
हों, सदगुरु की चेतना से एकाकार
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शिष्य संजीवनी का सीधा मतलब है शिष्यत्व का सम्वर्धन। जो शिष्य
अपने शिष्यत्व के खरेपन के लिए सजग, सचेष्ट एवं सतर्क नहीं है,
उनका मन रह- रहकर डगमगाता है। साधना पथ की दुष्कर परीक्षाएँ उनके
साहस को कंपाती रहती हैं। उनका उत्साह एवं उल्लास कभी भी धराशाही हो जाता है। अन्तःकरण में उठने वाली अनेकों छद्म प्रवंचनाएँ
उन्हें किन्हीं भी नाजुक क्षणों में बहकाने में समर्थ होती
हैं। सन्देह एवं भ्रम के झोंके उनकी आस्थाओं को सूखे पत्तों की भांति
कहीं भी किधर भी उड़ा ले जाते हैं। ये विडम्बनाएँ हमारे अपने
जीवन में न घटें इसके लिए एक ही सार्थक समाधान है कि अपना
शिष्यत्व हरदम खरा बना रहे। अपने शिष्यत्व के परिपाक एवं निखार
के लिए एक ही साधना व समाधान है। शिष्य संजीवनी का नियमित एवं
निरन्तर सेवन। जो यह सेवनकर रहे हैं उन्हें इसके गुणों की अनुभूति भी हो रही है।
यह अनुभूति और भी अधिक स्पष्ट हो, अपना शिष्यत्व और भी अधिक प्रमाणिक हो, इसके लिए शिष्य संजीवनी का यह सातवां सूत्र बड़ा ही लाभकारी है। इसमें कहा गया है- मार्ग की शोध करो। थोड़ा ठहरो और सोचो कि तुम सचमुच ही गुरु भक्ति का मार्ग पाना चाहते हो या फिर तुम्हारे मन में ऊँची स्थिति प्राप्त करने के लिए, आगे बढ़ने और एक भव्य भविष्य निर्माण करने के लिए स्वपन हैं। सावधान! केवल और केवल गुरुभक्ति के लिए ही मार्ग को प्राप्त करना है। ध्यान रहे गुरुभक्ति किसी महत्त्वाकांक्षा पूर्ति का साधन बनकर कलंकित न होने पाए। इसके लिए कहीं बाहर भटकने की बजाय अपने अन्तःकरण में समाहित होकर मार्ग की शोध करो।
बाहरी जीवन को पवित्र बनाते हुए समूचे साहस के साथ आगे बढ़कर मार्ग की शोध करो। कभी मत भूलो, जो मनुष्य साधना पथ पर चलना चाहता है उसे अपने सम्पूर्ण स्वभाव को बुद्धिमत्ता के साथ उपयोग में लाना पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य अपने आप में खुद ही अपना मार्ग, अपना सच और अपना जीवन है। इस सूत्र को अपना कर उस मार्ग को ढूँढो। उस मार्ग को जीवन और प्रकृति के नियमों के अध्ययन के द्वारा ढूँढों। अपनी आध्यात्मिक साधना एवं परा प्रकृति की पहचान करके इस मार्ग को ढूँढों। ज्यों- ज्यों सद्गुरु की चेतना के साथ तुम्हारा सान्निध्य सघन होगा, ज्यों- ज्यों तुम्हारी उपासना प्रगाढ़ होगी, त्यों- त्यों यह परम मार्ग तुम्हारी दृष्टि पथ पर स्पष्ट होगा।
उस ओर से आता हुआ प्रकाश तुम्हारी ओर बढ़ेगा और तब तुम इस मार्ग का एक छोर छू लोगे। और तभी तुम्हारे सद्गुरु का प्रकाश, हां उन्हीं सद्गुरु का प्रकाश, जिन्हें कभी तुमने देहधारी के रूप में देखा था, हां उनका ही प्रकाश एकाएक अनन्त प्रकाश का रूप धारण कर लेगा। उस भीतर के दृश्य से न भयभीत होओ और न आश्चर्य करो। क्योंकि तुम्हारे सद्गुरु ही सर्वेश्वर हैं। जो गुरु हैं वही ईष्ट हैं। हां इतना जरूर है कि इस सत्य तक पहुँचने के पहले अपने भीतर के अन्धकार से सहायता लो और समझो कि जिन्होंने प्रकाश देखा ही नहीं है, वे कितने असहाय हैं और उनकी आत्मा कितने गहन अंधकार में है।
