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Books - युग परिवर्तन कब और कैसे ?

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रस्तुत समस्या सुलझने ही जा रही है

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First 19 21 Last
कोई समय था जब घर- घर में अंधविश्वासों की भरमार थी ।। भूत- प्रेत, टोना घर- घर में चर्चा के विषय बने रहते थे ।। कोई किसी पर तन्त्र- मंत्र करा रहा है, किसी ने किसी पर जादू करा दिया है, यह चर्चा घरों में किसी न किसी के मुँह से सुनने को मिलती रहती थी ।। संदेश और आशंका का भय, पारस्परिक कलह और विद्वेष का कारण बना रहता था ।।

कुछ धूर्तों ने इस विडम्बना को अपना व्यवसाय बना लिया था ।। छोटी बीमारियों को किसी भूत- पलीत की करतूत मान लिया जाता था और जिस- तिस पर आरोप लगा दिया जाता था कि उसने टोना- टोटका कराया है ।। भोले लोग इन बातों पर विश्वास कर लेते थे और तिल का ताड़, राई का पहाड़ बन जाता था ।। आये दिन परस्पर कलह, संदेह, अन्धविश्वास और विग्रह खड़े होते रहते थे ।। झाड़- फूँक करने वाले इसी बहाने अपना अच्छा खासा धन्धा चला लेते थे ।। जहाँ शांतिपूर्वक रहना चाहिए था और कोई कारण न होने पर दुर्भाव को कोई आधार नहीं बनना चाहिए था, वहाँ भी, छोटे- मोटे गाँवों तक में भी संदेह, अविश्वास और दुर्भाव का वातावरण बन जाता था ।। आग में ईंधन पड़ने पर और भी बढ़ोत्तरी होती है ।। कौतुकी भी मनोरंजन हेतु किन्हीं किम्वदन्तियों को तिल से ताड़ बना दिया करते थे और उसी बहाने किसी न किसी से कुछ न कुछ ठग लिया करते थे ।।
यह अविश्वास कहाँ से उपजता था और अब न जाने कहाँ चला गया, इस पर आश्चर्य होता है ।। नासमझी ही बात का बतंगड़ बनाती थी ।। समझदारी का उद्भव होते ही वह सारा जाल- जंजाल इस तरह तिरोहित हो गया, मानों गधे के सिर कभी सींग उगे ही नहीं थे ।।

ऐसी ही कुछ भ्रान्तियाँ मनुष्य को अपने सम्बन्ध में अभी भी होती हैं ।। शरीर में आये दिन बीमारियाँ होती रहती हैं और उनके इलाज उपचार के लिए नित्य नयी औषधियों का प्रयोग होता रहता है ।। इतने पर भी यह विवाद बना रहता है कि इनमें से कौन- सी लाभदायक सिद्ध हुई और कौन- सी हानिकारक ।। एक रोगी के लिए जो चिकित्सा उपयोगी, हुई वही दूसरे रोगी के उसी रोग में हानिकारक सिद्ध होती देखी जाती है ।। आये दिन चिकित्सकों एवं औषधियों की अदला बदली इसलिए होती रहती है ।। यह सिलसिला मुद्दतों से चला रहा है पर अभी तक किसी एक निश्चय पर पहुँचना सम्भव नही  हो सका ।।

इतने दिनों बाद अब एक सही निष्कर्ष हाथ लगा है कि मन का शरीर के प्रत्येक पुर्जे पर अधिकार है ।। यदि मन को नियंत्रित और सन्मार्गगामी बनाया जा सके, तो शरीर के सभी कल- पुर्जे अपना- अपना काम सही रीति से करने लगते हैं और बीमारियों की जड़ कट जाती है ।। इसके विपरीत यदि चिन्तन का क्रम उलटा चलता रहे, कुविचार मस्तिष्क पर छाते रहें, तो शरीर में कोई स्थानीय व्यथा न होने पर भी कल्पनाजन्य अनेकों अव्यवस्थाएँ उठ खड़ी होती हैं और दवाओं में सिर्फ वही थोड़ा- बहुत काम करती हैं, जिस पर कि विश्वास गहरा होता है ।। इससे प्रतीत होता है कि बीमारियों की जड़ तो मन के भीतर रहती है ।। शरीर में तो उनका आभास भर होता है ।। यदि सरल, सौम्य और सद्भाव पूर्ण विचार बनें रहें, तो बीमारियों की जड़ तो मन के भीतर रहती है ।। शरीर में तो विचार बने रहें, तो बीमारियों का जो प्रकोप आये दिन बना रहता है, उनका अस्तित्व ही न रहे ।। यह तथ्य यदि समय रहते लोगों को पहले ही अवगत हो गया होता, तो हर कोई अपना इलाज आप कर लेता और उसके लिए जहाँ- तहाँ भटकने और निराश रहने की आवश्यकता न पड़ती ।।

