Monday 22, September 2025
शुक्ल पक्ष प्रथमा, आश्विन 2025
पंचांग 22/09/2025 • September 22, 2025
आश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), आश्विन | प्रतिपदा तिथि 02:56 AM तक उपरांत द्वितीया | नक्षत्र उत्तर फाल्गुनी 11:24 AM तक उपरांत हस्त | शुक्ल योग 07:58 PM तक, उसके बाद ब्रह्म योग | करण किस्तुघन 02:07 PM तक, बाद बव 02:56 AM तक, बाद बालव |
सितम्बर 22 सोमवार को राहु 07:39 AM से 09:09 AM तक है | चन्द्रमा कन्या राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:09 AM सूर्यास्त 6:10 PM चन्द्रोदय 6:21 AM चन्द्रास्त 6:25 PM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु शरद
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - आश्विन
- अमांत - आश्विन
तिथि
- शुक्ल पक्ष प्रतिपदा
- Sep 22 01:23 AM – Sep 23 02:56 AM
- शुक्ल पक्ष द्वितीया
- Sep 23 02:56 AM – Sep 24 04:51 AM
नक्षत्र
- उत्तर फाल्गुनी - Sep 21 09:32 AM – Sep 22 11:24 AM
- हस्त - Sep 22 11:24 AM – Sep 23 01:40 PM

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गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन







आज का सद्चिंतन (बोर्ड)




