
नए लक्ष्य-नए उद्घोष
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अब फिर उसी पुराने- स्वर्णिम काल का अभिनव संस्करण प्रस्तुत हो रहा है।
सूत्र संचालक तो कोई शक्ति ही हो सकती है, पर उस उदीयमान अरुणोदय के प्रभाव
से, दिशाओं से लेकर विद्याओं और वस्तुओं तक अपने को सुनहरी आभा से
आच्छादित अनुभव कर रही हैं। बात को और भी स्पष्ट करना हो, तो यों भी और कहा
और समझा जा सकता है कि सृजन की प्रारम्भिक ऊर्जा अखण्ड ज्योति के रूप में
अवतरित हुई है। वह अपने सूत्रों के साथ जुड़े हुए अनेक घटकों, पाठकों को
तदनुरूप बढ़ने- ढलने के लिए बाधित एवं अनुप्राणित कर रही है। २१ वीं सदी
उज्ज्वल भविष्य का नारा इसी परिकर से उठा और दिगन्त में प्रतिध्वनित हुआ
है। ‘‘नया इंसान बनाएँगे, नया संसार बसाएँगे, नया भगवान् उतारेंगे’’ के
उद्घोष किसी आवेशग्रस्त केन्द्र से ही उभर सकते हैं, अन्यथा साधारण जनता के
लिए तो ऐसी दावेदारी ‘‘सनक’’ के अतिरिक्त और कुछ क्या कही- समझी जा सकती
है?
विवेचना भर पर्याप्त नहीं, सोचना उस विस्तरण के सम्बन्ध में भी पड़ेगा, जो मत्स्यावतार का, प्रज्ञावतार का प्रमुख लक्ष्य रहा है। समुदाय जितना विस्तृत और जितना समुन्नत होगा, उसे उतना ही प्रखर, सशक्त एवं सक्षम स्तर का कहा जा सकेगा। अपना परिवार अभी स्थिति और आवश्यकता के अनुपात से बहुत छोटा है। ९० करोड़ आबादी वाले संसार भारत का, ६०० करोड़ आबादी के लिए मात्र एक करोड़ लोगों का समुदाय जलते तवे पर एक बूँद पानी की तरह नगण्य ही कहा जा सकता है। भयंकर अग्निकाण्ड के शमन में समर्थ फायर ब्रिगेडों की टीम ही अभीष्ट शान्ति की स्थापना में समर्थ हो सकती हैं। बड़े प्रतिफल पाने के लिए बड़े साधन भी तो चाहिए। बड़े मोर्चे फतह करने के लिए सैन्य दल का विस्तार करने और उनके क्रिया- कौशल बढ़ाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं। साधनों को तो मनुष्य के संकल्प बल का चुम्बकत्व कहीं से भी खींच- घसीट लेता है।
मिशन की पत्रिकाओं के पाठक पच्चीस लाख हैं। उस छोटी मण्डली द्वारा युग का गोवर्धन उठेगा नहीं। संख्या और क्षमता अनेक गुनी बढ़ाने की आवश्यकता है। संसार भर की सैन्य शक्ति एक करोड़ सैनिकों से कम नहीं, जिनका काम लड़ना भर है, पर जिन्हें सृजन- प्रयोजन वहन करना पड़े ,उनकी संख्या एवं क्षमता तो और भी अधिक होनी चाहिए। लक्ष्य और उसकी उपलब्धि को ध्यान में रखते हुए सन्तुलन तभी बैठता है, जब संसार में उतने सृजन- शिल्पी तो चाहिए ही, जितने कि सैनिक साज- सज्जा के साथ छावनियों में रहते हैं। सृजन शिल्पियों की संख्या एक करोड़ तक जा पहुँचे, तो समझना चाहिए कि ‘‘नया संसार बसाने’’ की योजना का उपयुक्त आधार खड़ा हो गया।
दूर से देखने वालों को यह कार्य असम्भव जैसा दिख तो सकता है, पर बात ऐसी है नहीं। साधनहीन अखण्ड ज्योति पत्रिका बिना विज्ञापन छापी जा भी सकेगी? यह सन्देह सभी करते थे। पूजा- पाठ के आधार पर खड़ा किया गया छोटा सा संगठन, किसी दिन जनमानस की कठिनतम समस्याओं के समाधान की स्थिति में जा पहुँचेगा, इसकी किसी को कल्पना भी नहीं थी, पर चेतना का चक्र घूमता है, तो अपने गर्भ में सँजोए हुए हर संकल्प को प्रत्यक्ष कर ही दिखाता है। सृजन शिल्पियों का प्रचुर संख्या में उत्पादन भी इसी चेतना चक्र के गतिचक्र का एक चरण है, जो पूरा होकर ही रहेगा। अपने लक्ष्य तक पहुँचकर ही विश्राम लेगा।