यही बात खिन्नता, उद्विग्नता के सम्बन्ध में भी है ।। लोग प्रतिकूल परिस्थितियों को चिन्ताओं, आशंकाओं और प्रतिकूलताओं का कारण मानते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि उन्हीं परिस्थितियों में, उतने ही साधनों में, अनेक लोग प्रसन्न रहते और सन्तोषपूर्वक जीवन- यापन करते हैं ।। प्रतिकूलताएँ अनुभव करने में चित्त की प्रवृत्तियों ही प्रधान भूमिका निभाती हैं ।। परिस्थितियों को बदलने के लिए भाग- दौड़ करने की अपेक्षा, यदि मन को बेतुकेपन की रीति- नीति को ही सुधार लिया गया होता, तो हर स्थिति को अपने अनुकूल बन जाने में कोई बड़ी कठिनाई न पड़ती ।। अपनी गलती को दूसरों के सिर इसलिए मढ़ा जाता है ।। यदि कुटेव अभ्यास में न घुस पड़ी होती, तो सरलता और सज्जनता का सौम्य जीवन जीते हुए हर व्यक्ति अपनी वर्तमान परिस्थितियों को सुधार लेता है ।। गलती सुधार जाने पर, जो प्रतिकूलताएँ चारों ओर घिरी दिखती हैं, उनमें से एक भी घिरी न दिख पड़ती ।।

इन्द्रियों का दुरुपयोग कठिनाइयों का निमित्त कारण बनता है, यदि इस मोटे तथ्य को लोगों ने हृदयंगम कर लिया होता, तो इच्छा- आकांक्षाओं को पूरा करने की दौड़- धूप न करनी पड़ती, मात्र संयम- साधना से ही अधिकांश समस्याएँ सुलझ गयी होती ।। यदि स्वादेन्द्रिय पर काबू रखा जाता, तो अनावश्यक अभक्ष्य खाने की ललक न उठती और पेट के संतुलित बने रहने पर पाचन- तंत्र मे कोई व्यतिक्रम खड़ा न होता ।। कामुकता, मानसिक विकार है ।। लोग इसे शारीरिक मांग या आवश्यकता मानते हैं, जो कि सही नहीं है ।। यदि इस मोटे सिद्धान्त को समझ लिया जाय, तो फिर कामुकताजन्य जो अनेक अनाचार दिख पड़ते हैं, उनमें से एक भी कहीं दिख न पड़ता ।। नर- नारी मिल- जुलकर उन उपयोगी और महत्त्वपूर्ण कामों में लगे होते, जिससे सुविधाओं की कमी न रहती और जिन अनौचित्यों का आये दिन सामना करना पड़ता है, उनसे कोई भी किसी को हैरान- परेशान न कर रहा होता ।। आँख, कान, नाक, इन्द्रियों में से जिन्हें क्रियाशील कहा जाता है कि औचित्य और अनौचित्य में क्या अन्तर होता है, और क्या अपनाने योग्य है, क्या अपनाने योग्य नहीं, तो मस्तिष्क द्वारा उलटी दिशा अपनाने और उसके फलस्वरूप कोई भी अहितकर प्रयास करने के लिए कदम न बढ़ता ।। फिर अच्छे- खासे सुख शांति भरे जीवन को विदूष बनाने की किसी को भी आवश्यकता न पड़ती ।।

उपलब्ध वस्तुओं को ठीक प्रकार प्रयुक्त करना मनुष्य की बुद्धिमानी का प्रथम चिन्ह है ।। जीवनचर्या के साथ जुड़े हुए मन को यदि सबसे अच्छा साधन माना गया होता और उसके सदुपयोग- दुरुपयोग का आरंभ से ही ध्यान रखा गया होता, तो सदा- सर्वदा हर किसी को हँसाती- हँसाती जिन्दगी जीने का अवसर मिला होता ।। जिन विग्रहों और अनाचारों का आये दिन सामना करना पड़ता है, उनमें से एक भी हैरान करने के लिए सामने न आते ।। इस संसार में ऐसी एक भी कठिनाई नहीं है, जिसका बुद्धिमत्ता अपनाने पर समाधान न खोजा और निवारण- निराकरण का मार्ग न निकला जा सके ।। यह संसार भगवान का सुरम्य उद्यान है ।। उसमें हर दिशा में, हर प्रकार की सुविधाएँ भी भरी पड़ी है ।। जहाँ कहीं प्रतिकूलतायें दिख पड़ती हैं, वहाँ समझना चाहिए कि चिन्तन में कहीं कोई गड़बड़ी पड़ गयी है।


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