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Magazine - Year 1940 - Version 2

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उल्लू की दीवट

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(पं. शिवनारायण शर्मा, हैडमास्टर, आगरा)

एक दिन एक मालिक अपने अधीन कर्मचारी पर नाराज होकर कहने लगा “उल्लू की दीवट” यह बात बहुत वर्ष की है। परन्तु इसका भाव मेरी समझ में इस प्रकार आया है-

मनुष्य के शरीर की उपमा दीवट से दी गई है। दीवट के ऊपर दिया रखा जाता है इस शरीर रूपी दीवट में अन्तःकरण रूपी दिया है। दिया में तीन चीजें होती हैं। (1) मिट्टी या टीन का दिया (2) तेल (3) बत्ती। इसी प्रकार अन्तःकरण में तैल रूपी मन है, बुद्धि बत्ती है, अन्तःकरण दिया है। जिस तरह दिया में ही तैल होते हुए दिया के ऊपर नीचे अन्दर तथा दीवट के ऊपर नीचे अन्दर यदि वह कास्ट का हो तो तेल ही तेल हो जाता है और दीवट पर तेल गिर गिर कर दीवट को तेल से भिगो देता है जिससे दिया और दीवट दोनों तेल से भीग जाते हैं ठीक उसी तरह हमारे शरीर में मन व्याप्त है, परन्तु उसका निवास स्थान अन्तःकरण है। इस शरीर में जो आत्मा है वह दीपक की लौ के समान है। जैसे दीपक बिना लौ के कमरे में रोशनी नहीं कर सकता उसी तरह यह शरीर भी बिना आत्मा के न स्वयं प्रकाशमय हो सकता है न दूसरों को प्रकाशित कर सकता है। यह सारा ब्रह्माण्ड शरीर रूपी दीपक का एक कमरा है और सारे ब्रह्माण्ड में एक ही आत्मा उजाला कर रहा है, यदि एक के सिवा कोई और भी हो तो यह क्यों कहा जावे कि “आप डूबा तो जग डूबा”। इससे स्पष्ट है कि सिवाय आपके दूसरा कोई संसार में है ही नहीं। जैसे स्वप्न में आप ही अनेक रूप होकर लीलायें करते और देखते हैं। सुषुप्ति आई कि खेल खत्म।

तेल और बत्ती होते हुए भी दिया नहीं जल सकता जब तक बत्ती दियासलाई लौ से न जलाया जाय और दियासलाई भी बिना जलाने वाले के नहीं जला सकती। तो कमरे में प्रकाश करने के लिये तीन चीजों की जरूरत हुई- मनुष्य, दियासलाई और दीपक। उसी प्रकार संसार में भी तीन वस्तुएं हैं- प्रकृति, ईश्वर और जीव। जैसे मनुष्य दियासलाई रगड़ कर जलती हुई को बत्ती में लगाता है तो दिया जलने लगता है। उसी तरह ब्रह्म अपनी प्रेरणा द्वारा माया में प्रवेश कर ईश्वर रूपी दियासलाई होता हुआ अन्तःकरण में प्रवेश कर लौ रूपी जीव कहलाता है और ईश्वर रूपी तेल का प्रकाश बुद्धि पर डालता है यानी अन्तःकरण सहित वह प्रकाश जीवात्मा कहलाता है।

मनुष्य दियासलाई जला कर अलग हो जाता है इसी तरह ब्रह्म ने एक बार प्रेरणा कर दी वह स्वतन्त्र हो गया, जैसे दीपक जला कर मनुष्य कहीं भी चला जाय आजाद है परन्तु जब तक तेल बत्ती रहेगा दिया बराबर जलता रहेगा परन्तु गुल हो जाने पर फिर दियासलाई से ही जलेगा। ब्रह्म भी इसी प्रकार प्रेरणा करके अलग हो गया मानो जीवात्मा से इसका कुछ सम्बन्ध ही नहीं है। “भुस में आग लगाकर जमालो दूर खड़ी हुई”।

ब्रह्म यहाँ मिसल जमालो के है, प्रेरणा करके जीवात्मा को शरीर के अन्दर बन्द करके अलग सा हो गया। जिस तरह दियासलाई से लालटेन, डिब्बी, गैस लैम्प आदि जलाते हैं तो दिया जीव रूप है और गैस लैम्प आदि अधिक रोशनी वाले अमीर और अवतार कहे जाते हैं इसका कारण सिर्फ उपाधि है।

यह ब्रह्म में ही ताकत है कि वह सारे समुद्र को एक बूँद के अन्दर भर दे यानी उसने अपने स्वरूप आत्मा को जो कि अजन्मा अमर आदि है और जो सारे संसार में सर्वत्र फैला हुआ है उसे अन्तःकरण के अन्दर भर दिया गया है।

अब उस अन्तःकरण से कैसे निकले?

