
संगठित सुव्यवस्थित प्रयास
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
परिवार निर्माण अपने युग की महान् आवश्यकता है, जिसकी उपेक्षा पूरे मनुष्य समाज के भाग्य भविष्य को पतन के गर्त में धकेल देगी। क्योंकि समाज में किन प्रवृत्तियों का बाहुल्य है, यह परिवारों पर ही निर्भर है। परिवार में जिस तरह का वातावरण होगा, उसी तरह के संस्कार लेकर नये व्यक्तित्व बनेंगे और उन्हीं के आधार पर वे समाज का वातावरण बनायेंगे। अतएव समाज में जिन प्रवृत्तियों को प्रचलित करना हो, उनके लिए आवश्यक है परिवार में उस तरह का वातावरण बनाया जाय। परिवार में सुसंस्कारिता का वातावरण बनाना तो अधिकांशतः उससे सम्बन्धित लोगों का ही कर्तव्य है। परन्तु इस विचार को जन-जन तक पहुंचाने के लिए संगठित प्रयास भी आवश्यक है।
इसी के लिए महिला जागरण अभियान शाखाओं द्वारा परिवार निर्माण के संगठित प्रयासों के उद्देश्य से विभिन्न कार्यक्रम आरम्भ किए गए हैं। इन शाखाओं का प्रमुख कार्यक्रम है प्रस्तुत प्रयोजन के लिए निर्धारित कार्यक्रमों को गतिशील बनाना और उनका नेतृत्व कर सकने योग्य समर्थ महिलाओं की संख्या बढ़ाना। समूचे मानव समुदाय की आधी जनसंख्या महिलाओं की है और परिवार संख्या से तो शत-प्रतिशत मनुष्यों का सम्बन्ध है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रस्तुत अभियान से पूरी मनुष्य जाति के वर्तमान और भविष्य का सम्बन्ध है। पूरी जाति के वर्तमान और भविष्य का जिससे सीधा सम्बन्ध हो वह अभियान संसार का भाग्य विधाता ही समझा जा सकता है। इतने बड़े काम को हाथ में लेने वाले, इतना बड़ा उत्तरदायित्व को संभालने वाले अभियान को हर दृष्टि से ‘महान्’ ही कहा जा सकता है। युग परिवर्तन की सम्भावना सच्चे अर्थों में इसी पर निर्भर है। जो इसे अग्रगामी बनाने के लिए कार्यक्षेत्र में उतरते हैं उनकी दूरदर्शिता और उदारता को जितना सराहा जाय उतना ही कम है।
लोक शिक्षण को गतिशील बनाना। इस अभियान में लोगों की आस्थायें बदलती हैं और दृष्टिकोण ऊंचा करना है तथा ढर्रे में परिवर्तन लाना है। यह कार्य कठिन है। वस्तुओं की हेरा फेरी आसानी से हो जाती है, साधन जुटाने एवं व्यवस्था बनाने का कार्य भी प्रतिभाशील लोगों के लिए उतना कठिन नहीं है। कठिन तो मनुष्यों का प्रभाव, चिन्तन एवं अभ्यास बदलना है। यह कार्य मात्र भावभरी श्रद्धा के सहारे, धर्म तन्त्र के माध्यम से ही हो सकता है।
बच्चों जैसा उथला शिक्षण कुछ अधिक काम नहीं कर सकता है, महिला कल्याण, समाज कल्याण के नाम पर चल रही प्रवृत्तियां कितनी धन शक्ति और कितनी जन शक्ति खर्च कराने के उपरान्त, कितनी फलप्रद होती हैं, इसे हम सब प्रत्यक्ष देखते हैं। अभिष्ट प्रयोजन के लिए यदि वस्तुतः कुछ ठोस प्रयत्न करना और ठोस परिणाम पाना है तो इसके लिए धर्मतन्त्र का उपयोग किये बिना दूसरा रास्ता नहीं। यों आज उस क्षेत्र में पाखण्ड और अन्धविश्वास का बोलबाला है और निहित स्वार्थों की तूती बोलती है। इतने पर भी उसकी मूलभूत क्षमता सनातन और परिस्थिति में अपना अस्तित्व बनाये रहेगी। धर्म का सही उपयोग होने लगे तो उसके प्रति लोक श्रद्धा को वापिस लौटाते देर न लगेगी। साथ ही उसकी उपयोगिता प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगेगी। यह किया भी जाना चाहिए। यही किया भी जायगा।
परिवार निर्माण अभियान को अग्रगामी बनाने के लिए इसी तन्त्र का सहारा लेना पड़ेगा। परन्तु इस आन्दोलन के लिए बड़े सभा-सम्मेलनों की या बहुत बड़े प्रचार तन्त्र की आवश्यकता नहीं है। कुटीर उद्योग के स्वर पर ही इसे घर-घर पहुंचाने और आंगन-आंगन में उगाने की आवश्यकता है। इसके लिए प्रधान उपचार प्रचार है परिवार गोष्ठियों की व्यवस्था हर्षोत्सव के रूप में नियोजित भावभरे आयोजन इस प्रयोजन के लिए सबसे अधिक उपयुक्त हो सकते हैं। घर परिवार की, पड़ौस रिश्ते की, मित्र मण्डली इकट्ठी होकर किसी परम्परा को अपनाने एवं गतिशील करने में अधिक सफल हो सकती है। अपने समझे जाने वाले लोग कभी भी भावभरी मनःस्थिति में होंगे और किसी उपयोगी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे तो उनके फलित होने की सम्भावना स्वभावतः अधिक रहेगी। परिवार गोष्ठियों को प्रस्तुत उद्देश्य की पूर्ति के लिए अत्यधिक उपयोगी माना जा सकता है।
