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Books - संसार चक्र की गति प्रगति

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दिव्य लोकों से बरसने वाला शक्ति प्रवाह

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हमारे ज्ञान का 83 प्रतिशत भाग नेत्रों के माध्यम से आकर मस्तिष्क को प्रभावित करता है। इस दृष्टि दर्शन का माध्यम है प्रकाश। प्रकाश के आधार पर ही नेत्र देख पाते हैं। नेत्र स्वस्थ होते हुये भी—प्रकाश के अभाव में कुछ देख नहीं सकते। अंधेरे में उनकी क्षमता कुण्ठित हो जाती है। साथ ही ज्ञान द्वारा भी बन्द हो जाता है। अध्यात्म परिभाषा में ज्ञान और प्रकाश एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। प्रकाश दर्शन का जहां भी तात्विक विवेचना में उल्लेख हुआ होगा वहां रोशनी नहीं वरन् ज्ञान गरिमा की ही चर्चा रही होगी।

जैसे जैसे हमारे ज्ञान का विस्तार हो रहा है उसी प्रकार भौतिक प्रकाश की विशालता के भी परत खुलते चले जा रहे हैं। हमारे नेत्र सात रंग की प्रख्यात प्रकाश किरणों को ही देख पाते हैं पर अब विदित हो चला है कि नेत्रों की पकड़ से बाहर भी उसकी विशालता दृश्यमान ज्योति की तुलना में अत्यधिक विस्तृत है। ब्रह्माण्ड किरणें, गामा किरणें, एक्स किरणें, परा वेंगनी प्रकाश, ऊष्मा तरंगें, रेडियो तरंगें, प्रकाश परिवार के अन्तर्गत ही आती हैं।

इन सब में शक्तिशाली और अद्भुत हैं—ब्रह्माण्ड किरणें। अनन्त आकाश से विद्युत चुम्बकीय किरणों की इस धरती पर निरन्तर वैसी ही वर्षा होती रहती है जैसे वर्षा ऋतु में बादलों से पानी की या दिन में सूर्य से ऊष्मा की वर्षा होती है। कुछ समय पहले गामा किरणें शक्ति की दृष्टि से अग्रणी मानी जाती थीं पर अब विज्ञान जगत का ध्यान ‘ब्रह्माण्ड किरणों’ पर केन्द्रित है। शक्ति स्रोत के रूप में उन्हें ही अब सर्वोपरि माना जाता है। इन इन्द्रियातीत किरणों को विज्ञान की भाषा में कास्मिक रेज कहते हैं। धरती से 30 किलोमीटर ऊपर जाने पर वायु मण्डल में कुछ विशिष्ट परमाणुओं की वर्षा होती हुई अनुभव में आती है। अन्वेषण बताता है कि ये कण परमाणु नहीं—वरन् उनके ‘नंगे नाभिक’ हैं। परमाणु तो एक सौर परिवार की तरह हैं जिसके मध्य ‘नाभिक’ रहता है और चारों ओर परिक्रमा करने वाले इलेक्ट्रोन गतिशील रहते हैं। किन्तु ब्रह्माण्ड विकरण में इलेक्ट्रॉनों से रहित नंगे नाभिक ही होते हैं, इनमें से कम शक्ति वाले तो पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति से खिंचकर ध्रुवीय क्षेत्रों की ओर चले जाते हैं और शेष शक्तिशाली कण पृथ्वी के वायु मण्डल में प्रवेश करते हैं। तब वायु मण्डल के परमाणु नाभिकों और ब्रह्मांड किरण नाभिकों से टक्कर होती है। इस संगम समन्वय से नई जाति के कणों का जन्म होता है। इन्हें मेसोन हाईपरोन, ऋण न्यूक्तियोन, आदि नामों से जाना जाता है। इतने पर भी इन ब्रह्माण्ड किरणों का अस्तित्व समाप्त नहीं होता ये वायु नाभिकों से टकराती—नये नाभिकों को जन्म देती हुई पृथ्वी तल तक चली आती हैं। हां उनका वह रूप नहीं रहता जो वायु मण्डल में प्रवेश करने से पूर्व था। यहां वे बहुत कुछ बदली हुई स्थिति में होती हैं। पृथ्वी पर अब तक 3 से भी अधिक परमाणु तत्वों की खोज की जा चुकी है। इन्हें विनिर्मित, विकसित और गतिशील बनाने में जिस सिक्रोट्रोन तत्वों को श्रेय है वह ब्रह्माण्ड किरणों की ही प्रतिकृति है। इस एक शब्द में अनन्त शक्ति का उद्गम कहना चाहिए। जेनेवा में स्थापित प्रोट्रॉन सिक्रोट्रोन 27 अरब इलेक्ट्रोन वाल्ट शक्ति के ‘वीम’ पैदा कर सकता है। ब्रह्माण्ड विकरण के कुछ कण तो इससे भी 10 लाख गुने अधिक शक्तिशाली हैं।

