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Books - नवयुग का मत्स्यावतार

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अदृश्य चेतना द्वारा-संचालन

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इक्कीसवीं सदी के गंगावतरण और नवयुग के मत्स्यावतार के स्वरूप और विस्तार को देखते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि इतनी बड़ी योजना को सम्पन्न कर सकना मानवी पुरुषार्थ की परिधि से बाहर है। फिर इतने बड़े आन्दोलन- अभियान को सर्वसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत करने का दुस्साहस किस आधार पर किया जा रहा है?

    शान्तिकुञ्ज और उसके सूत्र- संचालक अपनी अयोग्यता, असमर्थता और साधनों की न्यूनता से भली प्रकार परिचित होते हुए भी, किस आधार पर युग परिवर्तन के महाप्रयाण में झण्डा- बरदार बनकर आगे- आगे चल रहे है, इसके उत्तर में, उस विश्वास को ही साक्षी रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसकी सुनिश्चित परिपक्वता अनेक प्रयोग परीक्षणों के उपरान्त ही बन पड़ी है। निराधार कल्पनाएँ करना और अपनी सामर्थ्य के बाहर का भार उठाने की भूल तो कोई अर्धविक्षिप्त सनकी ही कर सकते हैं, यह लाँछन स्वीकारने की हिम्मत भी उस संचालक तन्त्र में नहीं है, क्योंकि जो मान्यता बनाई गई है, वह मात्र कल्पना पर आधारित नहीं हैं। तर्कों, तथ्यों, प्रमाणों, उदाहरणों का एक बड़ा, अम्बार भी प्रयासों को प्रोत्साहित करने के लिए विद्यमान है। पिछले दिनों जो कदम उठे और प्रयास बने वे कितने आश्चर्यजनक रीति से सफल- सम्पन्न हुए, उनकी कथा- गाथा ऐसी है, जिसे कथा- कहानी की तरह संशयग्रस्त नहीं माना जा सकता। जो बन पड़ा है, उसका जो परिणाम निकला है, उसकी जाँच- पड़ताल करने के लिए हर किसी के लिए द्वार खुला पड़ा है। पिछली लम्बी अवधि की गतिविधियों को, उपलब्धियों को उलट- पुलट कर यही निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान दृश्य तन्त्र प्रचलनों और अनुभवों के आधार पर किसी शरीरधारी नगण्य व्यक्ति को श्रेय देने के लिए कोई तैयार नहीं हो सकता। समाधान मात्र उन्हीं का होगा, जो यह अनुभव कर सकेंगे कि उस समूचे प्रयास या प्रवाह के पीछे अदृश्य सत्ता काम कर रही है।

    असंख्य प्रसंगों में से यहाँ कुछेक का उल्लेख कर देना, बटलोई में पकते भात में से कुछ चावल निकाल कर, पकने न पकने की बात जाँचने की तरह पर्याप्त हो सकता है।

    १ -- अखण्ड ज्योति पत्रिका का तथा उसकी सहेलियाँ प्राय: साढ़े आठ लाख में छपना। उस साहित्य का अनेक भाषा- भाषियों द्वारा अत्यन्त श्रद्धापूर्वक पढ़ा जाना। पत्रिका के सदस्यों द्वारा पाँच विचारशीलों को उनका पढ़ाया जाना और इस प्रकार अनेक वाचन- श्रवण के अतिरिक्त प्रेरणाओं को जीवनचर्या में उतारना। इस प्रकार एक करोड़ विचारशीलों का परिकर जुट जाना। यह सब ऐसी दशा में और भी कठिन पड़ता है कि इस समूचे तन्त्र को खड़ा करने में एक ही व्यक्ति की क्रिया- प्रतिक्रिया काम करती दीखती है।

    २ -- युग साहित्य के रूप में प्राय: तीन हजार छोटी- बड़ी पुस्तकों का लिखा जाना, कई- कई संस्करण उनके प्रकाशित होना, घर- घर पहुँचाना और अनेक भाषाओं में उनका अनुवाद होना। जो कार्य विद्वानों की मण्डली और सम्पत्तिवानों के सहयोग से भी कठिन था, वह सामान्यजनों- सामान्य साधनों के सहारे पूरा हो जाना।

