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Books - युवा क्रांति पथ

Media: TEXT
Language: HINDI
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रोजगार राष्ट्रीय कर्त्तव्य है, यह जातिवाद से न जुड़ने पाए

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बेरोजगारी एवं आरक्षण युवाओं के अस्तित्व से जुड़े हुए मुद्दे हैं। इनका महत्त्व इसी से जाना जा सकता है कि इनके कारण असंख्य युवा मनोरोगों की गहरी यंत्रणा झेल रहे हैं और कइयों ने तो आत्महत्या करके इस संसार से विदा ले ली है। आने- जाने वाली सरकारों के सूचना विभागों के लिए यह आँकड़ों का खेल हो सकता है, पर युवाओं के लिए यह जीवन- मरण का सवाल है। राजनेताओं के लिए यह वोट बटोरने और राजनीति का साधन है, लेकिन युवाओं की तो पूरी जिन्दगी इससे जुड़ी हुई है।

बेरोजगारी का दंश सभी को एक जैसा दुःख देता है फिर वह किसी भी जाति अथवा धर्म का क्यों न हो? जो आँकड़ों की गणित सुलझाते हैं, उन्हें भी यह स्वीकार है कि इस दुःख को सहने वालों की संख्या साल- दर बढ़ रही है। जहाँ १९९१ में इनकी संख्या १.३८ करोड़ थी, वही २००३ में बढ़कर १८.६ करोड़ तक पहुँच गयी। सरकार इन्हें रोजगार भले ही न दे पाये, पर इनके पंजीयन एवं प्रशिक्षण में सालाना १८० करोड़ रूपये जरूर खर्च कर रही है। हालाँकि ५ करोड़ आवेदकों में नौकरी केवल ७०,००० को ही मिल पाती है। इस प्रकरण में महिलाओं की स्थिति भी कुछ खास अच्छी नहीं है। १ करोड़ ७ लाख महिलाओं में नौकरियाँ केवल २७ हजार को ही मिल पाती है। इसी के चलते लोगों का मन सरकार और उसके दफ्तरों से उचाट हो गया है।

हालाँकि सरकार ने लोगों से मुँह नहीं मोड़ा है। लोगों को भले ही सरकार की परवाह कम हुई हो, पर सरकार को लोगों की परवाह है, क्योंकि इन्हीं लोगों के बलबूते उसे फिर से सरकार जो बनानी है। सो उसने खास लोगों को रिझाने के लिए आरक्षण की बात कही है। इस आरक्षण की नीति का राज क्या है, इसे बिना कहे सभी जानते हैं। मंत्री जी और नेतागण कितनी ही सामाजिक समरसता की बातें करें, पर उनके अन्दर का हाल सभी को पता है। सामाजिक समरसता तो ‘जाति- वंश सब एक समान- मानव मात्र एक समान’ के सूत्र पर भरोसा करने, इसके अनुरूप जिन्दगी जीने से आती है।

जिन्हें आरक्षण की कथा का पता है, वे जानते हैं कि सबसे पहले १९१८ में मद्रास प्रेसिडेन्सी में चुनिन्दा जातियों के लिए आरक्षण लागू किया गया। १९३५ ई. में पूना समझौते के बाद विधायिका में सीटों का आरक्षण हुआ। इसके बाद जब स्वतंत्र भारत का संविधान बना, तब आरक्षण को केवल सामयिक रूप से उपयोगी बताया गया। १९८० ई. में मण्डल आयोग ने ओ.बी.सी. के आरक्षण पर तत्कालीन गृहमंत्री बूटासिंह् को रिपोर्ट दी। १९८९ ई. में वी.पी.सिंह् ने रिपोर्ट मंजूर की। १९८९- ९० में देशव्यापी मण्डल विरोधी प्रदर्शन हुए। १९९२ ई. में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी कानूनी बाधाएँ दूर कीं। १९९३ ई. में इसे केन्द्र की नौकरियों में लागू किया गया। और इस वर्ष २००६ ई. में आई.आई.एम. व आई.आई.टी. में लागू किया जा रहा हैं। चर्चा यह भी हो रही है कि आरक्षण निजी क्षेत्र में लागू किया जाय। यह आरक्षण कुल मिलाकर कितने प्रतिशत हो गया, इसकी गणना करें तो आज लगभग ५० प्रतिशत स्थान आरक्षित हैं।
आरक्षण उचित है या अनुचित? इस बारे में आज भारी बहस छिड़ी हुई है। हर कोई अपनी बात रख रहा है। सभी के अपने दृष्टिकोण हैं। एक हिसाब से ये सही भी हो सकते हैं। लेकिन इन सभी के दृष्टिकोण की समीक्षा करें, तो निष्कर्ष यह निकलता है कि प्रायः सभी की सोच संकुचित है। जाति, धर्म, वोट के हिसाब से तो बहुत कुछ कहा जा रहा है, पर मानवीय पहलू बिसरा दिया गया है, जबकि मानवीय संवेदना को जातीय संवेदना से ऊपर स्थान दिया जाना चाहिए। हम सब मनुष्य पहले हैं, हिन्दू, मुसलमान और सवर्ण- शूद्र बाद में।