भारतीय मनीषियों ने इन परिवार गोष्ठियों को धार्मिक वातावरण में सम्पन्न करने के लिए ही संस्कारों और पर्वों के रूप में गृह उत्सवों की प्रथा परम्परा प्रचलित थी। इस परम्परा प्रक्रिया को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए।
परिवार में धार्मिक वातावरण बनाने के लिए उपासना प्रक्रिया एवं कथा शैली का विकास करना होगा। साथ ही ज्ञान गोष्ठियों की प्रक्रिया भी तेजी से चलानी होगी। यह कार्य परिवारों में संस्कारों के निमित्त होने वाले छोटे-छोटे आयोजनों से जितनी अच्छी तरह सम्पन्न हो सकता है उतना और किसी प्रकार नहीं। (1) पुंसवन (2) नाम करण (3) अन्न प्राशन (4) मुण्डन (5) विद्यारम्भ, यह पांच संस्कार ऐसे हैं जो किये जाते तो छोटे बालकों पर हैं, पर वस्तुतः उन उत्सवों के साथ जुड़े हुए क्रिया-कृत्यों एवं विधि-विधानों में उस परिवार के लोगों का ही प्रशिक्षण है कि उन्हें बाल विकास के निमित्त स्वयं क्या बनना और क्या करना चाहिए उन धर्म-कृत्यों के संचालक, आयोजनों में उपस्थित लोगों से कर्म काण्ड की व्याख्या करते हुए वह सब कुछ कह सकते हैं जो उस परिवार को परिष्कृत करने के लिए कहा जाना आवश्यक है।
प्राचीन काल में इस प्रयोजन के लिए संस्कारों और पर्वों के रूप में गृह उत्सवों की प्रथा प्रचलित थी और उस माध्यम से सभी को उपयोगी प्रेरणाएं मिलती थी। सम्मिलित होने वाले उन धर्म कृत्यों को अभिष्ट प्रगति के लिए गुरुजनों द्वारा अपनी परिस्थितियों के अनुरूप मार्ग-दर्शन प्राप्त करते थे। यों लकीर पीटने की तरह उन प्रथाओं की चिन्ह पूजा तो अभी भी होती है, पर उनमें अनुप्राणित करने की जो प्रखरता थी, वह समाप्त हो गई। उसे पुनर्जीवित करने का ठीक यही समय है। देवालय तो पहले से ही बना है उसका जीर्णोद्धार हम सब मिल-जुलकर करलें तो भी यह काम गर्व गौरव की बात नहीं है।
भारतीय धर्मानुयायी को सोलह बार या दस बार सुसंस्कारित किया जाता है और इसके बदले जन्म से लेकर मरण पर्यन्त बार-बार ऐसे प्रयोजन किये जाते हैं जिनमें देवाह्वन, धर्मानुष्ठान एवं उपयोगी मार्ग दर्शन का समुचित समावेश है। (1) गर्भावस्था में पुंसवन (2) जन्म के उपरान्त नामकरण (3) छह महीने का होने पर अन्नप्राशन (4) एक वर्ष की आयु में मुण्डन (5) तीन वर्ष का होने पर विद्यारम्भ (6) बारह वर्ष का यज्ञोपवीत (7) बीस-पच्चीस के बीच विवाह (8) चालीस के उपरान्त वानप्रस्थ (9) पैंसठ के बाद संन्यास। जीवित स्थिति में यह नौ संस्कार ही प्रधान हैं। दसवां अन्त्येष्टि जीवन समाप्त होने के उपरान्त किया जाता है। यों संस्कारों की संख्या सोलह बताई गई है और उन सबके विधि-विधान भी हैं, पर वर्तमान व्यस्तता और महंगाई की परिस्थिति में यह नौ बन पड़े तो भी कम सन्तोष की बात नहीं है।
उपरोक्त नौ में पांच ऐसे हैं जो छोटी धर्म गोष्ठियां के रूप में कुशल महिलाओं के नेतृत्व में परस्पर मिलजुल कर ही सम्पन्न हो सकते हैं। (1) पुंसवन (2) नामकरण (3) अन्नप्राशन (4) मुण्डन (5) विद्यारम्भ के धर्मानुष्ठानों में बच्चों के प्रति शुभ कामना प्रकट करने तथा उनके अस्तित्व अवतरण पर आनन्द मनाने का अवसर मिलता है। इसके साथ-साथ यह पूरी-पूरी गुंजाइश है कि उन अवसरों से तालमेल बिठाते हुए परिवार की स्थिति के अनुरूप समस्याओं के समाधान एवं प्रगति प्रोत्साहन के लिए उपयोगी मार्गदर्शन किया जा सके। जिनके नेतृत्व में यह आयोजन होंगे वे अपनी कुशलता एवं दूरदर्शिता के आधार पर इन आयोजनों के माध्यम से उपयोगी सुधार परिवर्तन की दृष्टि से बहुत कुछ कर सकती हैं। रचनात्मक सुधार पैदा कर सकती हैं। प्रेरणाप्रद वातावरण बना सकती हैं। इनमें से हर अवसर को उसमें क्रियान्वित किये जाने वाले कर्मकाण्डों की, श्लोक मन्त्रों की, प्रचलन कारणों की ऐसी व्यवस्था कर