
तीव्र विस्तार चेतना का स्वभाव
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लघु से महान्, तुच्छ से विशाल होने में अचम्भे जैसा व्यतिक्रम तो मालूम
होता है, पर जिस प्रयोजन के पीछे दैवी सत्ता की इच्छा और योजना काम करती
है, उसके द्रुतगामी विस्तार में कोई शंका नहीं रह जाती है।
विकासवाद के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में मात्र एक ‘‘अमीबा’’ जैसा अत्यन्त छोटा एककोशीय जीव था, पर जब उस पर दिव्य प्रेरणा उतरी, तो संकल्पों से ओत- प्रोत हो गया। उसी से विकसित होते- होते सृष्टि में एक दूसरे से सर्वथा भिन्न स्तर के असंख्य जीवधारी बन गए और अपनी आकृति तथा प्रकृति में असाधारण अद्भुतता का परिचय देने लगे। यह चमत्कार अमीबा का नहीं, उसके ऊपरी दिव्य सत्ता के प्रवाह का था, जो असम्भव को सम्भव बना देता है।
एक बीज से उत्पन्न पेड़ से विनिर्मित होने वाले हजारों- लाखों बीजों को बोना, उगाना, बढ़ाना सम्भव हो सके, तो बीज से अगली पीढ़ी अगणित वृक्षों वाले वन्य प्रदेश विनिर्मित कर सकती है। यही सिलसिला बीज की तीसरी- चौथी पीढ़ी तक भी चलता रह सके, तो समझना चाहिए कि आदिकाल जैसे सघन हरीतिमा लिए हुए, वन सम्पदा से समूची धरित्री शोभायमान दीख पड़ने लगेगी। मनुष्य, बीज जैसा विकासक्रम अपनाने वाली कोई वस्तु अपने बलबूते नहीं बना सकता, पर स्रष्टा का कर्तृत्व और नियोजन तो इतना अधिक समर्थ है कि उसकी तुलना सामान्य लोक व्यवहार के आधार पर चलने वाले क्रिया- कलापों से हो ही नहीं सकती। बादलों के बरसने, वसन्त के पुष्प- पल्लवों से सुसज्जित होने की प्रक्रिया मनुष्य अपने बलबूते नहीं कर सकता। ऋतुओं का क्रमबद्ध परिवर्तन भी मनुष्य अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता, किन्तु उस दिव्य- सत्ता के लिए यह सहज ही सम्भव है, जो- एकोऽहम् बहुस्याम्’’ के संकल्प मात्र से समूची प्रकृति- सम्पदा को दिव्य- विभूतियों से भर कर विनिर्मित, सुसज्जित और गतिशील बना देती हैं। हर एक युग के सन्धिकाल में उस दिव्य सत्ता ने अपनी इस तीव्र प्रक्रिया के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
विकासवाद के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में मात्र एक ‘‘अमीबा’’ जैसा अत्यन्त छोटा एककोशीय जीव था, पर जब उस पर दिव्य प्रेरणा उतरी, तो संकल्पों से ओत- प्रोत हो गया। उसी से विकसित होते- होते सृष्टि में एक दूसरे से सर्वथा भिन्न स्तर के असंख्य जीवधारी बन गए और अपनी आकृति तथा प्रकृति में असाधारण अद्भुतता का परिचय देने लगे। यह चमत्कार अमीबा का नहीं, उसके ऊपरी दिव्य सत्ता के प्रवाह का था, जो असम्भव को सम्भव बना देता है।
एक बीज से उत्पन्न पेड़ से विनिर्मित होने वाले हजारों- लाखों बीजों को बोना, उगाना, बढ़ाना सम्भव हो सके, तो बीज से अगली पीढ़ी अगणित वृक्षों वाले वन्य प्रदेश विनिर्मित कर सकती है। यही सिलसिला बीज की तीसरी- चौथी पीढ़ी तक भी चलता रह सके, तो समझना चाहिए कि आदिकाल जैसे सघन हरीतिमा लिए हुए, वन सम्पदा से समूची धरित्री शोभायमान दीख पड़ने लगेगी। मनुष्य, बीज जैसा विकासक्रम अपनाने वाली कोई वस्तु अपने बलबूते नहीं बना सकता, पर स्रष्टा का कर्तृत्व और नियोजन तो इतना अधिक समर्थ है कि उसकी तुलना सामान्य लोक व्यवहार के आधार पर चलने वाले क्रिया- कलापों से हो ही नहीं सकती। बादलों के बरसने, वसन्त के पुष्प- पल्लवों से सुसज्जित होने की प्रक्रिया मनुष्य अपने बलबूते नहीं कर सकता। ऋतुओं का क्रमबद्ध परिवर्तन भी मनुष्य अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता, किन्तु उस दिव्य- सत्ता के लिए यह सहज ही सम्भव है, जो- एकोऽहम् बहुस्याम्’’ के संकल्प मात्र से समूची प्रकृति- सम्पदा को दिव्य- विभूतियों से भर कर विनिर्मित, सुसज्जित और गतिशील बना देती हैं। हर एक युग के सन्धिकाल में उस दिव्य सत्ता ने अपनी इस तीव्र प्रक्रिया के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।