
कचरे के संकट से कैसे निपटें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
पेट भरने, तन ढकने और सिर छिपाने लायक आच्छादन बनाने की समस्या अभी हल नहीं हो पायी थी कि बड़ी मात्रा में उत्पन्न होने वाले कचरे को ठिकाने लगाने की नयी समस्या सामने आ गयी । प्रकृति अपने उत्पादित कचरे को ठिकाने लगाती और उपयोगी बनाती रहती है । पशुओं के मल-मूत्र, पेड़ों से गिरे पत्ते आदि सड़-गल कर उपयोगी खाद बन जाते हैं और वनस्पति उत्पादन में काम आते हैं ।
मनुष्य का मल-मूत्र भी उतना ही उपयोगी है, पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि उससे खाद न बनाकर नदी-नालों में बहा दिया जाता है और पेय जल को दूषित किया जाता है । इसमें दुहरी हानि है- खाद से वंचित रहना और नदियों में फेंककर बीमारियाँ आमन्त्रित करना । आशा की जानी चाहिये कि मनुष्य को सद्बुद्धि आयेगी और कचरे तथा वज्र्य पदार्थों का भी खाद रूप में प्रयोग करने का प्रचलन चल पड़ेगा ।
किन्तु इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि अनेक उपायों के बाद भी इन दिनों कचरे में भयानक वृद्धि हुई है । हर वस्तु कागज, प्लास्टिक के थैलों, पत्तल, दोना, डिब्बा आदि में बिन्द करके बेची जाती है, वस्तु का उपयोग होते ही वह पैकिंग कचरा बन जाती है और उसे जहाँ-तहाँ सड़कों-गलियों में फैंक दिया जाता है । इसकी सफाई में ढेरों खर्च तो होता है, विशेष समस्या यह है कि उसे डाला कहाँ जाय? शहरों के नजदीक जो ऊबड़-खाबड़ जमीनें होती हैं वे इस कचरे से भर जाती हैं ।
देहातों में ऐसी जगहें नहीं के बराबर हैं । जो पोखर, तालाब हैं वे बरसाती पानी एकत्रित करने के काम आते हैं, उन्हें भी भर दिया जाय तो अन्यान्य उपयोगी कामों में बाधा पड़गी ।
घुमा-फिराकर सबसे बड़ा गड्ढा समुद्र रह जाता है । नदियों के रास्ते उसमें पहुँचाया गया कचरा सड़ता है और अपने साथ मिली हुई विषाक्तता से जल-जन्तुओं के प्राणहरण करता है । यह भी एक बड़ी क्षति है ।
सुविख्यात पर्यावरण शास्त्री पॉल एरलीश का कहना है कि जीवन को बचाये रखने के लिए पृथ्वी पर आवश्यक तत्वों का ह्रास एंव पर्यावरण की हानि जितनी अमेरिकावासियों के द्वारा होती है, अन्य देशों के लोगों की वहज से उतनी नहीं होती । औद्योगिक कचरे के अतिरिक्त घरेलू कचरा भी वहाँ सर्वाधिक उत्पन्न होता हैं । वहाँ प्रतिवर्ष 10 करोड़ टायर, 28 अरब बोतलें, 48 अरब डिब्बे एवं 70 लाख गाड़ियों में नित्य-प्रति 20 लाख टन कूड़ा एकत्रित हो जाता है, जिसे ठिकाने लगाने पर ढाई करोड़ डालर प्रतिदिन खर्च होते हैं । ब्रिटेन में प्रतिदिन 2 करोड़ कागज के थैले कचरे के रूप में बाहर फैंक दिये जाते हैं ।
किन्तु अब कचरा उत्पादन में भारत इनसे भी आगे है । यहाँ प्रतिदिन 20 करोड़ कागज के थैले इधर-उधर सड़कों, गलियों,पार्कों में बिखेर दिये जाते हैं । अकेले दिल्ली में हर रोज 384 टन जूठन फैंकी जाती है । संयुक्त राष्ट्र के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि दिल्ली, कलकत्ता , काहिरा, इस्तांबुल जैसे बड़े महानगरों में इस तरह के जूठन से जितना अधिक वातावरण दूषित होता है, उतना और किसी से नहीं ।
विशेषज्ञों ने अपने अध्ययन में बताया है कि सन् 2000 में सर्वाधिक कचरा कागज तथा प्लालिस्टक के रूप में होगा । इसमें 75 प्रतिशत की वृद्धि की संभावना की गयी है और कहा गया है कि तब इसे दबाने के लिए जमीन भी न मिलेगी, मात्र जलाना ही एकमात्र उपाय रह जायेगा, जिससे उठते जहरीले धुएँ एवं उड़ती विषैली धूलों से जन स्वास्थ्य को भारी क्षति उठानी पड़ेगी ।
जनसंख्या वृद्धि के साथ ही गाँव, नगर, हाट, बाजार बढ़ रहे हैं साथ ही कचरे का अनुपात भी ।
इस समस्या को हल करने के लिए सर्वसाधारण को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि कम से कम कचरा उत्पन्न करें । कूड़े को छाँटकर उसमें से कागज बनाने लायक कचरा अलग कर दिया जाय, जिसे गलाकर नया सस्ता कागज बनाया जाय । खाने-पीने के सम्बंध में जूठन न छोड़ने की आदत डाली जाय तथा जूठन के रूप में शेष कचरे को मछलियों तथा पक्षियों के लिए चारे के रूप में प्रयुक्त किया जाय । बचे हुए शेष कचरे को जलाकर उसकी राख खेतों में डालने के लिए खाद रूप में प्रयुक्त किया जाय । घरेलू कचरे को दूसरे सम्मिश्रणों के साथ ईंधन के रूप में भी प्रयुक्त किया जा सकता है । ऐसे उपाय-उपचार अपनाकर बहुत हद तक इस समस्या से निपटा जा सकता है ।
