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Books - युग सृजन का आरम्भ परिवार निर्माण से

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इसमें कोई सन्देह नहीं है कि परिवार निर्माण के छोटे से दीखने वाले क्रियाकलापों में बीज रूप से महती सम्भावनाएं छिपी हुई हैं। इस छोटे से प्रयास को परिणाम की दृष्टि से भी नीचा नहीं समझना चाहिए। लगने को तो पैसा और विनोद सबसे बड़े दीखते हैं और उसके लिए लोग अपने स्वास्थ्य, सन्तुलन और ईमान तक को गंवाते रहते हैं किन्तु इतने पर भी तथ्य तो जहां के तहां ही रहेंगे, पैसा और विनोद कितना ही आकर्षक उत्तेजक क्यों न हो, जीवन क्रम की सुव्यवस्था का महत्व सर्वोपरि रहेगा, नशा उतरते ही यह समझने में देर नहीं लगती है कि व्यक्तित्व मूल्यवान है, वैभव नहीं। ठीक इसी प्रकार परिवार निर्माण की बात हलकी-उथली सी भले ही लगे उसकी परिणिति प्रतिक्रिया पर ध्यान देने से प्रतीत होगा कि मानवी समाज की प्रगति शान्ति और समृद्धि की आधारशिला इसी पर रखी हुई है।

निरन्तर जिन विषयों की चर्चा होती है, जिनका महत्त्व समझा-समझाया जाता है उन्हें मस्तिष्क अपना भी लेता है और स्वभाव एवं आचरण का प्रभाव भी उसी दिशा में मुड़ता है। बलिवैश्व धर्मकृत्य के सहारे जिन पारिवारिक पंचशीलों का प्रतिपादन आये दिन होता रहता है, उनकी महत्ता एवं प्रतिक्रिया का बखान किसी न किसी प्रकार सुनने को मिलता है स्वभावतः वह दर्शन एवं प्रचलित व्यक्तित्व का ढंग बनता चला जाता है। पंचशीलों में जिन पांच सद्गुणों का समावेश है यदि वे स्वभाव, चिन्तन एवं चरित्र में समाविष्ट होते हैं तो निश्चय ही प्रभावित व्यक्ति का भविष्य उज्ज्वल बनेगा। उसका सम्पर्क जिससे भी रहेगा उन्हें चन्दन वृक्ष के समीप उगने वाले पौधों की तरह सुखी सौभाग्यशाली बनने का अवसर मिलेगा। अगली पीढ़ी यदि पंचशील के सांचे में ढलती है और वर्तमान पीढ़ी को उन सत्प्रवृत्तियों से प्रभावित होने, अपनाने का अवसर मिलता है तो समझना चाहिए कि उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं को साकार होने में कोई कठिनाई शेष नहीं रह गई।

असन्तोष, खीज, निराशा, भय, चिन्ता एवं उद्विग्नता की मनःस्थिति में मनुष्य की कार्य क्षमता तीन चौथाई नष्ट हो जाती है। शरीर विवशता में कुछ काम करता भी है तो वह आधा-अधूरा होता है उसमें इतने झंझट होते हैं कि कई बार तो यह श्रम न करने से भी अधिक महंगा पड़ता है। मन में सन्तुलन, उत्साह बना रहे तो दुर्बलता और स्वल्प योग्यता रहने पर भी मनुष्य थोड़ा-थोड़ा करके भी इतना काम कर लेता है जो सुयोग्यों के कर्तृत्व से भी अधिक बहुमूल्य सिद्ध होता है। कछुए, खरगोश की शर्त बदकर चलने और अन्ततः कछुए द्वारा बाजी जीते जाने की कहानी का यह निष्कर्ष है कि समर्थता से भी अधिक मानसिक स्थिरता का महत्व है। कहना न होगा कि यह सद्गुण परिवार के शान्त वातावरण में उपजता और बढ़ता है। जिन घरों में स्नेह; सद्भाव रहते हैं वहां न तो चंचलता पाई जाती है न उद्विग्नता। न आवेश उभरते हैं न आक्रोश। कुछ कुसंस्कारी प्रवृति होती भी है तो उसे माता का वात्सल्य, पत्नी का विश्वास उसे सहज सरलता के साथ दूर कर देता है।