यह ब्रह्माण्ड किरणें कहां से आती हैं इनका उद्गम स्रोत कहां है? इसका अन्वेषण करते हुए यह पता लगा है कि इस निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त कोटि-कोटि तारा गणों में कुछ बूढ़े होकर मरते रहते हैं और उनके मरण से नये तारकों का जन्म होता है। यह नये तारे जब अस्तित्व में आते हैं तब उनकी उम्र ऊर्जा जिस परिधि में बिखरती है वहां उसे ब्रह्माण्ड किरणों के विकरण के रूप में अनुभव किया जाता है। वृद्ध तारकों के मरण अवसर पर अति उच्च तापमान के कारण ही हीलियम, हाइड्रोजन आदि तत्व की ज्वलन प्रक्रिया से भयंकर विस्फोट होता है और वह तारा टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाता है। इस विस्फोट की आभा लगभग एक महीने तक आकाश में दृश्यमान रहती है। यह विस्फोट जन्य पदार्थ नये ढंग से एक नये तारे के रूप में प्रकट होता है—इसे विज्ञानी—सुपर नोवा—कहते हैं। यह अभिनव तारक ही ब्रह्माण्ड किरणों का उद्गम स्रोत होता है। वर्तमान अभिनव तारक का नामकरण ‘क्रैव नेवुला’ के नाम से प्रख्यात है। तारों की मरण-जन्म प्रक्रिया प्रायः 300 वर्षों में एक बार देखने को मिलती है। अभिनव तारक का ज्योति पुंज हमसे लगभग 3000 प्रकाश वर्ष दूर है। इसका व्यास 5 प्रकाश वर्ष है।

अपनी आकाश गंगा में मात्र तारे ही भरे नहीं हैं उसके मध्याकाश में विरल गैस तथा धूलि से बने हुए ऐसे विशालकाय बादल भी हैं जो निरन्तर विचरण करते रहते हैं। ‘क्रेव नेवुला’ ने निकली हुई ब्रह्माण्ड किरणें कुछ तो सीधी पृथ्वी पर आती हैं कुछ इन बादलों से टकरा कर बिखर जाती हैं और उनका धरती पर अवतरण सभी दिशाओं में होने लगता है।

धरती के विभिन्न प्रयोजनों में संलग्न—विभिन्न प्रक्रियाओं को सम्पन्न करने में तत्पर—महाशक्ति, धरती की अपनी उपज नहीं है वह अन्यत्र से आती है। धरती उसका उपयोग भर करती है। उपयोग भी इतना कम जिसे पर्वत की तुलना में राई जितना समझा जा सके। शेष शक्ति तो ऐसी ही बिखरती रहती है और अव्यवहृत हुई फिर किसी अज्ञात दिशा में ही चली जाती है।

सन् 69 में जब पहली बार मनुष्य ने चन्द्रमा पर अपने चरण रखे तो लेसर किरणों के बारे में और भी नयी जानकारियां प्राप्त करने के लिये, नये प्रयास किये।

लेसर किरणें और योगी सिद्धि

जब अपोलो 11 के अन्तरिक्ष यात्री आर्मस्ट्रांग और एडविन ल्एड्रन चन्द्रमा-तल पर उतरे थे तो वहां उन्होंने अनेक यन्त्रों के साथ ‘लेजर’ नामक एक यन्त्र भी स्थापित किया था। पाठक बहुत कम जानते होंगे कि यह ‘लेजर’ यन्त्र ही है जो भारतीय योग शास्त्रों में वर्णित सिद्धियों की सम्भावना को सत्य प्रमाणित करने लगा है इस यन्त्र का जिस दिन पूर्ण ज्ञान हो जायगा, उस दिन ऊपर दी हुई घटनाओं की तरह वैज्ञानिक भी कहीं भी बैठे-बैठे खेल की तरह चाहे किसी के मन की बात जान लेंगे। एक क्षण में चन्द्रमा, मंगल, शुक्र, शनि, यूरेनस नेपच्यून आदि किसी भी ग्रह की बात जान लिया करेंगे। यही नहीं, भारी-से-भारी बोझ की वस्तुएं कहीं-से-कहीं पहुंचा दी जाया करेंगे और लोगों को उनका पता भी न चला करेगा। ‘लेजर’ इस युग का जीता-जागता तिलस्म ही है।

चन्द्रमा पर यह इसलिये लगाया गया है कि वहां होने वाली किसी भी हलचल को सेकेण्डों में धरती तक पहुंचा देता है। यहां के वैज्ञानिक क्षण भर में मालूम कर लेते हैं कि चन्द्रमा में क्या हो रहा है? सन् 1962 में आविष्कृत इस यन्त्र का पहला प्रयोग 9 मई को 8 बजकर 55 सेकेण्ड पर लेक्सिंग्टन (बोस्टन के पास) में किया गया। अनेक वैज्ञानिक और सम्भ्रांत व्यक्ति वहां एकत्रित थे। जैसे ही प्रो. लुई स्मलिन ने बटन दबाया कि बहुत बारीक, धागे के आकार में प्रकाश का रश्मि-समूह (बीम आफ रेज) निकली और आकाश को चीरती हुई कुल 13 सेकेण्ड में चन्द्रमा पर जा पहुंची। अल्बा टेनियस ज्वालामुखी के पास उसने 2 मील का प्रकाश-बिम्ब बना दिया। फिर थोड़ी ही देर में वहां से टकराकर वह पुनः वेधशाला में लौट आया।

