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माता जिस प्रकार अपने स्नेह सर्वस्व पुत्र को अपना जीवन खर्च करके पालती है। उसी प्रकार हम समस्त प्राणियों के प्रति असीम प्रेम रखें।
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दुर्जेय तृष्णा पर जो काबू कर लेता है उसके शोक इस प्रकार झड़ जाते हैं जैसे कमल के पत्ते पर से जल की बूँदें।
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जो मनुष्य सदा अपने को धिक्कारता रहता है और अपने स्वभाव की निन्दा करता है वह अपने आत्मगौरव को भी खो बैठता है।
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जीत उनकी है जो नम्र हैं, जो झुकते हैं। जीत उनकी है जो सेवक बनते हैं और विरोधी को क्षमा कर देते हैं। जीत उनकी है जो शान्त रहते हैं और दूसरों का भला चाहते हैं।
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हार उनकी है जो अभिमानी हैं, जो मालिक बनना चाहते हैं, जो माफ नहीं करते, जो बदला चाहते हैं और जो दूसरों का बुरा चाहते हैं।
ईश्वर की सच्ची पूजा
(पं. शिवदत्त शास्त्री, जैतापुर)
यो माँ पश्यति सर्वत्र सर्वंच मयि पश्यति।
तस्याऽहं न प्रणस्यामि सच में न प्रणश्यति॥ 30॥
सर्व भूत स्थितं यो माँ भजत्येक मास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स यागी मयि वर्तते॥ 31॥
-गीता अध्याय 6
भगवान कहते हैं कि पुरुष संपूर्ण भूतों में मुझ आत्म रूप ईश्वर को ही व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों प्राणियों को मेरे भीतर देखता है। उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता। 30
जो पुरुष एकीभाव में स्थित हुआ संपूर्ण भूतों में आत्मा रूप से स्थित मुझ ईश्वर को भजता है वह योगी सब प्रकार से बर्तता हुआ भी मेरे में ही बर्तता है ॥ 31॥
उपरोक्त श्लोकों में ईश्वर का स्वरूप और उसके पूजन की सच्ची विधि बड़ी सुन्दरता से बता दी गई है। इसमें ईश्वर का स्थान भी स्पष्ट कर दिया गया है। ईश्वर कहाँ है? यह जानने के लिए लोग चिंतित रहते हैं। नदी, वन, पर्वत, तीर्थ, क्षेत्र, मंदिर, मस्जिद आदि स्थानों में ईश्वर को प्राप्त करने के लिये लोग कठिन परिश्रम करते हैं और उन्हीं स्थानों को ईश्वर का निवास गृह या प्रिय भूमि मानकर भटकते हैं। समय और शक्ति व्यय करके भी जब वे खाली हाथ लौटते हैं और वापिस आने पर भी ईश्वर दर्शन जैसी कोई अनुभूति उन्हें नहीं मिलती तो उन्हें बड़ी निराशा होती है। असल में वे स्थान ईश्वर के निवास स्थान हैं नहीं। क्योंकि वह एकदेशी नहीं है। जो सर्वत्र व्याप्त है वह एक स्थान पर कैसे बंधा रहा। फिर सर्वव्यापी वस्तुएं भी किसी उचित साधन द्वारा ही जानी जा सकती। अग्नि तत्व समस्त विश्व में व्याप्त है पर यदि उसे आप अपने निकट करना चाहते हैं तो उन वस्तुओं को उपयोग में लाना पड़ेगा जो उसे शीघ्रता से प्रकट कर सकती हैं। दियासलाई में लगे हुए मसाले अग्नि तत्व से अधिक निकट हैं इसलिये उनके घिसते ही आग प्रकट हो जाती है। चीड़ की तीलियाँ जलने के अधिक क्षमता रखती हैं और फास्फोरस गंधक आदि के घिसने से जो चिनगारी प्रकट हुई थी उसे तुरन्त ग्रहण कर लेती हैं। किन्तु यदि कोई व्यक्ति दो ईंटों को घिसकर अग्नि प्रकट करना चाहे तो क्या वह सफल हो सकेगा?
