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Books - युग सृजन का आरम्भ परिवार निर्माण से

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परिवार निर्माण अभियान यों दीखने में एक छोटा-सा बिखरा हुआ क्रिया कलाप लगता है। पर वस्तुतः उसकी संभावनाएं महान हैं। यदि उसकी कल्पना की जा सके तो प्रतीत होगा कि यह अभियान तमाम सृजनात्मक प्रयत्नों से अधिक महत्वपूर्ण अधिक प्रभावशाली परिणाम प्रस्तुत करने वाला है, कहा जाय कि विश्व समाज और मनुष्यता का भविष्य बहुत कुछ परिवार निर्माण के प्रयासों और उससे मिलने वाली उपलब्धियों पर ही निर्भर है, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। विश्व, समाज और पूरी मनुष्य जाति आखिर है तो एक-एक व्यक्तित्व इकाइयों का ही समुदाय। और व्यक्ति कहां पैदा होते हैं? एक ही उत्तर है परिवार में उनका व्यक्तित्व किस सांचे में ढलता है? उत्तर वही है परिवार में। अस्तु सांचा जिस प्रकार का होगा परिवार का वातावरण जैसा होगा व्यक्ति का व्यक्तित्व भी उसी के अनुरूप ढलेगा परिवार निर्माण इस प्रकार कोई छोटा बड़ा काम नहीं है उसके पीछे व्यक्ति को प्रगति और समाज की उन्नति विकास की संभावनाएं छुपी हुई हैं अतः प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को इसके लिए प्रयास करना चाहिए और उसके लिए समय निकालना चाहिए।

समाज और विश्व के भविष्य से सम्बन्धित इस अभियान की यह भी विशेषता है कि इसके लिए अतिरिक्त रूप से कोई विशेष प्रयास करना आवश्यक नहीं है। परिवार निर्माण मूलतः एक दृष्टिकोण को अपनाना और उत्तरदायित्व को अनुभव करना मात्र है। इसके लिए अलग से समय निकालने की या अधिक साधन जुटाने की या अतिरिक्त विभाग खोलने की आवश्यकता नहीं है।

श्री गणेश घरों में धार्मिक वातावरण बनाने और उसके लिए सामूहिक उत्साह उत्पन्न करने के लिए स्थान स्थान पर संगठन खड़े करने के रूप में किया गया है। इतने व्यापक भारी और महत्वपूर्ण कार्य को सम्मिलित प्रयत्नों से ही सम्पन्न किया जा सकता है। इसलिए हर संगठन को महिला सत्संग चलाने और उनसे अधिक उपस्थिति का प्रयत्न करने के लिए कहा गया है। परिवार-निर्माण में सहयोग तो पुरुषों का भी चाहिए पर उसका नेतृत्व इस क्षेत्र की अधिष्ठात्री, गृह लक्ष्मी, जागृत महिला ही कर सकती है, इसलिए इस महा क्रान्ति की लाल मशाल उसी के हाथ में थमायी गयी है और नवयुग का तुमुल शंखनाद करने की जिम्मेदारी भी उसी पर लादी गयी है। आरम्भ में क्या करना होगा, इसका संक्षिप्त कार्यक्रम सर्वसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया जा चुका है।

बलिवैश्व की पांच आहुतियों को प्रतीक मानकर पारिवारिक पंचशीलों को चिन्तन एवं व्यवहार में उतारने के लिए कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए भावनात्मक चारित्रिक, पारिवारिक आर्थिक सामाजिक क्षेत्रों में पालन करने योग्य पांच-पंचशील; अनुबन्ध अनुशासन हैं। उनका पालन करना मानवीय कर्त्तव्य और उत्तरदायित्वों का अंग है। इन्हें न केवल विचारणा में प्रमुख रखा जाय वरन् व्यवहारिक जीवन में उतारने के लिए भी सामर्थ्य भर प्रयत्न किया जाय। इस धर्म धारणा को निरन्तर स्मरण रखने और उसके प्रति प्रगाढ़ आस्था व्यक्त करने के लिए बलिवैश्व की पांच आहुतियां देने की परम्परा है। इसे वैयक्तिक जीवन में सामाजिक उत्तरदायित्वों की साझेदारी का प्रतीक भी समझा जा सकता है।

