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Books - राजा राम मोहन राय

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First 8 10 Last
उपर्युक्त शास्त्रार्थ मूलक पुस्तकों के सिवा राममोहन राय ने और भी बहुत- सी उपयोगी पुस्तकें लिखकर प्रकाशित कीं, 'ब्रह्मनिष्ठ गृहस्थ के लक्षण' नामक पुस्तक में उन्होंने समझाया कि सच्चे ब्रह्मनिष्ठ को संसार में रहकर कैसा व्यवहार करना चाहिए? 'गायत्री उपासना का विधान' में उन्होंने लिखा कि "बिना वेद पढे़ हुए गायत्री के ही द्वारा ब्रह्म की उपासना हो सकती है। जो ब्राह्मण गायत्री का नियमित जप करता है, वह अज्ञात रूप से ब्रह्म की ही उपासना करता है।" 'अनुष्ठान' नामक पुस्तक में उन्होंने उपासना का रहस्य समझाया और उपदेश दिया कि जो मनुष्य तुमसे भिन्न प्रकार से उपासना करता हो, उससे कभी द्वेष मत करो। तुम परमेश्वर की उपासना करते हो और दूसरे धर्म वाले भी उसी की उपासना करते हैं, तब तुममें और उनमें खास भेद क्या है? उपासना की विधि, उपासना में आहार- विहार के नियम, उपासना की दृष्टि से देश, दिशा और काल के कोई नियम हो सकते हैं या नहीं, उपासना का उपदेशक कौन बन सकता है?- आदि बातों पर उन्होंने प्रमाण सहित अच्छा विवेचन किया है। इसके पश्चात् उन्होंने 'ब्रह्मोपासना' नामक पुस्तक में 'ब्रह्म समाज' में उपासना के नियमों और विधान का विशेष रूप से वर्णन किया।

'प्रार्थनापत्र' नामक पुस्तक में राममोहन राय ने सब मतों के प्रति उदार भ्रातृ- भाव रखने का उपदेश दिया है। उन्होंने सब मतों का स्वयं गहरा अध्ययन किया था। वे अरबी के विद्वान थे और कुरान को सामने रखकर ही मुसलमानों को एकब्रह्म की उपासना का रहस्य समझाते थे। 'बाइबिल' को उन्होंने केवल अंग्रेजी में ही नहीं, ग्रीक और हिब्रू भाषा में भी ध्यानपूर्वक पढा़ था और इस कारण वे ईसाई धर्म के तत्व को पादरियों की अपेक्षा भी अच्छी तरह प्रकट कर सकते थे। इस प्रकार के विस्तृत अध्ययन से उनके विचार बहुत उदार हो गये थे। इसलिए इस पुस्तक में उन्होंने यही शिक्षा दी है कि सच्चे धार्मिक व्यक्ति को कभी संकुचित विचार मन में नहीं लाना चाहिए। क्षुद्रता को त्यागना चाहिए। संसार के सब मतों और उनके अनुयायियों को अपना भाई समझना चाहिए।

'ब्रह्म- संगीत' में अपने और कुछ मित्रों के बनाये गायनों का संग्रह किया है। एक बार जब 'कलकत्तागजट' में किसी लेखक ने उन पर यह आक्षेप किया कि वे अपनी 'आत्मीय सभा' में मूर्तिपूजकों के समान ही नाच- गाना कराते हैं तो उन्होंने उत्तर दिया था कि "हमारी उपासना में नाच कभी नहीं हुआ, पर संगीत जरूर होता है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने उपासना के समय संगीत की आज्ञा दी है। संगीत से मनुष्य के मन में एक दृढ़ भावना पैदा होती है।" उनके संग्रहीत इन संगीतों का उनके सामने ही काफी प्रचार हो गया और यह पुस्तक तीन- चार बार छापी गई। इसके बाद तो यह ब्रह्म- समाज की मुख्य पाठ्य पुस्तक बन गई और पचासों बार छपवाकर प्रचारित की गई। इसके गायन ऐसे आध्यात्मिक भावना से परिपूर्ण थे कि ब्रह्मसमाजी ही नहीं मूर्तिपूजक भी इसका बडा़ आदर करते थे।

इस प्रकार ब्रह्मज्ञान की चर्चा उठाकर राममोहन राय द्वारा हिंदू- समाज की जाग्रति का एक बडा़ कदम उठाया गया। उत्तर भारत के अन्य प्रांतों की तरह बंगाल में भी बहुत समय से वेद और उपनिषदों की चर्चा बंद हो गई थी। संस्कृत पाठशालाओं में पंडितगण पुराण, स्मृति, न्याय आदि की शिक्षा ही शिष्यों को देते थे। हिंदू मात्र स्वीकार करते थे कि धर्म का मूल वेद ही है, पर वेद के संबंध में उनकी जानकारी नाममात्र को थी। जब लोगों ने राममोहन राय के मुख से 'वेद ब्राह्मण', 'गृह्य सूत्र', वेदांत भाष्य' आदि का नाम सुना और उनके मंत्रों के आधार पर ही उनको 'एकेश्वरवाद' (एक ही परमात्मा) का प्रतिपादन करते देखा, तो पुराने ढर्रे के पंडित हक्के- बक्के रह गये, इसके फल से लोगों में फिर से अपने इस प्राचीन साहित्य की चर्चा आरंभ हुई, मैक्समूलर साहब ने समग्र वेदों के प्रकाशन की योजना की और स्वामी दयानंद आदि ने हिंदी प्रांतों में 'वेदों का झंडा' उठाकर प्राचीन भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने का कार्य आरंभ किया। इस प्रकार आधुनिक समय में सर्वसाधारण में वैदिक ज्ञान और उपनिषदों की अध्यात्म- विद्या के प्रचार का सर्वप्रथम श्रेय राममोहन राय को ही है।

राममोहन राय ने ब्रह्मज्ञान और विविध कर्मों के समन्वय पर संस्कृत, बंगाली, हिंदी, अंग्रेजी, फारसी, अरबी आदि भाषाओं में जितने ग्रंथ लिखे उनको देखकर लोग उनके परिश्रम पर आश्चर्य करने लगते हैं। उनके छोटे और बडे़ सभी ग्रंथो का निरीक्षण करने से विदित होता है कि उन्होंने प्रत्येक को बहुसंख्यक ग्रंथों का अध्ययन और मनन करके ही लिखा है। असाधारण बुद्धि और स्मरण शक्ति के साथ ही उनका परिश्रम भी असीम था। वे रात के दो- दो, तीन- तीन बजे तक जागकर पढ़ते और लिखते थे। इस प्रकार उन्होंने हिंदू- समाज के सुधार के लिए कितना परिश्रम किया और बदले में हजारों व्यक्तियों द्वारा अपशब्द और गालियाँ सहन कीं, इस पर विचार करने से उनको 'हिदू- धर्म' की पदवी देना यथार्थ ही जान पड़ता है। 

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