन किया, तो उनका झुकाव स्वयमेव इधर होने लगा। पर योगाभ्यास का आरंभ बिना गुरू के नहीं किया जा सकता। यद्यपि उन्होंने उस समय बाकायदा कोई गुरू तो नहीं बनाया, पर उनकी कई उच्च श्रेणी के पथ प्रदर्शक मिल गये। नर्मदा तट के चोंदोद स्थान में प्रतिष्ठित गंगा- मठ के सद्गुगुरू ब्रह्मानंद ने दर्शन देकर श्री अरविंद के लिए योग- मार्ग को प्रशस्त किया। यह बात प्रसिद्ध थी कि ये महात्मा किसी की आँखों की तरफ नहीं देखते थे, पर श्री अरविंद को अधिकारी समझकर ,, उन्होंने इनकी ओर देखा ही नहीं, वरन् सफलता के लिए शुभाशीर्वाद भी दिया। यह भी कहा जाता है कि ब्रह्मानंद के एक शिष्य ने ही इनको सर्वप्रथम प्राणयाम की शिक्षा दी। सन् १९०४ में ये प्राणायाम और धारणा का अभ्यास करने लगे और क्रमशः इसमें कई घंटे तक लगाने लगे। तीन वर्ष पश्चात् उन्होंने ग्वालियर के श्री लेले को अपना सहायक बनाया और इससे योग- मार्ग में अच्छी प्रगति हुई। इन सबके साथ उनके भीतर एक ऐसी शक्ति काम कर रही थी, जिसकी सहायता से वे योग- संबंधी बहुत विषयों की जानकारी स्वयं ही प्राप्त कर लेते थे।

क्रांतिकारी आंदोलन में सहयोग- क्रांतिकारी दल संगठन और संचालन यद्यपि श्री अरविंद की आध्यात्मिक प्रकृति के विशेष अनुकूल तो नहीं था, तो भी आरंभिक काल में उन्होंने इसमें महत्त्वपूर्ण योग दिया। इस संबंध में यह जान लेना आवश्यक है कि उन्होंने कभी शास्त्रास्त्र की शिक्षा, बम बनाना, हथियार जमा करने के कामों को स्वयं नहीं किया। आंदोलन का यह विभाग तो श्री वारींद्र के जिम्मे था और उसने इसके लिए कुछ साथी भी बना लिए थे। श्री अरविंद तो इस कार्य में भाग लेने वाले युवकों को प्रेरणा दिया करते थे और आवश्यक होने पर मार्ग- दर्शन करते थे। जब छुट्टी मिलती तो बंगाल के विभिन्न स्थानों का दौरा करके ऐसे लोगों से संपर्क स्थापित करते, जिनसे इस कार्यक्रम में सहायता मिल सकती थी। उन्होंने महाराष्ट्रीय क्रांतिकारियों से भी संपर्क स्थापित कर लिया था। यह एक अनोखी बात हुई कि श्री अरविंद के नाना ऋषि राजनारायण बोस जैसे धार्मिक वयोवृद्ध सज्जन इस आंदोलन से प्रभावित हो उठे। नवयुवक रवींद्रनाथ ठाकुर ने भी क्रांतिकारी दल की शपथ ग्रहण की। योगेन मुखर्जी औरचारूचंद दत्त जैसे ऊँचे दर्जे के मजिस्ट्रेट और आई० सी० एस० अफसरों ने इस कार्य में सहयोग प्रदान किया। सिस्टर निवेदिता, जो स्वयं अंग्रेज थी, भारतवासियों से सहानुभूति रखने के कारण इस आंदोलन में सहायता पहुँचाने लगीं। बड़ौदा के एक सरदार श्री केशवराव जाधव के भतीजे श्री माधवराव को सैनिक शिक्षा प्राप्त करने तथा बम और रिवाल्वर का ठीक प्रयोग सीखने के लिए इंगलैड भेजा गया। श्री अरविंद ने इसके लिए कुछ आर्थिक सहायता भी दी थी।

