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Magazine - Year 1940 - Version 2

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सार्वभौम धर्म

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(आचार्य टी. एन. अप्पा, बंगलोर)

गत अंक में यह बताने का प्रयत्न किया गया था कि संसार के कोने कोने में मजहबों के जो जाल बिछे हुए हैं वह वास्तव में धर्म नहीं हैं। मजहबों को धर्म के नाम से पुकारना भूल है। यद्यपि उनकी आधार शिला धर्म के ही किसी टुकड़े पर रखी हुई होती है। परन्तु वे धर्म स्वरूप नहीं हैं। मजहबों की आलोचना द्वारा धर्म की बुराई करना नहीं है। चाहे कोई नास्तिक से नास्तिक हो, प्रकृतिवादी हो, ईश्वर को न मानता हो, पूजा पाठ न करता हो, धर्म-आडंबरों को कोसता हो फिर भी वह अधार्मिक नहीं हो सकता। मनुष्य धार्मिक है। वह धर्म का पालन करता है। उसकी स्वाभाविक रुचि धर्म की ओर होती है। समाज की सारी व्यवस्था धर्म के ऊपर टिकी हुई है उसके भंग होने से तत्क्षण उपद्रव मंच हो जाता है। धर्म द्रोही को कठोर राजदंड देने की व्यवस्था भी सर्वत्र प्रचलित है।

धर्म से हमारा अभिप्राय सदाचार, शुद्ध आचरण और उच्च निस्वार्थ एवं प्रेममयी याचनाओं से है। खुद कष्ट सहकर भी दूसरों को सुख देना हमारी दृष्टि में धर्म है। दूसरे शब्दों में किसी के अधिकारों में बाधा न पहुँचाना धर्म है। जिनके मन में दूसरों की भलाई और सहानुभूति के विचार आते रहते हैं वह पूरा और पक्का धार्मिक है। भले ही वह तिलक न लगाता है। भले ही उसने दाढ़ी न बढ़ाई जो शिक्षा ग्रहण करने वाले और सबमें भलाई तलाश करने वालों के लिए हर एक मजहब में अच्छाई मिल सकती है। बुरी बात को भी अच्छी नजर से देखा जाय तो उससे अच्छाई ही प्रतीत होगी। परन्तु न्याय, दृष्टि और परीक्षण के तौर से देखने पर उनमें कुछ ऐसे दोष दिखाई देते हैं जो मनुष्य से अलग करते हैं। कोई दबी जबान से कहता है तो कोई कड़ुवे शब्दों में कहते सब मजहब यही हैं कि दूर से मजहब वालों को नीच समझो, घृणा करो और उन्हें सताओ। कम से कम उनके प्रचारक तो अवश्य ही ऐसा कहते हैं।

मजहबों के नाम पर अब तक कितना रक्तपात संसार में हुआ है। कितने जुल्म और अत्याचार हुए हैं वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। सर गवर्नर फोर्ट का कथन है कि ‘मजहबों ने मनुष्य को सिखाया है कि वे दूसरों से घृणा करें, विरोधियों पर जुल्म और अपने परिपंथी का पक्षपात करने से ईश्वर खुश होता है और स्वर्ग की नियामतें दे देता है। इस अंध विश्वास पर यकीन करने से दुनिया में फूट फैली और लोग एक दूसरे का सिर तोड़ने की हैवानी आदत पर लौट आये। इस प्रकार मजहब मनुष्य को आगे नहीं बढ़ा सके वरन् पीछे लौटा लाये।” अमेरिका के एक स्वतन्त्र विचारक पादरी एम॰ रेनाल्ड कहते हैं कि—’मजहबों की यह आवाज कि हमें ग्रहण कर लोगे तो तुम्हारे सारे गुनाह माफ कर दिये जायेंगे, बहुत खतरनाक है। इसने अफीम का सा नशा पैदा किया है और लोगों को समझने सोचने की शक्ति को छीन लिया है। वह एक प्रकार का झूठा लालच है जिसे दिखाकर आदमी को पथभ्रष्ट करने की कोशिश की जाती है।”

