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Books - शिष्य संजीवनी

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अनुभव के अक्षर

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          प्रत्येक साधक की सर्वमान्य सोच यही रहती है कि यदि किसी तरह सद्गुरु कृपा हो जाय तो फिर जीवन में कुछ और करना शेष नहीं रह जाता है। यह सोच अपने सारभूत अंशों में सही भी है। सद्गुरु कृपा है ही कुछ ऐसी- इसकी महिमा अनन्त- अपार और अपरिमित है। परन्तु इस कृपा के साथ एक विशिष्ट अनुबन्ध भी जुड़ा हुआ है। यह अनुबन्ध है शिष्यत्व की साधना का। जिसने शिष्यत्व की महाकठिन साधना की है, जो अपने गुरु की प्रत्येक कसौटी पर खरा उतरा है- वही उनकी कृपा का अधिकारी है। शिष्यत्व का चुम्बकत्व ही सद्गुरु के अनुदानों को अपनी ओर आकर्षित करता है। जिसका शिष्यत्व खरा नहीं है- उसके लिए सद्गुरु के वरदान भी नहीं हैं।

        गुरुदेव का संग- सुपास मिल जाना, जिस किसी तरह से उनकी निकटता पा लेना, सच्चे शिष्य होने की पहचान नहीं है। हालांकि इसमें कोई सन्देह नहीं है कि ऐसा हो पाना पिछले जन्मों के किसी विशिष्ट पुण्य बल से ही होता है। परन्तु कई बार ऐसा भी होता है जो गुरु के पास रहे, जिन्हें उनकी अति निकटता मिली, वे भी अपने अस्तित्त्व को सद्गुरु की परम चेतना में विसर्जित नहीं कर पाते। और कई बार ऐसा हो भी जाता है। पास रहना या दूर रहना, सद्गुरु के देह रहने पर उनसे जुड़ना या उनके देहातीत होने पर उनके प्रेम में पड़ना कोई विशेष अर्थ नहीं रखते हैं। अर्थवत्ता केवल शिष्यत्व की है। यह जहाँ है, जिधर भी है, जिस काल में है, वहीं गुरुवर के अनुदान- वरदान बरसते चले जाएँगे।

            शिष्यत्व की साधना कहाँ से और कैसे प्रारम्भ करें? यह सवाल प्रत्येक गुरु अनुरागी के मन में रह- रहकर स्पन्दित होता है। प्रत्येक शिष्य की चाहत होती है कि हम सच्चे शिष्य कैसे बनें? शिष्यत्व की कठिन साधना करके गुरु प्रेम के सर्वोत्तम अधिकारी कैसे बनें?

          इन प्रश्रों से मेरी अन्तर्भावनाओं को स्फुरणा मिली है कि शिष्यत्व की कठिन साधना के परम रहस्यमय एवं सदा से गोपनीय रखे गए कुछ विशेष सूत्रों को साधकों के सामने प्रकट किया जाय। जो इनकी साधना करेंगे उन पर देश- काल के सभी बन्धनों से परे सद्गुरु की परम चेतना अजस्र अनुदान बरसाती रहेगी। यह बात केवल वैचारिक उक्ति भर नहीं है। यह महासत्य है, जो युग- युग के, भारतभूमि एवं अन्यान्य देशों के समर्पित शिष्यों की शिष्यत्व साधना का सार है। ध्यान रहे कि ये सूत्र उन्हीं के हैं और जो व्याख्या है वह परम पूज्य गुरुदेव की अन्तःप्रेरणा से प्रकट हुई है। इस सब में यदि किसी का सच्चा स्वत्व है, तो वह गुरु- शिष्य की महान परम्परा का है। महान् गुरुओं की करूणा और समर्पित शिष्यों की साधना के निष्कर्ष हैं- ये सूत्र और उनकी क्रमिक व्याख्या। शिष्यों के लिए संजीवनी औषधि की भाँति होने के कारण- इस पुस्तक का नाम भी ‘शिष्य संजीवनी’ है।

        यदि आप शिष्य हैं- अथवा होने की चाहत रखते हैं- तो यह शिष्य- संजीवनी औषधि आपके लिए है। प्रतिदिन इस पर मनन- चिन्तन करना, इन्हें क्रियान्वित करना आपका परम कर्त्तव्य है। ध्यान रहे यदि आपके अन्तःकरण में गुरु- प्रेम की दीवानगी हिलोरे मार रही है- तो यह साधना पथ आपके लिए है। यह साधना केवल उनके लिए है जिन्हें अपने प्यारे गुरुवर के बिना रहा नहीं जाता। जो अपने अस्तित्त्व को सद्गुरु की चेतना में समर्पित- विसर्जित और विलीन कर देना चाहते हैं। शिष्य संजीवनी की यह महाऔषधि उनके लिए है- जो श्रेष्ठ शिष्यों की अग्रिम कतार में खड़ा होना चाहते हैं। जो बार- बार अनेक बार, अनगिनत बार अपने गुरुवर द्वारा ली जाने वाली कठोरतम परीक्षा में खरे उतरना चाहते हैं। जिनकी एक मात्र चाहत है कि जिएँगे तो गुरुदेव के लिए और मरेंगे तो गुरुदेव के लिए। गुरुवर के लिए जीवन, गुरुवर के लिए मरण, जिनके जीवन का मकसद है। ऐसे शिष्यों के लिए जीवन औषधि है यह शिष्य संजीवनी।