यह यन्त्र चन्द्रमा में लग जाने से चन्द्रमा और सुदूर ग्रहों की हरकतों की शोध करना ऐसे सम्भव हो गया है जैसे हम मकान की किसी ऊंची छत पर बैठकर पास-पड़ौस के लोगों की सब गतिविधियां देख लेने की स्थिति में आ जाते हैं। इस यन्त्र की शक्ति इतनी भयंकर है कि कठोर-से-कठोर होने पर यदि इसकी एक हलकी-सी ही किरण फेंक दी जाय तो वह 1।200000000 सेकेण्ड में ही उसे छेदकर रख देगी। इन दिनों अमेरिका में इस पर 2000 वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं। लगभग 400 प्रयोगशालाओं में लेजर के विभिन्न उपयोग पर प्रयोग चल रहे हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस यन्त्र का विकास करके संसार के किसी भी भाग में बैठे सैनिकों को, उनके हवाई अड्डों और साज-सामान को पल भर में ही नष्ट-भ्रष्ट कर डालना सम्भव हो जायेगा। अनुमान है कि अमेरिका ने किसी एक लेजर बन्दूक बना भी ली है, जिसमें गोली की कोई आवश्यकता नहीं होती, नियन्त्रित लेजर किरणें ही यह काम कर देती हैं।

इस शक्ति के उपयोग ध्वंसात्मक ही नहीं हैं, वरन् उसका पूर्ण विकास हो जाने पर उससे अनेक प्रकार के मानवोपयोगी और जीवन में काम आने वाले अद्भुत कार्य भी सम्पन्न किये जा सकेंगे। इस यन्त्र की मदद से विश्व के किसी भी भाग में बैठे किसी भी व्यक्ति से वैसी ही बातचीत करनी सम्भव हो जायेगी जैसे कोई योगी किसी दूरस्थ व्यक्ति को अपने संकल्प-बल से ही कोई सन्देश पहुंचा देता है। जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपनी मां को वचन दिया था कि जब वह मरणासन्न होंगी, अन्तिम दर्शनों के लिये हम अवश्य आयेंगे। मृत्यु के समय उनकी मां ने उन्हें स्मरण किया। तब जगद् गुरु उत्तर-भारत की यात्रा पर थे, उस समय ऐसे कोई यन्त्र टेलीफोन आदि नहीं थे फिर भी वह उस परावाणी को पकड़ने में सफल हो गये थे और घर जाकर मां से मिले व मां का अन्तिम दाह संस्कार भी अपने हाथों से किया था।

टेलीविजन का स्थान कुछ दिनों में ‘लेजर’ ले सकता है, तब कोई भी व्यक्ति संजय की तरह चलता-फिरता कहीं के भी दृश्य देख सकेगा और यह सिद्ध हो जायेगा कि योगियों की तीसरे नेत्र की कल्पना गल्प नहीं है। भूमध्य में अवस्थित—प्राण चक्र उसी का दूसरा रूप है जिसके द्वारा मन संसार में कहीं भी हो रहे युद्ध भी देख व नृत्य गीत और सार्वजनिक आयोजन का बिना टिकट आनन्द भी ले सकता है।

‘लेजर’ का सिद्धान्त ‘मन के द्वारा चमत्कार’ के सिद्धांत का समानांतर ही है। ‘लेजर’ अंग्रेजी के ‘लाइट एंप्लिफिकेशन बाई स्टिम्युलेटेड एमिशन आफ रेडिएशन’ से निकाला गया संक्षिप्त नाम है। उसका अर्थ होता है—विश्वव्यापी विकिरण शक्ति को उत्तेजित करके एक बिन्दु से प्रकाश के रूप में ढाल देना’ अर्थात् आकाश में फैले हुए प्राकृतिक परमाणुओं की शक्ति सामान्यतः इधर-उधर अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई होती है। उसे रेडिप्लैटिनस धातु की छड़, हीलियम या किष्टान गैस के माध्यम से प्रवाहित होने को विवश कर दिया जाता है, जिससे अनन्त आकाश में भरी परमाणु शक्ति काम करने लगती है। जो लोग परमाणु की इस शक्ति से परिचित हैं वे अनुमान कर सकते हैं कि इन लाखों परमाणुओं का उपयोग करने वाले यन्त्र की क्षमता कितनी अधिक भयंकर और वीभत्स होगी। अमेरिकी वैज्ञानिक और वायुसेना के प्रधान जनरल श्री कर्टिस ई. लीमे ने ठीक ही कहा है कि ‘लेजर’ किसी महाद्वीप के प्रक्षेपणास्त्रों को भी क्षण भर में नष्ट-भ्रष्ट करके रख डालने की सामर्थ्य रखता है। फिलाडेल्फिया के फ्रैंकफोर्ड शस्त्रनिर्माण फैक्ट्री में बन रहे यन्त्र इस बात के प्रमाण हैं। अनुमान है कि इन यन्त्रों का निशाना कभी चूकेगा नहीं और एक सेकेण्ड में 186000 मील तक के व्यक्ति को भी धराशायी कर देगा।