सकती हैं जिसमें उस परिवार की विशेष परिस्थितियों के अनुरूप आलोक एवं परामर्श समन्वित हो। एक-दूसरे के हर्ष शोक में सम्मिलित होने का प्रचलन मानवी सामाजिकता का उपयोगी चिन्ह है। जिन परिवारों में महिला शाखाओं की सदस्या हैं उनमें इस प्रकार के संस्कार के आयोजन समय-समय पर सरलतापूर्वक सम्पन्न होते रह सकते हैं। निर्धारित तिथि पर मुहल्ले-पड़ौस में आमंत्रण दिया जाय। (1) 24 बार सामुहिक गायत्री पाठ (2) गायत्री हवन (3) पूर्णाहुति से पूर्व संस्कार का विशेष कृत्य (4) भजन कीर्तन (5) प्रवचन। इन पांच प्रकरणों में सभी संस्कार प्रायः एक जैसी क्रिया पद्धति से सम्पन्न होते रहते हैं। थोड़े से विशेष कृत्य ही हर संस्कार में भिन्न होते हैं। पूर्णाहुति से पूर्व उन्हें करा देने की छोटी-छोटी विधियां भी वे महिलाएं आसानी से करा सकता है जो हवन कराने में प्रवीण हैं।
संस्कार परम्परा को घर-घर में प्रचलित पुनर्जीवित करना है। इसलिए उनका स्वरूप इतना सादा और सस्ता होना चाहिए कि निर्धन स्तर के लोगों को भी मन मसोस कर न बैठना पड़े। गरीबी और अमीरी का प्रदर्शन करने वाली कोई भिन्नता इन आयोजनों में न रहने पाये इसलिए उन्हें न तो आडम्बरपूर्ण होना चाहिए और न खर्चीला। शाखा की ओर से ही सारी व्यवस्था की जाय। हवन सामग्री, समिधा अन्यान्य उपचार उपकरण शाखा की ओर से भेजे जांय। स्वागत के लिए भुनी सौंफ का प्रबन्ध भी शाखा ही करे। एक छटांक शुद्ध घी का प्रबन्ध भार ही उन पर डाला जाय। जिनके यहां यह आयोजन हों। आतिथ्य में पानी के अतिरिक्त और किसी के यहां कुछ भी स्वीकार न किया जायगा। इस प्रकार यह आयोजन कराने वाले पर घी के अतिरिक्त कुछ भार न पड़ेगा। अन्य खर्च एवं प्रबन्ध शाखा की ओर से किया जायगा। उसके बदले में शाखा को कोई दान प्राप्त हो तो उसमें न कोई आपत्ति की जायगी और न मांग रखी जायेगी। इस प्रकार यह आयोजन सदस्यों के घरों पर वर्ष में एकाध बार तो हो ही जाया करेंगे। बड़े परिवारों में तो कई-कई बार भी उनकी बारी आ सकती है। ऐसे अवसर पर कई बच्चों के संस्कार इकट्ठे एक ही तिथि में भी किये जा सकते हैं।
बच्चों को सभी प्यार करते हैं और उनके कल्याणकारी कामना एवं हर्ष अभिव्यक्ति के लिए उत्सव मनाने की इच्छा सभी को होती हैं। जन्म दिन आदि पर प्रायः आवश्यकता हैं। चिर पुरातन को नित नवीन साथ जोड़ देने से श्रद्धा और विवेक का समन्वय बन पड़ता है और उसका प्रतिफल हर दृष्टि से उत्साहवर्धक होता है। इन धर्मोत्सवों को प्रशिक्षण परक और सरल सस्ता बनाया जा सके तो उससे अच्छा परिवार प्रशिक्षण दूसरा हो ही नहीं सकता। अभियान द्वारा निर्धारित पद्धति में यह दोनों ही तथ्य भली भांति जोड़ दिये गये हैं। आतिथ्य, झंझट भरी परिपाटी एवं दक्षिणा लूट-खसोट के दरवाजे पूरी तरह बन्द कर दिये गये हैं, ताकि निर्धन से निर्धन और व्यस्त से व्यस्त व्यक्ति भी इन योजनाओं के सहारे अपने परिवार में प्रभावी हर्षोत्सव का आनन्द ले सकें। इसी प्रकार शाखा सदस्यों में से ही ऐसी महिलायें प्रशिक्षित की जा रही हैं जो इन आयोजनों के कर्म काण्डों की व्याख्या करने के साथ-साथ उस परिवार की, उपस्थित समुदाय को अभीष्ट प्रेरणाओं से अनुप्राणित कर सकें।
इस प्रचलन को आरम्भ करने एवं गतिशील बनाने में बहुत कठिनाई नहीं है। क्योंकि परम्परा प्रभाव साथ जुड़ा होने से महिलाओं को उसके लिए सहज ही सहमत किया जा सकता है। बाल मंगल के नाम पर वे कुछ भी कर सकती हैं, फिर धर्मानुष्ठानों में तो उनका सहज उत्साह होना स्वाभाविक है। संगठन द्वारा घर-घर जाकर अथवा ज्ञान गोष्ठियां बुलाकर महत्व बनाने एवं उत्साह उत्पन्न करने का प्रयास किया जाय तो घर-घर से इसकी मांग उठेगी और संगठन को इसकी व्यवस्था बनाने के लिए सुविस्तृत एवं सुनियोजित प्रबन्ध करना पड़ेगा। बच्चों के आयोजन, महिलाएं ही मिलजुल कर लिया करें। किन्तु सदस्याओं अथवा सभ्यों के जन्म दिन ऐसे ही जिनमें नर-नारी सभी की उपस्थिति बड़ी संख्या में होनी चाहिए और उन्हें सफल बनाने के लिए अपेक्षाकृत अधिक दौड़-धूप की जानी