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Books - संस्कृति की अवज्ञा महँगी पड़ेगी

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भारतीय सभ्यता संस्कृति की विशेषता अपनाएँ

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भारतीय सभ्यता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जहाँ अन्य देशों ने अपने धर्म, सभ्यता, संस्कृति का सर्वोच्च लक्ष्य सांसारिक सुख और भोग की सामग्री प्राप्त करना समझ रखा है, भारतवर्ष का लक्ष्य सदा त्याग का रहा है। दूसरों के ''भोगवाद'' के मुकाबले में हम यहाँ की संस्कृति का आधार 'त्यागवाद' कह सकते हैं। अब यह स्पष्ट है कि जहाँ के मनुष्यों का लक्ष्य ''भोगवाद'' होगा, वहाँ दूसरों से और परस्पर में भी संघर्ष चलता ही रहेगा, क्योंकि संसार में जितनी भी भोग-सामग्री है, उसके मुकाबले में मनुष्य की तृष्णा कहीं अधिक बड़ी-चढ़ी है। ऐसी जातियों के व्यक्ति पहले विदेशी अथवा अन्य जाति के लोगों को लूटने-मारने का कार्य करते हैं और फिर जब बाहर का मार्ग रुक जाता है तो अपने ही देश-भाइयों पर हाथ साफ करने लगते हैं। उनके सामने कोई ऐसा आदर्श अथवा लक्ष्य नहीं होता, जिसके प्रभाव से वे ऐसे काम को बुरा समझें। उनको तो यही सिखाया गया है कि ''यह संसार सबलों के लिए है और यहाँ वही सफल मनोरथ होता है जो सबसे अधिक शक्तिशाली या संघर्ष के उपयुक्त होता है।''


इसके विपरीत भारतीय संस्कृति यह सिखलाती है कि इस संसार में जितनी भौतिक वस्तुएँ दिखलाई पड़ती हैं, उनका महत्त्व बहुत अधिक नहीं है, वे क्षणभंगुर हैं और किसी भी समय नष्ट हो सकती हैं। वास्तविक महत्त्व की चीज आत्म '' सत्ता या परमात्म तत्त्व ही है जो स्थायी और अविनाशी है। इसलिए मनुष्य को, जब तक वह संसार में है, भौतिक वस्तुओं का संग्रह और उपभोग तो करना चाहिए पर अपनी दृष्टि सदा उसी सत्य, आत्मतत्त्व पर रखनी चाहिए जो कि सब भौतिक वस्तुओं का आधार है और जिसमें मनुष्य को, जीवात्मा को सदैव निवास करना है। इस भावना के प्रभाव से मनुष्य स्वार्थांध होने से बचा रहता है और वह अपने हित के साथ दूसरों के हित की रक्षा का भी ध्यान रखने में समर्थ होता है। वह अन्याय और अत्याचार के कार्यों को पाप समझकर बचता है और इस प्रकार समाज में न्याय और सुख-शांति की स्थापना होती है। यही कारण है कि भारतीयों ने सब प्रकार की शक्ति प्राप्त करके भी कभी संसार को गुलाम बनाने की बात नहीं सोची और न कत्लेआम द्वारा किसी अन्य राष्ट्र का नाम-निशान मिटा देने का प्रयत्न किया। कोई समय ऐसा भी था कि संसार भर के धन का केंद्र भारत ही था और यहाँ सचमुच सोने और रत्नों के मंदिर और महल बनाए गए पर उसने धन को अपना आदर्श कभी नहीं बनाया और न उसके द्वारा अन्य देशों को अपने अधिकार में लाने की योजना बनाई। सब प्रकार के सांसारिक वैभव को भोगते हुए भी उसने सदैव यह ख्याल रखा कि उसके ऊपर एक और भी सत्ता है जो इस संसार की शक्तियों की अपेक्षा उच्चतर, दृढ़तर और शक्तिवान है। अगर वह अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करेगा तो वह सत्ता उसे दंड दिए बिना न छोड़ेगी। इसी अध्यात्म भावना के आधार पर उसका जीवन सदैव संयमयुक्त बना रहा और वह सब मनुष्यों को ही नहीं समस्त प्राणियों को एक ही परमपिता के बनाए मानकर करुणा और प्रेम का पात्र समझता रहा; यहाँ की संस्कृति में शोषण का सिद्धांत, जो वर्तमान समय में भौतिकवादियों का मूल मंत्र बना हुआ है, कभी स्वीकार नहीं किया गया और सदा यह घोषणा की गई—आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत।


* * *


पर हित सरिस धर्म नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहि अधमाई।


भारतीय संस्कृति की यही शाश्वत सनातन मान्यता है।
First 11 13 Last


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