लेजर यन्त्र की कल्पना सर्वप्रथम 1951 में डा. चार्ल्स टाउन्स ने की थी। उन्होंने सोचा आकाश में कितनी गैसें भरी पड़ी हैं, वे इधर-उधर चक्कर काटती रहती हैं। इन व्यूहाणुओं को यदि किसी यन्त्र द्वारा ऊर्जा में बदला जा सके तो उस शक्ति का पारावार न रहे। इसी कल्पना ने ‘लेजर’ यन्त्र को जन्म दिया।

मन भी हीलियम या क्रिप्टान गैस जैसी ही सूक्ष्म शक्ति या क्रिस्टल है। भारतीय तत्व दर्शन के अनुसार अन्न की सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवस्था ही मन है। अन्न से शरीर में रस बनता है फिर क्रमशः रक्त, मांस, मज्जा, मेदा, अस्ति और वीर्य बनते हैं। यही वीर्य बाद में अन्तःकरण चतुष्टय—मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में बदलता है। तात्पर्य यह है कि मन भी एक प्रकार का सूक्ष्म पदार्थ ही है। प्रकाश संश्लेषण (फोटोसंथेसिस) के लेख में पाठकों ने पढ़ा होगा कि वृक्षों के विकास में 95 प्रतिशत भाग सूर्य किरणों का है जो फल या अन्न में भी सोख (आब्जर्व) जाता है। शरीर एक ऐसा यन्त्र है जो इन प्रकाश कणों को फिर एक स्थान पर ला देता है उसे ही मन कहते हैं। इस तरह मन प्रकाश या सूर्य की तरह एक शक्ति और पदार्थ ही है।

जर्मन विद्वान् हेकल की पुस्तक विश्व की समस्या (दि राइडिल आफ यूनीवर्स) के उत्तर में डा. लाज ने लिखा है कि—हेकल भी यह मानते हैं कि प्रकृति (मैटर) और शक्ति (फोर्स) का अभाव नहीं हो सकता। वे किसी-न-किसी रूप में बने रहते हैं। इसे उन्होंने ‘विश्वव्यापक नियम’ (यूनिवर्सल ला) या ‘सृष्टि का मौलिक नियम’ (फन्डामेन्टल कास्मिक ला) कहा है। इसी प्रकार प्राण (लाइफ), मन (माइन्ड) और अहंकार (कान्ससनेस) भी अलग-अलग पदार्थ हैं। विज्ञान ने अभी तक इन्हें शक्ति नहीं माना है पर मेरा सिद्धान्त है कि प्राण आकाश में रहता है और मन उसका उच्चतर विकास है, ये सब आकाश में स्थित हैं और पदार्थ की शक्ति का नियन्त्रण कर सकते हैं।’

सूक्ष्म तरंगों की अपार शक्ति

विज्ञान की आकाश में गहरी रुचि और अध्ययन अनुसंधान जिन रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन कर रहे हैं, वे भारतीय तत्वदर्शन के निष्कर्षों को ही पुष्ट कर रहे हैं। बीसवीं शताब्दी के पहले तक भौतिक विज्ञान भारतीय तत्वदर्शन की वैदिक काल से चली आ रही इस मान्यता का उपहास उड़ाता था कि आकाश पोला नहीं है, बल्कि हमारे शरीर की और पृथ्वी की संरचना में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है तथा वह ईश्वरीय चेतना के सर्वाधिक निकट है।

सर्व प्रथम बीसवीं सदी की शुरुआत में यानी 1901 रेडियो संसार के अन्वेषक मारकोनी द्वारा रेडियो तरंगों की खोज और प्रमाण द्वारा उसकी पुष्टि से ही वैज्ञानिकों ने जाना कि वायु-मण्डल के अतिरिक्त भी कुछ शक्ति तरंगें विद्यमान हैं। अब विज्ञान अपना बचपन पूरा कर किशोर हो चुका है और तरुणाई का दिन आने की प्रतीक्षा की जा रही है। इधर वैज्ञानिकों का ध्यान तेजी से आकाश की गहराइयों की ओर गया है। ब्रह्माण्डीय किरणों तथा आकाश के उच्च ऊर्जा सम्पन्न व अदृश्य गुणों वाले सूक्ष्म कणों के अध्ययन से प्रकृति के गूढ़तम रहस्यों के उद्घाटन की सम्भावना है। इससे माइक्रोस्म के गुणों की जानकारियां मिल सकेंगी तथा गैलेक्सी में एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में चल रही कई रहस्यमय गतिविधियों को समझा जा सकेगा।

भौतिकीविद् प्राथमिक कणों की लगातार खोज कर रहे हैं। क्योंकि उनकी मान्यता है कि प्राथमिक कणों के गुण-धर्मों के बोध से ही विश्व की उत्पत्ति तथा विकास-क्रम को समझा जा सकेगा। प्राथमिक कण का अर्थ है द्रव्य की वह सबसे छोटी इकाई या वह मूल कण, जिसमें सभी बड़ी इकाइयों का संयोजन हो सका है। स्पष्ट है कि प्राथमिक कण केवल कोई एक विशेष कण ही हो सकते हैं। पर इस अर्थ में अभी तक किसी प्राथमिक कण की खोज नहीं की जा सकी है। इसलिए अभी तो भौतिकवेत्ता प्रोट्रॉन, न्यूट्रॉन आदि सौ से भी अधिक कणों को प्राथमिक कण कहते हैं।

