
पतिव्रत धर्म
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(तुलसीकृत रामायण से)
चौ0- कह ऋषि वधू सरल मृदु बानी।
नारि धर्म कछु ब्याज बखानी॥
मातु पिता भ्राता हितकारी।
मित प्रद सब सुनु राज कुमारी॥
अमित दानि भरता वैदेही।
अधम सो नारि जो सेब न तेही॥
धीरज धर्म मित्र अरु भारी।
आपद काल परखि अहि चारी॥
वृद्ध रोग वश जड़ धन हीना।
अंध बधिर क्रोधौ अति हीना॥
एकइ धरम एक व्रत नेमा॥
काय वचन मन पति पद प्रेमा॥
जग पतिव्रता चारि विधि अहहीं।
वेद पुरान संत सब कहहीं॥
दो0—उत्तम मध्यम नीच लघु, सकल कहउ समुझाइ।
आगे सुनहि ते भब तरहिं,सुनहुँ सीय चित लाइ॥
चौ0- उत्तम के अस बस मन माहीं।
सपनेहु आन पुरुष जग नाही।
मध्यम परि पति देखें कैसे।
माता पिता पुत्र सम जैसे॥
भरम विचार समुझि कुल रहई।
सो निकृष्ट तिय श्रुति अस कहई॥
बिनु अवसर भयते रह जोई।
जानहुँ अधम नारि जग सोई॥
पति बञ्जक परि पति रति करई।
रौरव नरक कलप सत परई॥
छन सुख लागि जन्म सत कोटी।
दुखन समुझ तिहिसम को खोटी॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई।
पतिव्रत धरम छाँड़ि छल गहई॥
पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई।
विधवा होय पाय तरु नाई॥