घर में धार्मिक वातावरण बनाये रखने के लिए नित्य नमन-वन्दन आरती, कथा, कीर्तन की परम्परायें बनाने-चलाने के लिए कहा गया है। समय-समय पर भावनात्मक वातावरण में परिवार गोष्ठियों के उपक्रम प्राचीन काल में जन्म दिनों एवं सुसंस्कारों के नाम पर चलते थे। वह पद्धति बहुत ही प्रेरक और प्रभावोत्पादक है सत्प्रवृत्तियां उभारने के लिए उनका पुनर्जागरण किया जाना चाहिए। इसी प्रकार गांव मुहल्लों की धर्म गोष्ठियां, पर्व त्यौहारों के उल्लास भरे अवसरों पर करते रहने से सद्भाव सम्वर्धन के लिए सामूहिक उत्साह उभारने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। समय-समय पर बड़े आयोजन गायत्री यज्ञों और युग निर्माण सम्मेलनों के आधार पर किये जाते रहे हैं। तीर्थ यात्रा के लिए धर्म प्रचार की मण्डलियां निकलती रहें। परिव्राजकों की टोलियां नव जागरण की चेतना उत्पन्न करने के लिए घर-घर पहुंचे और जन-जन से सम्पर्क साधें। यह सभी कार्यक्रम ऐसे हैं जो व्यक्ति और समाज की उत्कृष्टता की ओर अग्रसर करने—परिवारों में शालीनता उत्पन्न करने की दृष्टि से अतीव उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। यह छोटे कार्यक्रम आरम्भ में इसलिए अपनाए गये हैं कि सरलता एवं परम्परा निर्वाह के साथ-साथ इनमें सामूहिक सद्भावना उभारने वाले क्रिया कृत्यों का समावेश है। इनके माध्यम से धैर्य चेतना वाले व्यक्तियों को आसानी से समवेत किया जा सकता है और उनकी सामूहिक चेतना को सृजनात्मक प्रयोजनों में आसानी से लगाया जा सकता है। मख शिक्षण की दृष्टि से धर्म कृत्यों का समन्वय सोने में सुगन्ध का काम करती है। प्रभाव शक्ति का अनुपात अत्यधिक बढ़ जाता है, इसे इन प्रयत्नों का आरम्भिक चरण समझा जाना चाहिए और यह मानकर चलना चाहिए कि इन प्रयोजनों में आवश्यक सफलता मिलने पर उस युग-शक्ति का उदय होगा जिसके सहारे अगले चरण में उठने वाले कदम सरलता पूर्वक अग्रसर हो सकें।

यह धर्म धारणा अध्यात्म क्षेत्र की भावनात्मक प्रक्रिया हुई। यह नितान्त आवश्यक, अति समर्थ और सत्परिणति की दृष्टि से असन्दिग्ध भी है। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि इतने से ही समग्र प्रगति के लक्ष्य तक पहुंच सकना संभव हो जायगा। भाव पक्ष की तरह ही क्रिया पक्ष भी सामर्थ्यवान् है। भाव को अध्यात्म और क्रिया को सामर्थ्य कहते हैं, दोनों का समन्वय ही जीवन है। शरीर की क्रियाशीलता और आत्मा की चेतना का मिला जुला स्वरूप ही जीवन है। ब्रह्म-प्रकृति के सम्मिलित प्रयत्नों से यह सृष्टि चल रही है।

परिवार क्षेत्र में घुसे हुए आलस्य और प्रमाद के दो दैत्य पिछड़ी परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए मुख्य तथा जिम्मेदार हैं। अपने परिवारों में समय और श्रम शक्ति का बहुत ही स्वल्प उपयोग हो पाता है। सामर्थ्यता भी अधिकता बैठे ठाले अपना समय गुजारती है। आधे मन से मन्द गति से किये गये काम, समय चौगुना नष्ट करने पर भी अस्त-व्यस्त और आधे-अधूरे ही बने रहते हैं। इस जड़ता को हटाये बिना परिवारों में न तो जागरूकता ही उत्पन्न हो सकेगी न स्फूर्ति। इस लिए सभी घरों में किसी न किसी रूप में कुटीर उद्योगों का प्रचलन होना चाहिए। इनसे आर्थिक उन्नति में गरीबी से छूटने के आधार भूत सिद्धान्तों का समावेश है। श्रम और मनोयोग का समन्वय करके उसे उत्पादन में नियोजित किया जा सके तो आर्थिक लाभ से भी अधिक हित साधन, स्वभाव और दृष्टि कोण में उपयोगी परिवर्तन होने का है। जहां यह शुभारम्भ हुआ, समझना चाहिए कि वहां सर्वतोमुखी प्रगति की संभावना खड़ी हो गई।