चाहिए। जन्मदिन आयोजन में व्यक्ति निर्माण के समस्त तत्व विद्यमान हैं। आत्म-निर्माण के लिए जितनी प्रेरणाएं अभीष्ट हैं, व्यक्ति विशेष को संकेत किया जाना आवश्यक है, वह सब कुछ आयोजन के क्रिया कृत्यों की विवेचना करते हुए भी कहे जा सकते हैं। परिवार निर्माण और आत्म निर्माण की समन्वित शिक्षण प्रक्रिया जन्म दिन आयोजन के भाव भरे वातावरण में इस प्रकार चलाई जा सकती है कि उसका गहरा प्रभाव पड़े और तद्नुकूल आचरण का क्रम चल पड़े। इन आयोजनों के माध्यम से नये जन समुदाय से सम्पर्क साधना और उन्हें प्रभावित करके संगठन में सम्मिलित करने का उपक्रम तेजी और सफलतापूर्वक चल सकता है।
शाखा संगठनों को इनके लिए घर-घर उत्साह उत्पन्न करने के अतिरिक्त यह प्रबन्ध भी करना होगा कि प्रभावी सदस्य वहां पहुंच कर सारी व्यवस्था स्वयं संभाल सकें पूर्व परिचित प्रक्रिया न हो तो हर किसी को अड़चन का सामना करना पड़े, हर वस्तु बिना भाग-दौड़ के मिल जाये। व्यवस्था संचालन में अड़चन न पड़े, वह उत्तरदायित्व शाखा को ही संभालना चाहिए। इसके लिए सुयोग्य, अनुभवी और प्रभावशाली कार्यकर्त्ताओं की संख्या बढ़ानी चाहिए तथा इन आयोजनों में जिन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है, उन सबका प्रबन्ध शाखा के पास रहना चाहिए। ताकि किसी को भाग-दौड़ न करनी पड़े और सभी आवश्यक वस्तुएं एक ही जगह तत्काल उपलब्ध हो सकें। गीत-वाद्य की व्यवस्था इन अवसरों पर हो सके तो आनन्द एवं आकर्षण में और भी अधिक वृद्धि हो जाती है। महिलाएं आपस में मिल-जुलकर भजन मण्डली बना सकें तो बहुत ही उत्तम है। अन्यथा आवश्यकतानुसार पुरुष गायक-वादकों का भी प्रबन्ध किया जा सकता है। एक सीमा तक तो यह कार्य टेप रिकार्डर और लाउडस्पीकर के सम्मिलित सुयोग से भी हो सकता है। शाखा संगठन को इन पारस्परिक आयोजनों का, ज्ञान गोष्ठियों का विस्तार एवं प्रबन्ध करने में प्रमुखतया संलग्न होना चाहिए। इस माध्यम से वे उपयोगी वातावरण बना सकेंगी और मिशन के लक्ष्य को व्यापक बनाने की दृष्टि से बहुत कुछ कर सकेंगी शाखा के कार्यकर्ताओं की टोलियां जन सम्पर्क साधने और उत्साह उत्पन्न करने तथा प्रबन्ध बनाने के दोनों प्रयोजनों को पूरा करती हैं।
संस्कारों के समान ही पर्व त्यौहारों को प्रेरणाप्रद ढंग से मनाया जाना चाहिए। अपने भारतीय समाज में अनेकानेक पर्व त्यौहार हैं। कहते हैं कि उनसे वर्ष का कोई दिन खाली नहीं रखा गया। इन सबका मनाया जाना तो कठिन है पर इनमें से कुछ बहु प्रचलितों को तो प्रेरणाप्रद वातावरण उत्पन्न करने की दृष्टि से, परिष्कृत ढंग से मनाया ही जा सकता है। (1) दिवाली (2) गीता जयन्ती (3) बसन्त पंचमी (4) होली (5) रामनवमी (6) गायत्री जयन्ती (7) गुरुपूर्णिमा (8) श्रावणी (9) कृष्ण जन्माष्टमी (10) विजय दशमी, यह पर्व आमतौर से सर्वत्र प्रचलित हैं। प्रान्त विशेष में शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, मकर संक्रांति, बैसाखी आदि को भी विशेष महत्व मिला हुआ है। स्थानीय मान्यताओं के अनुरूप इनमें से जहां जो विशेष उत्साह से मनाये जाते हों उनमें काट-छांट करके ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि औसतन हर महीने एक पर्व मनाया जाया करे। साप्ताहिक सत्संग में मात्र महिलाओं की उपस्थिति होती है। पर्व आयोजनों में स्त्री-पुरुष सभी मिलजुल कर उपस्थित हुआ करें। मनाने का ढंग प्रायः वही है जो साप्ताहिक सत्संगों में रखा गया है। (1) सामूहिक सस्वर संगीत सहित गायत्री पाठ 24 बार (2) गायत्री हवन (3) भजन-कीर्तन (4) प्रवचन। संस्कारों में पूर्णाहुति से कुछ पूर्व विशेष कृत्य किये जाते हैं। पर्वों में देव पूजन के समय ही पर्व की अधिष्ठात्री देव सत्ता की सामूहिक पूजा अर्चा होती है। प्रवचनों का विषय बदलता रहता है। संस्कारों के समय परिवार समस्याओं में से प्रत्येक पर प्रकाश डाला जा सकता है। इसी प्रकार सामाजिक समस्याओं के समाधान एवं सामूहिक प्रगति के उपायों का सुविस्तृत और सामाजिक विवेचन पर्वों के इतिहासों एवं