धर्म की स्थापना ही नहीं, अधर्म की अवहेलना भी
जिस प्रकार माली को पौधों में खाद-पानी लगाना पड़ता है साथ ही बेढंगी टहनियों की काट-छाँट तथा समीपवर्ती खर-पतवार को भी उखाड़ना पड़ता है तभी सुन्दर बाग का सपना साकार होता है, उसी प्रकार आत्मोन्नति के लिए जहाँ स्वाध्याय, सत्संग, धर्मानुष्ठान आदि करने पड़ते हैं, वहाँ कुसंस्कारों और दुष्प्रवृत्तियों के निराकरण के लिए आत्मशोधन की प्रताड़ना तपश्चर्या भी अपनानी होती है। प्रगति और परिष्कार के लिए सृजन और उन्मूलन की उभयपक्षीय प्रक्रिया अपनानी होती है।
अतिवादी, उदारपक्षी, एकांगी धार्मिकता का ही दुष्परिणाम था जो हजार वर्ष की लम्बी राजनैतिक गुलामी के रूप में अपने देश को अभिशाप की तरह भुगतना पड़ा। सज्जनता का परिपोषण जितना आवश्यक है उतना ही दुष्टता का उन्मूलन भी परम पवित्र मानवीय कर्त्तव्य हैं। यदि वह सनातन सत्य ठीक तरह समझा जा सके तो प्राचीनकाल की तरह आज भी हर व्यक्ति को न्याय के औचित्य का पोषण और अन्याय के का निराकरण को सकता है।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म वांग्मय 53 पृष्ठ-1.35
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