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Magazine - Year 1941 - Version 2

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दुःखों का बाप-ममत्व

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(ले. श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर)

विश्व में जितने भी प्राणी हैं, सभी सुख की आकाँक्षा रखते हैं । और उसकी प्राप्ति के लिये निरंतर प्रयत्नशील हैं। पर हजारों प्रयत्न करने पर भी वे सदा दुःख की ही विषम ज्वाला से संतप्त नजर आते हैं। उनकी अशाँति घटने के बदले बढ़ती ही जा रही है, इसका कारण क्या है? यही आश्चर्य एवं अन्वेषण का विषय है । गंभीर विचार करने पर सहसा दो प्रश्न हमारे सामने आते हैं। प्रथम क्या सुख कोई वास्तविक सत्य न होकर कल्पना मात्र है? या सुख के वास्तविक स्वरूप एवं मार्ग से हम सर्वथा अपरिचित है अर्थात् सुख की जो कल्पना हमने कर रखी है वह भ्रान्ति पूर्वक है? अन्यथा ऐसा अन्य कारण और हो ही क्या सकता है कि जिसके फलस्वरूप अपनी बुद्धि एवं शक्ति के अनुसार पूर्ण प्रयत्न करते रहने पर भी हमें इच्छित फल-सुख प्राप्त नहीं होता।

प्रथम प्रश्न पर जरा और गंभीरता से विचार करने पर पता चलता है कि वह प्रश्न समीचीन नहीं है। क्योंकि हमारे पूर्ववर्ती ऋषि मुनियों ने उस आनन्द का अनुभव किया है, एवं अब भी कई आत्माएं ऐसी नजर आती हैं कि उनके दर्शन, वचन श्रवण एवं सत्संग से परम शान्ति का अनुभव होता है अतएव यही विश्वास होता है कि सुख एक वास्तविक सत्य है। हाँ हमारी मान्यता एवं मार्ग में भ्रान्ति हो सकती है, जिस प्रकार तेली का बैल आँखों पर पट्टी बंधे रहने के कारण घाणी के चारों ओर घूमता हुआ जब थक जाता है, तो मन ही मन सोचता है कि मैंने बहुत लम्बी सफर करली, पर आँख खुलने पर उसी घाणी को पास पाकर उसको अपनी मान्यता भ्रान्ति भूल नजर आती है वही दशा हमारी है। हमारी सुख की कल्पना भ्रान्ति मूलक है, इसका विश्वास हमें दो समस्याओं पर विचार करने से स्वतः हो जाता है क्योंकि हमारी कल्पना में संग्रह एवं भोग ही सुख के साधन हैं, तब निरंतर आत्म चिंता करने वाले योगी जन कहते हैं कि सुख भोग में नहीं त्याग में है , इससे सुख के सम्बन्ध में एक नई दिशा मिलती है तथा एक प्राणी जिसे सुख का साधन मानता है, वही अन्य प्राणी के लिये दुख प्रद सिद्ध होता है। केवल यही नहीं, भिन्न-भिन्न प्राणियों की बात को छोड़ भी दें तो भी एक ही व्यक्ति को अपने जीवन में ऐसे अनेक अनुभव मिलते हैं कि एक ही बात एक बार उसे आनन्दप्रद होती है, वही अन्य समय में उसे दुखदायक हो जाती है। यथा- एक खाद्य वस्तु निरोग स्वस्थ में रुचिकर होती है, वही रोगी अवस्था में अप्रिय हो जाती है । पुत्र प्राप्ति सुख का साधन है, पर जब कोई पुत्र अविनीत हो गया या केवल पुत्र ही पुत्र उत्पन्न हो और द्रव्याभाव हो, तो ऊब कर कह उठता है, अब उत्पन्न न हो, तो अच्छा या कन्या हो जाने से ठीक है। इसी प्रकार अन्य अनेक प्रसंग हैं, इससे एक सिद्धान्त पाया जाता है कि सुख, दुख वस्तु के संयोग वियोग में नहीं पर व्यक्ति के विचारों पर निर्भर है।

यही बात अन्य एक उदाहरण द्वारा विशेष स्पष्ट हो जाती है । वह यह है-थोड़े समय पूर्व जेल जाना बड़ा ही निन्दनीय एवं भयप्रद समझा जाता था, पर राष्ट्रीय आन्दोलन ने लोक मानस को बदल डाला। आज कानून भंग कर राष्ट्रीय कार्यकर्त्ता जेल जाते हैं तो उनका मान बहुत अधिक बढ़ जाता है, जाते समय पुष्पों की माला पहनाई जाती है। जो जेल जाते हैं वे भी तनिक भय नहीं लाते। जो वस्तु अत्यन्त दुख प्रद थी उसे वे तनिक भी कष्टकर नहीं मानते। “योगीजन भी कष्टों को बड़े आनन्द के साथ भोगते हैं, बाह्य सुखों के वे दुख समझते हैं।

