
हम आपस में लड़-मर न जाएँ
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और मित्रो क्या होगा? वे परिस्थितियाँ आ जाएँगी, जो यादवों के समय आ गई थीं। यादवों ने यादवों को खा लिया। यादवों को बाहर वालों ने नहीं मारा था। यादवों में गृहयुद्ध हुआ था और वे आपस में लड़कर मर गए थे। खानदान वाले खानदान वालों से ही लड़ मरे थे। तो क्या होने वाला है? बेटे! हम और आप आपस में लड़ेंगे और एक-दूसरे को मारकर खा जाएँगे। आदमी एक-दूसरे को दाँतों से चीर डालेगा। ऐसा संभव है? हो बेटे! अभी थोड़ी कमी है। अभी हम दाँतों से नहीं चीरते हैं। अभी हम आपको अक्ल से चीरते हैं। हम कोशिश करते हैं कि अक्ल से आपको इस तरीके से चीरें कि आपका सारा का सारा खून निकाल लें और आपको कोई बाहरी जख्म भी न होने पाए। अभी हममें इतनी भलमनसाहत और शराफत है। अभी हम आपका खून निकालना चाहते हैं, पर जख्म दिखाना नहीं चाहते; क्योंकि उससे हमारी निंदा होगी, बदनामी होगी, लोगों को मालूम पड़ जाएगा। अभी मालूम नहीं पड़ने देना चाहते हैं कि हम आपका खून निकालना चाहते हैं, ताकि आप इतने कमजोर हो जाएँ कि आपको मारने का हमारा मकसद पूरा हो जाए। हम आपका माँस खाना और खून पीना चाहते थे, वह मकसद हमारा पूरा हो गया है और आप जिंदा भी बने रहे।
साथियो! अभी कुछ भलमनसाहत जिंदा है, लेकिन अगर संस्कृति की सीता चली गई तो कल क्या होने वाला है, कह नहीं सकते। तब फिर आदमी को कोई एतराज नहीं होगा। अभी एक कुत्ते के मुहल्ले से दूसरा कुत्ता निकलता है। बिना वजह के उसने माँगा नहीं है, कुछ उधार नहीं चाहिए कुछ कर्ज नहीं चाहिए। उसका किसी से कोई लड़ाई -झगड़ा नहीं है। कोई मुकदमेबाजी नहीं है, लेकिन उस गली से निकलते ही एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को चीर डालता है। आप भी चीरेंगे। क्यों नहीं चीरेंगे? क्या हम किसी कुत्ते से कम हैं! जब कुत्ता कुत्ते को चीर सकता है, तब फिर आदमी, आदमी को क्यों नहीं चीरेगा! आदमी-आदमी को चीरना चाहिए। अगले दिन ऐसे आएँगे। गुरुजी! आप क्या बात कर रहे हैं? बेटे! मैं यह बात कह रहा हूँ कि संस्कृति, जो इनसान को इनसान बनाए हुए है। परलोक की बात मैं नहीं कहता, मुक्ति का जिक्र आपसे नहीं करता। स्वर्ग की बात आपसे नहीं कहता। मैं तो आपसे इनसानी जीवन की बात कह रहा हूँ। परलोक की बात जहन्नुम में जाने दीजिए। परलोक कुछ होता है, मुझे नहीं मालूम कि होता है कि नहीं। मैं तो केवल इस जन्म की बात कहता हूँ। भगवान होता है कि नहीं, मैं इस झगड़े में नहीं पड़ता। मैं तो आपसे दैहिक और दैनिक जीवन की बात कहता हूँ। फिलॉसफी के जंजाल में मैं नहीं फँसता, मैं तो आपको दैनिक और रोजमर्रा के जीवन की बात कहता हूँ।
साथियो! अभी कुछ भलमनसाहत जिंदा है, लेकिन अगर संस्कृति की सीता चली गई तो कल क्या होने वाला है, कह नहीं सकते। तब फिर आदमी को कोई एतराज नहीं होगा। अभी एक कुत्ते के मुहल्ले से दूसरा कुत्ता निकलता है। बिना वजह के उसने माँगा नहीं है, कुछ उधार नहीं चाहिए कुछ कर्ज नहीं चाहिए। उसका किसी से कोई लड़ाई -झगड़ा नहीं है। कोई मुकदमेबाजी नहीं है, लेकिन उस गली से निकलते ही एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को चीर डालता है। आप भी चीरेंगे। क्यों नहीं चीरेंगे? क्या हम किसी कुत्ते से कम हैं! जब कुत्ता कुत्ते को चीर सकता है, तब फिर आदमी, आदमी को क्यों नहीं चीरेगा! आदमी-आदमी को चीरना चाहिए। अगले दिन ऐसे आएँगे। गुरुजी! आप क्या बात कर रहे हैं? बेटे! मैं यह बात कह रहा हूँ कि संस्कृति, जो इनसान को इनसान बनाए हुए है। परलोक की बात मैं नहीं कहता, मुक्ति का जिक्र आपसे नहीं करता। स्वर्ग की बात आपसे नहीं कहता। मैं तो आपसे इनसानी जीवन की बात कह रहा हूँ। परलोक की बात जहन्नुम में जाने दीजिए। परलोक कुछ होता है, मुझे नहीं मालूम कि होता है कि नहीं। मैं तो केवल इस जन्म की बात कहता हूँ। भगवान होता है कि नहीं, मैं इस झगड़े में नहीं पड़ता। मैं तो आपसे दैहिक और दैनिक जीवन की बात कहता हूँ। फिलॉसफी के जंजाल में मैं नहीं फँसता, मैं तो आपको दैनिक और रोजमर्रा के जीवन की बात कहता हूँ।