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Magazine - Year 1941 - Version 2

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बोझ-ईश्वर पर डालो

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(धर्माचार्य श्री सच्चिदान्द जी शास्त्री बदायूँ )

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत।

तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्तिमन्नपौ यातरिश्वादधाति॥

यह उपनिषद् का वचन है। इसके अन्दर बड़े ही मधुर शब्दों में उपासक और उपास्य देव का वर्णन किया है। यहाँ पर उपासक जीव है और उपास्य देव परमात्मा है। पहले पहल इसमें परमात्मा के गुणों का वर्णन है। फिर बाद में यह बतलाया गया है कि जीव यदि इसी परमात्मा को अपना आश्रय बनाये और अपने किये हुये कर्मों को परमात्मा के प्रति सौंप दे तो जीव इस संसार सागर से मुक्त हो सकता है अन्यथा इसी संसार के जंजाल में फंसा रह जायेगा अर्थात् जन्म−जन्मांतरों में पड़ जाएगा और न जाने कितने अनेक जन्मों में वह मोक्ष प्राप्त करें। यह इस उपनिषद् के वचन का सार है।

अब हम इस विषय पर जरा विस्तार पूर्वक विचार करते हैं कि पहले पहल इस मंत्र के पहले पद में यह बताया गया है कि वह परमात्मा “अनेजत्” गति राहत है, अचल है और दूसरे पद में वह बताया है कि “मनसो जवीयो” मन से भी ज्यादा गति वाला है। यहाँ पर आपस में हमको स्पष्ट विरोधाभास प्रतीत होता है। भला यह कैसे हो सकता है कि एक जगह अचल और दूसरी जगह गति वाला हो। परन्तु इनका निराकरण इस प्रकार करते हैं कि अपने स्वरूप में तो अचल है परन्तु जब दूसरे के साथ टक्कर खाता है तो उसको गति वाला कर देता है। यहाँ पर यह शंका उठती है कि अचल वस्तु अर्थात् जो स्वयं गति शील नहीं है। वह दूसरों को गति शील कैसे बना देती है। बात यह है कि ईश्वर निराकार है। हाँ उसकी कुछेक शक्तियाँ की हैं जो इस जगत में काम करती हैं। वे शक्तियाँ जब मन के साथ जुड़ती हैं तो मन गति शील हो जाता है उस शक्ति को इच्छा शक्ति के नाम से पुकारा जा सकता है। प्रभु की यह शक्तियाँ अवश्य हैं क्योंकि वह निराकार है। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि ईश्वर की इच्छा शक्ति मन से ज्यादा वेगवान है। इसी लिये यह इच्छा शक्ति मन को गति वाला बना देती है परन्तु कहने के लिये अविचल यानी अचल हैं क्योंकि स्वयं यह शक्ति क्रिया नहीं करती और स्वयं करे भी किसके लिये, यह संसार परमात्मा की इच्छा मात्र का ही आविर्भाव है। ईश्वर जीवों को उत्पन्न करके उनके ऊपर अपना शासन करना चाहता था और इस संसार को स्थिर रखने के लिये उसने संसार में गति यानी हलचल को रखना आवश्यक समझा था इसलिये उसने संसार में गति डाली जिससे संसार के अन्दर सदा एक जीवन धारा प्रकाशित रहे। इसलिये वह अपने आप अचल होता हुआ भी उसने संसार को गतिशील किया क्योंकि संसार शब्द का अर्थ ही “गति करना” ऐसा है। तीसरे पद में यह बात बताई गई है कि हमारी इन्द्रियाँ उस तक नहीं पहुँच सकतीं। कारण यह है कि हमारी इन्द्रियों की वृत्तियाँ बंडी तुच्छ हैं। जो जो इन्द्रिय जिस जिस भोग के लिये बनी है वह उसी में फंसी रहती है। जिह्वा का काम स्वाद लेना आँख का काम देखना, कान का काम सुनना इत्यादि। यह है इन्द्रियों का स्वाभाविक आनन्द लेने का विषय। यह इन्द्रियाँ उसी अवस्था में ईश्वर तक नहीं पहुँच सकती है कि जब तक कि ये अपने अपने स्वभाव में बनी रहें। परन्तु एक ऐसी अवस्था है कि उस अवस्था में आकर ये इन्द्रियाँ ईश्वर तक पहुँच का कारण बन सकती हैं। वह यह है कि अपने इन्द्रियों के स्वभाव को बदल देना, अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय का जो स्वभाव है उसको बिलकुल शान्त कर देना। तात्पर्य यह है कि एक समाधिस्थ अवस्था में बैठ जाना। यह चीज बड़ी मुश्किल है। किसी को ही ऐसी अवस्था प्राप्त हो सकती है सबको नहीं। इसलिये सामान्यतः यही कहा जा सकता है कि वह परमात्मा इतना बड़ा है कि यह तुच्छ इन्द्रियाँ उस तक नहीं पहुँच सकतीं।

चौथे पद में यह बताया गया है कि वह भगवान जो गतिशील करने वाली वस्तुयें हैं उनको भी लाँघ जाता है। इसका यह स्पष्ट मतलब है कि वह भगवान उनसे भी ज्यादा गतिशील है, तभी तो वह उन गति करने वाली वस्तुओं को लाँघ जाता है अन्यथा कैसे लाँघ सकता है। गतिशील वस्तुयें वायु विद्युत इत्यादि हैं जो संसार में गति कर रही हैं। परमात्मा इनको गति कराता है नियम में चलाता है इसलिये ईश्वर का तो ज्यादा गति वाला होना और गति वाले पदार्थों को लाँघना स्वयं सिद्ध है।

पाँचवें पद में यह बताया गया है कि उपरि- लिखित गुणों वाला जो परमात्मा है, जीव जो अपने कर्म करता है, उस परमात्मा को सौंप दें अर्थात् जो भी कोई कर्म करे प्रभु के लिये करे। इससे उसके अन्दर से स्वार्थ और अहंभावना नष्ट हो जाएगी जो कि जीव को मोक्ष दिलाने में बाधक हैं। स्वार्थ और अहं भावना नष्ट होकर जन्म−जन्मांतरों के झगड़े से छूट जाएगा और सीधा मोक्ष प्राप्त करेगा और जो ऐसा नहीं करेगा, वह इसी संसार में फँसा रह जाएगा और न जाने कब उसकी मुक्ति होगी। इस तरह से अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति सौंप देने से फायदा यह होगा कि उसको अपना भार अपने आप नहीं उठाना पड़ेगा। सारा भार परमात्मा के ऊपर सौंप कर वह निश्चित और सुखी होगा। उदाहरण के तौर पर जब तक पुत्र अपना सारा भार अपने पिता के ऊपर सौंपा रहता है तब तक वह निश्चित और सुखी होता है। परमात्मा को अपने कर्मों को सौंप देने से एक फायदा यह भी होगा कि वह पुरुष जिसने अपने कर्मों को प्रभु के प्रति सौंपा है आत्म उद्देश्य को प्राप्त करेगा अर्थात् आत्म उद्देश्य तो है ही प्रभु प्रति अर्थात् वह पुरुष परमात्मा में ही लीन हो जायगा और अपने जीवन को सफल बनाता हुआ मोक्ष का भागी सिद्ध होगा।

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