उपयुक्त आहार-विहार का स्वास्थ्य रक्षा से अविच्छिन्न सम्बन्ध है। आहार तो घर के चौके में ही मिलता है। भोजनालय प्रकारान्तर से एक चिरस्थायी अस्पताल है वहां से हर दिन टानिक भी लिया जा सकता है और दवा मिक्चर भी। भोजन निश्चित रूप से औषधि है। उससे क्षुधा ही शान्त नहीं होती, रसना की तृप्ति ही नहीं होती वरन् बलिष्ठता और दीर्घ जीवन की आधार शिला भी रखी जा सकती है। आहार में रोगों से बचाने और हटाने के दोनों ही गुण विद्यमान हैं। यदि घर के रसोई घर से अमृत परोसा जाए, उसे खिलाने की विधि व्यवस्था में चिकित्सक जैसा अनुशासन बरता जाए—तो कोई कारण नहीं कि अस्पताल का चक्कर काटने और डॉक्टर का दरवाजा खटखटाने की आवश्यकता पड़े। अन्न ही मन है। मनों में जो विक्षोभ पाया जाता है उसका बहुत बड़ा कारण आहार में ही होता है। इस कारण का निवारण घरों में ही हो सकता है बाजार में, भोजनालय में या होटलों में नहीं। भोजन को औषधि रूप में पाने की व्यवस्था घर में ही बन सकती है, बाजार में नहीं। होटल स्वाद तो देते हैं पर प्रकारान्तर से उनमें वे प्रदूषण भी घुले रहते हैं जिनके कारण शारीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य भी लड़खड़ाता-गड़बड़ाता देखा गया है।

आहार पाक विद्या नहीं है न इसकी गरिमा स्वादिष्टता पर टिकी हुई है। षट्रस व्यंजन और छप्पन भोजन आहार की विशिष्टता का परिचय नहीं देते। उसके साथ चिकित्सक जैसी सूक्ष्म दृष्टि जुड़ी रहनी आवश्यक है। किसके लिए क्या चाहिए। इसका निर्णय भोजनालय की अध्यक्षता ही कर सकती है। उसे अस्पताल की बड़ी नर्स और बड़े डॉक्टर के समतुल्य समझा जाना चाहिए। समूचे परिवार की स्वास्थ्य रक्षा का परोक्ष उत्तरदायित्व उसी के कंधों पर रहता है। प्रश्न एक ही है कि उसका निर्वाह कर सकने की क्षमता का विकास हुआ है या नहीं। यह कार्य होम साइन्स की पाक विद्या की पुस्तकें पढ़ने से नहीं वरन् सुसंस्कारी परिवारों में ही विकसित होता है।

मन की खीझ बढ़ते-बढ़ते क्रोधी प्रकृति भी बन सकती है पर उसका आरम्भ पारिवारिक छेड़छाड़ में ही होता है। पिल्ले लड़ाने वाले अन्ततः उसे कटखना कुत्ता ही बनाकर छोड़ते हैं। घर में हर घड़ी होने वाली चख-चख उसके सदस्यों में मनोमालिन्य से लेकर ईर्ष्या द्वेष तक के बीजारोपण करती है और वे लड़ने पर विषवल्लरी जैसी दुष्प्रवृत्तियों दोष-दुर्गुणों तक में विकसित होते हैं। यदि पारिवारिक वातावरण में आदि से अन्त तक शालीनता छाई रहे तो उसमें पलने वाले अंकुर—हर पौधे और हर पेड़ को सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनने का अवसर मिलता रहेगा। यह प्रक्रिया जहां पनपेगी वहां दुर्भाग्य से बचना और सौभाग्य उपलब्ध करना कितनी बड़ी मात्रा में सम्भव हो सकेगा, इसकी आज तो कल्पना ही की जा सकती है। प्रमाण, उदाहरण ढूंढ़ने हों तो उस अनीति का स्मरण करना पड़ेगा। जिसमें घर में स्वर्ग की आत्मा निवास करती थी या फिर उस भविष्य की कल्पना करनी पड़ेगी जिसे नव सृजन का महत्वपूर्ण प्रयोजन—परिवार निर्माण को—फलते-फूलते देखा जा सके।