( युग परिवर्तन कैसे? और कब? पृ.3.15)
मनुष्य का मल-मूत्र भी उतना ही उपयोगी है, पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि उससे खाद न बनाकर नदी-नालों में बहा दिया जाता है और पेय जल को दूषित किया जाता है । इसमें दुहरी हानि है- खाद से वंचित रहना और नदियों में फेंककर बीमारियाँ आमन्त्रित करना । आशा की जानी चाहिये कि मनुष्य को सद्बुद्धि आयेगी और कचरे तथा वज्र्य पदार्थों का भी खाद रूप में प्रयोग करने का प्रचलन चल पड़ेगा ।
किन्तु इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि अनेक उपायों के बाद भी इन दिनों कचरे में भयानक वृद्धि हुई है । हर वस्तु कागज, प्लास्टिक के थैलों, पत्तल, दोना, डिब्बा आदि में बिन्द करके बेची जाती है, वस्तु का उपयोग होते ही वह पैकिंग कचरा बन जाती है और उसे जहाँ-तहाँ सड़कों-गलियों में फैंक दिया जाता है । इसकी सफाई में ढेरों खर्च तो होता है, विशेष समस्या यह है कि उसे डाला कहाँ जाय? शहरों के नजदीक जो ऊबड़-खाबड़ जमीनें होती हैं वे इस कचरे से भर जाती हैं ।
देहातों में ऐसी जगहें नहीं के बराबर हैं । जो पोखर, तालाब हैं वे बरसाती पानी एकत्रित करने के काम आते हैं, उन्हें भी भर दिया जाय तो अन्यान्य उपयोगी कामों में बाधा पड़गी ।
घुमा-फिराकर सबसे बड़ा गड्ढा समुद्र रह जाता है । नदियों के रास्ते उसमें पहुँचाया गया कचरा सड़ता है और अपने साथ मिली हुई विषाक्तता से जल-जन्तुओं के प्राणहरण करता है । यह भी एक बड़ी क्षति है ।
सुविख्यात पर्यावरण शास्त्री पॉल एरलीश का कहना है कि जीवन को बचाये रखने के लिए पृथ्वी पर आवश्यक तत्वों का ह्रास एंव पर्यावरण की हानि जितनी अमेरिकावासियों के द्वारा होती है, अन्य देशों के लोगों की वहज से उतनी नहीं होती । औद्योगिक कचरे के अतिरिक्त घरेलू कचरा भी वहाँ सर्वाधिक उत्पन्न होता हैं । वहाँ प्रतिवर्ष 10 करोड़ टायर, 28 अरब बोतलें, 48 अरब डिब्बे एवं 70 लाख गाड़ियों में नित्य-प्रति 20 लाख टन कूड़ा एकत्रित हो जाता है, जिसे ठिकाने लगाने पर ढाई करोड़ डालर प्रतिदिन खर्च होते हैं । ब्रिटेन में प्रतिदिन 2 करोड़ कागज के थैले कचरे के रूप में बाहर फैंक दिये जाते हैं ।
किन्तु अब कचरा उत्पादन में भारत इनसे भी आगे है । यहाँ प्रतिदिन 20 करोड़ कागज के थैले इधर-उधर सड़कों, गलियों,पार्कों में बिखेर दिये जाते हैं । अकेले दिल्ली में हर रोज 384 टन जूठन फैंकी जाती है । संयुक्त राष्ट्र के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि दिल्ली, कलकत्ता , काहिरा, इस्तांबुल जैसे बड़े महानगरों में इस तरह के जूठन से जितना अधिक वातावरण दूषित होता है, उतना और किसी से नहीं ।
विशेषज्ञों ने अपने अध्ययन में बताया है कि सन् 2000 में सर्वाधिक कचरा कागज तथा प्लालिस्टक के रूप में होगा । इसमें 75 प्रतिशत की वृद्धि की संभावना की गयी है और कहा गया है कि तब इसे दबाने के लिए जमीन भी न मिलेगी, मात्र जलाना ही एकमात्र उपाय रह जायेगा, जिससे उठते जहरीले धुएँ एवं उड़ती विषैली धूलों से जन स्वास्थ्य को भारी क्षति उठानी पड़ेगी ।
जनसंख्या वृद्धि के साथ ही गाँव, नगर, हाट, बाजार बढ़ रहे हैं साथ ही कचरे का अनुपात भी ।
इस समस्या को हल करने के लिए सर्वसाधारण को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि कम से कम कचरा उत्पन्न करें । कूड़े को छाँटकर उसमें से कागज बनाने लायक कचरा अलग कर दिया जाय, जिसे गलाकर नया सस्ता कागज बनाया जाय । खाने-पीने के सम्बंध में जूठन न छोड़ने की आदत डाली जाय तथा जूठन के रूप में शेष कचरे को मछलियों तथा पक्षियों के लिए चारे के रूप में प्रयुक्त किया जाय । बचे हुए शेष कचरे को जलाकर उसकी राख खेतों में डालने के लिए खाद रूप में प्रयुक्त किया जाय । घरेलू कचरे को दूसरे सम्मिश्रणों के साथ ईंधन के रूप में भी प्रयुक्त किया जा सकता है । ऐसे उपाय-उपचार अपनाकर बहुत हद तक इस समस्या से निपटा जा सकता है ।
( युग परिवर्तन कैसे? और कब? पृ.3.15)