बीसवीं सदी के प्रारम्भ में द्रव्य की सबसे छोटी इकाई परमाणु (एटम) को माना जाता था। जो एक इंच के 20 करोड़वें भाग के बराबर होते हैं। ये भी कई प्रकार के थे, प्रत्येक तत्व के पृथक-पृथक परमाणु। इनमें सर्वाधिक सरल परमाणु हाइड्रोजन तत्व का है, जिसके नाभिक में एक प्रोटान होता है और एक इलेक्ट्रान उसकी परिक्रमा करता है अन्य तत्वों में केन्द्रक में प्रोटान तथा न्यूट्रॉन होते हैं और इलेक्ट्रान उनके चक्कर काटता है। परमाणु के विखण्डन द्वारा प्रोटान, इलेक्ट्रान का पता लगते ही यह तो स्पष्ट हो ही गया कि परमाणु प्राथमिक कण नहीं हैं।

न्यूट्रॉन की खोज होने पर ही परमाणु-ऊर्जा और परमाणु-बम दोनों बने। ‘न्यूट्रॉन-भौतिकी’ नामक नई विज्ञान शाखा चल पड़ी।

इधर वैज्ञानिक अन्वेषों से ज्ञात हुआ कि परमाणु के सूक्ष्म विश्व में प्रत्येक कण का एक प्रतिकण विद्यमान है। ऐसे ऋणावेशा कण इलेक्ट्रान हैं तो उसका विरोधी, धनावेशी कण है—पॉजीट्रान। उसी तरह प्रत्येक कण का एक प्रतिकण है।

कण और प्रतिकण सब परस्पर पास आते हैं, तो विस्फोट होता है और ऊर्जा का उत्सर्जन होता है।

इस ऊर्जा की इकाई है—इलेक्ट्रान वोल्ट। किसी वस्तु को पेन्सिल की नोंक से हल्के से टक-टक करने से उस वस्तु के परमाणु को एक इलेक्ट्रानिक वोल्ट ऊर्जा मिल जायेगी। पर इस ऊर्जा से परमाणु में कोई गति या चंचलता नहीं आ सकेगी। 1 हजार से 10 हजार तक इलेक्ट्रान-वोल्ट ऊर्जा पाकर परमाणु के इलेक्ट्रान चंचल हो उठते हैं। इसी से रासायनिक द्रव्यों का संयोजन होता है। पर परमाणु का नाभिक अभी भी गतिशील नहीं होता। वह 1 लाख से 100 लाख इलेक्ट्रान-वोल्ट ऊर्जा से ही गतिशील होता है।

लाखों रुपयों की लागत से साइक्लोट्रोन आदि विशेष प्रकार के त्वरण यन्त्र बनाये जाते हैं जो प्रोटान आदि कणों को करोड़ों, अरबों इलेक्ट्रान वोल्ट ऊर्जा प्रदान करते हैं। प्रोटान धनावेशी कण है, ऋणावेशी इलेक्ट्रान इनका चक्कर काटते हैं।

जब न्यूट्रॉन का बीटा-विखण्डन होता है, तब प्रोटान, इलेक्आन तथा न्यूट्रिनों ये तीन कण उत्सर्जित होते हैं। वैज्ञानिक इस दिशा में तेजी से काफी काम कर रहे हैं। किन्तु प्राथमिक कणों की खोज अभी भी जारी है। अभी तक सात प्राथमिक कणों को वैज्ञानिकों ने कुछ वर्गों में बांट दिया है—जैसे लेप्ट्रोन, मेसोन, बोरिओन आदि। इनमें से फोटोन, न्यूट्रॉन और पॉजीट्रान स्थायी कण हैं। शेष अस्थायी कण हैं। फोटोन तथा न्यूट्रिनो का स्थिर द्रव्यमान शून्य है। इलेक्ट्रान और पॉजीट्रान का 1 स्थिर द्रव्यमान है। प्रोटोन का 1836 तथा न्यूट्रॉन का 1838 है।

न्यूट्रिनों का स्थिर द्रव्यमान शून्य है, इसका तात्पर्य यह है कि स्थिर न्यूट्रिनों नाम की कोई वस्तु नहीं। न्यूट्रिनो कण जन्म के साथ ही प्रकाश की गति से यानी 3 लाख किलोमीटर प्रति सैकिण्ड के वेग से दौड़ने लगते हैं। ये न्यूट्रिनो अन्य द्रव्य गणों के साथ बहुत मन्द परस्पर किया दर्शाते हैं। इसीलिये ये अन्य द्रव्य कणों से सामान्यतः टकराते नहीं। अतः न्यूट्रिनो, पृथ्वी पिण्ड से आर-पार हो जाते हैं। यहां तक कि सूर्य में से भी आर-बार हो सकते हैं। इन न्यूट्रिनों के भी प्रतिकण विद्यमान हैं—जिन्हें प्रतिन्यूट्रिनो कहते हैं।