परिवारों में कन्याएं वधू बनकर दूसरे घर में जाती हैं यदि वे अपने साथ सुसंस्कारिता की दहेज सम्पदा लेकर जाया करें तो निश्चय ही उस नये घर में प्रत्यक्ष गृहलक्ष्मी की भूमिका निभा सकती हैं। अपनी नई उपस्थिति से किसी घर में आनन्द उल्लास का अरुणोदय प्रकट कर सकती है। इस प्रकार विवाहों के साथ पुरातन में नवीनता का नीरस ढर्रे में नवजीवन का संचार होता रह सकता है। इस प्रयोजन की पूर्ति सौन्दर्य, शिक्षा या पैसा लेकर जाने वाली वधू नहीं कर सकती उसके लिए सद्गुणों से सम्पन्न ऐसी महिला चाहिए जिसे देव पुत्री कहा जा सके। कहना न होगा कि ऐसी देवकन्यायें आसमान से नहीं उतरती वरन् सुसंस्कृत परिवारों में ढाली और खरादी जाती हैं।

गरीबी दूर करने के लिए अनेकानेक छोटी-बड़ी योजनाओं का इन दिनों भरमार है। इसी में एक और अध्याय यह जुड़ना चाहिए कि परिवार का हर समर्थ व्यक्ति बचे हुए समय में कुछ उपार्जन करने की बात सोचे और वैसा कुछ करते समय अपने को हीन वरन् स्वावलम्बन, स्वाभिमान की दिशा में बढ़ने वाला अग्रिणी माने तो इतने भर से ही स्थिति उलट सकती है। गृह उद्योगों के लिए हर जगह गुंजायश है, हर परिस्थिति में वह किसी न किसी रूप में चल सकते हैं। यह उत्साह उभरे और प्रचलन बने तो समझना चाहिए कि प्रायः दूनी उपार्जन शक्ति का नया उदय होगा और गरीबी को आसानी से खदेड़ा जा सकेगा। जापान जैसे देश इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वहां हर घर में छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों का प्रचलन है। बचे हुए समय का उपयोग महिलाएं, बच्चे तथा वयोवृद्ध उसको मनोरंजन की तरह प्रयुक्त करते हैं खेल-खेल में ही उतना कमा लेते हैं जितना कि हर गृह स्वामी दुकान दफ्तर से कमा कर लाते हैं।

इस प्रचलन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हर परिवार अपने आप में उद्योगशाला बना रहता है। उसका आर्थिक स्वावलम्बन कभी नहीं छिपता। कमाऊ के मरने पर पूरा परिवार अनाथालय बन जाना यह आज की अकर्मण्यता का अभिशाप है। परिवारों में हो सकने वाला कमाऊ यदि उपेक्षित रहेगा तो स्वभावतः खाली समय में घर के लोग कलह खड़ा करने में दुरभि सन्धियां रचाने और दुर्व्यसनों में उसे लगावेंगे। इस प्रकार पतन का गर्त गहरा ही होता चला जायेगा। गरीबी की यह मार वस्तुतः हटाना ही हो तो उसके लिए बिजली, पानी, व्यवसाय, उत्पादन आदि का प्रबन्ध तो करना ही होगा पर साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि आधी श्रम शक्ति परिवारों के दायरे में नष्ट होती रहती है। इसे इसी प्रकार बर्बाद होने दिया गया तो ऊपरी उपचारों से कुछ बनेगा नहीं। गृह उद्योगों से धन ही नहीं कला-कौशल भी विकसित होता है जो पैसे से भी कहीं अधिक मूल्यवान है। गृह उद्योगों में बिक्री का सामान न बन सके तो भी जिन कार्यों के लिए पैसा बाहर देना पड़ता है उन्हें तो श्रम कौशल बचाने का प्रबन्ध हो ही सकता है। इस प्रकार उपार्जन न सही बचत पक्ष भी परिवार की देश सम्पन्नता बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकता है।