प्रयोजनों के साथ तालमेल बिठाते हुए भली प्रकार किया जा सकता है। संस्कार एवं पर्व पद्धति पुस्तक में यह सभी कर्मकाण्ड पहले से ही प्रकाशित हैं। इस सन्दर्भ में छपी हुई छोटी-छोटी पुस्तकों में विस्तार पूर्वक प्रकाश डाला जा चुका है। पर्व और संस्कारों के पीछे छिपे उद्देश्यों के सम्बन्ध में उन पद्धतियों में से अनेक श्लोक भी दिये गये हैं जो उनके साथ जुड़े उद्देश्य एवं कर्त्तव्यों पर प्रकाश डालते हैं। इन आयोजनों के माध्यम से युग निर्माण योजना के दो उद्देश्यों को जन मानस में उतारने से उत्साहवर्धक सफलता मिल सकती है। धर्मश्रद्धा एवं प्रथा परम्पराओं का समन्वय रहने से इन आयोजनों में ऐसी भाव-संवेदना जुड़ जाती है जो प्रस्तुत प्रसंग को हृदयंगम कराने में असाधारण रूप से समर्थ सिद्ध होती है। परिवार निर्माण के सम्बन्ध में इन आयोजनों के माध्यम से लोक मानस को प्रशिक्षित करने में अन्य उपायों की तुलना में अधिक सरलता रहती है।
लोक शिक्षण को गतिशील बनाना। इस अभियान में लोगों की आस्थायें बदलती हैं और दृष्टिकोण ऊंचा करना है तथा ढर्रे में परिवर्तन लाना है। यह कार्य कठिन है। वस्तुओं की हेरा फेरी आसानी से हो जाती है, साधन जुटाने एवं व्यवस्था बनाने का कार्य भी प्रतिभाशील लोगों के लिए उतना कठिन नहीं है। कठिन तो मनुष्यों का प्रभाव, चिन्तन एवं अभ्यास बदलना है। यह कार्य मात्र भावभरी श्रद्धा के सहारे, धर्म तन्त्र के माध्यम से ही हो सकता है।
बच्चों जैसा उथला शिक्षण कुछ अधिक काम नहीं कर सकता है, महिला कल्याण, समाज कल्याण के नाम पर चल रही प्रवृत्तियां कितनी धन शक्ति और कितनी जन शक्ति खर्च कराने के उपरान्त, कितनी फलप्रद होती हैं, इसे हम सब प्रत्यक्ष देखते हैं। अभिष्ट प्रयोजन के लिए यदि वस्तुतः कुछ ठोस प्रयत्न करना और ठोस परिणाम पाना है तो इसके लिए धर्मतन्त्र का उपयोग किये बिना दूसरा रास्ता नहीं। यों आज उस क्षेत्र में पाखण्ड और अन्धविश्वास का बोलबाला है और निहित स्वार्थों की तूती बोलती है। इतने पर भी उसकी मूलभूत क्षमता सनातन और परिस्थिति में अपना अस्तित्व बनाये रहेगी। धर्म का सही उपयोग होने लगे तो उसके प्रति लोक श्रद्धा को वापिस लौटाते देर न लगेगी। साथ ही उसकी उपयोगिता प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगेगी। यह किया भी जाना चाहिए। यही किया भी जायगा।
परिवार निर्माण अभियान को अग्रगामी बनाने के लिए इसी तन्त्र का सहारा लेना पड़ेगा। परन्तु इस आन्दोलन के लिए बड़े सभा-सम्मेलनों की या बहुत बड़े प्रचार तन्त्र की आवश्यकता नहीं है। कुटीर उद्योग के स्वर पर ही इसे घर-घर पहुंचाने और आंगन-आंगन में उगाने की आवश्यकता है। इसके लिए प्रधान उपचार प्रचार है परिवार गोष्ठियों की व्यवस्था हर्षोत्सव के रूप में नियोजित भावभरे आयोजन इस प्रयोजन के लिए सबसे अधिक उपयुक्त हो सकते हैं। घर परिवार की, पड़ौस रिश्ते की, मित्र मण्डली इकट्ठी होकर किसी परम्परा को अपनाने एवं गतिशील करने में अधिक सफल हो सकती है। अपने समझे जाने वाले लोग कभी भी भावभरी मनःस्थिति में होंगे और किसी उपयोगी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे तो उनके फलित होने की सम्भावना स्वभावतः अधिक रहेगी। परिवार गोष्ठियों को प्रस्तुत उद्देश्य की पूर्ति के लिए अत्यधिक उपयोगी माना जा सकता है।
भारतीय मनीषियों ने इन परिवार गोष्ठियों को धार्मिक वातावरण में सम्पन्न करने के लिए ही संस्कारों और पर्वों के रूप में गृह उत्सवों की प्रथा परम्परा प्रचलित थी। इस परम्परा प्रक्रिया को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए।