एक शीशा लेकर सूर्य के सामने कीजिये उसके अक्ष अंधेरी जगह में डालिए तो आप देखेंगे कि खूब प्रकाश वाला अक्ष पड़ता है फिर वही अक्ष उजेली जगह पर डालिये तो उसका प्रकाश कम हो जायेगा। और यदि वही अक्ष धूप में डाला जाय तो शायद दिखाई न पड़े। इससे सिद्ध हुआ कि अक्ष अंधेरे में ज्यादा पड़ता है। अविद्या ही वह अंधेरा है। सूर्य यहाँ ब्रह्म है, उसकी किरणें ईश्वर हैं और आइना अन्तःकरण। आइने का अक्ष सूर्य की किरणों से पृथक तभी तक दिखाई देगा जब तक वह पूरी रोशनी में नहीं आया यानी अँधेरे में खूब दिखाई पड़ेगा और जैसे-जैसे अंधेरा कम होता जायेगा अक्ष का प्रकाश भी कम होता जावेगा।

जैसे सिनेमा में जब फिल्म दिखलाते हैं तो बिजली गुल कर देते है अंधेरे में तसवीरें खूब दिखलाई पड़ती हैं? तो जब तक अविद्यारूपी अंधेरा अन्तःकरण में रहेगा तब तक जीव ब्रह्म से पृथक सा मालूम होगा अविद्या हटते ही जीव ब्रह्म में जो पृथकता भास रही थी वह मिट जायगी। यानी अंधेरे वाला अक्ष अज्ञानियों का जीवात्मा है और उससे उजाले में जो अक्ष है वह ज्ञानियों का जीवात्मा है, तब ही बन्ध और मोक्ष का भ्रम मिट जावेगा। अविद्या ज्ञान से दूर होती है ज्ञान सत्मार्ग से प्राप्त होता है, राम को वशिष्ठ और कृष्ण को सन्दीपन पारमार्णिक गुरु करने पड़े थे। इसी से सन्तों का दर्जा अवतारों से भी बड़ा है।

‘विधि हरि हर कवि कोविद बानी,
कहत साधु महिमा सकुचानी।’

गीता में भगवान ने भी तत्वदर्शियों की शरण में जाना कहा है आत्मविद्या खुद नहीं बतलाई सिर्फ इशारा मात्र कर दिया था।

श्रेयान द्रव्यमयाद्यज्ञाज् ज्ञानयज्ञः परंतप।
सर्वंकर्मिखिलंपार्थ ज्ञानेपरि समाप्यते॥ 33॥

तद्विद्धिप्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
> उपदेश्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः॥ 33॥

यज्ञज्ञात्वान पुनर्मोहं मेवंयास्यसि पाण्डव।


येन भूतान्यशेषेण द्रक्षस्यात्मन्यथो मयि ॥ 35॥

सम्पूर्ण भूतों को अपने अंतर्गत देखेगा, तब मेरे सच्चिदानन्द स्वरूप में एकीभाव हुआ सच्चिदानन्दमय ही देखेगा।

यो माँ पश्यन्ति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं नप्रणस्यामि सचमेन प्रणश्यति॥ 40॥

ब्रह्म प्रेरणा करके अलग हो जाता है फिर बार-बार प्रेरणा नहीं करता न उनमें आसक्त होता है इसी से वह कर्ता और अकर्ता दोनों कहलाता है कर्मों का उसे अहंकार नहीं होता जैसे-जैसे अविद्या दूर होती जाती है जीवात्मा का प्रकाश ब्रह्म के प्रकाश में मिलता जाता है यानी अभिन्नता दरसने लगती है। अव्यक्त का ध्यान और अचिन्त का चिन्तन कैसे किया जाय? जो विलास स्वरूप हो जिसकी संज्ञा (Noun) हो तो उसके चिन्तन को भी किया जा सकता है।

