
ईसाई पादरियों से वाद- विवाद
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उस समय ईसाई पादरी भी देश में अपना जाल फैला रहे थे। मुसलमानों की एक्य- भावना के कारण उन पर तो ईसाइयों का प्रभाव बहुत कम हो पाता था। पर हिंदुओं की फूट को देखकर उन पर इन्होंने छापा मारना शुरू किया। अंग्रेजी शासन के आरंभिक दिनों में तो सरकार की नीति यह थी कि हिंदू धर्म के विरुद्ध कोई काम न किया जाये। अगर कोई पादरी भारतीय धर्म के खिलाफ कुछ कहता, तो सरकार को बुरा लगता था और वह उनको यहाँ से निकालकर वापस इंगलैंड भेज देती थी। कारण यही था कि ऐसा होने से कदाचित् यहाँ के निवासी नाराज हो जाते और अंग्रेजी राज्य को नापसंद करने लगते। पर जब उनका शासन जम गया और सर्वसाधारण की तरफ से किसी तरह की आशंका नहीं रही, तब उन्होंने पादरियों को अपना प्रचार- कार्य करने की छूट दे दी। वे छोटे- छोटे ट्रैक्ट लिखकर हिंदू देवताओं की निंदा करते थे। शहर और कस्बों के बाजारों मेंखडे़ होकर अपने धर्म की श्रेष्ठता और इस देश के धर्मों की हीनता बताते रहते थे। कुछ लोगों को धन आदि के लोभ में फँसाकर भी ईसाई बना लेते थे।
इन पादरियों का एक बडा़ अड्डा कलकत्ता के पास श्रीरामपुर में था, जहाँ से अपने धर्म का प्रचार करने के लिए 'समाचार चंद्रिका' नाम का अखबार प्रकाशित करते थे। सन् १८२१ के किसी अंक में उन्होंने एक लेख छापा, जिसमें वेद, न्याय, पतंजलि योग दर्शन, मीमांसा, पुराण, पुनर्जन्म आदि का खंडन किया। उस समय राममोहन राय हिंदू- पंडितों के आक्षेपों का उत्तर देने में व्यस्त रहते थे तो भी अपने धर्म पर ईसाइयों का आक्रमण होते देखकर उनका स्वाभिमान जाग्रत हो गया। उन्होंने लेख का उत्तर लिखकर 'समाचार चंद्रिका' में ही छपने को भेजा। पर जब उसके संपादक ने उसे छापने से इनकार कर दिया, तो राममोहन राय ने फौरन 'ब्राह्मण संवधि' नाम का अखबार आरंभ कर दिया और ईसाइयों के आक्षेपों का जोरदार उत्तर दिया। उस समय बंगाल में प्रसिद्ध पंडितों और धनी जमींदारों की कमी न थी, पर किसी को यह नहीं सूझा कि जो हमारे संपूर्ण धर्म पर ही हमला कर रहा है और उसे निगल जाने के मनसूबे बाँध रहा है, पहले उसका मुकाबला किया जाये, इसके बजाय वे हिंदू- धर्म की रक्षा के लिए चिंता करने वाले राममोहन राय ही पर अपना जोर दिखा रहे थे।
यह थी उस अवसर पर धर्म के ठेकेदार बनने वालों की मनोवृत्ति, जो आज भी बदली नहीं है। ये 'पंडित' तथा 'जातीय नेता' नामधारी जीव अपने उन भाइयों पर तो जो समाज में समयानुरूप सुधार करके उसे सशक्त और कार्यक्षम बनाना चाहते हैं, आक्रमण करने में बडे़ चतुर और साहसी होते हैं। पर बैर- भाव रखने वाले प्रत्यक्ष बाहरी शत्रुओं का सामना करने की कभी चर्चा भी नहीं करते। ऐसे घर के 'जयचंदों' का अस्तित्व किसी भी जाति, धर्म के लिए वास्तव में बडे़ अभाग्य का विषय