पर बड़ौदा में सरकारी नौकरी के कारण अभी इस आंदोलन में अप्रत्यक्ष रूप से ही भाग ले रहे थे, खुलकर मैदान में नहीं कूदे थे। जब आंदोलन बढ़ने लगा और लो० तिलक से उनका घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गया ,, तो उन्होंने एक वर्ष की छुट्टी लेकर बड़ौदा कॉलेज से संबंध विच्छेद कर लिया। इसके पश्चात् उन्होंने कलकत्ते के नवस्थापित नेशनल कॉलेज में नाम मात्र के लिये १५० रू० वेतन लेकर विद्यार्थियों को अंग्रेजी भाषा की शिक्षा देने का भार अपने ऊपर ले लिया। राजनीतिक आंदोलन की सफलता और देशवासियों तक स्वाधीनता का संदेश पहुँचाने के लिये, वंदेमातरम् नामक एक दैनिक- पत्र निकाला गया, जिसका आर्थिक और संपादकीय भार श्री अरविंद के ही ऊपर था। इनके तेजस्वी और युवकों को आकर्षित करने वाले लेखों से सरकार डर गई और ऐसा अवसर ढूँढ़ने लगी, जिससे इनको हटाया जा सके। शीघ्र ही इन पर दो मुकदमे चलाये गए, जो युगांतर और वंदेमातरम् में प्रकाशित लेखों के संबंध में थे। युगांतर के लेख को तो श्री भूपेंद्रनाथदत्त ने जो स्वामी विवेकानंद के छोटे भाई थे, अपना लिखा बतलाया, जिससे उनको सजा हो गई। वंदेमातरमवाले अभियोग में सरकार यह सिद्ध नहीं कर सकी कि वे लेख श्री अरविंद के लिखे हैं, इसलिए मजिस्ट्रेट ने उनको बरी कर दिया।

इस मुकदमे के कारण वंदेमातरम और श्री अरविंद का नाम देश भर में फैल गया और लोग उनको पूज्य- भाव से देखने लगे, उधर सरकार को भी अपनी हार में कुछ अनुभव हो गया। इनके लेख वास्तव में ऐसे उच्च भावों से युक्त होते थे कि उनकी घृणा फैलाने वाला या हिंसा के लिए उत्तेजना देने वाला सिद्ध नहीं किया जा सकता था। उनके लेखों का वातावरण आध्यात्मिक रहता था और वे कर्तव्यपालन के रूप में भारतमाता की वेदी पर सर्वस्व न्यौछावर कर देने का उपदेश देते थे। वे कहते थे कि विदेशी हुकूमत अच्छी हो तो भी अपने शासन- स्वराज्य की समता नहीं कर सकती। इन लेखों को पढ़कर अंग्रेजों के प्रमुख पत्र स्टेट्समैन ने लिखा था- वंदेमातरम् में प्रकाशित लेख यद्यपि राजद्रोह से भरे रहते हैं, पर उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती। उसके लेख की चतुरता और अंग्रेजी भाषा के प्रयोग का कौशल वास्तव में प्रशंसनीय है।

इसी समय सूरत कांग्रेस की तैयारी होने लगी। पिछले काशी और कलकत्ता के अधिवेशनों में देश के कुछ वयोवृद्ध नेताओं ने गर्म और नर्म दल वालों को समझा- बुझाकर क्रांगेस में सम्मिलित कर रखा था, पर अब सरकारी दमन के कारण देश में बड़ी उत्तेजना फैल गई थी। इससे लोग कांग्रेश के ध्येय को बदलकर नई परिस्थिति के अनुकूल बनाने पर जोर दे रहे थे। पर नर्म दल वाले इसके विरोधी थे और कांग्रेस को पुराने ढर्रे पर ही चलाना चाहते थे। इस पर दोनों पक्षों में संघर्ष हो गया। जूते- लात तक की नौबत आकर अधिवेशन भंग हो गया। श्री अरविंद इस अवसर पर गर्म दल के मुखिया लो० तिलक के प्रधान सहयोगी थे। उनकी अध्यक्षता में गर्म दल वालों की एक विशाल सभा पृथक की गई, जिसमें हजारों व्यक्तियों ने अपना सर्वस्व देश पर बलिदान करने की प्रतिज्ञा की।

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