हममें से हर एक को बराबर की भूख लगती है। हममें हर एक को तन ढँकने के लिए कपड़ा और सोने के लिए छत चाहिए। ठाठ- बाट और ऐश्वर्य- विलास के साधन भले ही न मिलें, पर जिन्दगी जीने की अनिवार्य सुविधाएँ तो चाहिए ही। बेरोजगार का दर्द यही है। सच यही है कि प्रत्येक बेरोजगार को रोजगार चाहिए, फिर वह किसी भी जाति अथवा धर्म का क्यों न हो? रही बात आरक्षण की तो यह सीधे रोजगार से जुड़ा हुआ है। इसकी निन्दा न करते हुए इतना विनम्र आग्रह तो है ही कि इसके आधारों के बारे में पुनर्विचार किया जाना चाहिए। ध्यान रहे सभी सवर्ण अमीर नहीं हैं और सभी निम्न जातियों के लोग गरीब नहीं हैं। अखबारों में कई बार दलित मंत्रियों के ऐश्वर्य व विलासिता की चर्चा की जाती है। खोजी खबर नवीस यह बताते हैं कि दलित मंत्री महोदया या मंत्री महोदय के बाथरूम बनाने में कितने करोड़ लगे हैं। ऐसे दलित और भी हैं, जो हमेशा ही दूसरों का दलन करते रहते हैं। आज ये इतने सामर्थ्यवान् हैं कि भला इनके दलन का साहस कौन करेगा? क्या इनके बेटे या बेटी को अनिवार्यतः आरक्षण मिलना चाहिए?

युवा पीढ़ी का आग्रह केवल इतना है कि बेरोजगारी और आरक्षण दोनों मुद्दों पर मानवीय पहलू से विचार करें। यदि ऐसा किया जाय तो निष्कर्ष यही होगा कि आरक्षण का आधार आर्थिक हो। इस सम्बन्ध में एक बात और सोची जा सकती है, जहाँ अभी ५० प्रतिशत आरक्षण है, क्यों न उसे १०० प्रतिशत कर दिया जाय। इस आरक्षण में देश की सभी जातियों- वर्गों का प्रतिशत उनकी जनसंख्या के हिसाब से तय हो। हालाँकि यह पूरी प्रक्रिया है ही कुछ ऐसी, जिसमें समाज का जातियों के आधार पर बँटने का खतरा है। जातियों के जहर को सामाजिक जिन्दगी में न घोलना ही अच्छा है।

सामाजिक समरसता देश की अखण्डता के लिए अहम बात है, परन्तु यह आरक्षण से आएगी ऐसा सोचना गलत है। स्वाधीनता के ५९ सालों के आरक्षण से तो यह लक्ष्य अभी तक हासिल नहीं हो सका, तो अब हो पायेगा, इसमें संदेह है। इसके लिए समाज की प्रथा- परम्परा एवं भ्रामक मान्यताएँ तोड़नी होंगी। जो कार्य युग निर्माण मिशन बिना शोरगुल मचाये कर रहा है। समाज में बराबरी रोटी- बेटी के रिश्ते से आयेगी न कि आरक्षण से। युग निर्माण मिशन में सभी जातियों के बीच रोटी के रिश्ते बड़े ही सहज हो गये हैं। बेटी के रिश्तों की प्रक्रिया भी चल पड़ी है। सामाजिक समरसता का यही उपाय है। युग निर्माण मिशन के कार्यकर्त्ता जाति से ब्राह्मण होने पर भी निम्न जातियों द्वारा किये जाने वाले काम को छोटा नहीं समझते, बल्कि उसे आदर भाव से करते हैं। वहीं इस मिशन में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कार्यकर्त्ता पूर्ण सम्मान के साथ यज्ञोपवीत धारण करके ब्राह्मण कर्म सम्पन्न करते हैं।

देश की नीतियाँ बनाने वाले ध्यान रखें, उनकी कुटिलता को देश का युवा कभी भी माफ नहीं करेगा। प्रतिभाएँ राष्ट्रीय धरोहर हैं और रोजगार राष्ट्रीय कर्त्तव्य। प्रतिभाएँ किसी खास जाति में जन्म नहीं लेती हैं। वे कहीं भी हों, उन्हें संरक्षण और सुअवसर मिलना चाहिए। यह किसी युग का दुःखद सच रहा है, जबकि किसी एकलव्य की भोली भावनाओं को छलकर उसका अँगूठा लिया गया और महापराक्रमी कर्ण को सूतपुत्र कहकर चिढ़ाया गया, परन्तु काल किसी को क्षमा नहीं करता। एकलव्य के साथ छल करने वाले द्रोणाचार्य को छल से ही मरना पड़ा, वह भी अपने प्रिय शिष्य अर्जुन के सगे- सम्बन्धी के हाथों और कर्ण के साथ अनीति करने वालों ने भी अनीति भोगी। जबकि एकलव्य और कर्ण का यश आज भी दिगन्तव्यापी है।

विवेक का तकाजा यह है कि आज पिछली गलतियाँ न दुहराई जाय। और न ही बदला लेने के सरंजाम जुटाये जायँ। अर्जुन हों या एकलव्य अथवा कर्ण सबको समान अवसर मिले। वर्ग एवं वर्ण कोई भी हो अवसर सभी के लिए सुलभ होना चाहिए। अच्छा तो यह हो कि देश के युवा स्वयं ही इन विभाजनकारी मंसूबों को नाकाम करें। वे अपने को जातियों में न बाँटें और न बाँटने वालों को कामयाब होने दें। देश के युवा का यह दायित्व है कि प्रतिभा कहीं भी हो, उसे उभरने का अवसर जरूर मिले। इसी तरह गरीबी और भूख कहीं भी हो उसे मिटाने में कोई कसर न छोटी जाय। इसके लिए हम सरकारों के भरोसे न रहें और अपनी स्वावलम्बन की साध को पूरा करने के लिए स्वयं की नीतियाँ बनायें।
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