अब हमें देखना यह है कि सुख कहते किसे हैं? एवं दुःख का मूल कारण क्या है? महापुरुषों ने दुःख का अभाव सुख माना है । अतएव हमें केवल दुःख के कारण को जान कर उसका अभाव कर देना आवश्यक है। अनुभव एवं आगम ग्रन्थ बतलाते हैं कि दुःख ममत्व भाव के कारण होता है, जहाँ ममत्व भाव नहीं है, वहाँ दुःख की अनुभूति नहीं होती। उदाहरणार्थ-विश्व में प्रति समय अनंत प्राणी उत्पन्न होते हैं, व मरते हैं, पर हमें उससे कोई हर्ष विषाद नहीं होता और जब हमारे या हमारे कुटुम्ब में कोई बालक जन्म लेता है, तो हमारे हृदय में हर्ष होता है और जब कोई आत्मीय मरता है, तो शोक होता है इसका कारण अति स्पष्ट है कि जिसके प्रति हमने ममत्व किया, कि यह मेरा है, उसके संयोग वियोग से दुःख सुख के भाव उत्पन्न होते हैं, जहाँ हमारी ममत्व बुद्धि नहीं है, उसके संयोग वियोग से हमारी चित्त वृत्ति पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। हम हमारे सामने किसी दूसरे व्यक्ति की एक वस्तु को नष्ट होते या करते हुए देखते हैं, पर विचार करते हैं कि अपने को इससे क्या? और वही वस्तु जब हमारी होती है, तो उसको नष्ट नहीं होने देते। यदि कोई करे, तो उसके प्रति द्वेष उत्पन्न हो जाता है। इन सब बातों से यह सहज जाना जाता है कि दुःख ममत्व भाव में है। अतएव ममत्व भाव को छोड़ कर समत्व धारण करना चाहिये।

ममत्व बुद्धि वस्तु के सत्य स्वरूप के विचार से नष्ट होती है। जिस वस्तु के प्रति हमारा मोह हो, उसके सम्बन्ध एवं परिणाम पर विचार करते हैं, तो उस पर से ममत्व हटने लगता है जैसे किसी सुस्वादु खाद्य पदार्थ में हमारा मोह हो, तो हमें उस खाद्य पदार्थ को खाने के बाद क्या गति होती है? विष्ठा जिसे देखने को भी जी नहीं चाहता, दुर्गन्ध से जी मचलने लगता है, उस वस्तु की इस गति पर विचार करें, तो उस पर से रुचि हटने लगेगी। शरीर को हम अपना करके मानते हैं, इसके कारण उसके लिये अनेक पाप कर्म करते हैं, उसकी रक्षा एवं सुन्दरता वृद्धि के लिये अपने बहुमूल्य जीवन का काफी समय लगा देते हैं, पर जब हम इसकी अन्तिम अवस्था भस्मीभूत राख, जरावस्था, रुग्ण अवस्था पर विचार करते हैं, तो उस पर जो ममत्व है, वह शिथिल होता चला जाएगा। इसी प्रकार कुटुम्ब परिवार के प्रति जो स्वार्थमय सम्बन्ध है, उसके परिणाम पर विचार करें कि हम उनके लिये कहाँ तक दौड़ धूप मचा रहे हैं, अत्याचार से धनोपार्जन करते हैं, पर जब उनकी स्वार्थ पूर्ति में कमी हुई कि वे ही शत्रु सदृश हो जाते हैं, मरने पर कोई साथ नहीं जा सकता , सब धन माल जिसके ममत्व वश लाखों अन्याय मनुष्य करता है, वह सब यहीं पड़ा रहेगा, उसका तनिक भी हिस्सा साथ न जाएगा। आत्मा अकेला आया एवं अकेला जाएगा। अपने कर्मों का भोग उसे स्वयं भोगना पड़ता है, दुख परिणामों पर विचार करने से वैराग्य का उद्भव होता है और ममत्व घटता चला जाता है।

वास्तव में आनन्द आत्म ममता में है। हरिण जिस प्रकार अपनी नाभि में कस्तूरी होने पर भी उसकी सुगन्ध से मुग्ध होकर चारों ओर दौड़ता फिरता है, पर उस गन्ध का कारण उसकी नाभिस्थित कस्तूरी ही है, इसे नहीं जानता, उसी प्रकार मनुष्य वास्तविक सुख एवं उसके मार्ग को भूल कर आनन्द के लिए इधर-उधर दौड़ धूप कर रहा है, पर जब भूल भ्रान्ति का कारण अज्ञान एवं दुःख के कारण ममत्व को छोड़ देंगे, तो भी हमें परमानंद की प्राप्ति होगी।

First 24 26 Last


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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
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