परिवार में धार्मिक वातावरण बनाने के लिए उपासना प्रक्रिया एवं कथा शैली का विकास करना होगा। साथ ही ज्ञान गोष्ठियों की प्रक्रिया भी तेजी से चलानी होगी। यह कार्य परिवारों में संस्कारों के निमित्त होने वाले छोटे-छोटे आयोजनों से जितनी अच्छी तरह सम्पन्न हो सकता है उतना और किसी प्रकार नहीं। (1) पुंसवन (2) नाम करण (3) अन्न प्राशन (4) मुण्डन (5) विद्यारम्भ, यह पांच संस्कार ऐसे हैं जो किये जाते तो छोटे बालकों पर हैं, पर वस्तुतः उन उत्सवों के साथ जुड़े हुए क्रिया-कृत्यों एवं विधि-विधानों में उस परिवार के लोगों का ही प्रशिक्षण है कि उन्हें बाल विकास के निमित्त स्वयं क्या बनना और क्या करना चाहिए उन धर्म-कृत्यों के संचालक, आयोजनों में उपस्थित लोगों से कर्म काण्ड की व्याख्या करते हुए वह सब कुछ कह सकते हैं जो उस परिवार को परिष्कृत करने के लिए कहा जाना आवश्यक है।
प्राचीन काल में इस प्रयोजन के लिए संस्कारों और पर्वों के रूप में गृह उत्सवों की प्रथा प्रचलित थी और उस माध्यम से सभी को उपयोगी प्रेरणाएं मिलती थी। सम्मिलित होने वाले उन धर्म कृत्यों को अभिष्ट प्रगति के लिए गुरुजनों द्वारा अपनी परिस्थितियों के अनुरूप मार्ग-दर्शन प्राप्त करते थे। यों लकीर पीटने की तरह उन प्रथाओं की चिन्ह पूजा तो अभी भी होती है, पर उनमें अनुप्राणित करने की जो प्रखरता थी, वह समाप्त हो गई। उसे पुनर्जीवित करने का ठीक यही समय है। देवालय तो पहले से ही बना है उसका जीर्णोद्धार हम सब मिल-जुलकर करलें तो भी यह काम गर्व गौरव की बात नहीं है।
भारतीय धर्मानुयायी को सोलह बार या दस बार सुसंस्कारित किया जाता है और इसके बदले जन्म से लेकर मरण पर्यन्त बार-बार ऐसे प्रयोजन किये जाते हैं जिनमें देवाह्वन, धर्मानुष्ठान एवं उपयोगी मार्ग दर्शन का समुचित समावेश है। (1) गर्भावस्था में पुंसवन (2) जन्म के उपरान्त नामकरण (3) छह महीने का होने पर अन्नप्राशन (4) एक वर्ष की आयु में मुण्डन (5) तीन वर्ष का होने पर विद्यारम्भ (6) बारह वर्ष का यज्ञोपवीत (7) बीस-पच्चीस के बीच विवाह (8) चालीस के उपरान्त वानप्रस्थ (9) पैंसठ के बाद संन्यास। जीवित स्थिति में यह नौ संस्कार ही प्रधान हैं। दसवां अन्त्येष्टि जीवन समाप्त होने के उपरान्त किया जाता है। यों संस्कारों की संख्या सोलह बताई गई है और उन सबके विधि-विधान भी हैं, पर वर्तमान व्यस्तता और महंगाई की परिस्थिति में यह नौ बन पड़े तो भी कम सन्तोष की बात नहीं है।
उपरोक्त नौ में पांच ऐसे हैं जो छोटी धर्म गोष्ठियां के रूप में कुशल महिलाओं के नेतृत्व में परस्पर मिलजुल कर ही सम्पन्न हो सकते हैं। (1) पुंसवन (2) नामकरण (3) अन्नप्राशन (4) मुण्डन (5) विद्यारम्भ के धर्मानुष्ठानों में बच्चों के प्रति शुभ कामना प्रकट करने तथा उनके अस्तित्व अवतरण पर आनन्द मनाने का अवसर मिलता है। इसके साथ-साथ यह पूरी-पूरी गुंजाइश है कि उन अवसरों से तालमेल बिठाते हुए परिवार की स्थिति के अनुरूप समस्याओं के समाधान एवं प्रगति प्रोत्साहन के लिए उपयोगी मार्गदर्शन किया जा सके। जिनके नेतृत्व में यह आयोजन होंगे वे अपनी कुशलता एवं दूरदर्शिता के आधार पर इन आयोजनों के माध्यम से उपयोगी सुधार परिवर्तन की दृष्टि से बहुत कुछ कर सकती हैं। रचनात्मक सुधार पैदा कर सकती हैं। प्रेरणाप्रद वातावरण बना सकती हैं। इनमें से हर अवसर को उसमें क्रियान्वित किये जाने वाले कर्मकाण्डों की, श्लोक मन्त्रों की, प्रचलन कारणों की ऐसी व्यवस्था कर सकती हैं जिसमें उस परिवार की विशेष परिस्थितियों के अनुरूप आलोक एवं परामर्श समन्वित हो। एक-दूसरे के हर्ष शोक में सम्मिलित होने का प्रचलन मानवी सामाजिकता का उपयोगी चिन्ह है। जिन परिवारों में महिला शाखाओं की सदस्या हैं उनमें इस प्रकार के संस्कार के आयोजन समय-समय पर सरलतापूर्वक सम्पन्न होते रह सकते हैं। निर्धारित तिथि पर मुहल्ले-पड़ौस में आमंत्रण दिया जाय। (1) 24 बार सामुहिक गायत्री पाठ (2) गायत्री हवन (3) पूर्णाहुति से पूर्व संस्कार का विशेष कृत्य (4) भजन कीर्तन (5) प्रवचन। इन पांच प्रकरणों में सभी संस्कार प्रायः एक जैसी क्रिया पद्धति से सम्पन्न होते रहते हैं। थोड़े से विशेष कृत्य ही हर संस्कार में भिन्न होते हैं। पूर्णाहुति से पूर्व उन्हें करा देने की छोटी-छोटी विधियां भी वे महिलाएं आसानी से करा सकता है जो हवन कराने में प्रवीण हैं।