ब्रह्म अव्यक्त है अचिन्त्य है यह नाम किसने रखे? मनुष्य ने। तो जिस तरह मनुष्य ने उस अवाँग मनस गोचर का अव्यक्त अचिन्त्य ऐसे नाम रखे हैं वैसे ही यह उसका चिन्तन स्मरण भी कर सकता है यदि मनुष्य चाहे तो। परन्तु मनुष्य करना खुद नहीं चाहता है और बहाने ढूंढ़ता है कि कोई अच्छा गुरु नहीं मिलता।

गुरु की जरूरत?

जब आप किसी की बुराई करना चाहते हैं, तो उसकी तरकीब जानने के लिये कोई गुरु नहीं ढूंढ़ते बल्कि इतना गुप्त रखते हैं कि परमात्मा भी न जानने पावें और उसकी तदवीर खुद ही सोच विचार कर निकाल लेते हो और तदवीरें करते करते सफल ही हो जाते हो। किसने तदवीर बतलाई? किसी ने नहीं। आपके अन्दर ऐसा करने की तीव्र इच्छा हुई तरकीब सोचने को बुद्धि पर जोर दिया अपने इच्छित फल को प्राप्त हो जाये।

अब अधोगति में ले जाने वाली बुराई को तो बिना गुरु के ही खुद बुद्धि पर जोर देकर तदवीरें निकाल लीं और बुराई कर डाली तो जब आप शुभ की प्राप्ति के लिए तीव्र इच्छा कर बुद्धि पर जोर देंगे तो उसके प्राप्त की तदवीर भी बुद्धि से अवश्य पावेंगे क्योंकि सच्चा गुरु आत्मा वहाँ मौजूद ही है। गुरु न मिलने की बात कहना बहाने वाली है।

स्थावरंजंगमं व्याप्तं यत्किंचित् सचराचरम्

तत्पदंदर्शितंयेत तस्मै श्री गुरुवे नमः॥ 36॥

हिरामयेन पात्रेण सत्यास्यापिहि तंमुखं। ईश 15।

वह पात्र कहाँ है काशी में- “वाराणसी भ्रुवोर्मध्ये वलन्तीलोचनममि।”

काशी क्षेत्रे निवासश्च जाह्नवी चरणोदकम्॥॥

गुरुर्विश्वेश्वरः साक्षात् तारकंब्रह्मनिश्चितम्॥ 18॥

काशी क्षेत्र में आज्ञाचक्र वहाँ गुरु प्रकाश भाव से दीखता है इसी से इसका नाम काशी क्षेत्र है निवास जाह्नवी प्रवाह उनके चरण सम्भूत है उस काशी क्षेत्र में गुरु प्रत्यक्ष भाव से इस विषय के ईश्वर रूप से दृश्यमान हैं वहाँ जाने से विश्व की उत्पत्ति का निर्देश होता है, वही तारक ब्रह्म है उनके निकट जाने से संसार बन्धन से छूट जाते हैं।

परमार्थ की तीव्र इच्छा होने से बेचैनी होगी तो संसार की वस्तुओं की अनिच्छा हो जायेगी यही वैराग्य है, यह वैराग्य उत्पन्न होने पर प्रभु कृपा स्वतः होगी और उस कृपा से कोई न कोई सन्त तुम को प्राप्त हो कर उस दिल की बेचैनी को अपने आप शाँत कर देगा और वह आनन्दमय हो जायेगा।

लेकिन-

जिस पारस से सोना होवे, वह पारस है कच्चा।

जिस पारस से पारस होवे, वह पारस है सच्चा॥

सच्चा गुरु चेला नहीं बनाता, माला जपने को नहीं देता वह शिक्षा देता रहता है जो एक देशी उपदेश दे वह कच्चा और सर्वदेशी दे वह पक्का।

देखिये मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, क्षुधा, पिपासा, इच्छा, राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह इनका स्वरूप न कभी देखा न देख सकते हैं। लेकिन इनका चिन्तन स्मरण बार-बार करते हैं। कहते हैं इनका रूप देखा नहीं और यह भी कहते हैं मेरा मन भजन, इष्टदेव में नहीं लगता, स्थिर नहीं होता, हमारी बुद्धि में यह बात नहीं आती, इसी तरह उस अव्यक्त व ध्यान और चिन्तन भी उसके चरित्रों द्वारा हो सकता है, यदि मनुष्य चाहे तो।