आज का सद्वाक्य




नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
सारी की सारी समस्याएँ और कठिनाइयाँ हमने स्वयं में से पैदा की हैं, और इसका हम स्वयं ही समाधान कर सकते हैं। भगवान की सहायता मिलनी चाहिए, भगवान की सहायता मिलती है और मिलेगी भी। किसके लिए मिलेगी? ऊँचे उद्देश्यों के लिए।
ऊँचे उद्देश्यों के लिए। कल मैं कितने उदाहरण दे चुका हूँ। मैंने भागीरथ का किस्सा सुनाया। भागीरथ को भगवान ने दोनों हाथ से दिया। गंगा जी ने दोनों हाथ से दिया, न केवल दिया, बल्कि यह भी कहा कि हम आपकी बेटी बनकर रहेंगे — भागीरथ की बेटी गंगा, भागीरथी। भगवान देगा, बहुत देगा। भगवान ने अपने भक्तों की बात मानी, लेकिन भक्त तो होना चाहिए। भक्तों को तो कहना चाहिए, भक्त तो होना चाहिए। भक्त की परिभाषा क्या हो सकती है? भक्त की परिभाषा यह हो सकती है कि वह भगवान का काम करने के बारे में विचार करता है — “मैं भगवान के लिए काम करूँगा, मैं भगवान के लिए काम करूँगा।”
भगवान के लिए काम करने का परिणाम यह होता है कि भगवान कहता है — “हम तुम्हारे लिए काम करूँगा, हम तुम्हारे लिए काम करूँगा, हम तुम्हारे लिए यह काम करूँगा।”
स्त्री अपने पति से यह कहती है कि “अपना शरीर और अपने हया, शर्म और अपनी इज्जत, आबरू आपकी हथेली पर रखूँगी, और मैं आपकी बनती हूँ।”
और वह यह कहता है — “मेरी कमाई, मेरा जिंदगी का हक, मेरा वंश, जो कुछ भी है, तुम्हारे चरणों पर समर्पित होता है। मैं एक लाख रुपया कमाता हूँ और मेरी मृत्यु के बाद तुम ही मेरी उत्तराधिकारी होगी। मैंने जिंदगी भर की मेहनत से एक लाख रुपया कमाया, और तुम 24 घंटे मेरे घर में हुई हो। लेकिन मैं इस बात का अधिकारी घोषित करता हूँ कि अब तुम एक दिन घर में रहने की कीमत एक लाख रुपया वसूल कर सकती हो। मेरे घर में जो संपत्ति है, उसकी सब तुम मालकिन हो।”
क्या बात है! एक दूसरे को समर्पण, एक दूसरे को समझना। अगर हम यह करते रह सकें, तो हम भगवान का प्यार पा सकते हैं। लेकिन हमारा तरीका अजीब है। दो मित्र थे, आपस में। एक होशियार था और एक बुद्धू। दोनों ने कहा — “यार, आओ हम मज़ाक करें।”
“क्या मज़ाक करेंगे?”
“हमारे किसी भी शरीर के छेद में — एक में तो तुम उंगली डाल दो, और एक में हम तेरी उंगली डाल देंगे।”
“नहीं समझा, तू कान वान की बात कर रहा है या नाक वाक की?”
“कान वान की डाल दे, बेटे।”
“भाई साहब, हंसने में क्या दिक्कत है? डालिए, आप हमारे मुँह में उंगली डाल दीजिए।”
फिर उसने मुँह में उंगली डाली, तो उसने काट खाई।
और तब उसने कहा — “अब हम डालेंगे तुम्हारे में।”
अच्छी बात है, एक आँख में उंगली डाल दी, एक आँख फूट गई, उंगली भी काट ली और आँख भी फूट गई।
यह कौन चालाक आदमी है?
वह है आप, और आप भगवान की उंगली काटना चाहते हैं।
आप भगवान की आँख में उंगली डालना चाहते हैं।
भगवान के नियमों को बिगाड़ना चाहते हैं, मर्यादाओं को बिगाड़ना चाहते हैं।
और आप भगवान को अनैतिक और इम्मोरल बनाना चाहते हैं।
आप भगवान से कहते हैं — “आप अनैतिक बनिए, आप इम्मोरल बनिए। आप नियमों को बिगाड़ दीजिए, कायदे कानूनों को खत्म कर दीजिए।”
बस एक ही रिश्ता रखिए — भगत का। भगत का रिश्ता।
और भगत जो माँगे, सो लाके रख दीजिए।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
ईश्वर अपने हर भक्त को एक प्यार भरी जिम्मेदारी सौंपता है और कहता है इसे हमेशा सम्भाल का रखा जाय। लापरवाही से इधर-उधर न फेंका जाय। भक्तों में से हर एक को मिलने वाली इस अनुकम्पा का नाम है- दुःख। भक्तों को अपनी सच्चाई इसी कसौटी पर खरी साबित करनी होती है।
दूसरे लोग जब जिस-तिस तरीके से पैसा इकट्ठा का लेते हैं और मौज-मजा उड़ाते हैं तब भक्त को अपनी ईमानदारी की रोटी पर गुजारा करना होता है। इस पर बहुत से लोग बेवकूफ बताते हैं न बनायेंगे तो भी उनकी औरों के मुकाबले तंगी की जिन्दगी अपने को अखरती, और यह सुनना पड़ता है कि भक्ति का बदला खुशहाली में क्यों नहीं मिला। यह परिस्थितियाँ सामने आती हैं। इसलिए भक्त को बहुत पहले से ही तंगी और कठिनाई में रहने का अभ्यास करना पड़ता है। जो इससे इनकार करता है उसकी भक्ति सच्ची नहीं हो सकती। जो सौंपी हुई अमानत की जिम्मेदारी सम्भालने से इन्कार करे उसकी सच्चाई पर सहज ही सन्देह होता है।
दुनिया में दुःखियारों की कमी नहीं। इनकी सहायता करने की जिम्मेदारी भगवान भक्त जनों को सौंपते हैं। पिछड़े हुए लोगों को ऊंचा उठाने का काम हर कोई नहीं सम्भाल सकता। इसके लिए भावनाशील और अनुभवी आदमी चाहिए। इतनी योग्यता सच्चे ईश्वर भक्तों में ही होती है। करुणावान के सिवाय और किसी के बस का यह काम नहीं कि दूसरों के कष्टों को अपने कन्धों पर उठाये और जो बोझ से लदे हैं उनको हलका करें। यह रीति-नीति अपनाने वाले को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
ईश्वर का सबसे प्यारा बेटा है ‘‘दुःख’’। इसे सम्भाल कर रखने की जिम्मेदारी ईश्वर अपने भक्तों को ही सौंपता है। कष्ट को मजबूरी की तरह कई लोग सहते हैं। किन्तु ऐसे कम हैं जो इसे सुयोग मानते हैं और समझते हैं कि आत्मा की पवित्रता के लिए इसे अपनाया जाना आवश्यक है।
जो सम्पन्न हैं, जिन्हें वैभव का उपयोग करने की आदत है उन्हें भक्ति रस का आनन्द नहीं मिल सकता। उपयोग की तुलना में अनुदान कितना मूल्यवान और आनंददायक होता है, जिसे यह अनुभव हो गया वह देने की बात निरन्तर सोचता है। अपनी सम्पदा, प्रतिभा और सुविधा को किस काम में उपयोग करूं इस प्रश्न का भक्त के पास एक ही सुनिश्चित उत्तर रहता है दुर्बलों को समर्थ बनाने, पिछड़ों को बढ़ाने और गिरों को उठाने के लिए। इस प्रयोजन में अपनी विभूतियाँ खर्च करने के उपरान्त संतोष भी मिलता है और आनन्द भी होता है। यही है भगवान की भक्ति का प्रसाद जो ‘इस हाथ दे, उस हाथ ले’ के हिसाब से मिलता रहता है।
भक्त की परीक्षा पग-पग पर होती है। सच्चाई परखने के लिए और महानता बढ़ाने के लिए। खरे सोने की कसौटी पर कसने और आग पर तपाने में उस जौहरी को कोई एतराज नहीं होता जो खरा माल बेचने और खरा माल खरीदने का सौदा करता है। भक्त को इसी रास्ते से गुजरता पड़ता है। उसे दुःख प्यारे लगते हैं क्योंकि वे ईश्वर की धरोहर हैं और इसलिए मिलते हैं कि आनन्द, उल्लास, संतोष और उत्साह में क्षण भर के लिए भी कमी न आने पाये।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1985
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