संस्कार परम्परा को घर-घर में प्रचलित पुनर्जीवित करना है। इसलिए उनका स्वरूप इतना सादा और सस्ता होना चाहिए कि निर्धन स्तर के लोगों को भी मन मसोस कर न बैठना पड़े। गरीबी और अमीरी का प्रदर्शन करने वाली कोई भिन्नता इन आयोजनों में न रहने पाये इसलिए उन्हें न तो आडम्बरपूर्ण होना चाहिए और न खर्चीला। शाखा की ओर से ही सारी व्यवस्था की जाय। हवन सामग्री, समिधा अन्यान्य उपचार उपकरण शाखा की ओर से भेजे जांय। स्वागत के लिए भुनी सौंफ का प्रबन्ध भी शाखा ही करे। एक छटांक शुद्ध घी का प्रबन्ध भार ही उन पर डाला जाय। जिनके यहां यह आयोजन हों। आतिथ्य में पानी के अतिरिक्त और किसी के यहां कुछ भी स्वीकार न किया जायगा। इस प्रकार यह आयोजन कराने वाले पर घी के अतिरिक्त कुछ भार न पड़ेगा। अन्य खर्च एवं प्रबन्ध शाखा की ओर से किया जायगा। उसके बदले में शाखा को कोई दान प्राप्त हो तो उसमें न कोई आपत्ति की जायगी और न मांग रखी जायेगी। इस प्रकार यह आयोजन सदस्यों के घरों पर वर्ष में एकाध बार तो हो ही जाया करेंगे। बड़े परिवारों में तो कई-कई बार भी उनकी बारी आ सकती है। ऐसे अवसर पर कई बच्चों के संस्कार इकट्ठे एक ही तिथि में भी किये जा सकते हैं।
बच्चों को सभी प्यार करते हैं और उनके कल्याणकारी कामना एवं हर्ष अभिव्यक्ति के लिए उत्सव मनाने की इच्छा सभी को होती हैं। जन्म दिन आदि पर प्रायः आवश्यकता हैं। चिर पुरातन को नित नवीन साथ जोड़ देने से श्रद्धा और विवेक का समन्वय बन पड़ता है और उसका प्रतिफल हर दृष्टि से उत्साहवर्धक होता है। इन धर्मोत्सवों को प्रशिक्षण परक और सरल सस्ता बनाया जा सके तो उससे अच्छा परिवार प्रशिक्षण दूसरा हो ही नहीं सकता। अभियान द्वारा निर्धारित पद्धति में यह दोनों ही तथ्य भली भांति जोड़ दिये गये हैं। आतिथ्य, झंझट भरी परिपाटी एवं दक्षिणा लूट-खसोट के दरवाजे पूरी तरह बन्द कर दिये गये हैं, ताकि निर्धन से निर्धन और व्यस्त से व्यस्त व्यक्ति भी इन योजनाओं के सहारे अपने परिवार में प्रभावी हर्षोत्सव का आनन्द ले सकें। इसी प्रकार शाखा सदस्यों में से ही ऐसी महिलायें प्रशिक्षित की जा रही हैं जो इन आयोजनों के कर्म काण्डों की व्याख्या करने के साथ-साथ उस परिवार की, उपस्थित समुदाय को अभीष्ट प्रेरणाओं से अनुप्राणित कर सकें।
इस प्रचलन को आरम्भ करने एवं गतिशील बनाने में बहुत कठिनाई नहीं है। क्योंकि परम्परा प्रभाव साथ जुड़ा होने से महिलाओं को उसके लिए सहज ही सहमत किया जा सकता है। बाल मंगल के नाम पर वे कुछ भी कर सकती हैं, फिर धर्मानुष्ठानों में तो उनका सहज उत्साह होना स्वाभाविक है। संगठन द्वारा घर-घर जाकर अथवा ज्ञान गोष्ठियां बुलाकर महत्व बनाने एवं उत्साह उत्पन्न करने का प्रयास किया जाय तो घर-घर से इसकी मांग उठेगी और संगठन को इसकी व्यवस्था बनाने के लिए सुविस्तृत एवं सुनियोजित प्रबन्ध करना पड़ेगा। बच्चों के आयोजन, महिलाएं ही मिलजुल कर लिया करें। किन्तु सदस्याओं अथवा सभ्यों के जन्म दिन ऐसे ही जिनमें नर-नारी सभी की उपस्थिति बड़ी संख्या में होनी चाहिए और उन्हें सफल बनाने के लिए अपेक्षाकृत अधिक दौड़-धूप की जानी चाहिए। जन्मदिन आयोजन में व्यक्ति निर्माण के समस्त तत्व विद्यमान हैं। आत्म-निर्माण के लिए जितनी प्रेरणाएं अभीष्ट हैं, व्यक्ति विशेष को संकेत किया जाना आवश्यक है, वह सब कुछ आयोजन के क्रिया कृत्यों की विवेचना करते हुए भी कहे जा सकते हैं। परिवार निर्माण और आत्म निर्माण की समन्वित शिक्षण प्रक्रिया जन्म दिन आयोजन के भाव भरे वातावरण में इस प्रकार चलाई जा सकती है कि उसका गहरा प्रभाव पड़े और तद्नुकूल आचरण का क्रम चल पड़े। इन आयोजनों के माध्यम से नये जन समुदाय से सम्पर्क साधना और उन्हें प्रभावित करके संगठन में सम्मिलित करने का उपक्रम तेजी और सफलतापूर्वक चल सकता है।