है। ऐसे व्यक्ति अपने पेट- पालन के धंधे और नेतागिरी को कायम रखने के लिए समाज को भेड़चाल पर ही कायम रखने का उद्योग करते रहते हैं। चाहे उसके सामने किसी कुएँ में गिरकर नष्ट हो जाने का खतरा ही क्यों न हो। जो लोग अपने भाइयों को इस खतरे की सूचना देकर सुरक्षित मार्ग पर चलने की सलाह देते हैं, वे ही उनको 'दुश्मन' जान पड़ते हैं, क्योंकि उनको भय लगता है कि कहीं ये हमारी 'नेतागिरी' और 'पेट के धंधे' को छीन न लें। इस प्रकार ये स्वार्थ- प्रधान और अदूरदर्शी लोग 'रेवडी़ के लिए मसजिद ढहाने' की कहावत को चरितार्थ करते हैं। राममोहन राय सचमुच हम सब के श्रद्धा के पात्र हैं, जिन्होंने ईसाई- आक्रमणकारियों का अकेले होने पर भी सामना किया और उनके इरादों को बहुत कुछ असफल कर दिया।
पर राममोहन राय उस दशा में भी सच्चे ब्राह्मणों के विरुद्ध नहीं थे। पादरियों ने अपने लेख में ब्रह्मणों की भी निंदा की थी और हँसी उडा़ई थी। उसका उत्तर देते हुए राममोहन राय ने लिखा था- ब्राह्मण की पर्णकुटी, शाक का भोजन और भिक्षावृत्ति को देखकर उन्हें तुच्छ मत समझो, क्योंकि धर्म ऐश्वर्य के शिखर पर नहीं बैठता, ऊँची पदवियों के पीछे मारा- मारा नहीं फिरता और बडी़- बडी़ हवेलियों में निवास नहीं करता।" पादरियों ने न्याय, मीमांसा, सांख्य आदि हिंदू- दर्शनों पर जो आक्षेप किए थे, उनका उत्तर राममोहन राय नेबडी़ योग्यतापूर्वक दिया। पुराण और तंत्रों के संबंध में प्रश्न किया गया था कि क्या उनमें असंभव गप्पबाजी और साकार उपासना नहीं है? राममोहन राय ने इसके उत्तर में 'बाइबिल' के ही बीसियों प्रमाण देकर बतलाया कि ऐसी बातों की ईसाइयों में कमी नहीं है, फिर वे हिंदुओं के पुराणों पर किस मुँह से आक्षेप करते है?
ईसाइयों ने प्रश्न किया कि "हिंदू- शास्त्रों के अनुसार जीवों को अपने कर्मों के अनुसार स्थावर और जंगम योनियों में आना पड़ता है। पर हिंदुओं का ही एक संप्रदाय मृत्यु के पश्चात् कुछ नहीं मानता। इनमें से कौन- सी बात ठीक मानी जाये? राममोहन राय ने उत्तर दिया- "किसी हिंदू शास्त्र में नहीं लिखा कि मृत्यु के पश्चात् कुछ नहीं होता। यह केवल नास्तिकों का मत है। शास्त्र तो कहता है कि इसी संसार मे पुण्य- पाप का फल मिलता है या ईश्वर पाप और पुण्य के अनुसार मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग और नरक देता है। यही बात ईसाई धर्म में भी मानी जाती गई है कि खुल्लमखुल्ला दान करने से इसी जन्म में फल मिलेगा। बाइबिल में यह भी बतलाया है कि इस शरीर के नाश होने पर ईश्वर कयामत के दिन जीव को फिर शरीर देगा और इस शरीरयुक्त जीव से पुण्य और पाप का फल भुगतेगा। यदि ईसाई लोग ऐसी सृष्टि नियम के विरुद्ध बात को मान सकते हैं, तो सृष्टि नियम के अनुकूल इसी जगत् में दुबारा शरीर मिलने (पुनर्जन्म) पर वे क्यों आश्चर्य करते हैं?"