शिष्य संजीवनी का यह सूत्र बड़ा अटपटा है किन्तु है अतिशय बोधपूर्ण। शिष्य को गुरु मिलने पर भी मार्ग खोजना पड़ता है। ना समझ लोग कहेंगे कि भला यह कैसी उलटी बात है, क्योंकि गुरु मिला तो मार्ग भी मिल गया। पर शिष्य परम्परा के सिद्धजन कहते हैं कि यह इतना आसान नहीं है। कारण यह है कि गुरु के मिलने पर ना समझ लोग उन्हें बस सिद्धपुरुष भर मान लेते हैं। उनकी शक्तियों को पहचानते तो हैं, पर केवल अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए, बस लोभ- लाभ के लिए। मनोकामना कैसे पूरी होगी इसी फेर में उनके चक्कर काटते हैं। काम कैसे बनेगा? इसी फेर में उनका फेरा लगाते रहते हैं। अपनी इसी मूर्खता को वे गुरुभक्ति का नाम देते हैं। स्वार्थ साधन को साधना कहते हैं।
पर शिष्यत्व को अपने जीवन का सार मानने वाले वाले इस मूढ़ता पर मुस्कराते हैं। क्योंकि गुरुदेव के दर्शन भले ही चर्म चक्षुओं से मिलते हों पर उनका बताया मार्ग तो अन्तःकरण में प्रवेश करके अन्तश्चक्षुओं से खोजना पड़ता है। जो बाहर भटकते हैं- वे सदा ही गुमराह बने रहते हैं। बाहर प्रतीक तो है पर सत्य नहीं है। प्रतीक सत्य की ओर इंगित तो करते हैं, पर सत्य नहीं है। सत्य के लिए तो हृदय गुफा में बैठकर उपासना करनी पड़ती है। जीवन का परिष्कार करना पड़ता है। उसे पवित्र बनाना पड़ता है। यदि मन पूछे कि कैसे? तो जवाब होगा ठीक उसी तरह जिस तरह अपने गुरुदेव ने बनाया।
हालांकि यह बड़ा साहस का काम है। क्योंकि बाहरी जीवन में जो पवित्रता को साधते हैं, वे किसी भी हालत में महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकते। महत्त्वाकांक्षाओं को, अहंकार की प्रतिष्ठा को, वासना की सन्तुष्टि को त्यागकर ही पवित्रता की राह पर आगे बढ़ा जा सकता है। यह किसी भी तरह से आसान नहीं है, साहस का काम है। जो साहसी हैं वे ही इस राह पर आगे बढ़ सकते हैं। और जो बढ़ते हैं उन्हीं को जीवन का रहस्य उजागर होता है, वह भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति को समझ पाते हैं। उन्हीं को इस रहस्य का ज्ञान होता है कि सद्गुरु की ज्योति ही आत्म ज्योति है, यही ईश्वरीयता का अनन्त प्रकाश भी है।
इस सम्बन्ध में एक बड़ी ही प्यारी कथा है। यह कथा सन्त रज्जब के बारे में है। सन्त रज्जब को दादू जैसे सद्गुरु की शरण तो मिली थी पर अन्तस में उजियारा नहीं हुआ था। गुरु मिले पर मार्ग नहीं मिला था। क्या करें? किधर जाएँ? ऐसे सवाल उन्होंने दादू साहब से कई बार पूछे पर उन्होंने हँसकर टाल दिया। बहुत पूछने पर एक दिन बोले जो गुरु को देह जानता है, वह भटकता रहता है। पर जो गुरु को चेतना मानता है उसका पथ प्रकाशित हो जाता है। इससे ज्यादा उन्होंने कुछ कहा नहीं। रज्जब की भी आगे हिम्मत नहीं पड़ी। हार- थककर उन्होंने अपने गुरुदेव की छवि को अपने अन्तस में प्रतिष्ठित कर लिया। अपने अस्तित्त्व की सारी भक्ति, सारा प्यार, सारा अनुराग उन्होंने उस छवि में न्यौछावर कर दिया। यह छवि उनके मानस में विहंस उठी। ध्यान ज्यों- ज्यों प्रगाढ़ हुआ त्यों ही यह छवि रज्जब की चेतना में आत्म ज्योति बनकर जल उठी। रज्जब यहाँ पर ठहरे