बड़े काम भी प्राय: छोटे बीज के रूप में ही बढ़ते और क्रमश: विस्तार करते हुए, वर्षा के बादलों की तरह सुविस्तृत आकाश पर छा जाने की सफलता प्राप्त करते हैं। आरम्भ में अखण्ड ज्योति का प्रथम अंक ५०० की संख्या में छापा था। बाद में वह युग की आवश्यकता का पक्षधर सिद्ध होने के कारण, मानवी- गौरव गरिमा द्वारा मान्यता मिलने पर सहज विस्तार की गति पकड़ता गया और अब इतना विस्तार कर सका, जिसे अपनी शैली के क्षेत्र में अनुपम एवं अद्भुत ही कहा जा सकता है। क्या आगे यह प्रगति क्रम रुक जाएगा? क्या लम्बी मंजिल पार करने का लक्ष्य बनाकर चलने वाला कारवाँ कुछ मील पर ही थक कर आगे न चल सकने की असमर्थता प्रकट करने पर पैर पसार देगा? आशंका ऐसी ही दीखने पर भी, किसी को यह विश्वास नहीं करना चाहिए कि जिस समर्थ सत्ता ने यह सरंजाम जुटाया है, वह पानी के बबूले की तरह अपने उत्साह का समापन कर बैठेगा। यह विस्तार क्रम रुकने वाला ही नहीं है। नियति के निर्धारण पूरे होकर ही रहेंगे।
विवेचना भर पर्याप्त नहीं, सोचना उस विस्तरण के सम्बन्ध में भी पड़ेगा, जो मत्स्यावतार का, प्रज्ञावतार का प्रमुख लक्ष्य रहा है। समुदाय जितना विस्तृत और जितना समुन्नत होगा, उसे उतना ही प्रखर, सशक्त एवं सक्षम स्तर का कहा जा सकेगा। अपना परिवार अभी स्थिति और आवश्यकता के अनुपात से बहुत छोटा है। ९० करोड़ आबादी वाले संसार भारत का, ६०० करोड़ आबादी के लिए मात्र एक करोड़ लोगों का समुदाय जलते तवे पर एक बूँद पानी की तरह नगण्य ही कहा जा सकता है। भयंकर अग्निकाण्ड के शमन में समर्थ फायर ब्रिगेडों की टीम ही अभीष्ट शान्ति की स्थापना में समर्थ हो सकती हैं। बड़े प्रतिफल पाने के लिए बड़े साधन भी तो चाहिए। बड़े मोर्चे फतह करने के लिए सैन्य दल का विस्तार करने और उनके क्रिया- कौशल बढ़ाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं। साधनों को तो मनुष्य के संकल्प बल का चुम्बकत्व कहीं से भी खींच- घसीट लेता है।
मिशन की पत्रिकाओं के पाठक पच्चीस लाख हैं। उस छोटी मण्डली द्वारा युग का गोवर्धन उठेगा नहीं। संख्या और क्षमता अनेक गुनी बढ़ाने की आवश्यकता है। संसार भर की सैन्य शक्ति एक करोड़ सैनिकों से कम नहीं, जिनका काम लड़ना भर है, पर जिन्हें सृजन- प्रयोजन वहन करना पड़े ,उनकी संख्या एवं क्षमता तो और भी अधिक होनी चाहिए। लक्ष्य और उसकी उपलब्धि को ध्यान में रखते हुए सन्तुलन तभी बैठता है, जब संसार में उतने सृजन- शिल्पी तो चाहिए ही, जितने कि सैनिक साज- सज्जा के साथ छावनियों में रहते हैं। सृजन शिल्पियों की संख्या एक करोड़ तक जा पहुँचे, तो समझना चाहिए कि ‘‘नया संसार बसाने’’ की योजना का उपयुक्त आधार खड़ा हो गया।
दूर से देखने वालों को यह कार्य असम्भव जैसा दिख तो सकता है, पर बात ऐसी है नहीं। साधनहीन अखण्ड ज्योति पत्रिका बिना विज्ञापन छापी जा भी सकेगी? यह सन्देह सभी करते थे। पूजा- पाठ के आधार पर खड़ा किया गया छोटा सा संगठन, किसी दिन जनमानस की कठिनतम समस्याओं के समाधान की स्थिति में जा पहुँचेगा, इसकी किसी को कल्पना भी नहीं थी, पर चेतना का चक्र घूमता है, तो अपने गर्भ में सँजोए हुए हर संकल्प को प्रत्यक्ष कर ही दिखाता है। सृजन शिल्पियों का प्रचुर संख्या में उत्पादन भी इसी चेतना चक्र के गतिचक्र का एक चरण है, जो पूरा होकर ही रहेगा। अपने लक्ष्य तक पहुँचकर ही विश्राम लेगा।
बड़े काम भी प्राय: छोटे बीज के रूप में ही बढ़ते और क्रमश: विस्तार करते हुए, वर्षा के बादलों की तरह सुविस्तृत आकाश पर छा जाने की सफलता प्राप्त करते हैं। आरम्भ में अखण्ड ज्योति का प्रथम अंक ५०० की संख्या में छापा था। बाद में वह युग की आवश्यकता का पक्षधर सिद्ध होने के कारण, मानवी- गौरव गरिमा द्वारा मान्यता मिलने पर सहज विस्तार की गति पकड़ता गया और अब इतना विस्तार कर सका, जिसे अपनी शैली के क्षेत्र में अनुपम एवं अद्भुत ही कहा जा सकता है। क्या आगे यह प्रगति क्रम रुक जाएगा? क्या लम्बी मंजिल पार करने का लक्ष्य बनाकर चलने वाला कारवाँ कुछ मील पर ही थक कर आगे न चल सकने की असमर्थता प्रकट करने पर पैर पसार देगा? आशंका ऐसी ही दीखने पर भी, किसी को यह विश्वास नहीं करना चाहिए कि जिस समर्थ सत्ता ने यह सरंजाम जुटाया है, वह पानी के बबूले की तरह अपने उत्साह का समापन कर बैठेगा। यह विस्तार क्रम रुकने वाला ही नहीं है। नियति के निर्धारण पूरे होकर ही रहेंगे।