
प्रथम विदेश यात्रा
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जिस समय स्वामीजी यात्रा के लिए धन की व्यवस्था पर विचार कर रहे थे उसी समय खेतड़ी के दीवान जगमोहनलाल उनकी सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने कहा कि ‘‘आपने दो वर्ष पहले राजा साहब को पुत्र होने का आशीर्वाद दिया था, वह सफल हो गया है और उस आनन्दोत्सव में महाराज ने आपसे पधारने की प्रार्थना की है।’’ स्वामीजी खेतड़ी पहुँचे और नवजात शिशु को आशीर्वाद देकर चल दिए। खेतड़ी नरेश ने अपने दीवान को भी उनके साथ भेजा और यात्रा का पूरा प्रबंध और मार्ग व्यय आदि की व्यवस्था करने की ताकीद कर दी।
खेतड़ी नरेश स्वामीजी को विदा करने जयपुर स्टेशन तक आए। चलते- चलते उन्होंने पूछा- ‘‘आप अमरीका पहुँचकर किस नाम से प्रचार- कार्य करेंगे?’’ स्वामीजी ने उत्तर दिया कि- ‘‘अभी तक तो मैंने कोई पक्का नाम रखा नहीं है। कभी सच्चिदानंद, कभी अन्य कोई नाम रखकर फिरता रहा हूँ।’’ उसी समय राजा साहब ने कहा- ‘‘स्वामीजी! आपको ‘विवेकानन्द’ नाम कैसा लगता है?’’ उस दिन से ही परमहंस देव के शिष्य ‘नरेन्द्र’ स्वामी विवेकानन्द के ही नाम से प्रसिद्ध हुए।
जयपुर से बम्बई जाते हुए आबूरोड़ स्टेशन पर स्वामीजी की भेंट अकस्मात् अपने एक गुरुभाई तुरीयानंद से हो गई। उनसे बातें करते हुए स्वामीजी ने कहा- ‘‘हरिभाई, मैं तुम्हारे धर्म- कर्म को अधिक नहीं समझता, पर मेरा हृदय अब बहुत विशाल हो गया है और मुझे सामान्य लोगों के दु:खों का बड़ा अनुभव होने लगा है। मैं सत्य कहता हूँ कि लोगों को कष्ट पाते देखकर मेरा हृदय बड़ा व्याकुल होता है।’’ यह कहते- कहते स्वामीजी की आँखों से आँसू गिरने लगे। स्वामी तुरीयानंद ने इस प्रसंग का वर्णन करते हुए कहा था- ‘‘क्या यह भावना और शब्द बुद्धदेव के से नहीं है? मैं दीपक के प्रकाश की तरह स्पष्ट देख रहा था कि देशवासियों के दु:खों से स्वामीजी का हृदय धधक रहा था और वे इस दुर्व्यवस्था का सुधार करने के लिए किसी रामबाण रसायन की खोज कर रहे थे?’’
३१ मई को स्वामीजी बम्बई के बंदरगाह पर अमरीका जाने वाले जहाज में सवार हो गए। उस समय भगवा रंग का रेशमी लबादा, माथे पर उसी रंग का फेंटा बाँधकर किसी राजा के समान शोभा देने लगे। इन सबकी व्यवस्था खेतड़ी के दीवान जगमोहनलाल ने ही की थी। जगमोहनलाल और मद्रास के एक भक्त अलसिंह पेरुमल उन्हें जहाज के दरवाजे तक पहुँचाने को आए। थोड़ी देर बाद जहाज के छूटने का घंटा बजा। दोनों भक्तों ने स्वामीजी के पैर पकडक़र आँसू भरे नेत्रों से विदा ली और जहाज चल दिया। कोलम्बो, पिनांग, सिंगापुर, हाँगकाँग, नागासाकी, ओसाका, टोकियो आदि बड़े नगरों को देखते हुए स्वामीजी अमरीका के बैंकोवर बंदरगाह पर उतरे। वहाँ से रेल द्वारा शिकागो पहुँच गए।
स्वामीजी जुलाई के आरंभ में अमरीका पहुँच गए थे। वहाँ उनको मालूम हुआ कि सभा सितंबर में होने वाली है। इतने समय तक शिकागो जैसे खर्चीले शहर में होटल में रहने लायक धन स्वामीजी के पास न था। यह भी कहा गया कि किसी प्रसिद्ध संस्था के प्रमाण- पत्र के बिना ये धर्म सभा के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार नहीं किए जा सकते। कुछ दिन बाद कम खर्च की निगाह से बोल्टन चले गए। रास्ते में एक भद्र महिला से परिचय हो गया, जिसने आग्रहपूर्वक उनको अपने घर ठहरा लिया। पर उस शहर में अपनी पोशाक के कारण उन्हें असुविधा होने लगी। विचित्र ढंग का गेरुआ लबादा और फेंटा देखकर मार्ग में अनेक व्यक्ति और लडक़े एक तमाशा समझकर उनके पीछे लग जाते और ‘हुर्रे- हुर्रे’ का शोर मचाने लगते। इस दिक्कत से बचने के लिए उस महिला ने उनको सलाह दी कि सामान्यत: आप यहीं की पोशाक पहिना कीजिए।
स्वामीजी संन्यासी होने पर भी रूढ़ियों के गुलाम नहीं थे और उद्देश्य की सिद्धि के लिए इस प्रकार के बाह्य परिवर्तन में उनको कुछ भी एतराज न था। पर कठिनाई यह थी कि अब उनके पास अधिक रुपया नहीं बचा था। इससे वे धैर्यपूर्वक कठिनाइयों को सहन करके दिन बिताने लगे। इतने में स्त्रियों की एक संस्था ने उनको अपने यहाँ व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया। उस भाषण से जो आय हुई, उनसे स्वामीजी के लिए अमरीकन पोशाक बन गई और तब से उन्होंने गेरुआ वस्त्रों को केवल भाषण के समय के लिए रख दिया। फिर भी उनकी कठिनाइयों का अंत न हुआ और शिकागो वापस आने पर एक दिन उनको स्टेशन के बाहर पड़ी खाली पेटी के भीतर सारी रात काटनी पड़ी। फिर भी उनका धैर्य सहायक बना रहा और सब तरह की बाधाओं को पार करके वे ‘धर्म सभा’ के अधिवेशन में प्रतिनिधि रूप में सम्मिलित होने में सफल हो गए।