नहीं वह अपनी साधना करते रहे और वह शुभ घड़ी भी आयी जब आत्म ज्योति ने अनन्त ईश्वरीय प्रकाश का रूप ले लिया। समाधि की इस परम भावदशा में उन्हें यह समाधान मिला कि सद्गुरु और ईष्ट एक ही हैं। गुरु ही गोविन्द है। गुरु से भिन्न और कुछ भी नहीं। रज्जब की साधना का यह मर्म वही जानेंगे जो अपने अन्तःकरण में प्रवेश करके मार्ग की शोध के लिए व्याकुल हैं। शिष्यों की इस व्याकुलता का समाधान शिष्य संजीवनी के अगले सूत्र में निहित है।
यह अनुभूति और भी अधिक स्पष्ट हो, अपना शिष्यत्व और भी अधिक प्रमाणिक हो, इसके लिए शिष्य संजीवनी का यह सातवां सूत्र बड़ा ही लाभकारी है। इसमें कहा गया है- मार्ग की शोध करो। थोड़ा ठहरो और सोचो कि तुम सचमुच ही गुरु भक्ति का मार्ग पाना चाहते हो या फिर तुम्हारे मन में ऊँची स्थिति प्राप्त करने के लिए, आगे बढ़ने और एक भव्य भविष्य निर्माण करने के लिए स्वपन हैं। सावधान! केवल और केवल गुरुभक्ति के लिए ही मार्ग को प्राप्त करना है। ध्यान रहे गुरुभक्ति किसी महत्त्वाकांक्षा पूर्ति का साधन बनकर कलंकित न होने पाए। इसके लिए कहीं बाहर भटकने की बजाय अपने अन्तःकरण में समाहित होकर मार्ग की शोध करो।
बाहरी जीवन को पवित्र बनाते हुए समूचे साहस के साथ आगे बढ़कर मार्ग की शोध करो। कभी मत भूलो, जो मनुष्य साधना पथ पर चलना चाहता है उसे अपने सम्पूर्ण स्वभाव को बुद्धिमत्ता के साथ उपयोग में लाना पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य अपने आप में खुद ही अपना मार्ग, अपना सच और अपना जीवन है। इस सूत्र को अपना कर उस मार्ग को ढूँढो। उस मार्ग को जीवन और प्रकृति के नियमों के अध्ययन के द्वारा ढूँढों। अपनी आध्यात्मिक साधना एवं परा प्रकृति की पहचान करके इस मार्ग को ढूँढों। ज्यों- ज्यों सद्गुरु की चेतना के साथ तुम्हारा सान्निध्य सघन होगा, ज्यों- ज्यों तुम्हारी उपासना प्रगाढ़ होगी, त्यों- त्यों यह परम मार्ग तुम्हारी दृष्टि पथ पर स्पष्ट होगा।
उस ओर से आता हुआ प्रकाश तुम्हारी ओर बढ़ेगा और तब तुम इस मार्ग का एक छोर छू लोगे। और तभी तुम्हारे सद्गुरु का प्रकाश, हां उन्हीं सद्गुरु का प्रकाश, जिन्हें कभी तुमने देहधारी के रूप में देखा था, हां उनका ही प्रकाश एकाएक अनन्त प्रकाश का रूप धारण कर लेगा। उस भीतर के दृश्य से न भयभीत होओ और न आश्चर्य करो। क्योंकि तुम्हारे सद्गुरु ही सर्वेश्वर हैं। जो गुरु हैं वही ईष्ट हैं। हां इतना जरूर है कि इस सत्य तक पहुँचने के पहले अपने भीतर के अन्धकार से सहायता लो और समझो कि जिन्होंने प्रकाश देखा ही नहीं है, वे कितने असहाय हैं और उनकी आत्मा कितने गहन अंधकार में है।
शिष्य संजीवनी का यह सूत्र बड़ा अटपटा है किन्तु है अतिशय बोधपूर्ण। शिष्य को गुरु मिलने पर भी मार्ग खोजना पड़ता है। ना समझ लोग कहेंगे कि भला यह कैसी उलटी बात है, क्योंकि गुरु मिला तो मार्ग भी मिल गया। पर शिष्य परम्परा के सिद्धजन कहते हैं कि यह इतना आसान नहीं है। कारण यह है कि गुरु के मिलने पर ना समझ लोग उन्हें बस सिद्धपुरुष भर मान लेते हैं। उनकी शक्तियों को पहचानते तो हैं, पर केवल अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए, बस लोभ- लाभ के लिए। मनोकामना कैसे पूरी होगी इसी फेर में उनके चक्कर काटते हैं। काम कैसे बनेगा? इसी फेर में उनका फेरा लगाते रहते हैं। अपनी इसी मूर्खता को वे गुरुभक्ति का नाम देते हैं। स्वार्थ साधन को साधना कहते हैं।
