
सबसे पहले शिष्य अपनी महत्त्वाकांक्षा छोड़े
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शिष्य संजीवनी शिष्यों के लिए प्राणदायिनी औषधि है। इसका प्रत्येक
सूत्र केवल उनके लिए है, जिनके हृदय में शिष्य होने की सच्ची
चाहत है। जो सद्गुरु के प्रति सर्वस्व समर्पण में अपनी पहचान
खोजना चाहते हैं। ध्यान रहे शिष्य का अर्थ है, जो सीखने के लिए
राजी है, जो झुकने को तैयार है। जिसके लिए ज्ञान, अहंकार से कहीं
ज्यादा मूल्यवान है। जो इस भावदशा में जीता है कि मैं शिष्यत्व
की साधना के लिए सब कुछ खोने के लिए तैयार हूँ। मैं अपने आप
को भी देने के लिए तैयार हूँ। शिष्यत्व का अर्थ है- एक गहन
विनम्रता। शिष्य वही है- जो अपने को झुकाकर, स्वयं के हृदय को
पात्र बना लेता है।
आप और हम कितने भी प्यासे क्यों न हों, पर बहती हुई जलधारा कभी भी छलांग लगा कर हमारे हाथों में नहीं आयेगी। इसका मतलब यह नहीं है कि जलधारा हम पर नाराज है। उल्टे वह तो हर क्षण प्रत्येक की प्यास बुझाने के लिए तत्पर है। लेकिन इसके लिए न केवल हमें झुकना होगा, बल्कि झुककर अञ्जलि बनाकर नदी का स्पर्श करना होगा। फिर तो अपने आप ही बहती जलधारा हमारे हाथों में आ जायेगी। तो ये शिष्य संजीवनी के सूत्र उनके लिए हैं, जो झुकने के लिए तैयार हैं। केवल प्यास पर्याप्त नहीं है। इसके लिए अञ्जलि बनाकर झुकना भी पड़ेगा।
जिनके मन अन्तःकरण में केवल एक ही भाव अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित होता है कि सद्गुरु के चरणों में मैं मिट जाऊँ तो कोई हर्ज नहीं है, लेकिन जीवन का रहस्य मुझे समझ आ जाये। जो सोचते हैं कि मैं अपने सद्गुरु के चरणों की धूलि भले ही बन जाऊँ, पर उनकी कृपा से यह जान लूँ कि जिन्दगी का असल स्वाद क्या है, अर्थ क्या है? प्रयोजन क्या है? मैं क्यों हूँ और किसलिए हूँ? बस ऐसे ही सजल भाव श्रद्धा वाले शिष्यों के लिए शिष्य संजीवनी की यह सूत्र कथा है। इनमें से प्रत्येक सूत्र नवागत शिष्यों के लिए शिष्य परम्परा की महानतम विभूतियों की ओर से निर्देश वाक्य है। इसे सम्पूर्ण रूप से मानना ही शिष्यत्व साधना की गहनता में प्रवेश करना है।
जो इस महासाधना के लिए तैयार है, उनके लिए शिष्य संजीवनी का प्रथम सूत्र है- महात्त्वाकांक्षा को दूर करो। क्योंकि शिष्यों के लिए महात्त्वाकांक्षा पहला अभिशाप है। जो कोई अपने साधना पथ पर आगे बढ़ रहा है, उसे यह मोहित करके पथ से विचलित कर देती है। सत्कर्मों एवं पुण्यों को समाप्त करने का यह सबसे सरल साधन है। बुद्धिमान, परम समर्थ एवं महातपस्वी लोग भी इसके जाल में फंस कर बराबर अपनी उच्चतम सम्भावनाओं से स्खलित होते रहते हैं। महात्त्वाकांक्षा कितनी भी सम्मोहक व आकर्षक क्यों न हो, पर इसके फल चखते समय मुँह में राख और धूल बन जाते हैं। मृत्यु और विछोह की ही भाँति इससे भी यही सीख मिलती है कि स्वार्थ के लिए अहं के विस्तार के लिए कार्य करने से परिणाम में केवल निराशा ही मिलती है। महत्त्वाकांक्षा प्रकारान्तर से साधना का महाविनाश ही है।