इस प्रकार ईसाइयों के साथ राममोहन राय ने बहुत समय तक लेख और पुस्तकें लिखकर शास्त्रार्थ किया और उनको निरुत्तर कर दिया। राममोहन राय ने मूल हिब्रू बाइबिल के प्रमाण देकर ईसाई धर्म में प्रचलित कितने ही विश्वासों का खंडन कर दिया। पादरी उनका कुछ उत्तर न दे सके तो वे भी राममोहन राय को अपशब्द कहने लगे, जो उनकी हार की निशानी थी, क्योंकि शास्त्रार्थ में गाली वही बकता है ,, जिसके पास उत्तर देने के लिए उचित तर्क और प्रमाण नहीं होते। राममोहन राय तो सदैव शांत और गंभीर रहते थे, क्योंकि अपने अध्ययन और परिश्रम के बल पर वे प्रमाणों के ढेर लगा देते थे। उन्होंने ईसाइयों के इस प्रकार गाली बकने पर लिखा- "सभ्यता ने मुझे ऐसी बातों का उत्तर देने से रोका है, पर मेरे विपक्षियों को स्मरण रखना चाहिए कि वे शुद्ध कर्म पर वाद- विवाद कर रहे हैं, दुर्वाक्य लिखने से उनका कोई लाभ नहीं हो सकता।"
वास्तव में राममोहन राय ईसाई धर्म के भी विरोधी नहीं थे। ईसाई पादरियों से वाद- विवाद करने के लिए उन्होंने जो उनके धार्मिक- ग्रंथों का गहरा अध्ययन किया, उससे उनको उस धर्म के विषय में बहुत अधिक ज्ञान हो गया और कुछ समय पश्चात् उन्होंने "प्रिसेप्ट्स ऑफ जीसस टू पीस एंड हैपीनेस" (ईसा मसीह के सुख और शांतिदायक उपदेश) नामक पुस्तक लिखी। भारत में रहने वाले पादरियों ने तो वाद- विवाद की मनोवृत्ति के कारण इसका भी विरोध किया, पर इंगलैंड एवं अमेरिका में इसका बडा़ आदर किया गया औरइंगलैंड मे इसे कई बार छापकर प्रचारित किया गया। योरोप की अन्य अनेक भषाओं में भी इसका अनुवाद किया गया। एक भारतवासी की ऐसी अगाध विद्या, बुद्धि और योग्यता देखकर योरोप वाले आश्चर्य करने लगे। इसका यह परिणाम हुआ कि जब सन् १८३० में राममोहन राय विलायत गये तो वहाँ की जनता और बडे़- बडे़धार्मिक नेताओं ने उनका बहुत स्वागत किया और अपने गिर्जाघरों में बुलाकर बडे़ आदर के साथ उनकी अभ्यर्थना की।
इंगलैंड की धार्मिक जनता पर उनका कितना अधिक प्रभाव पडा़ था, इसका वर्णन करते हुए उनके जीवन चरित्र की विदुषी लेखिका मिस मेरी कारपेंटर ने लिखा था- "राजा राममोहन राय के इंगलैंड पहुँचने के पहले ही उनका यश वहाँ के घर- घर में पहुँच चुका था। राममोहन राय के पहुँचने के पहले ही वहाँ के कितने ही ईसाइयों ने उनकी विद्या- बुद्धि के विषय में कई ट्रैक्ट छपाकर बाँटे थे। इंगलैंड वाले समझने लगे थे कि अब पूर्व से एक महात्मा का उदय होने वाला है। सारा इंगलैंड भारत माता के सपूत का स्वागत करने को तैयार था।" भारत और मिसर का भ्रमण" पुस्तक के लेखक- लेफ्टिनेंट कर्नल फीट सक्लारेंस ने लिखा था- "वे (राममोहन राय) संस्कृत के ही पंडित नहीं बल्कि अंग्रेजी के भी बडे़ विद्वान् है। अंग्रेजी हमारी मातृभाषा है, पर वे ऐसी ही धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलते थे जैसा एक अंग्रेज वक्ता बोलता है। उन्होंने स्पष्ट रूप से सिद्ध कर दिया है कि हिंदू धर्म शुद्ध एकेश्वरवादी है।
