Monday 02, June 2025
शुक्ल पक्ष , जेष्ठ 2025
पंचांग 02/06/2025 • June 02, 2025
ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष सप्तमी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), ज्येष्ठ | सप्तमी तिथि 08:35 PM तक उपरांत अष्टमी | नक्षत्र मघा 10:55 PM तक उपरांत पूर्व फाल्गुनी | व्याघात योग 08:20 AM तक, उसके बाद हर्षण योग | करण गर 08:11 AM तक, बाद वणिज 08:35 PM तक, बाद विष्टि |
जून 02 सोमवार को राहु 07:04 AM से 08:48 AM तक है | चन्द्रमा सिंह राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:21 AM सूर्यास्त 7:09 PM चन्द्रोदय 11:20 AM चन्द्रास्त 12:35 AM अयन उत्तरायण द्रिक ऋतु ग्रीष्म
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - ज्येष्ठ
- अमांत - ज्येष्ठ
तिथि
- शुक्ल पक्ष सप्तमी
- Jun 01 07:59 PM – Jun 02 08:35 PM
- शुक्ल पक्ष अष्टमी
- Jun 02 08:35 PM – Jun 03 09:56 PM
नक्षत्र
- मघा - Jun 01 09:36 PM – Jun 02 10:55 PM
- पूर्व फाल्गुनी - Jun 02 10:55 PM – Jun 04 12:58 AM

महाभारत- बाहरी नहीं, आंतरिक युद्ध | Mahabharat Bahari Nhi Antarik Yuddh

शांतिकुंज महाकाल का घोंसला है | Shantikunj Mahakal Ka Ghosla Hai | Dr Chinmay Pandya, Rishi Chintan
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन







आज का सद्चिंतन (बोर्ड)




आज का सद्वाक्य




नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

!! शांतिकुंज दर्शन 02 June 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

परंपराओं को निभाना सिर्फ रीति नहीं, जिम्मेदारी है
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
बेटे, हमारी अक्ल और हमारी समझ ऐसी बेहूदा है, हमारी समझ कि जहां आदमी का जीवन होता है, वहां तो हम सब भूल जाते हैं। और जहां इसका बाहर वाला छिलका होता है, छिलके को लिए फिरते हैं।
कोई युगों में साथ भगवान राम आए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम, समाज को मर्यादाओं की संस्थापना करने के शिक्षण देने आए थे। रामचंद्र जी की जीवात्मा तो मर गई। अब क्या रह गया है? अब रामचंद्र जी का खिलौना रह गया है, जिसको हम डनन डनन, घनन घनन, "लो रामचंद्र जी, हरे रामा हरे कृष्णा" — हार गए रामा, हार गए कृष्णा, हार गए रामा, हार गए कृष्णा, हरे रामा — रह गया है।
और वह मर्यादा? मर्यादा तो मार के डाल दी हमने। मर्यादा तो मार कर डाल दी, केवल नाम रह गया है और काम खत्म कर दिया है।
हम ऐसे अभागे हैं।
अच्छा हुआ, यह तो अच्छा हुआ बात, पहली रही, पुरानी चली गई।
अगर शिवाजी और राणा प्रताप कहीं आज से हजार-दो हजार वर्ष पहले रहे होते, तो हमने वही — "ये तोप थी हमारे ऊपर", वही आरती कौन सी?
"जय राणा प्रताप देवा, जय शिवाजी देवा, पान खाओ, खजूर खाओ और खाओ मेवा।"
"जय शिवाजी देवा, राणा प्रताप देवा, पान खाओ, गुड़ खाओ और खाओ मेवा।"
यह जाहिल जो हैं, इन जाहिलों के पल्ले एक ही पड़ी है — तोप कौन सी?
किसी तरीके से बस माला घुमाओ।
माला घुमाओ — "राणा प्रतापाय नमः, राणा प्रतापाय नमः, राणा प्रतापाय नमः।"
"शिवाजी नमः, शिवाजी नमः, शिवाजी नमः।"
यह क्या कर रहा है?
"चौबीस हजार का अनुष्ठान कर रहा हूं। शिवाजी का अनुष्ठान कर रहा हूं।"
तो क्या करेंगे शिवाजी?
"आएंगे और बस रुपए की थैली रख जाएंगे मेरे पीछे?"
आज तो बेटे, ऐसी मिट्टी पलीत हो गई है।
मैं क्या करता हूं?
मुझे क्रोध आता है और मुझे आता है रोष।
यह हमारी आध्यात्मिकता की ऐसी मिट्टी पलीत, ऐसी हो गई।
अच्छा होता, हमने वो परंपराओं को ज़िंदा रखा होता।
अखण्ड-ज्योति से
प्रचारात्मक, संगठनात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक चतुर्विधि कार्यक्रमों को लेकर युग निर्माण योजना क्रमशः अपना क्षेत्र बनाती और बढ़ाती चली जायेगी। निःसन्देह इसके पीछे ईश्वरीय इच्छा और महाकाल की विधि व्यवस्था काम कर रहीं है, हम केवल उसके उद्घोषक मात्र है। यह आन्दोलन न तो शिथिल होने वाला है, न निरस्त। हमारे तपश्चर्या के लिये चले जाने के बाद वह घटेगा नहीं - हजार लाख गुना विकसित होगा। सो हममें से किसी को शंका कुशंकाओं के कुचक्र में भटकने की अपेक्षा अपना वह दृढ़ निश्चय परिपक्व करना चाहिए कि विश्व का नव निर्माण होना ही है और उससे अपने अभियान को, अपने परिवार को अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका का सम्पादन करना ही है।
परिजनों को अपनी जन्म-जन्मान्तरों की उस उत्कृष्ट सुसंस्कारिता का चिंतन करना चाहिए जिसकी परख से हमने उन्हें अपनी माला में पिरोया है। युग की पुकार, जीवनोद्देश्य की सार्थकता, ईश्वर की इच्छा और इस ऐतिहासिक अवसर की स्थिति, महामानव की भूमिका को ध्यान में रखते हुए कुछ बड़े कदम उठाने की बात सोचनी चाहिए। इस महाअभियान की अनेक दिशाएँ हैं जिन्हें पैसे से, मस्तिष्क से, श्रम सीकरों से सींचा जाना चाहिए। जिसके पास जो विभूतियाँ हैं उन्हें लेकर महाकाल के चरणों में प्रस्तुत होना चाहिए।
लोभ, मोह के अज्ञान और अंधकार की तमिस्रा को चीरते हुए हमें आगे बढ़ना चाहिए और अपने पास जो हो उसका न्यूनतम भाग अपने और अपने परिवार के लिए रख कर शेष को विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए। नव निर्माण की लाल मशाल में हमने अपने सर्वस्व का तेल टपका कर उसे प्रकाशवान् रखा है। अब परिजनों की जिम्मेदारी है कि वे उसे जलती रखने के लिए हमारी ही तरह अपने अस्तित्व के सार तत्व को टपकाएँ। परिजनों पर यही कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व छोड़कर इस आशा के साथ हम विदा हो रहे हैं कि महानता की दिशा में कदम बढ़ाने की प्रवृत्ति अपने परिजनों में घटेगी नहीं बढ़ेगी ही।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, जून 1971, पृष्ठ 62
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