मन की गति बुद्धि तक है, जिस कार्य के करने बुद्धि हार मान लेती है उसमें मन कभी नहीं लगता यही इसका प्रभाव है। बुद्धि के परे भगवान्-आत्म है तो मन की पहुँच भगवान् तक कैसे हो और जबर्दस्ती भगवान् में कैसे लगे, वह तो वहाँ तक पहुँच नहीं सकता। मन पर माया का प्रभाव पड़ा है इस से मन भगवान् का भजन पसन्द नहीं करता और माया के कार्यों में रात दिन परिणत रहता है।

जो लोग यह कहते हैं कि मेरा मन आज भजन में 5 मिनट लगा वे गलत कहते हैं वह तो माया से परे जा सकता, भजन माया के परे है उसमें बिन आधार के कैसे ठहरे।

‘गो गोचर जहंलगि मन जाई, सो सब माया जानोभ’

सो ऐसा मन ब्रह्म में कैसे लगे? उसे जबर्दस्ती लगाना बेकार है। यदि कोई कहे कि लगता है तो उसका मन माया में ही लगता है, उसका भगवान् माया का ही है इसी कारण सिर्फ मन से भजन करने वाले भजन करने में फेल हो जाते हैं।

मन बुद्धि के मातहत है यानी बुद्धि निश्चय करती है वही मन करता है इसलिए बुद्धिमान को चाहिए कि वह मन को न छोड़ कर बुद्धि को काबू में लाये और बुद्धि को सत्संग में डाले। बुद्धि की अमित शाश्वत है यह राम कृष्ण शंकर सबको प्यारी है इसी सत्संग रूपी अग्नि में बुद्धि को डालना चाहिये। अग्नि बुद्धि के मल को जला देगा। सत्य द्रव शेष रह जायेगा, इसी को शुद्ध बुद्धि कहते हैं।

बुद्धि का साथी मन है मन के भी पाप जाते हैं और उसे में विवेक उत्पन्न हो जाता है जब मन शुद्ध हुआ तो फिर कहता है, मैं कौन यह जगत क्या है? मैं अमुक व्यक्ति नहीं। बुद्धि के पास जाता और विचार करता है और अद्वैत का सब भेद तब समझ लेता है।

ब्रह्म का प्रभाव बुद्धि द्वारा मन पर पड़ता है। जैसे उल्लू सीधी सूर्य की रोशनी नहीं ले सकता, परन्तु चन्द्रमा द्वारा लेता है। यही उल्लू मन है साधू कहते हैं “मेरा उल्लू कहीं नहीं जाने का”। “माया रूपी रात में उल्लू बोला करता है।” मन बुद्धि के द्वारा ब्रह्म की आभा पाता है। मन के आधीन इन्द्रियाँ हैं, मन के सुधारने से आप ही सुधर जाती हैं मन जीवात्मा को परेशान करता है।

मन माया की कोठरी तन संशय का कोट

विषहर मन्त्र न लागई करे चोट पर चोट॥

जिस प्रकार दियासलाई रूपी ईश्वर को तेल रूपी मन ग्रहण नहीं कर सकता यानी दियासलाई जलाकर तेल पर लगाओ तो गुल हो जायेगी, पर तेल में कुछ अधार बत्ती लगा दी जाय तो वह बत्ती जलने लगेगी और बत्ती द्वार तेल जलने लगेगा और गरम भी होता जायगा। अब यदि बत्ती पर रंगीन चिमनी रख दी जावे तो रोशनी भी रंगीन दिखाई पड़ती है। हालाँकि असली लौ के रंग से फर्क न आवेगा। इसी प्रकार सत्संग के असर से मनुष्य का स्वरूप भला बुरा दीख पड़ता है परन्तु यथार्थ में वह सदैव एक-सा है।

अखण्ड ज्योति के पाठक अपनी ‘उल्लू की दीवट’ को संभाल कर रखें और उसका ठीक उपयोग करें तो अपने परम उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं।

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