निरक्षरता दूर करने के लिए सरकारी प्रयासों को सराहा भी जाना चाहिए और बढ़ाया भी किन्तु स्मरण रहे—शिक्षित लोग अपने घर पर पड़ौस को शिक्षित बनाने के लिए जब तक प्रयत्नशील न होंगे जब तक इतनी बड़ी समस्या का हल मात्र सरकारी साधनों से हो नहीं सकेगा। शिक्षितों को राष्ट्र का शिक्षा ऋण चुकाना चाहिए। इस भावना को उभारा जाय और जो इससे बचे उन पर दोषारोपण करने से लेकर गुदगुदाने-झकझोरने तक का दबाव डाला जाए तो निरक्षरता निवारण के लिए लाखों अध्यापकों और अरबों रुपयों की जो आवश्यकता अनुभव की जा रही है उसकी तनिक भी आवश्यकता न पड़ेगी। हर घर में हर मुहल्ले में सुविधा समय चलने वाली प्रौढ़ पाठशालाएं स्थापित और गतिशील हो सकती हैं। शिक्षित महिलाएं तीसरी पहर के अवकाश वाले समय को उस पुण्य प्रयोजन में लगा सकती हैं। बड़े क्लास के विद्यार्थी छोटे क्लास वालों को पढ़ाया करें। अध्यापक इसी नीति को अपनाकर छात्रों की सेवा सहायता किया करें तो शिक्षा की कमी से जो पिछड़ापन सर्वत्र छाया दीखता है उसका कहीं पता भी न चले। अध्यापक वर्ग वेतन बढ़ाने की मांग ही न करता रहे वरन् अपने विशिष्ठ और पवित्र कर्तव्य पर भी ध्यान दें। स्कूल में पांच घण्टे पढ़ाने के अतिरिक्त जो उन्नीस घण्टे का समय बचता है उसमें से दो घण्टे निजी रूप से छात्रों को पढ़ाने में लगाये और शिक्षा पद्धति में जो कमी है उसे पूरा करे। यदि ऐसा उत्साह जाग पड़े तो शिक्षा का अधूरापन जिसे सरकार भले ही न पूरा कर सके पर अध्यापक वर्ग अपने निजी पुरुषार्थ से सहज ही पूरा कर सकता है। वेतन वृद्धि की मांग की तरह ही यदि कर्तव्य वृद्धि—उत्तरदायित्व वृद्धि—के लिए भी शिक्षकों में उत्साह जग पड़े। शिक्षित स्वयंसेवी भावनाएं इस दिशा में कुछ करने चल पड़ें तो सरकार का मुंह ताके बिना भी शिक्षा के अभाव एवं अधूरेपन की समस्या का समाधान हो सकता है।

गरीबी, निरक्षरता और बीमारी अपने देश की—पिछड़े वर्ग की यही तीन प्रमुख समस्याएं हैं। उनके समाधान का उत्तरदायित्व सरकार पर-समर्थों पर है ही, पर यह नहीं भुला देना चाहिए कि एक और भी समर्थ पक्ष है जिसे जगा देने पर इन तीनों से ही जनशक्ति के सहारे अत्यन्त सरलता और सफलता के साथ बढ़ा जा सकता है। ऊपर इसी समाधान के सन्दर्भ में कहा गया है कि परिवार में दबी प्रचण्ड शक्ति को यदि बर्बादी से बचाया और सृजन में लगाया जा सके तो यह उपेक्षित पक्ष भी अपनी प्रखरता, समर्थता का इतना बड़ा परिचय दे सकती है कि समाधान ढूंढ़ने वालों को आश्चर्यचकित रह जाना पड़े। बड़े लोगों मनाने और बड़े साधन जुटाने की प्रतिक्षा करना—नौ मन तेल होने पर राधा का नाच जैसा है। चट्टानें तोड़ने की अपेक्षा दूसरी मोड़दार पगडंडी ढूंढ़ लेना और अपने पैरों चल पड़ना अधिक सरल और अधिक पूर्ण है। परिवारों के रूप में विकेन्द्रित शक्ति केन्द्रों को यदि गुदगुदाया, सम्भाला, संजोया जा सके तो उन छोटे खेत, तालाबों से भी प्रचुर सम्पदा का उपार्जन हो सकता है।