उन्होंने धार्मिक विषयों पर जो कुछ लिखा था, वह इतना विद्वतापूर्ण था कि फ्रांस के लोगों ने उनको बुलाकर उनका स्वागत समारोह किया। फ्रांस के सम्राट् लुई फिलिप ने उनको बुलाकर सम्मान किया, उनके साथ एकटेबिल पर बैठकर भोजन किया। पेरिस की एशियाटिक सोसायटी ने उनको अपना 'सम्मानित सदस्य' (आनरेरी मेंबर) बनाया। महाकवि टॉमस मूर ने एक प्रसिद्ध होटल में उनको दावत दी। उन्होंने अपनी डायरी में राजा राममोहन राय की बडी़ प्रशंसा लिखी है। यह है उनकी विद्वता और महानता का प्रमाण कि फ्रांस जैसे दूरवर्ती देश में, जहाँ की भाषा भी वे नहीं जानते थे और जहाँ केवल दो- चार मास के लिए भ्रमण करने को गये थे, उनका इतना आदर किया गया और उनके कारण भारतवर्ष और भारतीय धर्म का भी महत्त्व स्वीकार किया गया, पर यहाँ अपने देश में 'शास्त्री जी और भट्टाचार्य जी' की दृष्टि में वे 'नास्तिक, पतित और जाति बहिष्कृत' ही बने रहे ! अब पाठक स्वयं ही विचार करें कि इन दोनों में से किसको हिंदू- धर्म का भक्त, सेवक और रक्षक माना जाये?
विलायत और फ्रांस में इस प्रकार ईसाइयों द्वारा सम्मानित किए जाने और गिर्जाघरों में जाकर प्रार्थना करने का आशय यह नहीं था कि उन्होंने अपनी जाति और धर्म को त्याग दिया था। विलायत में रहकर भी वे अपनी 'ब्रह्म उपासना' उसी प्रकार करते थे और वहीं पर देहांत हो जाने पर जब उनके शव से वस्त्र उतारे गये तो शरीर परयज्ञोपवीय मौजूद था। मरने से पहले वे यह भी कह गये थे कि उनको ईसाइयों के कब्रिस्तान में न दफनाया जाये वरन् हिंदुओं की विधि से अलग स्थान में स्माधि दी जाये।
इन पादरियों का एक बडा़ अड्डा कलकत्ता के पास श्रीरामपुर में था, जहाँ से अपने धर्म का प्रचार करने के लिए 'समाचार चंद्रिका' नाम का अखबार प्रकाशित करते थे। सन् १८२१ के किसी अंक में उन्होंने एक लेख छापा, जिसमें वेद, न्याय, पतंजलि योग दर्शन, मीमांसा, पुराण, पुनर्जन्म आदि का खंडन किया। उस समय राममोहन राय हिंदू- पंडितों के आक्षेपों का उत्तर देने में व्यस्त रहते थे तो भी अपने धर्म पर ईसाइयों का आक्रमण होते देखकर उनका स्वाभिमान जाग्रत हो गया। उन्होंने लेख का उत्तर लिखकर 'समाचार चंद्रिका' में ही छपने को भेजा। पर जब उसके संपादक ने उसे छापने से इनकार कर दिया, तो राममोहन राय ने फौरन 'ब्राह्मण संवधि' नाम का अखबार आरंभ कर दिया और ईसाइयों