Friday 28, November 2025
शुक्ल पक्ष अष्टमी, मार्गशीर्ष 2025
पंचांग 28/11/2025 • November 28, 2025
मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष अष्टमी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), मार्गशीर्ष | अष्टमी तिथि 12:15 AM तक उपरांत नवमी | नक्षत्र शतभिषा 02:49 AM तक उपरांत पूर्वभाद्रपदा | व्याघात योग 11:05 AM तक, उसके बाद हर्षण योग | करण विष्टि 12:28 PM तक, बाद बव 12:15 AM तक, बाद बालव |
नवम्बर 28 शुक्रवार को राहु 10:48 AM से 12:05 PM तक है | चन्द्रमा कुंभ राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:57 AM सूर्यास्त 5:13 PM चन्द्रोदय12:44 PM चन्द्रास्त12:26 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - मार्गशीर्ष
- अमांत - मार्गशीर्ष
तिथि
- शुक्ल पक्ष अष्टमी
- Nov 28 12:30 AM – Nov 29 12:15 AM - शुक्ल पक्ष नवमी
- Nov 29 12:15 AM – Nov 29 11:15 PM
नक्षत्र
- शतभिषा - Nov 28 02:32 AM – Nov 29 02:49 AM
- पूर्वभाद्रपदा - Nov 29 02:49 AM – Nov 30 02:22 AM
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अमृतवाणी:- क्या दूसरों से उम्मीदें रखना ठीक है परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
आपको आत्मनिर्भर होना चाहिए, अपने ऊपर डिपेंड कीजिए, अपने ऊपर निर्भर कीजिए. क्या करें, बाहर के आदमियों से मत उम्मीदें कीजिए, मत विश्वास कीजिए, मत अविश्वास कीजिए. आप यह मान कर चलिए, यह आदमी है, आदमी सो आदमी. अपने ऊपर निर्भर रहिए, आप यह मान कर चलिए, उन्नति करेंगे तो हम ही करेंगे. किसी आदमी से आप यह आशा लगाए बैठे हैं, वह आदमी आपकी सहायता करेगा—क्यों आपकी सहायता करेगा? आस बेगानी जो करे, जियत ही मर जाए, यह देहात की कथा है. आप ठीक है, वक्त मिल जाएगा तो सहायता मिल भी सकती है, नहीं भी मिल सकती है. पर जो भी आप कदम उठाएं, अपने पैरों पर उम्मीद करके उठाइए. उम्मीद यह करें कि यह काम हमको करना है और हमीं करेंगे, हमें यह काम करना है और हमीं करेंगे. अगर आपका यह आत्मविश्वास है तब तब फिर आपको आत्मनिर्भर व्यक्ति कहा जाएगा. और देवता आपसे कहा जाएगा—देवता कहा जाएगा, देवता आत्मविश्वास ही होते हैं और आत्मनिर्भर होते हैं. वह किसी पर डिपेंड नहीं करते. सूरज किसी पर डिपेंड नहीं करता कि हमें कोई अर्घ्य चढ़ाएगा कि नहीं चढ़ाएगा. हवा किसी पर डिपेंड नहीं करती, किसी की किसी की अपेक्षा नहीं करती. चंद्रमा किसी की अपेक्षा नहीं करता, जमीन किसी की अपेक्षा नहीं करती. आप किसी की अपेक्षा मत कीजिए. इसका अर्थ यह नहीं है कि आप सहयोगी जीवन न जीएँ, परस्पर मिलना जुलना न करें. पर आप यह उम्मीद बनाए रहिए कि अमुक आदमी यह करेगा—जैसे आप परिस्थिति के बारे में यह अनुमान लगाते थे, परिस्थितियां हमारे अनुकूल हो जाएँगी, और नहीं हुई तब तब आप झल्लाते हैं, रोते हैं और खीझते हैं. और किसी व्यक्ति ने आप पर एहसान न किया, तब बदला नहीं चुकाया, तब सहायता न की, तब फिर आप झल्लाएंगे—क्या नहीं? झल्लाइए मत. कोशिश कीजिए. चाहे दूसरों का सहयोग मिल जाए, जिस सीमा तक सहयोग मिल जाए, वहाँ तक ठीक. नहीं मिल जाए तो नहीं भी सही. यह मान कर चलिए तो आपकी खीझ, जो कि मनुष्य के जीवन की बहुत बड़ी दुख, बहुत बड़ा संकट है, खीझ से आप बच जाएंगे. खीझ से बच जाइए. खीझ से बचने में क्या दिक्कत है? आप अपना दृष्टिकोण बदल दीजिए ना. अगर दृष्टिकोण बदल देते हैं तो मैं स्वर्ग का रहने वाला कहूंगा. विधेयात्मक चिंतन—विधेयात्मक चिंतन यह क्या है? यह वह चिंतन है जिससे कि आदमी देवता बन जाते हैं. क्या बनाएंगे, क्या बिगाड़ेंगे, विचार ही मत कीजिए. अमुक को क्या नुकसान पहुँचाएँगे, यह मत याद रखिए. खराब आदमी है, इसको हम अच्छा बनाएँगे, सज्जन बनाएँगे—यह क्यों नहीं सोचते? खराब आदमी है तो हम इसको मार डालेंगे, उसकी हत्या कर डालेंगे—यह क्यों सोचते हैं? यह मत सोचिए, आप दृष्टिकोण को बदलिए ना. जो कुछ भी आपको पास मिला हुआ है, वह कम नहीं है. बहुत मिला हुआ है आपके प्रसन्न होने के लिए और हंसने के लिए. हंसाने के लिए यह क्या कम है कि आपको इंसानी जिंदगी मिली हुई है. आप देखिए ना, जरा दूसरे जानवरों को देखिए—कीड़े मकोड़ों को देखिए, पशु पक्षियों को देखिए. कैसी घिनौनी, कैसी छोटी और कैसी जिंदगी व्यतीत करते हैं. आप क्यों ऐसी जिंदगी जिएँगे?
परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
धन पदार्थ है, इसलिए साधन है। जितने भी पदार्थ संसार में हैं वे सब साधन हैं। पदार्थ कभी साध्य नहीं हो सकते। धन के द्वारा शारीरिक आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं शरीर को सजाया जा सकता है पर जीव की आन्तरिक उन्नति या तृप्ति नहीं हो सकती। इसलिए धन कमाने की भाँति ही सद्ज्ञान, सद्गुण, एवं सद्विनोद को प्राप्त करने के लिए भी समय लगाया जाना चाहिए। जब धन ही लक्ष बन जाता है तो अन्य दिशाओं में मन नहीं लगता, समय का अधिकाँश भाग उसी उधेड़ बुन में लगाने के पश्चात् अन्य प्रकार की उन्नतियों के लिए न इच्छा रहती है न शक्ति न सुविधा। इसलिए वह आवश्यक है कि धन को उतना ही महत्त्व दिया जाये जितना कि वस्तुतः उसे मिलना चाहिए। कोई व्यक्ति अध्ययन का श्रम न करना चाहे तो करोड़ों रुपया खर्च कर देने पर भी वह विद्वान नहीं बन सकता।
कोई व्यक्ति बिना अभ्यास किये प्रचुर धन व्यय करने पर भी संगीतज्ञ नहीं बन सकता। किसी का सच्चा प्रेम सहस्रों रुपयों में भी नहीं खरीदा जा सकता है। रुपयों का पहाड़ खर्च करने के बदले में भी स्वास्थ्य नहीं मिल सकता। इन सब बातों के लिये अपना समय और मनोयोग लगाना पड़ता है। मनोयोग और श्रम लगाने के लिए कोई मनुष्य तभी तैयार होगा जब धन की तुलना में उसका महत्व भी बहुत कम न आँका जाये। आज लोग धन को इतना महत्त्व देते हैं कि और कुछ कमाने की उन्हें आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती।
स्वाध्याय के लिए लोगों को फुरसत नहीं, व्यायाम के लिए अवकाश नहीं, भजन के लिए समय नहीं मिलता, लोक सेवा के लिए छुटकारा नहीं, चित्त को प्रफुल्लित करने वाले संगीत, देशाटन, तैरना, सत्संग आदि के लिए टाइम नहीं। कारण एक ही है कि जिस कार्य को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मान लिया गया है उसकी तुलना में ये सब बातें इतनी तुच्छ इतनी गौण समझी गई हैं कि उनकी ओर ध्यान करने की आवश्यकता नहीं समझी जाती। फुरसत उसी काम के लिए नहीं मिलती जो अनावश्यक और महत्वहीन समझा जाता है। जिस काम को हम आवश्यक समझते हैं उसे अन्य कामों की उपेक्षा करके भी सबसे पहले करने हैं। धन का आकर्षण जब अति प्रबल होता है तो जीवन को सुखी और समुन्नत बनाने वाले विचार गुण और कार्य करने के लिए जरा भी अवकाश नहीं मिल सकता।
यदि जीवन की सर्वांगीण उन्नति करनी है तो यह तभी सम्भव हो सकेगी जब कि धन का आकर्षण कम किया जाय, उसे साध्य नहीं, साधन मात्र माना जाय। विद्या प्राप्त करना, स्वास्थ्य को सँभालना, अपनी विविध योग्यताएं और शक्तियाँ विकसित करना, शान्तिदायक विनोदों द्वारा आन्तरिक उल्लास को बढ़ाना, अपने स्वभाव का निर्माण करना, सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन करना, परमार्थ कार्यों में समय देना, आत्म चिन्तन करना भी हमारे लिए धन कमाने से कम महत्वपूर्ण न होना चाहिए। इन कार्यों के लिए भी उतना ही समय और मनोयोग लगाना चाहिए जितना कि धन के लिए लगता है। पर यह सम्भव तभी है जब कि धन की अत्यधिक बढ़ी प्रतिष्ठा को घटा कर उतना ही रखा जाये जितना की वास्तव में है।
क्रमशः जारी..........
अखण्ड ज्योति 1951 अक्टूबर
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