पर शिष्यत्व को अपने जीवन का सार मानने वाले वाले इस मूढ़ता पर मुस्कराते हैं। क्योंकि गुरुदेव के दर्शन भले ही चर्म चक्षुओं से मिलते हों पर उनका बताया मार्ग तो अन्तःकरण में प्रवेश करके अन्तश्चक्षुओं से खोजना पड़ता है। जो बाहर भटकते हैं- वे सदा ही गुमराह बने रहते हैं। बाहर प्रतीक तो है पर सत्य नहीं है। प्रतीक सत्य की ओर इंगित तो करते हैं, पर सत्य नहीं है। सत्य के लिए तो हृदय गुफा में बैठकर उपासना करनी पड़ती है। जीवन का परिष्कार करना पड़ता है। उसे पवित्र बनाना पड़ता है। यदि मन पूछे कि कैसे? तो जवाब होगा ठीक उसी तरह जिस तरह अपने गुरुदेव ने बनाया।
हालांकि यह बड़ा साहस का काम है। क्योंकि बाहरी जीवन में जो पवित्रता को साधते हैं, वे किसी भी हालत में महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकते। महत्त्वाकांक्षाओं को, अहंकार की प्रतिष्ठा को, वासना की सन्तुष्टि को त्यागकर ही पवित्रता की राह पर आगे बढ़ा जा सकता है। यह किसी भी तरह से आसान नहीं है, साहस का काम है। जो साहसी हैं वे ही इस राह पर आगे बढ़ सकते हैं। और जो बढ़ते हैं उन्हीं को जीवन का रहस्य उजागर होता है, वह भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति को समझ पाते हैं। उन्हीं को इस रहस्य का ज्ञान होता है कि सद्गुरु की ज्योति ही आत्म ज्योति है, यही ईश्वरीयता का अनन्त प्रकाश भी है।
इस सम्बन्ध में एक बड़ी ही प्यारी कथा है। यह कथा सन्त रज्जब के बारे में है। सन्त रज्जब को दादू जैसे सद्गुरु की शरण तो मिली थी पर अन्तस में उजियारा नहीं हुआ था। गुरु मिले पर मार्ग नहीं मिला था। क्या करें? किधर जाएँ? ऐसे सवाल उन्होंने दादू साहब से कई बार पूछे पर उन्होंने हँसकर टाल दिया। बहुत पूछने पर एक दिन बोले जो गुरु को देह जानता है, वह भटकता रहता है। पर जो गुरु को चेतना मानता है उसका पथ प्रकाशित हो जाता है। इससे ज्यादा उन्होंने कुछ कहा नहीं। रज्जब की भी आगे हिम्मत नहीं पड़ी। हार- थककर उन्होंने अपने गुरुदेव की छवि को अपने अन्तस में प्रतिष्ठित कर लिया। अपने अस्तित्त्व की सारी भक्ति, सारा प्यार, सारा अनुराग उन्होंने उस छवि में न्यौछावर कर दिया। यह छवि उनके मानस में विहंस उठी। ध्यान ज्यों- ज्यों प्रगाढ़ हुआ त्यों ही यह छवि रज्जब की चेतना में आत्म ज्योति बनकर जल उठी। रज्जब यहाँ पर ठहरे नहीं वह अपनी साधना करते रहे और वह शुभ घड़ी भी आयी जब आत्म ज्योति ने अनन्त ईश्वरीय प्रकाश का रूप ले लिया। समाधि की इस परम भावदशा में उन्हें यह समाधान मिला कि सद्गुरु और ईष्ट एक ही हैं। गुरु ही गोविन्द है। गुरु से भिन्न और कुछ भी नहीं। रज्जब की साधना का यह मर्म वही जानेंगे जो अपने अन्तःकरण में प्रवेश करके मार्ग की शोध के लिए व्याकुल हैं। शिष्यों की इस व्याकुलता का समाधान शिष्य संजीवनी के अगले सूत्र में निहित है।