के आक्षेपों का जोरदार उत्तर दिया। उस समय बंगाल में प्रसिद्ध पंडितों और धनी जमींदारों की कमी न थी, पर किसी को यह नहीं सूझा कि जो हमारे संपूर्ण धर्म पर ही हमला कर रहा है और उसे निगल जाने के मनसूबे बाँध रहा है, पहले उसका मुकाबला किया जाये, इसके बजाय वे हिंदू- धर्म की रक्षा के लिए चिंता करने वाले राममोहन राय ही पर अपना जोर दिखा रहे थे।
यह थी उस अवसर पर धर्म के ठेकेदार बनने वालों की मनोवृत्ति, जो आज भी बदली नहीं है। ये 'पंडित' तथा 'जातीय नेता' नामधारी जीव अपने उन भाइयों पर तो जो समाज में समयानुरूप सुधार करके उसे सशक्त और कार्यक्षम बनाना चाहते हैं, आक्रमण करने में बडे़ चतुर और साहसी होते हैं। पर बैर- भाव रखने वाले प्रत्यक्ष बाहरी शत्रुओं का सामना करने की कभी चर्चा भी नहीं करते। ऐसे घर के 'जयचंदों' का अस्तित्व किसी भी जाति, धर्म के लिए वास्तव में बडे़ अभाग्य का विषय है। ऐसे व्यक्ति अपने पेट- पालन के धंधे और नेतागिरी को कायम रखने के लिए समाज को भेड़चाल पर ही कायम रखने का उद्योग करते रहते हैं। चाहे उसके सामने किसी कुएँ में गिरकर नष्ट हो जाने का खतरा ही क्यों न हो। जो लोग अपने भाइयों को इस खतरे की सूचना देकर सुरक्षित मार्ग पर चलने की सलाह देते हैं, वे ही उनको 'दुश्मन' जान पड़ते हैं, क्योंकि उनको भय लगता है कि कहीं ये हमारी 'नेतागिरी' और 'पेट के धंधे' को छीन न लें। इस प्रकार ये स्वार्थ- प्रधान और अदूरदर्शी लोग 'रेवडी़ के लिए मसजिद ढहाने' की कहावत को चरितार्थ करते हैं। राममोहन राय सचमुच हम सब के श्रद्धा के पात्र हैं, जिन्होंने ईसाई- आक्रमणकारियों का अकेले होने पर भी सामना किया और उनके इरादों को बहुत कुछ असफल कर दिया।
पर राममोहन राय उस दशा में भी सच्चे ब्राह्मणों के विरुद्ध नहीं थे। पादरियों ने अपने लेख में ब्रह्मणों की भी निंदा की थी और हँसी उडा़ई थी। उसका उत्तर देते हुए राममोहन राय ने लिखा था- ब्राह्मण की पर्णकुटी, शाक का भोजन और भिक्षावृत्ति को देखकर उन्हें तुच्छ मत समझो, क्योंकि धर्म ऐश्वर्य के शिखर पर नहीं बैठता, ऊँची पदवियों के पीछे मारा- मारा नहीं फिरता और बडी़- बडी़ हवेलियों में निवास नहीं करता।" पादरियों ने न्याय, मीमांसा, सांख्य आदि हिंदू- दर्शनों पर जो आक्षेप किए थे, उनका उत्तर राममोहन राय नेबडी़ योग्यतापूर्वक दिया। पुराण और तंत्रों के संबंध में प्रश्न किया गया था कि क्या उनमें असंभव गप्पबाजी और साकार उपासना नहीं है? राममोहन राय ने इसके उत्तर में 'बाइबिल' के ही बीसियों प्रमाण देकर बतलाया कि ऐसी बातों की ईसाइयों में कमी नहीं है, फिर वे हिंदुओं के पुराणों पर किस मुँह से आक्षेप करते है?