सब मजहबों में ऐसा विश्वास है कि अमुक धार्मिक उपादान को पूरा करने से इच्छित फल, सुख, स्वर्ग या मुक्ति मिल जायगी। हिन्दू लोग गंगा स्नान करने, तीर्थ यात्रा करने से अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जाने और बहुत सा पुण्य मिलने की बात पर विश्वास करते हैं। क्रूस को हाथ लेकर बपस्मा पढ़ता हुआ ईसाई विश्वास करता है कि मेरे पापों की गठरी प्रभु ईश के सिर पर गिर पड़ी। इसी प्रकार की बातें बौद्ध, जैन, इस्लाम आदि मजहबों में हैं। इन बातों की दो ही प्रतिक्रिया होती हैं या तो इस नशीले प्रचार से मोहित होकर अर्द्ध-निद्रित अवस्था में मनुष्य गिर पड़ता है और तर्क बुद्धि को दूर रखकर विश्वास कर लेता है या फिर इसके विरुद्ध बगावत करने को खड़ा हो जाता है। कुछ चालाक आदमी अपना स्वार्थ साधन करने के लिए एक तीसरी ही तरकीब निकाल लेते हैं वे भीतर ही भीतर तो मजहबी धर्म के घोर अविश्वासी होते हैं किन्तु बाहर से पक्के धार्मिक होने का ढोंग बनाकर अपना मतलब गाँठते हैं। ऐसे धूर्त धर्माचार्य आपको चाहे जहाँ पर्याप्त संख्या में मिल सकते हैं जो खुद तो बुरे से बुरे काम करते हैं पर दूसरों को उपदेश देते हैं। यदि वह धार्मिक विधान इतने ही उपयोगी हैं तो वे स्वयं उनका पूरी तरह पालन क्यों नहीं करते?

दार्शनिक आस्टन का मत है कि “इस शताब्दी में मजहबों का खोखलापन दुनिया के सामने अच्छी तरह प्रकट हो गया है। अब हर आदमी इस बात पर अविश्वास करने लगा है कि किसी मजहब को ग्रहण करने मात्र से कोई आध्यात्मिक लाभ हो सकता है। मजहबी बुराइयों को लोग समझने लगे हैं विश्व बंधुत्व की भावना फैलाये बिना संसार में शान्ति नहीं हो सकती और विश्व प्रेम का प्रसार मजहबी गुलामी से छुये बिना नहीं हो सकता।” प्रसिद्ध तत्वेत्ता वेल्स कहते हैं कि निकट भविष्य में एक महान धार्मिक क्रान्ति होने वाली है जिसमें लोग उन बहकाने वालों से लड़ेंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर अपना मतलब गाँठने और जनता को गुमराह करने का पेशा अख़्तियार कर रखा है। सराये अब एक ऐसे मजहब की तलाश कर रहा है जिसके नीचे बिना किसी भेदभाव के लोग आपस में भाई की तरह मिलजुल सकें और आध्यात्मिक शान्ति उपलब्ध कर सकें।

प्रो. चार्ल्स इजयट का विश्वास है कि ज्यों ज्यों ज्ञान का प्रकाश बढ़ता जायगा त्यों त्यों अन्ध विश्वास उठता जायेगा। संसार का आगामी धर्म देवताओं के सामने नाक रगड़ने, पत्थरों के पूजने में शक्ति व्यर्थ करने, पशुओं की कुरबानी करने, थोड़े से पैसे खर्च करके स्वर्ग खरीदने का नहीं होगा। दुनिया एक ऐसे धर्म के नीचे संगठित होगी जिसमें सदाचार और त्याग तपस्या को प्रथम स्थान दिया जायगा और देश भक्त, त्यागी, पवित्र सिद्धान्तों के प्रचारक सत्य मार्ग के शिक्षक ही धर्माचारी का पद ग्रहण कर सकेंगे। धार्मिक व्यक्ति चंद मिनट पूजा पत्री करके ही अपना कर्तव्य समाप्त नहीं कर चुकेंगे वरन् प्रेम और सत्य का प्रचार करना जीवन का एक मात्र लक्ष्य बनायेंगे। सच्चा धर्मानुष्ठान वह समझा जायेगा जिसमें अधिक से अधिक निस्वार्थ भावना के साथ लोक कल्याण के लिए उच्च से उच्च त्याग किया गया होगा।

ऐसा सार्वभौम धर्म शास्त्रों में मौजूद है। भगवान मनु ने आज से हजारों वर्ष पूर्व उसकी आवश्यकता अनुभव की थी और दश लक्षणों के साथ उसे दुनिया के सामने प्रकट किया था तब उसे इस कान से सुनकर उस कान निकाल दिया गया था, पर अब दुनिया मजहबों के जाल से सहस्रों वर्षों तड़पने के बाद अपनी भूल समझी है। आज वह फिर उसी आदि धर्म की महत्ता को समझने और उसी की छाया में सुख शान्ति प्राप्त करने के लिए आतुर हो रही है।

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