ईश्वर सर्व व्यापी ‘अणोरणींयम्’ अणुओं से अणु बहुत सूक्ष्म तथा इतना गंभीर है कि ब्रह्मादि देवता भी नेति नेति कहते हैं। उसमें थाह ले सकने में कोई भी अब तक समर्थ नहीं हुआ। उस सच्चिदानन्द घन परमात्मा का निकट समीप स्थान यदि कोई हो सकता है तो अपना अन्तर ही हो सकता है। साँसारिक पदार्थों में अंतर से भी अधिक चेतना और सूक्ष्म पदार्थ और कोई नहीं है। ईंट पत्थरों में ईश्वर की कल्पना करके उसमें अपनी भावना का प्रतिबिंब उपजाना जितना कठिन है उतना आत्मा में ईश्वर की झाँकी कर लेना मुश्किल नहीं है। इसलिए हमारे लिये सब से निकट और सबसे सुगम ईश्वर का स्थान अपने ही अंदर है। भगवान इसी स्थान पर पूजा करने का आदेश देते हैं।
अब प्रश्न होता है कि वह कैसा है? किस रूप से उसकी पूजा की जाय? इसका समाधान भी उपरोक्त श्लोकों में कर दिया गया है। वह सर्वज्ञ है। सब उसी के रूप हैं। आत्मरूप में सब में व्यापक हैं। संपूर्ण भूत उसी के भीतर हैं। यही उसका स्वरूप है जो कुछ है परमात्मा का है। सब उसी से ओतप्रोत हैं। संसार में जो भी द्रव्य अदृश्य पदार्थ हैं, सब ईश्वर का ही स्वरूप हैं। “ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंचित् जगत्योजगत्।” जो कुछ भी इस संसार में है वह सब ईश्वरमय है। बस, यही ईश्वर का रूप है। इस रूप को देख कर आत्मा संतुष्ट हो जाती है और उसकी प्यास बुझ जाती है। जो आनन्द उसे काशी कावा में नहीं पाया था वह इस झाँकी में आता है। इस प्रकार ईश्वर का दर्शन करता हुआ पथिक कहता है—
लाली मेरे लाल की, जित देखो तित लाल।
लाली देखने को चली, भी हो गई लाल॥
ईश्वर को सर्वत्र देखता हुआ स्थित प्रज्ञ खुद अलग खड़ा नहीं रह सकता। लाल की लाली को देखकर वह अपने को भी लाल बना देता है। चला था ईश्वर का दर्शन करने, ईश्वर की पूजा करके हो गया वह खुद ईश्वर। इस नमक के मील में जो घुसा वह गल गया और वह अपनी हस्ती खो बैठा। दूध से गले मिलने के लिये जो पानी गया वह फिर लौटकर नहीं आया । जब तक पानी का दूध से मिलना नहीं हुआ तभी तक वह दूध दूध चिल्लाता है जब वह उससे मिलने लगा तो फिर दर्शन की इच्छा, पूजा का स्थान, भजन का विधान जानना नहीं चाहता, सर्वत्र ईश्वर है। संसार के संपूर्ण पदार्थ ईश्वर स्वरूप हैं। यह कितनी उच्च भावना है कितना बड़ा तत्व दर्शन है। ऐसा तत्वदर्शी साक्षात् ईश्वर है। अपने अणु अणु में से एक ही आवाज सुनता है ‘सोऽहं’ वह मैं हूँ। आत्मा और परमात्मा में उसे कुछ भी भेद नहीं मालूम पड़ता। अपने चारों ओर वह ईश्वर ही ईश्वर देखता है।
ऐसा भक्त ढोंगी नहीं हो सकता। ढोंग दिखायेगा किसे? ईश्वर को ?? ऐसा भक्त दुराचारी नहीं हो सकता। हिंसा, दुराचार, असत्य, द्वेष, छल, कपट किससे करेगा? ईश्वर से?? ऐसा भक्त कामनायें नहीं कर सकता। उसे अपने आत्मा के लिए अब किस चीज की इच्छा है? क्या वह भलाई के लड्डू खाने और ‘नन्ही जान, की ठुमरी सुनने की दरख्वास्त ईश्वर के दरबार में पेश करेगा? ऐसा भक्त वासनाओं का गुलाम नहीं रह सकता, ऐसा भक्त काम क्रोधादि विकारों द्वारा शासित नहीं किया जा सकता, ऐसा भक्त दुख शोकादि द्वन्द्वों का अनुभव करता हुआ नहीं पाया जा सकता। गीताकार ने स्थिति प्रज्ञ और समाधिस्थ के जो लक्षण बताये हैं वे स्वयमेव उसमें आ जाते हैं। जीवन की मूलधारा का प्रवाह बदलते ही उसके मार्ग के दृश्य भी बदल जाते हैं। स्वार्थ और अज्ञान के पथ में जो नीच स्वभावों के दृश्य मिलते हैं वह उस उच्च पथ पर कदम बढ़ाते ही पीछे रह जाते हैं। न तो किसी पर क्रोध आता है और न अपना मतलब गाँठने की घात लगानी पड़ती है। समदर्शी भक्त ईश्वर तुल्य हो जाता है और तब उसे संसार के ठीक प्रकार चलाने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ग्रहण करना पड़ता है। भारत के वायसराय वही कार्य करते हैं जो संसार की इच्छा और आज्ञा होती है। भक्त ईश्वर का वाय-राय है उसकी तमाम शक्ति अपने सम्राट की इच्छा के लिये समर्पित हो जाती है।
ईश्वर को सर्वत्र देखना ही उसकी सच्ची पूजा है। ऐसा पुजारी संसार में चाहे जो भी कार्य कर रहा हो असल में ईश्वर की ही पूजा कर रहा होता है। उसका खाना, सोना, चलना, बैठना भी ईश्वर पूजा ही है। ऐसे भक्त से दूर रहना और उससे न मिलना ईश्वर की शक्ति से बाहर की बात है। वह जब स्वयं ईश्वर रूप है तो उसे भुला कौन सकेगा? वह प्रतिज्ञा बुद्ध है—’तस्याहं डडडडड ‘ उससे मैं अलग नहीं होता।