कुटीर उद्योगों में से कहां किसका प्रचलन किया जाय यह श्रम एवं कौशल का स्तर देखते हुए तथा स्थानीय खपत का ध्यान रखते हुए ही करना होगा। मान्यता इस सिद्धान्त को मिलनी चाहिए कि शारीरिक एवं मानसिक क्षमता की बेकारी-बर्बादी सहन न की जाय और उसे उपयोगी प्रयोजनों में निरत रखा जाय। इस दृष्टि से कुटीर उद्योगों को प्रमुखता मिलेगी तो उसके साथ उत्पादन एवं अर्थ लाभ की दुहरी उपलब्धियां भी जुड़ी रहेंगी। शाक वाटिका और टूट-फूट मरम्मत के दो काम ऐसे हैं, जो हर घर में समान रूप से चल सकते हैं। कपड़ों की सिलाई से लेकर धुलाई तक के अनेक पक्ष ऐसे हैं, जिन्हें हर घर में प्रश्रय मिल सकता है। पुराने कपड़ों में से नये बना लेना अपने आप में एक अच्छा खासा उद्योग है। स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए अन्याय उद्योग भी चल सकते हैं, जहां भी ऐसे प्रयत्न चलें वहां कच्चा माल देने और बना माल खरीदने वाला एक सहकारी तन्त्र भी निश्चित रूप से खड़ा करना पड़ेगा। अन्यथा महंगा कच्चा माल खरीदने और प्रतिस्पर्धा में कौड़ी मोल बेचने से उत्पादन कर्ता के हाथ में निराशा ही लगेगी।

परिवार-निर्माण का दूसरा पक्ष है शिक्षा संवर्धन। शिक्षा के दो रूप हैं। एक अध्ययन दूसरा स्वाध्याय। इन दोनों को ही समान रूप से महत्व देना होगा। स्वाध्याय के लिए हर घर में एक प्रज्ञा-पुस्तकालय रहना चाहिए जिसमें चुना हुआ साहित्य ही रखा जाय, जो व्यक्ति, परिवार और समाज के नव-निर्माण में व्यावहारिक मार्ग दर्शन कर सके। ऐसी एक भी पुस्तक न रहे, गन्दगी एवं विकृति को परीक्षा रूप से प्रोत्साहन देती हो। साहित्य उद्देश्य है चिन्तन को परिष्कृत करना। यदि उद्देश्य का ध्यान न रखा जाय और बचकाने मनोरंजन के लिए भ्रष्ट पुस्तकें एकत्रित करली जाय, तो उसे सिर्फ घर में विष पकाने की तरह ही समझा जाय। सत्साहित्य को शिक्षित लोग नियमित रूप से पढ़ें और बिना पढ़ों को पढ़कर सुनायें। इन दिनों सत्संग का यही व्यावहारिक स्वरूप है। नव सृजन के लिए यह प्रक्रिया अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसी तथ्य को ध्यान रखते हुए युग निर्माण योजना की सदस्यता की शर्त में दस पैसा और एक घन्टा समय ज्ञान यज्ञ के लिए निकालने की बात जोड़कर रखी गई है। ज्ञान रखने और झोला पुस्तकालय चलाने का तात्पर्य विचार क्रान्ति अभियान को निरन्तर गतिशील करना है। जिन परिवारों में प्रज्ञा पुस्तकालय नियमित रूप से चल पड़े समझना चाहिए कि गृहपति ने अपना तीन चौथायी वजन हलका कर लिया।

शिक्षा का दूसरा रूप अध्ययन है। अध्ययन का तात्पर्य है मौलिक जानकारियों का अभिवर्धन। स्कूली पढ़ाई का यही उद्देश्य है। परीक्षाओं के बहाने बच्चों को इसी प्रक्रिया में नियोजित रखा जाता है। नौकरी मिलने न मिलने की बात को एक कोने पर रखा जाय और विशुद्ध ज्ञान वृद्धि की दृष्टि से अध्ययन क्रम चलाया जाय। घर परिवार के सदस्य अपनी आवश्यकता एवं भावना को देखते हुए इस प्रकार का पाठ्यक्रम अपना सकते हैं अथवा बना सकते हैं। जिसने जीवनोपयोगी आवश्यक ज्ञान वृद्धि का सिलसिला नियमित रूप से चलता रहे। विदेशों में ऐसे नियमित पाठ्यक्रम पत्राचार विद्यालय-परीक्षा उपक्रम मौजूद है, जिससे विभिन्न स्तर के व्यक्ति अपनी आवश्यकता के अनुसार ज्ञान वृद्धि का क्रम निरन्तर जारी रख सकें और अभीष्ट विद्याओं के प्रवीण पारंगत बन सकें। अपने देश में भी इस प्रकार आवश्यकता है। तब तक कोई निर्धारित पद्धति न हो, तब तक स्कूली अथवा किसी अन्य शिक्षा की पढ़ाई अपनाई जा सकती हैं। ऐसा निर्धारण स्वयं भी किया जा सकता है। हर हालत में घरों में पढ़ने-पढ़ाने का उपक्रम नित्यकर्म में ही सम्मिलित रहना चाहिए।