ईसाइयों ने प्रश्न किया कि "हिंदू- शास्त्रों के अनुसार जीवों को अपने कर्मों के अनुसार स्थावर और जंगम योनियों में आना पड़ता है। पर हिंदुओं का ही एक संप्रदाय मृत्यु के पश्चात् कुछ नहीं मानता। इनमें से कौन- सी बात ठीक मानी जाये? राममोहन राय ने उत्तर दिया- "किसी हिंदू शास्त्र में नहीं लिखा कि मृत्यु के पश्चात् कुछ नहीं होता। यह केवल नास्तिकों का मत है। शास्त्र तो कहता है कि इसी संसार मे पुण्य- पाप का फल मिलता है या ईश्वर पाप और पुण्य के अनुसार मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग और नरक देता है। यही बात ईसाई धर्म में भी मानी जाती गई है कि खुल्लमखुल्ला दान करने से इसी जन्म में फल मिलेगा। बाइबिल में यह भी बतलाया है कि इस शरीर के नाश होने पर ईश्वर कयामत के दिन जीव को फिर शरीर देगा और इस शरीरयुक्त जीव से पुण्य और पाप का फल भुगतेगा। यदि ईसाई लोग ऐसी सृष्टि नियम के विरुद्ध बात को मान सकते हैं, तो सृष्टि नियम के अनुकूल इसी जगत् में दुबारा शरीर मिलने (पुनर्जन्म) पर वे क्यों आश्चर्य करते हैं?"
इस प्रकार ईसाइयों के साथ राममोहन राय ने बहुत समय तक लेख और पुस्तकें लिखकर शास्त्रार्थ किया और उनको निरुत्तर कर दिया। राममोहन राय ने मूल हिब्रू बाइबिल के प्रमाण देकर ईसाई धर्म में प्रचलित कितने ही विश्वासों का खंडन कर दिया। पादरी उनका कुछ उत्तर न दे सके तो वे भी राममोहन राय को अपशब्द कहने लगे, जो उनकी हार की निशानी थी, क्योंकि शास्त्रार्थ में गाली वही बकता है ,, जिसके पास उत्तर देने के लिए उचित तर्क और प्रमाण नहीं होते। राममोहन राय तो सदैव शांत और गंभीर रहते थे, क्योंकि अपने अध्ययन और परिश्रम के बल पर वे प्रमाणों के ढेर लगा देते थे। उन्होंने ईसाइयों के इस प्रकार गाली बकने पर लिखा- "सभ्यता ने मुझे ऐसी बातों का उत्तर देने से रोका है, पर मेरे विपक्षियों को स्मरण रखना चाहिए कि वे शुद्ध कर्म पर वाद- विवाद कर रहे हैं, दुर्वाक्य लिखने से उनका कोई लाभ नहीं हो सकता।"
वास्तव में राममोहन राय ईसाई धर्म के भी विरोधी नहीं थे। ईसाई पादरियों से वाद- विवाद करने के लिए उन्होंने जो उनके धार्मिक- ग्रंथों का गहरा अध्ययन किया, उससे उनको उस धर्म के विषय में बहुत अधिक ज्ञान हो गया और कुछ समय पश्चात् उन्होंने "प्रिसेप्ट्स ऑफ जीसस टू पीस एंड हैपीनेस" (ईसा मसीह के सुख और शांतिदायक उपदेश) नामक पुस्तक लिखी। भारत में रहने वाले पादरियों ने तो वाद- विवाद की मनोवृत्ति के कारण इसका भी विरोध किया, पर इंगलैंड एवं अमेरिका में इसका बडा़ आदर किया गया औरइंगलैंड मे इसे कई बार छापकर प्रचारित किया गया। योरोप की अन्य अनेक भषाओं में भी इसका अनुवाद किया गया। एक भारतवासी की ऐसी अगाध विद्या, बुद्धि और योग्यता देखकर योरोप वाले आश्चर्य करने लगे। इसका यह परिणाम हुआ कि जब सन् १८३० में राममोहन राय विलायत गये तो वहाँ की जनता और बडे़- बडे़धार्मिक नेताओं ने उनका बहुत स्वागत किया और अपने गिर्जाघरों में बुलाकर बडे़ आदर के साथ उनकी अभ्यर्थना की।