शाखा संगठनों को इनके लिए घर-घर उत्साह उत्पन्न करने के अतिरिक्त यह प्रबन्ध भी करना होगा कि प्रभावी सदस्य वहां पहुंच कर सारी व्यवस्था स्वयं संभाल सकें पूर्व परिचित प्रक्रिया न हो तो हर किसी को अड़चन का सामना करना पड़े, हर वस्तु बिना भाग-दौड़ के मिल जाये। व्यवस्था संचालन में अड़चन न पड़े, वह उत्तरदायित्व शाखा को ही संभालना चाहिए। इसके लिए सुयोग्य, अनुभवी और प्रभावशाली कार्यकर्त्ताओं की संख्या बढ़ानी चाहिए तथा इन आयोजनों में जिन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है, उन सबका प्रबन्ध शाखा के पास रहना चाहिए। ताकि किसी को भाग-दौड़ न करनी पड़े और सभी आवश्यक वस्तुएं एक ही जगह तत्काल उपलब्ध हो सकें। गीत-वाद्य की व्यवस्था इन अवसरों पर हो सके तो आनन्द एवं आकर्षण में और भी अधिक वृद्धि हो जाती है। महिलाएं आपस में मिल-जुलकर भजन मण्डली बना सकें तो बहुत ही उत्तम है। अन्यथा आवश्यकतानुसार पुरुष गायक-वादकों का भी प्रबन्ध किया जा सकता है। एक सीमा तक तो यह कार्य टेप रिकार्डर और लाउडस्पीकर के सम्मिलित सुयोग से भी हो सकता है। शाखा संगठन को इन पारस्परिक आयोजनों का, ज्ञान गोष्ठियों का विस्तार एवं प्रबन्ध करने में प्रमुखतया संलग्न होना चाहिए। इस माध्यम से वे उपयोगी वातावरण बना सकेंगी और मिशन के लक्ष्य को व्यापक बनाने की दृष्टि से बहुत कुछ कर सकेंगी शाखा के कार्यकर्ताओं की टोलियां जन सम्पर्क साधने और उत्साह उत्पन्न करने तथा प्रबन्ध बनाने के दोनों प्रयोजनों को पूरा करती हैं।
संस्कारों के समान ही पर्व त्यौहारों को प्रेरणाप्रद ढंग से मनाया जाना चाहिए। अपने भारतीय समाज में अनेकानेक पर्व त्यौहार हैं। कहते हैं कि उनसे वर्ष का कोई दिन खाली नहीं रखा गया। इन सबका मनाया जाना तो कठिन है पर इनमें से कुछ बहु प्रचलितों को तो प्रेरणाप्रद वातावरण उत्पन्न करने की दृष्टि से, परिष्कृत ढंग से मनाया ही जा सकता है। (1) दिवाली (2) गीता जयन्ती (3) बसन्त पंचमी (4) होली (5) रामनवमी (6) गायत्री जयन्ती (7) गुरुपूर्णिमा (8) श्रावणी (9) कृष्ण जन्माष्टमी (10) विजय दशमी, यह पर्व आमतौर से सर्वत्र प्रचलित हैं। प्रान्त विशेष में शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, मकर संक्रांति, बैसाखी आदि को भी विशेष महत्व मिला हुआ है। स्थानीय मान्यताओं के अनुरूप इनमें से जहां जो विशेष उत्साह से मनाये जाते हों उनमें काट-छांट करके ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि औसतन हर महीने एक पर्व मनाया जाया करे। साप्ताहिक सत्संग में मात्र महिलाओं की उपस्थिति होती है। पर्व आयोजनों में स्त्री-पुरुष सभी मिलजुल कर उपस्थित हुआ करें। मनाने का ढंग प्रायः वही है जो साप्ताहिक सत्संगों में रखा गया है। (1) सामूहिक सस्वर संगीत सहित गायत्री पाठ 24 बार (2) गायत्री हवन (3) भजन-कीर्तन (4) प्रवचन। संस्कारों में पूर्णाहुति से कुछ पूर्व विशेष कृत्य किये जाते हैं। पर्वों में देव पूजन के समय ही पर्व की अधिष्ठात्री देव सत्ता की सामूहिक पूजा अर्चा होती है। प्रवचनों का विषय बदलता रहता है। संस्कारों के समय परिवार समस्याओं में से प्रत्येक पर प्रकाश डाला जा सकता है। इसी प्रकार सामाजिक समस्याओं के समाधान एवं सामूहिक प्रगति के उपायों का सुविस्तृत और सामाजिक विवेचन पर्वों के इतिहासों एवं प्रयोजनों के साथ तालमेल बिठाते हुए भली प्रकार किया जा सकता है। संस्कार एवं पर्व पद्धति पुस्तक में यह सभी कर्मकाण्ड पहले से ही प्रकाशित हैं। इस सन्दर्भ में छपी हुई छोटी-छोटी पुस्तकों में विस्तार पूर्वक प्रकाश डाला जा चुका है। पर्व और संस्कारों के पीछे छिपे उद्देश्यों के सम्बन्ध में उन पद्धतियों में से अनेक श्लोक भी दिये गये हैं जो उनके साथ जुड़े उद्देश्य एवं कर्त्तव्यों पर प्रकाश डालते हैं। इन आयोजनों के माध्यम से युग निर्माण योजना के दो उद्देश्यों को जन मानस में उतारने से उत्साहवर्धक सफलता मिल सकती है। धर्मश्रद्धा एवं प्रथा परम्पराओं का समन्वय रहने से इन आयोजनों में ऐसी भाव-संवेदना जुड़ जाती है जो प्रस्तुत प्रसंग को हृदयंगम कराने में असाधारण रूप से समर्थ सिद्ध होती है। परिवार निर्माण के सम्बन्ध में इन आयोजनों के माध्यम से लोक मानस को प्रशिक्षित करने में अन्य उपायों की तुलना में अधिक सरलता रहती है।