यह अनुभव उन सभी का है, जिन्होंने शिष्य की गहनतम व सफलतम साधना की है। महात्त्वाकांक्षा एवं शिष्यत्व का कोई मेल नहीं है। शिष्य बनने के लिए अपने को गलाना, जलाना और मिटाना पड़ता है, ताकि खाली हुआ जा सके। पात्र बना जा सके और इस पात्रता को सद्गुरु के अनुदानों से परिपूर्ण किया जा सके। महात्त्वाकांक्षा इस प्रक्रिया की एकदम विरोधी है। यह कुछ होने की वासना है। अपनी क्षुद्रताओं को पोषित करने का पागलपन है।
महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति सदा ही अपनी क्षुद्रताओं से घिरा रहता है। महात्त्वाकांक्षा में निहित सत्य का यदि मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो यही तथ्य उजागर होता है कि जो जितना अधिक आत्महीनता से ग्रस्त है, वह उतना ही इसके पाश में जकड़ जाता है। ऐसा व्यक्ति हमेशा ही दूसरे के धन, पद, स्वास्थ्य, वैभव को देखकर ललचाता रहता है। उसे हर क्षण यही लगता रहता है कि इसके जैसा बन जाऊँ, उसके जैसा बन जाऊँ। यह भटकन उसे सदा ही आत्मविमुख बनाये रखती है। इस मनोदशा में अपनी सम्भावनाओं को जानने, खोजने, इन्हें साकार करने की सुधि ही नहीं आती।
इसीलिए प्रत्येक सद्गुरु अपने शिष्य को पहला निर्देश यही देता है कि महात्त्वाकांक्षा को दूर करो। छोड़ दो यह ख्याल कि तुम्हें किसी के जैसा होना है। सद्गुरु कहते हैं कि तुम्हें तो सिर्फ एक ही ख्याल होना चाहिए कि तुम्हें परमात्मा ने क्या बनाया है, उसे जानना है। प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का सनातन अंश है- इस सत्य को अनुभव करना है। इसके लिए किसी और की फोटो कापी बनने की कोई जरूरत नहीं है। आत्मतत्त्व तो सदा ही अपने अन्दर मौजूद है। इसको बस जान लेना है।
आत्मतत्त्व की अनुभूति के लिए अपने आप को स्वयं के सच्चे स्वरूप को अनुभव करने के लिए कुछ जोड़ना नहीं है। सिर्फ कुछ घटाना है। जो कुसंस्कारों का, दुष्प्रवृत्तियों का कचरा इकट्ठा कर लिया है, उसे गलना भर है। हीरा मौजूद है, कचरे के ढेर में, बस कचरा हटाकर हीरा पहचान लेना है। इसके लिए न तो किसी की नकल करने की जरूरत है और नहीं किसी महत्वाकांक्षा की जरूरत है।
महत्त्वाकांक्षा से सिर्फ तुलना दुःख, ईर्ष्या और हिंसा ही जन्म लेते हैं। जितनी ज्यादा महत्त्वाकांक्षा जिसमें है, वह उतना ही दुःखी और अशान्त रहता है। जर्मन दार्शनिक स्लेगल ने यहाँ तक कह डाला है कि महत्त्वाकांक्षा भयावह बीमारी है। मनुष्य जाति और मानवीय सभ्यता का जितना ज्यादा नुकसान इस बीमारी के कारण हुआ है, उतना किसी और कारण नहीं हुआ। स्लेगल के अनुसार मानव इस बीमारी से जितना जल्दी दूर जाय उतना ही श्रेयस्कर है। सत्य- साधना जिनके जीवन की साध्य है, उन्हें इस अभिशाप को किसी भी तरह अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए।
जिनका जीवन महत्त्वाकांक्षा से कलंकित है, वे कभी भी शिष्य नहीं हो सकते। जिनकी जिन्दगी महत्त्वाकांक्षा से अभिशप्त है, उन्हें कभी भी सद्गुरु की शरण नहीं मिल सकती। इसलिए शिष्यत्व की साधना करने वालों के लिए महान् गुरु भक्तों का यही निर्देश है कि छोड़े महत्त्वाकांक्षा। छोड़े तुलना की प्रवृत्ति। बस एक ही बात की फिक्र करें कि अपने आपको किस विधि से सम्पूर्णतया सद्गुरु को सौपें? यदि हमारा जीवन महत्त्वाकांक्षा से रहित है तो कृपालु सद्गुरु इसमें से भगवत् सत्ता को प्रकट कर देंगे। आत्मतत्त्व दिव्यता से जीवन अपने आप ही महक उठेगा। स्वयं ही समस्त दिव्यताएँ अस्तित्व में साकार हो सकेंगी। बस आवश्यकता शिष्य संजीवनी के प्रथम सूत्र को आत्मसात् करने की है। इस प्रथम सूत्र पर मनन ज्यों- ज्यों प्रगाढ़ होगा, त्यों- त्यों हमारी चेतना द्वितीय सूत्र के लिए तैयार हो जायेगी।