    ३ -- प्रज्ञापीठों के रूप में देश के कोने- कोने में प्राय: पाँच हजार से अधिक इमारतों का विनिर्मित होना और उनके तन्त्रियों द्वारा, अपने- अपने क्षेत्रों में नवसृजन के क्रिया- कलापों को क्रियान्वित करते रहना। सीमित समय में, सामान्य जनता के योगदान से एक ही उद्देश्य के लिए इतना विशाल तन्त्र खड़ा हो जाना- इतिहास की एक अनुपम घटना कही जाती है।

    ४ -- अब तक प्राय: ऐसे असंख्य समारोहों का उत्साह भरे वातावरण में सम्पन्न होना। जिनमें धर्मतन्त्र के माध्यम से लोक शिक्षण की उच्चस्तरीय प्रेरणा संचरित की गई। उस संचार द्वारा अगणित व्यक्तियों को पतन- पराभव के चंगुल से निकाल कर उन्हें प्रगति- पथ पर चला देने में सफलता प्राप्त होना।

    ५ -- युगसन्धि महापुरश्चरण के माध्यम से लोकमानस में नवसृजन का उल्लास उभारना और लाखों व्यक्तियों का उसमें सम्मिलित होना। वर्ग भेद भुलाकर हर क्षेत्र, हर भाषा, हर स्तर के व्यक्ति का इस महान् प्रयोग में निष्ठापूर्वक जुट जाना।

    ६ -- युगसन्धि के अगले दस वर्षों में दस लाख सृजन शिल्पी उभारना, प्रशिक्षित करना और कार्य क्षेत्र में उतारना। उसे प्राचीन काल के साधु, ब्राह्मण वानप्रस्थ, परिव्राजक स्तर के प्रचलन को पुनर्जीवित किया जाना भी कहा जा सकता है। प्रयत्न तेजी से चल रहे हैं और उस लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ा जा रहा है। करोड़ों विचारशीलों को समर्थक- सहयोगी बनाना एवं पूर्णाहुति के अवसर पर एकत्रित करना।

    ७ -- विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय के लिए ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के उन आविष्कारों को प्रस्तुत करना जो अगले दिनों लोगों को नई प्रेरणा एवं नई दिशा दे सकते हैं।

    ८- प्रकाशन, प्रचार, एवं संगठन के लिए युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि, तन्त्र का अनवरत रूप से तत्पर रहना। अनेक भाषाओं में युग साहित्य का प्रकाशन करना और लागत मूल्य में घर- घर पहुँचाना।

    इन प्रयासों की क्या परिणति एवं क्या प्रतिक्रिया हुई? इसका विवरण इतना असाधारण है कि जिनका भी इस तन्त्र के साथ निकटवर्ती सम्बन्ध है, वे एक स्वर से प्रशंसा करते नहीं थकते। यह विवरण प्रकाशित करने की इसलिए आवश्यकता नहीं समझी गई कि विज्ञापनबाजी से सदैव दूर रहने की नीति इस तन्त्र द्वारा अपनाई गई है। अपनी शक्ति का कण- कण केवल सृजन प्रयोजनों में लगाने के उद्देश्य से ऐसा करना आवश्यक समझा गया है।

    सत्प्रवृत्ति संवर्धन के अन्तर्गत अनेक ऐसे क्रिया- कलाप रह सकते हैं, जिन्हें नव- सृजन की ठोस एवं सुदृढ़ आधारशिला समझा जा सकता है। इस प्रयास का पूरक है, दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन, जिसमें कुरीतियों मूढ़मान्यताओं, अन्धविश्वासों, अवाँछनीयताओं से सम्बन्धित क्रिया- कलाप आते हैं, उनका उन्मूलन किया ही जाना चाहिए। धूम- धाम वाली और जेवर- प्रदर्शन के कारण भार- भूत बनकर रह रही खर्चीली शादियाँ, नशेबाजी, विचारों की दुष्टता और आचरणों की भ्रष्टता जैसी अनेकों कुप्रथाएँ गिनी और गिनाई जा सकती हैं। जाति- पाँति के नाम पर बरती जाने वाली ऊँच- नीच भिक्षा- व्यवसाय पर्दा- प्रथा जैसी कुरीतियों का खुलकर विरोध किया जा रहा है। इन दिनों दोनों की दिशाधाराओं में सम्बन्धित प्रौढ़ शिक्षा, वृक्षारोपण, स्वास्थ्य- संवर्धन नारी जागरण आदि कितने ही प्रयास गिनाए जा सकते हैं, जो अखण्ड ज्योति परिजनों द्वारा नित्यकर्म जैसी दिनचर्या में सम्मिलित किए हुए हैं।

