
सर्वधर्म सम्मेलन
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अंत में दस का घंटा बजा। ईसाई पादरी अनुभव करने लगे कि जगत में ईसाई धर्म सर्वश्रेष्ठ है- इस तथ्य को दुनिया के सामने प्रकट करने का समय आ पहुँचा और वास्तव में इसी भावना से अमरीका के बड़े धार्मिक नेताओं ने इस महा सम्मेलन का आयोजन किया था। परंतु किसी को खबर न थी कि यह घंटा तो सनातन हिंदूधर्म की विजय का बज रहा है। वहाँ स्वामीजी को कैसा अनुभव हुआ यह उन्हीं के शब्दों में सुनिए- ‘‘मंच के ऊपर संसार के सब देशों के चुने हुए विद्वान् और व्याख्यानदाता बैठे थे। मैंने अपने जीवन में न कभी ऐसी विशाल सभा देखी थी और न ऐसे उत्कृष्ट जन- समूह के सम्मुख भाषण किया था। संगीत और शिष्टाचार के भाषणों के उपरांत सब प्रतिनिधियों का एक- एक करके परिचय दिया जाने लगा और वे भी संक्षेप में अपना मंतव्य प्रकट करने लगे। मेरा तो हृदय धडक़ने लगा और जीभ सूखकर लगभग बंद हो गई। प्रात:काल के समय तो मैं बोलने की हिम्मत ही न कर सका। सभा अध्यक्ष ने मुझसे कई बार बोलने को कहा, पर मैं यही उत्तर देता रहा- ‘अभी नहीं’। इससे सभा अध्यक्ष भी मेरी तरफ से कुछ निराश हो गया। अत: दोपहर के अंतिम भाग में सभाध्यक्ष ने बहुत उत्साहपूर्ण शब्दों में आग्रह किया तो मैं उठकर आगे आया और मेरा परिचय दिया गया।’’
अध्यक्ष द्वारा परिचय समाप्त हुआ और स्वामीजी आँख बंद करके ध्यान करने लगे। उनको अपने पीछे खड़े और आशीर्वाद देते हुए परमहंस देव के दर्शन हुए। बस, स्वामीजी का चेहरा दैवी तेज से दीप्त हो उठा और उसमें एक अद्भुत शक्ति जागृत हो गई। श्री गुरुदेव और सरस्वती को प्रणाम करके उन्होंने बोलना आरंभ किया- ‘‘भाइयो और बहिनो!’’ इन ‘भाइयो और बहिनो’ शब्दों को सुनते हुए सभा में उत्साह का तूफान आ गया। सबके मुख से ‘लेडिज और जैंटिलमैन’ के बाह्य शिष्टाचार- युक्त संबोधन को सुनते- सुनते जब उनके कानों में ये ‘भाइयो और बहिनो’ के आत्मीयतापूर्ण शब्द पड़े, तो हजारों व्यक्ति जोश से तालियाँ बजाते खड़े हो गए। स्वामीजी स्वयं चकित रह गए। कई मिनट तक तालियों की गडग़ड़ाहट सुनाई देती रही।
अंत में लोगों के शांत होने पर स्वामीजी ने कहा- ‘‘मुझे यह कहते हुए गर्व है कि जिस धर्म का मैं अनुयायी हूँ, उसने जगत को उदारता और प्राणी मात्र को अपना समझने की भावना दिखलाई है। इतना ही नहीं, हम सब धर्मों को सच्चा मानते हैं और हमारे पूर्वजों ने प्राचीन काल में भी प्रत्येक अन्याय पीडि़त को आश्रय दिया है। जब रोमन साम्राज्य के जुल्मों से यहूदियों का नाश हुआ और बचे खुचे लोग दक्षिण भारत में पहुँचे तो उनके साथ पूर्ण सहानुभूति का व्यवहार किया गया। इसी प्रकार ईरान के पारसियों को भी आश्रय दिया गया और वे आज भी गौरव के साथ वहाँ निवास कर रहे हैं। मैं छोटेपन से नित्य कुछ श्लोकों का पाठ करता हूँ। अन्य लाखों हिंदू भी नियम से उनका पाठ करते हैं। उनमें कहा गया है- ‘जिस प्रकार भिन्न- भिन्न स्थानों से उत्पन्न नदियाँ अंत में एक समुद्र में ही इक_ी होती हैं, उसी प्रकार हे प्रभु! मनुष्य अपनी भिन्न- भिन्न प्रकृति के अनुकूल पृथक्- पृथक् जान पडऩे वाले मार्गों से अंत में तेरे ही पास पहुँचते हैं।’’
‘‘ऐसी विराट् सर्वधर्म सभा पहले कभी नहीं की गई थी और यह गीता के सिद्धांतों का प्रत्यक्ष प्रमाण है। गीताकार ने कहा है- ‘‘मेरे पास कोई भी व्यक्ति चाहे जिस तरह से आवे, तो भी मैं उससे मिलता हूँ। लोग जिन भिन्न- भिन्न मार्गों से अग्रसर होने का प्रयत्न कर रहे हैं, वे सब रास्ते अंत में मुझमें ही मिल जाते हैं।’’ पंथ संबंधी द्वेष धर्मांधता और इनसे उत्पन्न क्रूरतापूर्ण पागलपन- ये सब इस सुंदर धरती को चिरकाल से नष्ट कर रहे हैं। इन बातों ने पृथ्वी पर तरह- तरह के अत्याचार कराए हैं, बार- बार भूमि को मानव रक्त से सिंचित किया, संस्कृति को नष्ट- भ्रष्ट कर दिया है और सब लोगों को निराशा की खाई में धकेल दिया है। अगर ये क्रूर दैत्य न होते तो मानव समाज न जाने अब तक कितनी अधिक प्रगति कर चुका होता। पर अब इन बातों का समय पूरा हो चुका है और मैं अपने हृदय में यही आशा करता हूँ कि आज प्रात:काल इस सभा के स्वागतार्थ जो घंटा बजा था, वह एक ही लक्ष्य (ईश्वर) की तरफ जाने वाले मानव समूह में उत्पन्न हो गई सब तरह की अनुदारता, संकीर्णता और तलवार तथा कलम द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों का अंत करने वाला ‘मृत्यु- घंट’ सिद्ध होगा।’’
इतने संक्षिप्त भाषण द्वारा हिंदूधर्म में निहित विश्वव्यापी एकता के तत्त्व और उसकी विशालता का परिचय करा देने से समस्त सभा स्वामीजी पर मोहित हो गई और जैसे ही वे अपना कथन समाप्त करके बैठे समस्त सभा ने उनकी प्रशंसा में पुन: जयध्वनि की।