आप और हम कितने भी प्यासे क्यों न हों, पर बहती हुई जलधारा कभी भी छलांग लगा कर हमारे हाथों में नहीं आयेगी। इसका मतलब यह नहीं है कि जलधारा हम पर नाराज है। उल्टे वह तो हर क्षण प्रत्येक की प्यास बुझाने के लिए तत्पर है। लेकिन इसके लिए न केवल हमें झुकना होगा, बल्कि झुककर अञ्जलि बनाकर नदी का स्पर्श करना होगा। फिर तो अपने आप ही बहती जलधारा हमारे हाथों में आ जायेगी। तो ये शिष्य संजीवनी के सूत्र उनके लिए हैं, जो झुकने के लिए तैयार हैं। केवल प्यास पर्याप्त नहीं है। इसके लिए अञ्जलि बनाकर झुकना भी पड़ेगा।
जिनके मन अन्तःकरण में केवल एक ही भाव अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित होता है कि सद्गुरु के चरणों में मैं मिट जाऊँ तो कोई हर्ज नहीं है, लेकिन जीवन का रहस्य मुझे समझ आ जाये। जो सोचते हैं कि मैं अपने सद्गुरु के चरणों की धूलि भले ही बन जाऊँ, पर उनकी कृपा से यह जान लूँ कि जिन्दगी का असल स्वाद क्या है, अर्थ क्या है? प्रयोजन क्या है? मैं क्यों हूँ और किसलिए हूँ? बस ऐसे ही सजल भाव श्रद्धा वाले शिष्यों के लिए शिष्य संजीवनी की यह सूत्र कथा है। इनमें से प्रत्येक सूत्र नवागत शिष्यों के लिए शिष्य परम्परा की महानतम विभूतियों की ओर से निर्देश वाक्य है। इसे सम्पूर्ण रूप से मानना ही शिष्यत्व साधना की गहनता में प्रवेश करना है।
जो इस महासाधना के लिए तैयार है, उनके लिए शिष्य संजीवनी का प्रथम सूत्र है- महात्त्वाकांक्षा को दूर करो। क्योंकि शिष्यों के लिए महात्त्वाकांक्षा पहला अभिशाप है। जो कोई अपने साधना पथ पर आगे बढ़ रहा है, उसे यह मोहित करके पथ से विचलित कर देती है। सत्कर्मों एवं पुण्यों को समाप्त करने का यह सबसे सरल साधन है। बुद्धिमान, परम समर्थ एवं महातपस्वी लोग भी इसके जाल में फंस कर बराबर अपनी उच्चतम सम्भावनाओं से स्खलित होते रहते हैं। महात्त्वाकांक्षा कितनी भी सम्मोहक व आकर्षक क्यों न हो, पर इसके फल चखते समय मुँह में राख और धूल बन जाते हैं। मृत्यु और विछोह की ही भाँति इससे भी यही सीख मिलती है कि स्वार्थ के लिए अहं के विस्तार के लिए कार्य करने से परिणाम में केवल निराशा ही मिलती है। महत्त्वाकांक्षा प्रकारान्तर से साधना का महाविनाश ही है।
यह अनुभव उन सभी का है, जिन्होंने शिष्य की गहनतम व सफलतम साधना की है। महात्त्वाकांक्षा एवं शिष्यत्व का कोई मेल नहीं है। शिष्य बनने के लिए अपने को गलाना, जलाना और मिटाना पड़ता है, ताकि खाली हुआ जा सके। पात्र बना जा सके और इस पात्रता को सद्गुरु के अनुदानों से परिपूर्ण किया जा सके। महात्त्वाकांक्षा इस प्रक्रिया की एकदम विरोधी है। यह कुछ होने की वासना है। अपनी क्षुद्रताओं को पोषित करने का पागलपन है।
महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति सदा ही अपनी क्षुद्रताओं से घिरा रहता है। महात्त्वाकांक्षा में निहित सत्य का यदि मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो यही तथ्य उजागर होता है कि जो जितना अधिक आत्महीनता से ग्रस्त है, वह उतना ही इसके पाश में जकड़ जाता है। ऐसा व्यक्ति हमेशा ही दूसरे के धन, पद, स्वास्थ्य, वैभव को देखकर ललचाता रहता है। उसे हर क्षण यही लगता रहता है कि इसके जैसा बन जाऊँ, उसके जैसा बन जाऊँ। यह भटकन उसे सदा ही आत्मविमुख बनाये रखती है। इस मनोदशा में अपनी सम्भावनाओं को जानने, खोजने, इन्हें साकार करने की सुधि ही नहीं आती।
इसीलिए प्रत्येक सद्गुरु अपने शिष्य को पहला निर्देश यही देता है कि महात्त्वाकांक्षा को दूर करो। छोड़ दो यह ख्याल कि तुम्हें किसी के जैसा होना है। सद्गुरु कहते हैं कि तुम्हें तो सिर्फ एक ही ख्याल होना चाहिए कि तुम्हें परमात्मा ने क्या बनाया है, उसे जानना है। प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का सनातन अंश है- इस सत्य को अनुभव करना है। इसके लिए किसी और की फोटो कापी बनने की कोई जरूरत नहीं है। आत्मतत्त्व तो सदा ही अपने अन्दर मौजूद है। इसको बस जान लेना है।
आत्मतत्त्व की अनुभूति के लिए अपने आप को स्वयं के सच्चे स्वरूप को अनुभव करने के लिए कुछ जोड़ना नहीं है। सिर्फ कुछ घटाना है। जो कुसंस्कारों का, दुष्प्रवृत्तियों का कचरा इकट्ठा कर लिया है, उसे गलना भर है। हीरा मौजूद है, कचरे के ढेर में, बस कचरा हटाकर हीरा पहचान लेना है। इसके लिए न तो किसी की नकल करने की जरूरत है और नहीं किसी महत्वाकांक्षा की जरूरत है।
महत्त्वाकांक्षा से सिर्फ तुलना दुःख, ईर्ष्या और हिंसा ही जन्म लेते हैं। जितनी ज्यादा महत्त्वाकांक्षा जिसमें है, वह उतना ही दुःखी और अशान्त रहता है। जर्मन दार्शनिक स्लेगल ने यहाँ तक कह डाला है कि महत्त्वाकांक्षा भयावह बीमारी है। मनुष्य जाति और मानवीय सभ्यता का जितना ज्यादा नुकसान इस बीमारी के कारण हुआ है, उतना किसी और कारण नहीं हुआ। स्लेगल के अनुसार मानव इस बीमारी से जितना जल्दी दूर जाय उतना ही श्रेयस्कर है। सत्य- साधना जिनके जीवन की साध्य है, उन्हें इस अभिशाप को किसी भी तरह अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए।
जिनका जीवन महत्त्वाकांक्षा से कलंकित है, वे कभी भी शिष्य नहीं हो सकते। जिनकी जिन्दगी महत्त्वाकांक्षा से अभिशप्त है, उन्हें कभी भी सद्गुरु की शरण नहीं मिल सकती। इसलिए शिष्यत्व की साधना करने वालों के लिए महान् गुरु भक्तों का यही निर्देश है कि छोड़े महत्त्वाकांक्षा। छोड़े तुलना की प्रवृत्ति। बस एक ही बात की फिक्र करें कि अपने आपको किस विधि से सम्पूर्णतया सद्गुरु को सौपें? यदि हमारा जीवन महत्त्वाकांक्षा से रहित है तो कृपालु सद्गुरु इसमें से भगवत् सत्ता को प्रकट कर देंगे। आत्मतत्त्व दिव्यता से जीवन अपने आप ही महक उठेगा। स्वयं ही समस्त दिव्यताएँ अस्तित्व में साकार हो सकेंगी। बस आवश्यकता शिष्य संजीवनी के प्रथम सूत्र को आत्मसात् करने की है। इस प्रथम सूत्र पर मनन ज्यों- ज्यों प्रगाढ़ होगा, त्यों- त्यों हमारी चेतना द्वितीय सूत्र के लिए तैयार हो जायेगी।