      ऐसे मरजीवड़े शिष्यों के लिए शिष्यत्व की कठिन साधना में उतरने के लिए कुछ विशेष बातें माननी जरूरी हैं। गुरु भक्त शिष्यों की महान् परम्परा उनसे कहती है- इससे पहले तुम्हारे नेत्र देख सकें, उन्हें आँसू बहाने की क्षमता से मुक्त हो जाना चाहिए। इसके पहले तुम्हारे कान सुन सकें, उन्हें बहरे हो जाना चाहिए। और इसके पहले तुम सद्गुरुओं की उपस्थिति में बोल सको, तुम्हारी वाणी को चोट पहुँचाने की वृत्ति से मुक्त हो जाना चाहिए। इसके पहले तुम्हारी आत्मा सद्गुरुओं के समक्ष खड़ी हो सके, उसके पाँवों को हृदय के रक्त से धो लेना चाहिए।

        महान् शिष्यों के साधनामय जीवन का सार यह कथन बड़ा ही रहस्यमय एवं अतिशय प्रभावी है। इसमें पहली बात बड़ी स्पष्ट है कि कोरी भावुकता, बात- बात में आँसू बहाना गुरु भक्ति का परिचय नहीं है। शिष्यत्व की साधना के लिए पहली जरूरत समर्पित दृढ़ता की है। दृढ़ता से भरी अश्रुविहीन आँखें ही गुरुचेतना को निहार सकती हैं। जहाँ तक कानों की बात है- सो वे गुरु निन्दा और विषय चर्चा के लिए बहरे हों ताकि वे सद्गुरु की परावाणी सुन सकें। और यदि हम यह चाहते हैं कि हमारे स्वर सद्गुरु को स्पर्श करें- तो हमारी वाणी का किसी और को चोट पहुँचाने की प्रवृत्ति से मुक्त होना आवश्यक है। ऊपर कही गयी इन तीनों बातों का मेल बड़ा दुर्लभ है। क्योंकि जब समर्पित भक्ति जगती है, तो उसमें कहीं से, चुपके से कट्टरता, संकीर्णता आकर जहर घोल देती है। और हम अपने विरोधियों के लिए विद्रोही बन जाते हैं।

परन्तु शिष्यत्व की साधना करने के लिए यह पूर्णतया वर्जित है। उनका अन्तःकरण तो गुरु- प्रेम से इस कदर परिपूर्ण होना चाहिए कि उसमें तनिक से भी द्वेष और तनिक सी भी कड़वाहट की कोई गुंजाइश ही न रहे। हमारी भक्ति इतनी अधिक प्रगाढ़ हो कि शिष्यत्व की साधना के लिए बढ़ने वाला हमारा प्रत्येक कदम हमारे अपने हृदय के रक्त से यानि की प्रगाढ़ भावनाओं से धुला हुआ- परम पवित्र हो। यदि हम यह कर सकते हैं तो ही हम शिष्यत्व की साधना के अधिकारी हैं। और ये शिष्य संजीवनी के परम गोपनीय सूत्र हमारे लिए हैं। इन योग्यताओं के साथ ही हम इस राह पर आगे बढ़ सकते हैं। क्योंकि यह राह हठी, उन्मादियों एवं अहंकारियों के लिए नहीं है। साधना का परम रहस्य मार्ग केवल शिष्यों के लिए है। जिनमें समर्पित संकल्प और संकल्पित समर्पण कूट- कूटकर भरा है।

        गुरु पूर्णिमा के परम दुर्लभ क्षणों में इस पुस्तक के प्रकाशन के अवसर पर प्रत्येक शिष्य टटोलें अपने आप को, करें स्वयं का आत्मावलोकन, करें सच्ची समीक्षा स्वयं अपने आपकी। क्या आप तैयार हैं शिष्य बनने के लिए? क्या आपके पास है वह साहस और हौसला जो शिष्यत्व की साधना की कठिन राह पर आपको चला सके? यदि हाँ- तो शिष्य संजीवनी हम सभी के साधना पथ पर अपना उजाला बिखेरने के लिए आप के हाथों में है। इसके सभी अक्षर अनुभव के अक्षर हैं। जिन्हें मैंने परम पूज्य गुरुदेव के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सान्निध्य में रहकर अर्जित किया है।

- डॉ. प्रणव प्रण्ड्या
गुरु पूर्णिमा, ७ जुलाई २००९
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