खोजों से यह भी पता चला है कि आकाश में विद्युत कणों की अनेक परतों को आयनमंडल (आइनोस्फियर) कहते हैं। हमारी पृथ्वी आकाश में स्थित है। आयनमंडल पृथ्वी को सभी ओर से घेरे हुए हैं। विद्युत कणों की इन अनेक परतों में तीन मुख्य हैं। एयल्टन ने इन्हें ‘‘ई’’ ‘‘एफ’’ और ‘‘डी’’ परतें कहा है।

धरती की ऊंचाई पर काम वायुमंडलीय दबाव वाले क्षेत्र में अणु-परमाणु अपना ऋणाणु (इलेक्ट्रान) खो देते हैं। सूर्य इलेक्ट्रानों को तोड़ता है। यह क्रिया जितनी तीव्र होती है, आयनमंडल उतनी ही तीव्रता से पृथ्वी में मौसम आदि का नियन्त्रण करता है। साथ ही आयनमंडल लोगों के मन, हृदय और गुणों को भी प्रभावित करता है। इलेक्ट्रान के तोड़ लिए जाने के बाद अणु-परमाणुओं में केन्द्रक शक्ति शेष रहती है आयनमंडल में विद्यमान यह केन्द्रक-शक्ति ही लोगों के गुणों को, मन और हृदय को प्रभावित करती है। इससे पता चलता है कि केन्द्रक कोई मनोमय शक्ति है, मात्र भौतिक शक्ति नहीं।

पृथ्वी की ओर नीचे आने पर इन कणों की शक्ति घट जाती है। जैसे-जैसे वायुमण्डलीय दबाव पड़ता है, आयनमण्डलीय दबाव घटता है। क्योंकि पृथ्वी तक आते-आते उन कणों में धूलि कण व गैसों के कण मिल जाते हैं। अधिक ऊंचाई पर अधिक स्वच्छ वायु ही स्वास्थ्य को पुष्ट नहीं करती। प्रत्युत, मनोमय शक्ति वाले तथा अत्युच्च ऊर्जा वाले ये प्रकाश कण चित्त को प्रसन्नता, स्फूर्ति व शक्ति देते हैं। इस प्रकार ऊंचे स्थानों पर उत्तम स्वास्थ का शुद्ध वायु से भी बड़ा कारण ये सूक्ष्म कण होते हैं। ‘फोटोन’ की विलक्षण कर्तृत्व शक्ति ज्ञात हो चुकी है। फोटोन तथा न्यूट्रिनो दोनों निरन्तर गतिशील रहते हैं। इनके प्रतिकणों के भी गुण, धर्म जाने जा सके तो कई नये रहस्य सामने आयेंगे। इसीलिए इसी दिशा में तेजी से वैज्ञानिक गण अन्वेषण कर रहे हैं। क्योंकि अनुमान है कि विश्व की उत्पत्ति व विकास विस्तार में न्यूट्रिनो एवं प्रतिन्यूट्रिनो कणों का महत्वपूर्ण योगदान है। स्मरणीय है कि कुछ ही वर्षों पूर्व रूसी और अमरीकी वैज्ञानिकों को खोजों से पता चला कि प्रकृति में अत्युच्च ऊर्जा वाले कण विद्यमान हैं। एक एक्सीलरेटर से दस लाख इलेक्ट्रान वोल्ट तक की ऊर्जा के कण उत्पन्न किये जा सकते हैं। इसी क्रम में सायक्लोट्रान और वीटाट्रान का निर्माण हुआ है, जिनसे डेढ़ करोड़ इलेक्ट्रान वोल्ट की ऊर्जा वाले कण उत्पन्न किये जा सकते हैं। इतनी शक्ति से विशाल अन्तरिक्षयानों को ढोया और सुदूर नक्षत्रों तक पहुंचाया जा सकता है। पर प्रकृति के ऊर्जा कणों की शक्ति तो इससे बहुत अधिक है। आकाश की ‘कास्मिक’ किरणों में मेसान, हायपरान आदि अस्थिर कण हैं, जिनमें प्रचण्ड ऊर्जा है। ‘गैलेक्सी’ के केन्द्रीय क्षेत्र में सूर्य जैसे प्रायः 10 खरब नक्षत्र पुंज हैं। अब तक इस क्षेत्र में ज्ञात कुल तारों की संख्या दस घात चौबीस है। यह सम्पूर्ण विस्तार ही गैलेक्सी कहलाता है।

ज्योतिषी भौतिकी विदी (एस्ट्रा विजिसिस्ट्स) के अनुसार इस केन्द्रीय क्षेत्र में कणों को विघटन तेजी से होता है। तारों से अदृश्य कण निकल कर प्लाज्मा के रूप में पोले दीखने वाले आकाशीय क्षेत्र में फैल जाते हैं। इनके इस फैलाव से ही विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र तथा गुरुत्वाकर्षण आदि की क्रियाएं सम्पन्न होती हैं। ऐसे फैले हुए प्लाज्मा को आयनीकृत प्लाज्मा (आइनो स्फेरिक प्लाज्मा) कहते हैं। आइनोस्फेरिक प्लाज्मा द्वारा कई तरह के क्षेत्र बनते हैं। आइनोस्फेरिक प्लाज्मा के रूप में फैले ये कण ही विभिन्न विचारों, प्रक्रियाओं, घटनाओं दृश्यों वाले हलचल पूर्ण जगत का कारण हैं तथा उसे प्रभावित नियन्त्रित करते हैं। लाखों वर्षों से आवारागर्दी करते करते ये कण भूल ही गये हैं कि वे कहां से आये हैं।