    उपरोक्त विवरण में नमूने की बानगी जैसी जानकारियाँ हैं। इन क्रिया- कृत्यों की उपयोगिता देखते हुए, शान्तिकुञ्ज में लोकसेवी- परमार्थपरायण कार्यकर्ता मिशन के प्रयोजन को पूरा करने के लिए स्थाई निवास करते हैं। इनमें से अधिकांश उच्च शिक्षित, व्यक्तित्ववान एवं अपनी प्रामाणिकता से सम्पर्क में आने वाले को निरन्तर प्रभावित करते रहने में सक्षम हैं।

    इन गिनाई जा सकने वाली उपलब्धियों के सूत्र संचालक ने यह विश्वास दिलाया है कि मात्र मानवी पुरुषार्थ के सहारे बन पड़ने वाली उपलब्धियाँ नहीं है। इनके पीछे वह अदृश्य चेतना महती भूमिका निभा रही है, जिसे युग परिवर्तन के लिए उपयुक्त वातावरण बनाना, सरंजाम जुटाना एवं भविष्य के लिए महत्त्वपूर्ण ताना- बाना बुनना है, मिशन की इमारतों में बहुसंख्यक शिक्षार्थी एवं भोजनालय में एक हजार से अधिक की रसोई बनती रहने, प्रशिक्षण लेखन तथा शोधकार्य चलते रहने की गतिविधियों को देखते हुए यही निष्कर्ष निकलता है, कि इतने बड़े तन्त्र के संचालन में सामान्य स्तर के किसी व्यक्ति विशेष की योजना एवं पुरुषार्थ परायणता कारगर नहीं हो सकती। एक हजार प्रतिदिन का पत्राचार चलना, उसके माध्यम से दूरवर्ती लोगों तक वही प्रेरणाएँ पहुँचाना, जो हरिद्वार आने पर ही दी जा सकती हैं, यह पत्राचार विद्यालय, लोक- सेवियों का प्रशिक्षण, साहित्य सृजन ऐसा छोटा कार्य नहीं है, जिसे इतने सुनियोजित उपक्रम के साथ कोई ऐसा व्यक्ति कर सके, जिसे हर दृष्टि से सामान्य ही कहा जा सकता है।

    अध्यात्म क्षेत्र के वे प्रयोग, अनुभव और तप साधना इस सब के अतिरिक्त हैं, जो अन्तःकरण को पवित्र करने और उसमें दैवी प्रेरणा के अवतरित होने के लिए पथ- प्रशस्त करते हैं। इन उल्लेखों में निजी समाधानों की चर्चा नहीं है, जिसके आधार पर व्यक्ति कठिनाइयों से उबरने और उज्ज्वल- भविष्य की सम्भावनाओं को साकार करने के लिए अतीन्द्रिय क्षमताओं को उभारते एवं दिव्य प्राण- चेतना का संचार करते हैं।

    पिछले दिनों की उपलब्धियों का यही है- सार जिसकी सीमित और संक्षिप्त जानकारी के, प्रस्तुत विवरण को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि यह सब मानवी पुरुषार्थ पर निर्भर हो सकता है। प्रमाणों के आधार पर उत्पन्न हुए विश्वास ने यह साहस प्रदान किया है कि जिस अदृश्य शक्ति की अनुकम्पा से इतना बन पड़ा है, बन पड़ रहा है, उसका अनुग्रह एवं सहयोग आगे भी मिलता रहेगा। वे सभी भावी निर्धारण पूरे होकर रहेंगे, जिन्हें अगले दिनों क्रियान्वित किया जाना है और महान् परिवर्तन को लक्ष्य तक पहुँचाया जाना है।
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