आत्म चिन्ता (कविता
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(ले.-श्री शशिभुषण जी) ऊपर समा बाँध घन रोवे, नीचे रोवे विरही-जीवन,
बाहर भीतर एक बन्ध है, एक विषाद एक ही उलझन! थक-थक के रोता मानव मन, पाप पुण्य के दो-दो लालच;
हाँ बयार की गति पहचाने बढ़, मन! बढ़, अपने-भर बच-बच,
यहाँ सीखना होगा सबको पाठ, अरे! लोहित शैली का,
भ्रान्ति आयेगी वेश बदल कर मर्म खोलने इस थैली का, उस गायक का सुन शृंगी-स्वर इन प्राणों में हूक बजेगी,
करुणा के जल बरसाने को ऊपर घनी घटा गरजेगी!
किन्तु, आह वह करुणा-घन भी मायावी का दिल क्यों घेरे?
पुरइन के दल-सा जिसका दिल जल-कण उस पर क्यों ठहरें रे? चक्रवाक का मर्म चीर देगा दिग्वालाओं का क्रन्दन!
ताराओं में ताराओं का होगा एक अनर्गल घर्षण!
ज्योति न सब लुट जावे, मैं छाया-पट से उसको ढ़ाकूँगा!
और खिजाँ की स्याही से हग का सुन्दर मधुवन आकूँगा! कलावन्त के फूल लुटेंगे, लुट जायेगी जब सब क्यारी,
क्या दूँगा मैं? जब माँगेगा मुझसे वह निज थाती सारी?
मैं बेदाग बचा देखूँगा खड़ा प्रलय का भला तमाशा?
अपनी आशा-बीच नाचते सारे जग की नग्न निराशा। विश्व-विभव की चिता धधकती देखूँगा जब अपने सन्मुख,
कलावन्त की लुटी धरोहर का दायित्व न देगा तब दुख?
क्यों न प्रलय की व्यापकता में मेरा भी अस्तित्व मिलाये,
उस विराट की छिपी कृपा भी शायद क्यों कर मुझे जिलाये। किन्तु आह! मैं अमर वहाँ हूँ? मुझे मिला अमरत्व कहाँ है?
मुझ मानव को अपनेपन पर भी थोड़ा सा स्वतंत्र कहाँ है?
ठेस लगी यह एक कड़ी सी, भ्रम! भ्रम!! भ्रम!!! यह केवल भ्रम है,
मैं तो पहले ही क्रम में हूँ, पहला ही तो मेरा क्रम है? कूल अरे! मैं कूल धरे हूँ, अभी लहर में कहाँ बहा हूँ?
मुझे देखना था सो देखा, देखूँगा, सो देख रहा हूँ! *समाप्त*
बाहर भीतर एक बन्ध है, एक विषाद एक ही उलझन! थक-थक के रोता मानव मन, पाप पुण्य के दो-दो लालच;
हाँ बयार की गति पहचाने बढ़, मन! बढ़, अपने-भर बच-बच,
यहाँ सीखना होगा सबको पाठ, अरे! लोहित शैली का,
भ्रान्ति आयेगी वेश बदल कर मर्म खोलने इस थैली का, उस गायक का सुन शृंगी-स्वर इन प्राणों में हूक बजेगी,
करुणा के जल बरसाने को ऊपर घनी घटा गरजेगी!
किन्तु, आह वह करुणा-घन भी मायावी का दिल क्यों घेरे?
पुरइन के दल-सा जिसका दिल जल-कण उस पर क्यों ठहरें रे? चक्रवाक का मर्म चीर देगा दिग्वालाओं का क्रन्दन!
ताराओं में ताराओं का होगा एक अनर्गल घर्षण!
ज्योति न सब लुट जावे, मैं छाया-पट से उसको ढ़ाकूँगा!
और खिजाँ की स्याही से हग का सुन्दर मधुवन आकूँगा! कलावन्त के फूल लुटेंगे, लुट जायेगी जब सब क्यारी,
क्या दूँगा मैं? जब माँगेगा मुझसे वह निज थाती सारी?
मैं बेदाग बचा देखूँगा खड़ा प्रलय का भला तमाशा?
अपनी आशा-बीच नाचते सारे जग की नग्न निराशा। विश्व-विभव की चिता धधकती देखूँगा जब अपने सन्मुख,
कलावन्त की लुटी धरोहर का दायित्व न देगा तब दुख?
क्यों न प्रलय की व्यापकता में मेरा भी अस्तित्व मिलाये,
उस विराट की छिपी कृपा भी शायद क्यों कर मुझे जिलाये। किन्तु आह! मैं अमर वहाँ हूँ? मुझे मिला अमरत्व कहाँ है?
मुझ मानव को अपनेपन पर भी थोड़ा सा स्वतंत्र कहाँ है?
ठेस लगी यह एक कड़ी सी, भ्रम! भ्रम!! भ्रम!!! यह केवल भ्रम है,
मैं तो पहले ही क्रम में हूँ, पहला ही तो मेरा क्रम है? कूल अरे! मैं कूल धरे हूँ, अभी लहर में कहाँ बहा हूँ?
मुझे देखना था सो देखा, देखूँगा, सो देख रहा हूँ! *समाप्त*