इंगलैंड की धार्मिक जनता पर उनका कितना अधिक प्रभाव पडा़ था, इसका वर्णन करते हुए उनके जीवन चरित्र की विदुषी लेखिका मिस मेरी कारपेंटर ने लिखा था- "राजा राममोहन राय के इंगलैंड पहुँचने के पहले ही उनका यश वहाँ के घर- घर में पहुँच चुका था। राममोहन राय के पहुँचने के पहले ही वहाँ के कितने ही ईसाइयों ने उनकी विद्या- बुद्धि के विषय में कई ट्रैक्ट छपाकर बाँटे थे। इंगलैंड वाले समझने लगे थे कि अब पूर्व से एक महात्मा का उदय होने वाला है। सारा इंगलैंड भारत माता के सपूत का स्वागत करने को तैयार था।" भारत और मिसर का भ्रमण" पुस्तक के लेखक- लेफ्टिनेंट कर्नल फीट सक्लारेंस ने लिखा था- "वे (राममोहन राय) संस्कृत के ही पंडित नहीं बल्कि अंग्रेजी के भी बडे़ विद्वान् है। अंग्रेजी हमारी मातृभाषा है, पर वे ऐसी ही धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलते थे जैसा एक अंग्रेज वक्ता बोलता है। उन्होंने स्पष्ट रूप से सिद्ध कर दिया है कि हिंदू धर्म शुद्ध एकेश्वरवादी है।
उन्होंने धार्मिक विषयों पर जो कुछ लिखा था, वह इतना विद्वतापूर्ण था कि फ्रांस के लोगों ने उनको बुलाकर उनका स्वागत समारोह किया। फ्रांस के सम्राट् लुई फिलिप ने उनको बुलाकर सम्मान किया, उनके साथ एकटेबिल पर बैठकर भोजन किया। पेरिस की एशियाटिक सोसायटी ने उनको अपना 'सम्मानित सदस्य' (आनरेरी मेंबर) बनाया। महाकवि टॉमस मूर ने एक प्रसिद्ध होटल में उनको दावत दी। उन्होंने अपनी डायरी में राजा राममोहन राय की बडी़ प्रशंसा लिखी है। यह है उनकी विद्वता और महानता का प्रमाण कि फ्रांस जैसे दूरवर्ती देश में, जहाँ की भाषा भी वे नहीं जानते थे और जहाँ केवल दो- चार मास के लिए भ्रमण करने को गये थे, उनका इतना आदर किया गया और उनके कारण भारतवर्ष और भारतीय धर्म का भी महत्त्व स्वीकार किया गया, पर यहाँ अपने देश में 'शास्त्री जी और भट्टाचार्य जी' की दृष्टि में वे 'नास्तिक, पतित और जाति बहिष्कृत' ही बने रहे ! अब पाठक स्वयं ही विचार करें कि इन दोनों में से किसको हिंदू- धर्म का भक्त, सेवक और रक्षक माना जाये?
विलायत और फ्रांस में इस प्रकार ईसाइयों द्वारा सम्मानित किए जाने और गिर्जाघरों में जाकर प्रार्थना करने का आशय यह नहीं था कि उन्होंने अपनी जाति और धर्म को त्याग दिया था। विलायत में रहकर भी वे अपनी 'ब्रह्म उपासना' उसी प्रकार करते थे और वहीं पर देहांत हो जाने पर जब उनके शव से वस्त्र उतारे गये तो शरीर परयज्ञोपवीय मौजूद था। मरने से पहले वे यह भी कह गये थे कि उनको ईसाइयों के कब्रिस्तान में न दफनाया जाये वरन् हिंदुओं की विधि से अलग स्थान में स्माधि दी जाये।