व्रत की आवश्यकता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(लेखक - महात्मा गान्धी)
व्रत के महत्व सम्बन्धी कुछ बातें मैं इस लेखमाला में कहीं कहीं लिख गया हूँ। पर जीवन-निर्माण के लिये व्रत कितने आवश्यक हैं, इसका विचार उचित प्रतीत होता है। स्वदेशी को छोड़ कर अपने और सब व्रतों के सम्बन्ध में मैं लिख चुका, अतएव अब हम इन व्रतों की आवश्यकता का विचार करें। ऐसा एक सम्प्रदाय है, और वह प्रबल है, कि जो कहता है, कि अमुक नियमों का पालन तो उचित है, पर उनके सम्बन्ध में व्रत लेने की आवश्यकता नहीं; यही नहीं बल्कि ऐसा करना मन की कमजोरी का सूचक है और हानिकारक भी हो सकता है। दूसरे व्रत ले चुकने के बाद यदि यह नियम असुविधाजनक मालूम हो, या पाप रूप लगे और तो भी उस पर दृढ़ रहना पड़े तो यह असह्य है। उदाहरण के लिये वे कहते हैं कि शराब न पीना अच्छा है, इसलिये न पीनी चाहिये, पर कभी पी ली हो तो क्या हुआ? दवाई के रूप में तो पी लेनी चाहिये, अतः न पीने का व्रत लेना तो गले में हँसली डालना जैसा हुआ? और जैसे शराब का वैसे ही और बातों का भी। भलाई होती हो तो असत्य क्यों न बोलें?
मुझे इन दलीलों में कोई तथ्य नहीं लगता। व्रत अर्थात् अटल निश्चय। अड़चनों- असुविधाओं को लाँघने के लिये ही तो व्रतों की आवश्यकता है। अड़चन उठाते हुए जो टूटे नहीं, वही अटल निश्चय है-बगैर ऐसे निश्चय के मनुष्य उत्तरोत्तर चढ़ ही नहीं सकता - सारे जगत का अनुभव इस बात का साक्षी है- इसका समर्थन करता है। जो पाप रूप है, उसका निश्चय तो व्रत कहा नहीं जा सकता। वह तो राक्षी वृत्ति है। और यदि एक व्रत विशेष, जो पहले पुण्य रूप प्रतीत हुआ हो, और अन्त में पाप रूप सिद्ध हो तो उसे छोड़ने से धर्म अवश्य प्राप्त होता है। पर ऐसी वस्तु के लिये न कोई व्रत लेता है न लेना चाहिये। जो धर्म सर्व-मान्य माना गया है, पर जिस से आचरण की हमें आदत नहीं पड़ी है; उसका व्रत लिया जाता है। ऊपर से दृष्टान्त में पाप का आभास मात्र हो सकता है। ‘सच कहने से किसी को हानि पहुँची तो?’ सत्यवादी ऐसा विचार करने नहीं बैठता। सत्य से जगत् में किसी की हानि नहीं होती, और न होगी। सत्यवादी यह विश्वास रक्खे। यही बात मद्यपान पर लागू होती है। या तो व्रत में दवाई को अपवाद माना हो, या व्रत में शरीर का जोखिम उठाने का निश्चय हो। दवाई के रूप में भी शराब न पीने से देह का नाश हो भी जाय तो क्या? शराब पीने से देह रहेगी, ऐसा इकरारनामा कौन लिख सकता है? और उस क्षण देह बच जाय, पर दूसरे ही क्षण किसी दूसरे कारण से नष्ट हो जाय तो इस की जवाबदेही किसके सिर? और इसके विपरीत देह नष्ट हो तो भले ही हो जाय, पर शराब न पीने के दृष्टान्त का चमत्कारिक प्रभाव शराब के व्यसन में फँसे हुए मनुष्यों पर हो, जगत् को यह कितना बड़ा लाभ है! देह जाय अथवा रहे, मुझे तो धर्म-पालन करना ही है, ऐसा भव्य निश्चय करने वाले ही किसी समय ईश्वर का दर्शन कर सकते हैं।
व्रत लेना कमजोरी का नहीं, बल का सूचक है। अमुक काम करना उचित है, तो फिर वह करना ही चाहिये, इसी का नाम व्रत है। और इसमें बल है! फिर भले ही इसे व्रत न कह कर और किसी नाम से पुकारा जाय। इसमें हर्ज नहीं। परन्तु ‘जहाँ तक बन सकेगा, करूंगा’ अपनी निर्बलता या अभिमान का दर्शन कराता है। फिर वह स्वयं भले उसे नम्रता कहे। इसमें नम्रता की गन्ध तक नहीं। ‘जहाँ तक हो सकेगा’ यह वाक्य शुभ निश्चयों के लिये विष के समान है। मैंने इस बात को अपने जीवन में और दूसरे बहुतेरों के जीवन में अनुभव किया है, देखा है। ‘जहाँ तक हो सकेगा’ वहाँ तक करने का अर्थ है, पहली ही अड़चन में फिसल जाना। ‘यथासम्भव सत्य का पालन करूंगा, इस वाक्य का कोई अर्थ ही नहीं है। व्यापार में यदि इस आशय की कोई चिट्ठी लिखे कि मैं अमुक रकम “यथासम्भव” अमुक तारीख को लौटा दूँगा, तो उस चिट्ठी को चैक या हुँडी के रूप में कहीं भी कोई स्वीकार न करेगा इसी तरह यथा सम्भव सत्य का पालन करने की हुँडी ईश्वर की दुकान पर ‘सिकरी’ नहीं जाती।
ईश्वर स्वयं व्रत की, निश्चय की मूर्ति है। वह अपने नियम से एक अणु भी टले तो ईश्वर न रह जाय। सूर्य महाव्रतधारी है। इससे जग के काल का समय का निर्माण होता है और पंचांगों की रचना हो सकती है। उसने अपनी ऐसी ही साख जमाई है। वह हमेशा उगा है और उगता रहेगा और इसी से हम अपने को सुरक्षित समझते हैं। व्यापार मात्र का आधार एक टेक या साख पर निर्भर है। व्यापारी यदि एक दूसरे से वचनबद्ध न रहें तो व्यापार ही न चल सके। यों ‘व्रत’ एक सर्वव्यापक वस्तु पाई जाती है; तो फिर जब स्वयं हमारे जीवन निर्माण का प्रश्न उठता है, ईश्वर दर्शन का सवाल खड़ा होता है तब बिना व्रत के कैसे काम चल सकता है? इसलिये व्रत की आवश्यकता के सम्बन्ध में हमारे मन में कभी शंका ही पैदा न हो।