संयुक्त परिवार पद्धति अपनाने से ही काम चलेगा। बिखराव से कमाऊ लोग भले ही मौज कर सकें बालकों वृद्धों और असमर्थों को इससे भारी कठिनाई सहनी पड़ेगी। संकीर्णता बढ़ने और उदारता घटने की भावनात्मक होनी तो प्रत्यक्ष ही है। आर्थिक दृष्टि से भी संयुक्त परिवार से लाभ है। नवयुग में विश्व परिवार का आदर्श ही अपनाया जाना है। इसलिए संयुक्त परिवार पद्धति को आज के अनुरूप पुनर्गठित किया जाय। पुरातन आधार आज की परिस्थितियों में उपयोगी नहीं रहा। स्वतन्त्रता और अनुशासन का बुद्धि संगत समन्वय करने से ही पारिवारिकता को वैज्ञानिक स्वरूप मिल सकेगा। इसके लिए लॉर्जर-फैमिली योजना के अन्तर्गत किये गये प्रतिपादन ध्यान देने योग्य है। कई कुटुम्ब मिलकर भोजन पकाने, बच्चे पालने, सहकारी दुकान चलाने, शिक्षा तथा मनोरंजन की व्यवस्था की योजना बना सकें, तो इसमें समय, श्रम, साधन की तो बचत होगी ही। सुविधा भी रहेगी और बचत भी होगी। सामूहिकता एवं सहकारिता के आधार पर ही अगले दिनों प्रगति की समस्त योजनाएं खड़ी होनी हैं। व्यक्तिवाद के दिन लद गये मिलजुल कर रहने सोचने और करने से ही बात बनेगी। इस दृष्टि से एक वंश के लोगों का इकट्ठा रहना ही पर्याप्त नहीं वरन् एक मुहल्ले या वर्ग के लोगों का संयुक्त परिवार बनाना उनमें उचित कर्त्तव्य उत्तरदायित्वों का समावेश रहना, सुनियोजित आचार संहिता अपनाने के लिए सभी को बाध्य करना आवश्यक है। प्रसंगानुसार तो लॉर्जर-फैमिली योजना का सुविस्तृत स्वरूप नहीं रखा जा सकता। उसका उल्लेख अलग से होगा। चिन्तन इसी दिशा में चलना चाहिए कि बड़े संयुक्त परिवारों का गठन और संचालन अपने युग का एक बड़ा काम है। जिससे परिवारों निर्माण के एक महत्वपूर्ण पक्ष की आवश्यकता पूरी होती है।

स्वास्थ्य संवर्धन की दृष्टि से हर परिवार को नए सिरे से विचार करना होगा और नई परम्पराएं आरम्भ करने के लिए साहस जुटाना होगा। भोजन पकाने में खाद्य पदार्थों के चयन की वर्तमान पद्धति में भारी दोष है। उसमें आमूल चूल नहीं तो क्रान्तिकारी परिवर्तन तो करना ही होगा। रूचि का स्वाद के नाम पर पेट में अभक्ष्य ठूंसा जाता रहेगा तो स्वास्थ्य की बर्बादी का यह कारण बने रहते दुर्बलता एवं रुग्णता से छुटकारा मिल ही नहीं सकेगा, समय कुसमय खाने और गरम रोटी की मांग करने पर पकाने वाली के समय की कितनी बर्बादी होती है इसका अनुमान लगाया जाना चाहिए और प्रचलन ऐसा होना चाहिए कि चौका नियत समय पर आरम्भ और बंद होने का नियम बने और चले।

श्रम—संतुलन, विनोद, मनोरंजन का परिवार के हर सदस्य को उपयुक्त, अवसर मिले, किसी को न तो आवारागर्दी की छूट हो और न कोई कैदी की तरह पिंजड़े में बैठा सड़ता रहे। न कोई बाबू बना फिरे और न ही किसी को चक्की के पाटे में पिसना पड़े। मिल-जुल कर काम करने का प्रचलन पारिवारिक मनोरंजन के रूप में किया जा सकता है। इसमें न किसी के अहंकार की वृद्धि होगी और न किसी को हेय बनकर रहना पड़ेगा। घर की हर व्यवस्था में परिवार के सभी सदस्य भागीदार बने तो संयुक्त उत्तरदायित्व का भाव पनपेगा और गृह व्यवस्था से लेकर परिवार की प्रगति के हर प्रयोजन में सभी का मनोयोग लगने लगेगा।