ये भूले हुए कण की कास्मिक कणों के रूप में पृथ्वी की ओर भी आते रहते हैं। इन कणों में उच्च गति वाले प्रोटान तथा कई तत्वों के परमाणु होते हैं, इनमें अत्यधिक ऊर्जा होती है। इसी हलचल से एक्सटेन्डेड एयर शावर्स (फैले हुए वायु-शावरों) का निर्माण होता है। पृथ्वी की स्थूल हलचल इस प्रकार इन अनेक स्वभाव तथा गुणों वाले कणों के कारण ही होती है।

विचार तरंगें पैदा करने वाले आकाशस्थ कण अति सूक्ष्म होते हैं। इनका जीवन काल सैकिण्ड का भी अत्यल्प अंश ही होता है। उनका उद्भव और विनाश अनुमान में भी नहीं आ पाता। ये कण धन तथा ऋण दोनों आवेशों वाले होते हैं।

विचार तरंग पैदा करने वाले अत्युच्च ऊर्जा सम्पन्न कणों का संचय ध्यान-धारणा द्वारा सम्भव है। जिस देव-शक्ति (चेतन-शक्ति) की ध्यान-धारणा करेंगे, उसी प्रकार की क्षमताओं वाले सूक्ष्म ऊर्जस्वी कण व्यक्तित्व में संचित हो जायेंगे। इस तरह जो शक्तियां जितनी बलवान होती हैं, वे अपने उपासक को उतनी ही अधिक सिद्धि व सामर्थ्य दे पाती हैं। ये चित्-शक्तियां वस्तुतः नाभिकीय चेतनाएं न्यूक्लियर एक्टिविटीज) हैं। इनका कारण क्यू-मसान, न्यूट्रिनो और पाई-मेसान जैसे अत्यन्त सूक्ष्म कणों में से कोई भी हो सकते हैं। इन कणों तथा नाभिकीय- चेतनाओं पर गैलेक्सी के चुम्बकीय क्षेत्र भी प्रभाव नहीं डाल सकते हैं।

बम्बई के टाटा इन्स्टीट्यूट के प्रख्यात वैज्ञानिक डा. प्राइस की खोजों से प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार ये ऊर्जस्वित कण तथा ब्रह्माण्डीय किरणें जब ठोस पदार्थों से गुजरती हैं तो उन पर अपना प्रभाव छोड़ जाती हैं। इस प्रभाव को सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से देखा, परखा जा सकता है। जड़ पदार्थों में करोड़ों वर्ष पूर्व का इन चेतन किरणों का प्रभाव भी अभी भी विद्यमान है। इसका अर्थ है कि इन चेतन किरणों के अध्ययन, विश्लेषण तथा उनसे सम्पर्क की विधि ज्ञात हो गई तो ब्रह्माण्ड में अतीत में घटित होने वाली घटनाओं का दृश्य देखा जाना जा सकता है। इन ब्रह्माण्डीय किरणों के वर्ग भी अधिक नहीं है।

‘काल’ तत्व की गम्भीर विवेचना डबल्यू. एच. डन ने अपने ग्रन्थ ‘एक्सपेरीमेन्ट विथ टाइम’ में बताया है कि आमतौर से मनुष्य की चेतना समय से उस छोटे से केन्द्र पर जुड़ी रहती है जिसे वर्तमान कहते हैं। बन्धन की इसी जकड़न के कारण मन से इतना ही बन पड़ता है कि वह वर्तमान की समस्याओं और अनुभूतियों के क्षेत्र में अपनी हलचलें केन्द्रित रखे। किन्तु ऐसी भी स्थिति प्राप्त की जा सकती है जब चेतना को वर्तमान के बन्धन शिथिल करने का अवसर मिल जाय। गहरी सुषुप्ति भी ऐसी स्थिति हो सकती है। उस स्थिति में समय के अन्य दो आयाम भूत और भविष्य भी उसी तरह अनुभव की परिधि में आ सकते हैं जिस तरह के आमतौर से वर्तमान अनुभव में आता है। इसी प्रकार एअर शावर्स (वायु शावरों) में लाखों, करोड़ों अत्युच्च ऊर्जा सम्पन्न कण हैं, जिनकी हजारवें हिस्से की शक्ति ही विशाल अन्तरिक्षयानों को किसी भी ग्रहनक्षत्र तक पहुंचाने में समर्थ है।