मशीनरी का आश्रय लेकर उपलब्धियों का उपार्जन करना और सुविधा साधन बढ़ाना अच्छी बात है। पर जब तक उतनी बड़ी व्यवस्था नहीं बन पाती तब तक साठ करोड़ मनुष्यों में से समर्थकों के दो-दो हाथों का उपयोग करना क्या बुरा है? इनमें से आधे हाथ ही आधा-अधूरा काम करते हैं। मस्तिष्कों के मनोयोग का तो इतना भी उपयोग नहीं बन पड़ता। यदि उस दिशा में बरती जाने वाली उपेक्षा को ही हटायी जा सके तो इतनी बड़ी सृजन शक्ति का उद्भव हो सकता है जिसके सहारे व्यक्ति और समाज भौतिक ही नहीं आत्मिक समस्याओं का समाधान भी सरलतापूर्वक संभव हो सकता है।

धर्मधारणा और आदर्शों की प्रेरणा के लिए संत-मनीषियों के प्रवचन, सत्संग भी सराहे ही जाते रहेंगे पर वे सभी को सर्वदा तो उपलब्ध हो नहीं सकते। इस आत्मिक क्षुधा को मिटाने के लिए परिवार में निरन्तर चलने वाली कथा-कहानियों वाली शैली ही कारगर सिद्ध हो सकती है। आस्था क्षेत्र में ज्ञान गंगा की—आस्तिकता-आध्यात्मिकता और धार्मिकता के त्रिवेणी संगम की प्रभावी भूमिका रहनी चाहिए पर इसके लिए किसी चमत्कारी भागीरथी की प्रतिक्षा क्यों न की जाये? क्यों न अपने परिवार देवता की मनुहार करने और मनौती मनाने में जुटा जाए? दीपकों का समुदाय जब दीपावली की रात्रि को शरदपूर्णिमा से भी अधिक गौरव प्रदान कर सकता है तो कोई कारण नहीं कि परिवारों में ज्योति जागरण का महाअनुष्ठान अभीष्ट ऋद्धि-सिद्धियों का वरदान दे सकें। लक्ष्मी को पूजते मुद्दतें बीत गई अब लक्ष्मी की प्रतिष्ठा और समर्थता की अर्चना करके देखा जाए।

क्रान्तिकारी कार्लमार्क्स का उदय होने में देर लगती दीखे तो घरेलू प्रज्ञा पुस्तकालयों के सहारे विचार क्रान्ति की बात सोची जा सकती है। अनैतिकताओं; अवांछनीयताओं और अन्ध-परम्पराओं से जूझने में यदि मूर्धन्य प्रतिमाओं ने हार मानी है तो उन्हें परास्त करने के लिए प्रबुद्ध परिवारों के छापामार दस्ते खड़े किये जाएं। यह नई रणनीति अपनाने भर की देर है विजय श्री के समीप पहुंचने के लिए इस नये प्रयोग से नये आधार और नये आयाम बन सकते हैं। यदि आदर्शवादी जागरूकता की चण्डी देव परिवार के सरकारी प्रयत्नों से प्रकट हो सके तो यह कहने की आवश्यकता न पड़ेगी कि अनाचार का वृत्रासुर अनियंत्रित हो रहा है। प्रजातंत्री व्यवस्था में वोट से राज्य पलटते हैं। यह वोट कहां रहते हैं इसे तलाश करने के लिए दूर जाने की आवश्यकता नहीं, वे परिवारों में ही विराजमान, विद्यमान मिल सकते हैं। विनाश से उबरने ओर विकास का वरण करने के लिए अन्ध आधार भी उपयोगी हैं पर परिवार संस्था के अन्तराल में छिपी अनन्त सामर्थ्य को उभारना और उसका प्रयोग करना सबसे अधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण है।
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