
प्रार्थना का गुप्त रहस्य
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( प्रो.श्री धर्मपालसिंह जी, एस.एस.ए. बरला)
संसार के सभी जीव किसी न किसी रूप में उस सच्चिदानन्द परम पावन पिता को अपनी वाणी में याद करते हैं और इस संसार रूपी संग्राम भूमि में सभी अपने-अपने स्वभावानुसार किसी न किसी उद्देश्य की प्राप्ति के प्रयत्न में लगे हुए हैं। जब अपनी सब शक्तियाँ (शरीर बल, बुद्धिबल, मित्र बल, धन बल आदि) का प्रयोग करके भी उद्देश्य पूर्ति में असमर्थ हो जाते हैं तब निराश होकर संसार की एक गुप्त शक्ति को अपनी-अपनी भाषा में पुकार उठते हैं। हे राम ! अल्लाह ! ओ माई गाड ! यह वेदना पूर्ण सम्बोधन एक अन्तिम सहायतार्थ किया जाता है। इसी को प्रार्थना, प्रेयर आदि आदि नामों से कहा जाता है। प्रार्थना संसार के प्रत्येक धर्म का आवश्यक अंग है और मनुष्य जीवन की उन्नति का एक उत्तम साधन है, अपार दुःख सागर से निकलने के लिए एक सहारा है, इस में वह अनन्त शक्तियाँ है जिसके आगे कुछ असम्भव नहीं है, परन्तु यह सब प्रार्थी की दशा पर निर्भर है। संसार में प्रार्थना विशेषतया निम्न तीन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की जाती है। (1) केवल साँसारिक लाभ, अन्न, धन, वस्त्र, रोग निवृत्ति के लिए (2) मानसिक, बौद्धिक कठिनाइयों को दूर करने के लिए। जैसे काम, क्रोध, चिन्ता, ईर्ष्या, मानसिक कुभावों पर विजय पाने, आत्म उन्नति एवं आत्मा क्या है, वह कहाँ से आया है, कहाँ जाएगा इत्यादि गूढ़ विषयों का बुद्धि द्वारा समझने के लिए तथा आत्म अनुभव प्राप्त करने के निमित्त की जाती है। (3) इस में प्रार्थी कुछ नहीं चाहता, केवल परम दिव्य स्वरूप के प्रेम और ध्यान में निरन्तर लीन रहने, प्रभु से मेल और एक होने की परम चाह रखता है। यह प्रार्थनाएं स्वार्थ सिद्धि और परमार्थ सिद्धि दोनों तरह से की जा सकती हैं। प्रार्थना का उत्तर मिलना न मिलना यह सब प्रार्थी की अवस्था पर निर्भर है। जो मनुष्य पुण्य कर्मी, प्रबल इच्छा शक्ति वाले और निष्काम हैं, उनकी प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती और जो इसके विपरीत स्वार्थी, कुकर्मी एवं निर्बल धारणा वाले होते है, उनकी प्रार्थना अकसर निष्फल जाती है। प्रार्थना का उत्तर मिलने की साक्षी से इतिहास भरे पड़े हैं। मुगल सम्राट बाबर अपने पुत्र हुमायूँ के लिए जब वह कठिन रोग से मृत्यु के निकट पहुँच लिया था, उसके जीवन के लिए पिता से अपना जीवन आड़ में देकर प्रार्थना करता है कि हे स्वामी ! हुमायूँ की सारी पीड़ा मुझे दीजिये। और उसे रोग मुक्त करके जीवन दान दीजिये। कहते है उसी क्षण में हुमायूँ अच्छा होने लगा और बाबर ने उसी रोग में अपना जीवन भेंट कर दिया। द्रौपदी, दमयन्ती, सुबुक्तगीन आदि-2 प्रार्थियों की प्रार्थना का उत्तर मिलने का सबूत हमारे सामने आते हैं। वर्तमान काल में भी इन उत्तरों की कमी नहीं है, प्रतिक्षण असंख्य प्रार्थनाओं के उत्तर परम पावन प्रभु की ओर से मिल रहे हैं। सब प्रार्थनाओं के उत्तरदाता सर्व शक्तिमान, ज्ञान, प्रेम, में सब चराचर ठहरे हुए हैं। ऐसे सर्वेश्वर सर्वधर्ता ईश्वर ही हैं जो असंख्य प्राणियों की प्रार्थना सुनते हैं और यथोचित उत्तर देते हैं। जैसे देह में ज्ञानेन्द्रियाँ विषयों के ज्ञान को मस्तिष्क द्वारा आत्मा को बतलाती हैं और फिर उन को इन्द्रियाँ जीव की आज्ञानुसार ग्रहण करती और त्यागती हैं। देह में जिस प्रकार काम करने वाली इन्द्रियाँ और आज्ञा देने वाला जीव है, वैसे ही संसार रूपी देह में वह परमात्मा सबका उत्तर देने वाले हैं। यह सब चेतनाएं उनके कार्य को चला रही हैं। अन्तरिक्ष लोक में अगणित चेतनाएं वास करती हैं। उनमें कोई मनुष्य से उच्च दशा में है, कोई नीची। प्रार्थनाओं को सुनती और उत्तर देती है, इसके अतिरिक्त तीनों लोकों का भौतिक सार द्रव्य विद्यमान है जो मनुष्य के भावों और विचारों से भावित होता है, जिससे उसमें एक प्रकार की कम्पगती होती है जो ऐसे रूप में ढल जाती है, जो एक प्राणी की भाँति काम करती है। मनुष्य उन भावों और विचारों को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है, जिससे वह भावित होते हैं। इस प्रकार मनुष्य अपनी इच्छा से आज्ञाकारी जीवों को पैदा कर सकता है, जो अन्तरिक्ष लोक में मनुष्य की प्रसन्नता को पूरा करते हैं इसके अलावा अन्य सहाय दाता उच्चावस्था वाले लोग जो गुप्त रीति से सहायता देते हैं। जहाँ कहीं सहायता की पुकार सुनते हैं। वहाँ तुरन्त किसी न किसी साधन से सहायता देते है। द्वितीय प्रकार की आत्म उन्नति के लिये की गई प्रार्थना उन उच्च अवस्था वाले आध्यात्मिक पुरुषों को आकृष्ट करती है, जो उत्साहित जिज्ञासुओं को उत्साह दिलाने और ज्ञान ज्योति जगाने को सदा तैयार रहते हैं। प्रथम प्रकार की साँसारिक वस्तुओं के लिये की गई प्रार्थना अनेक बार पूरी नहीं भी होती देखी जाती हैं। इसका कारण प्रार्थी के पूर्व जनम के अशुभ कर्मों का फल होता है। वह कितना ही रो-रो कर प्रार्थना करे, एक नहीं सुनी जाती क्योंकि होनहार के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। जो लोग ऐसी प्रार्थना करते हैं, उनका श्रम बेकार जाता है। अतएव भौतिक सुख के लिये प्रार्थना करनी बहुत उत्तम नहीं है। क्योंकि भोग में मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है।