वायु शावरों के अध्ययन से पता चला कि उनमें इलेक्ट्रान और पाजिट्रान कण भी सम्मिलित हैं। कॉस्मिक किरणों के वायु मण्डल में पहुंचने से विभिन्न भौतिक पदार्थों की रचना होती है। इन भौतिक पदार्थों की मानसिक क्रियाएं भी अब अध्ययन का विषय हैं। वैज्ञानिकों को विश्वास है कि सृष्टि के आविर्भाव काल से अब तक ब्रह्माण्ड के विस्तार के मूल तत्व इन स्थूल भौतिक पदार्थों में बीज रूप में विद्यमान हैं। उनका अध्ययन अनेक क्रियाएं उद्घाटित करेगा तथा असंख्य रहस्यों का भेदन करेगा। विचारों की तरंगें वही तत्व पैदा करते हैं जिस दिन तथ्य का उद्घाटन होगा कि विचार तरंगें आकस्मिक नहीं पैदा हो जातीं, बल्कि वे गणितीय नियमों के अनुसार तथा संकल्प के कारण निःसृत तथा विस्तृत होती हैं, उस दिन ब्रह्माण्ड-व्यापी चेतन-शक्तियों की भी जानकारी हो जायगी तथा उन चेतन-शक्तियों से मानसिक सम्पर्क की जरूरत महसूस होगी। क्योंकि इस मानसिक सम्पर्क से अनेक प्रकार की उपलब्धियां सम्भव हैं। इन चेतन-शक्तियों को ही देव-गण तथा उनके समन्वय को ईश्वर कहा जाता है। यह तो बताया ही जा चुका है कि अपनी आकाश गंगा में मात्र तारे ही नहीं भरे हुए हैं बल्कि इसके मध्य आकाश में गैस और धुलि से बने ऐसे विशालकाय बादल भी हैं जो निरन्तर विचरण करते रहे हैं और सौर नोबुल से निकल कर पृथ्वी तक पहुंचने वाली ब्रह्माण्ड किरणें धरती के विभिन्न प्रयोजनों को पूरा करती हैं। जिन किरणों का उपयोग नहीं होता वे अस्त-व्यस्त हो जाती हैं।

मनुष्य के पास भी अज्ञात और सूक्ष्म लोक से इस तरह की कितनी ही शक्तियां पहुंचती तथा अपने सदुपयोग के लिए आकुल व्याकुल होती रहती हैं। यदि उनका सदुपयोग नहीं किया तो वे ऐसे ही अस्त-व्यस्त हो कर बिखर जाती हैं या नष्ट हो जाती हैं।

शक्ति की तनिक सी उपलब्धि होने पर हम मदोन्मत्त हो जाते हैं। अच्छा स्वास्थ्य, चमकता सा रंग, रूप, तेज मस्तिष्क, मुट्ठी भर पैसा, तनिक सी सत्ता प्रशंसा पाकर हम अहंकार में इठे इठे फिरते हैं और समझते हैं न जाने क्या पा लिया और क्या बन गये। यह अहंवृत्ति अपने आपको और विराट् विश्व के स्वरूप को न जानने के कारण है। शक्ति के उद्गम पर यदि हम विचार करें तो पृथ्वी की समस्त हलचलों को प्रेरित करने वाली अन्तरिक्ष से अवतरित होने वाली ऊष्मा पर ध्यान जाता है। प्रकाश की महत्ता को समझने का प्रयत्न करते हुए उनसे बड़ी शक्ति धारा सामने आ जाती है। ब्रह्माण्ड किरणें कितनी अद्भुत कितनी भयंकर और कितनी उग्र हैं इसकी थोड़ी सी झांकी मिलते ही लगता है इस धरती को घेरे हुए महा शक्ति का समुद्र लहरा रहा है और उसमें हम मानव प्राणी मच्छरों की तरह अपना जीवनयापन कर रहे हैं।

शक्तिमान की महाशक्ति की तनिक सी झांकी ब्रह्माण्ड किरणों में होती है। उनकी भी प्रेरक दूसरी सत्ता मौजूद है। धरती उसे शक्ति के हाथों का एक नन्हा सा खिलौना है और हम सब हैं उस खिलौने से चिपके हुए रजकण। अपनी तुच्छ उपलब्धियों पर अहंकार करना वस्तुतः शक्ति के विराट् स्वरूप को न समझने के कारण ही होता है। यथार्थता को यदि समझ सके तो अपने नगण्य से अस्तित्व को समझें और विनयावनत होकर रहें।

यह तो भौतिक जगत में संव्याप्त एक भौतिक शक्ति किरण भर की बात हुई। ऐसी अनेक धारायें आकाश में भरी पड़ी हैं और वैज्ञानिक उनकी संभावनाओं तथा उपलब्धियों की पूर्व कल्पना करके यह आशा करते हैं कि अगली शताब्दी में मनुष्य के पास इतनी असीम शक्ति होगी कि वह परमात्मा के साधारण क्रम प्रवाह को इच्छानुसार पलट सके। परमात्मा ने मनुष्य के लिए इतनी अच्छी, सुविधा जनक और सुगम व्यवस्थायें कर रखी हैं जिनमें से अधिकांश का उसे कोई परिचय नहीं है फिर भी मनुष्य अपनी सीमित सामर्थ्य और स्वरूप क्षमता को ले कर ही इस प्रकार इठलाता है जैसे वही इस सृष्टि का सिरमौर, नियामक और सर्वश्रेष्ठ प्राणी है।
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