समर्थता का अनगढ़पन बालकों और वृद्धों को विशेष रूप से सहन करना पड़ता है। शौक मौज की ललक में न तो बालकों को समुचित स्नेह—सहयोग मिल पाता है और नहीं बड़ों, वृद्धों की सेवा सुश्रूषा बन पड़ती है। परिवार व्यवस्था में इन दोनों उपेक्षित वर्गों के लिए दूरदर्शिता पूर्ण नीति अपनाई जानी चाहिए। बच्चों की मिठाई को मिठाई खिलाने, महंगे आकर्षक परिधान जैसी वस्तुएं जुटाने, महंगे साधन लगाने का प्रबन्ध तो धनवान ही कर पाते हैं। उनसे भी इतना नहीं बनता कि सुसंस्कारिता उत्पन्न करने के लिए स्वयं ध्यान दें अथवा उस स्तर के वातावरण में उन्हें विकसित होने की व्यवस्था करें। निर्धनों को तो सुविधा संबन्धी कठिनाई भी है, जो हो परिवार में शिशुओं को जिस स्तर का भावनात्मक एवं बौद्धिक पोषण मिलना चाहिए उससे वंचित ही रह जाते हैं और अन्ततः अनगढ़ व्यक्तित्व लेकर ही दुर्भाग्य भरा जीवन जीते हैं। यही दुर्गति वृद्धों की भी होती है। न उन्हें किसी उपयुक्त काम में लगने का अवसर मिलता है न उनकी भावनात्मक अपेक्षाओं को सहानुभूति मिलती है। ऐसी दशा में दोनों खीझते रहते हैं। बालकों की खीज एक प्रकार की होती है वृद्धों की दूसरे तरह की, किन्तु दोनों ही अपने को असंतुष्ट अभाव ग्रस्त अनुभव करते हैं। समर्थों का उत्तरदायित्व है कि वे अपने ही काम धाम में न लगे रहें। अपनी ही समस्याओं को सब कुछ न समझें। बल्कि घर के समस्त आश्रितों के लिए ऐसी व्यवस्था निर्धारित करें जिसमें परिवार के हर छोटे बड़े सदस्य को प्रसन्नता और प्रगति का अवसर निरन्तर मिलता रहे। इस संदर्भ में बड़ा पक्ष अर्थ संतुलन का है। बजट बनाकर खर्च करने पर यह पता चलता है कि कहीं अपव्यय तो नहीं हो रहा है और कहीं किसी को उचित आवश्यकता से भी तो वंचित नहीं रहना पड़ रहा है।

हर परिवार में अनौचित्य से आत्म रक्षा की जागरूकता रहनी चाहिए कुसंग से बालकों का अत्यधिक अहित होता है। कुरीतियां घर की बर्बादी का एक बहुत बड़ा कारण होती है। ठग और चोर तरह-तरह के कुचक्र रचते रहते हैं। गंदगी और कृमि कीटकों द्वारा हानि होती रहती है पर जागरूकता के अभाव में इन बातों की ओर ध्यान ही नहीं जाता। आवश्यकता सतर्कता की, आत्म रक्षा की ही नहीं अवांछनीयता के प्रति आक्रोश बनाये रहने की भी है। असहयोग, विरोध और संघर्ष की प्रखरता बनी रहने से ही आक्रमणों से होने वाली हानियों से किसी कदर बचा जा सकता है। इस प्रकार सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में पूरे परिवार की रूचि रहनी चाहिए और सहयोग समर्थन या श्रमदान से लेकर अंशदान तक के यथा संभव अनुदान इसलिए नियमित रूप से प्रस्तुत किए जाने चाहिए कि शालीनता और सद्भावनाओं का वातावरण बने। सत्प्रवृत्तियों के परिपोषण में हर गृहस्थ सभी परिजनों समेत सही गर्व अनुभव करे। तभी किसी परिवार को सुसंस्कृत कहा जा सकेगा।

परिवारों को परिष्कृत करने की बड़ी योजनायें बड़े लोग मिलकर बनायेंगे और उन्हें बड़े पैमाने पर क्रियान्वित करें तब छोटे रूप में उपरोक्त कार्यक्रमों का प्रचलन तो आरम्भ कर ही दिया जाना चाहिए। धर्म तन्त्र से लोकशिक्षण के अन्तर्गत आरम्भ किए गए आरम्भिक प्रचलन के उपरान्त वह दूसरा चरण ऐसा ही है जिसे निर्माण कर्ताओं को अपने प्रयास कार्यक्रम में सम्मिलित रखकर ही चलना चाहिए।
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