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Magazine - Year 1943 - Version 2

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ईश्वर की भक्ति

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जिसको अपने पर विश्वास नहीं, वह ईश्वर पर विश्वास नहीं कर सकता। ऐसे आत्म-घातियों को अपने पाप का परिणाम भोगने के लिये ईश्वर छोड़ देता है और वह धैर्यपूर्वक तब तक उसी कुछ मदद न करने के लिए ठहरा रहता है, जब तक कि वह आत्म-घात करना न छोड़ दे। माता तब तक बच्चे को निर्दयतापूर्वक धूप में खड़ा रहने देती है जब तक कि वह फिर चोरी न करने की प्रतिज्ञा नहीं करता। भक्त का प्रथम लक्षण आत्म-विश्वास है। आत्म-विश्वास का अर्थ है परमात्मा में विश्वास करना। जो आत्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप की झाँकी करता है, वही प्रभु के निकट तक पहुँच सकता है। ईश्वर नामक सर्वव्यापक सत्ता में प्रवेश करने का द्वार आत्मा में होकर है, वही इस खाई का पुल है। अन्य उपायों से प्रभु को प्राप्त करने वालों का प्रयत्न ऐसा है जैसे पुल का तिरस्कार करके गहरी नदी का कोई और मार्ग तलाश करते फिरना। आचार्यों का अनुभव है कि—”दैवापि दुर्बल घातकः” क भी दुर्बलों का घातक है। अविश्वासी और आत्म-घाती निश्चय ही विपत्ति में पड़े रहते हैं और बिना पतवार के जहाज की तरह इधर-उधर टकराते हुए जीवन का उद्देश्य नष्ट करते रहते हैं। एक क्रूर कर्ता अपराधी की जेल की जैसे निष्पक्ष जज कुछ सुनवाई नहीं करता और सरसरी में खारिज कर देता है, वैसे ही आत्म तिरस्कार करने वालों को ईश्वर के यहाँ भी तिरस्कार प्राप्त होता है और उनकी प्रार्थना निष्फल चली जाती है।

ईश्वर से की गई प्रार्थना का तभी उत्तर मिलता है जब हम अपनी शक्तियों को काम में लावें। आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता और अज्ञान यह सब गुण यदि मिल जाएं तो मनुष्य की दशा वह हो जाती है जैसे कि किसी कागज के थैले के अन्दर तेजाब भर दिया जाए। ऐसा थैला अधिक समय तक न ठहर सकेगा और बहुत जल्द गल कर नष्ट हो जाएगा। ईश्वरीय नियम, बुद्धिमान माली के सदृश हैं, वह निकम्मे घास कूड़े को उखाड़ कर फेंक देता है और योग्य पौधों की भरपूर साज-सँभाल रखकर उन्हें उन्नत बनाता है। जिस खेत में निकम्मे खरपतवार उग पड़ें उसमें अन्न की फसल मारी जाएगी। भला ऐसे किसान की कौन प्रशंसा करेगा, जो अपने खेत की ऐसी दुर्दशा कराता है। निश्चय ही ईश्वरीय नियम निकम्मे पदार्थों की गन्दगी हटाते रहते हैं, ताकि सृष्टि का सौंदर्य नष्ट न होने पावे। यह कहावत बिलकुल सच है कि—ईश्वर उसकी मदद करता है जो खुद अपनी मदद करता है, अपने पैरों पर खड़ा होने वाले को पीठ थपथपाने वाले दूसरे लोग भी मिल जाते हैं।

प्रार्थना का सच्चा उत्तर पाने का सब से प्रथम मार्ग आत्म विश्वास है। आत्म विश्वासी, शरीर और मन से भरपूर प्रयत्न करता है। कर्तव्य परायण द्वारा ही सच्ची प्रार्थना होनी सम्भव है। तैरने वाला ही समुद्र के गहरे जल में डुबकी लगा कर तली में से मोती ढूँढ़ ला सकता है। जो पानी को देखकर जी चुराता है, उसके लिए मोती पाना तो दूर तैरने का आनन्द लेना भी कठिन है। समय को बर्बाद करने वाले, काम से जी चुराने वाले, अज्ञानी और इन्द्रिय परायण लोग भक्त नहीं हो सकते, चाहे वे कितना ही ढोंग क्यों न रचते हों, ऐसे लोग ईश्वर के नाम पर भिक्षा माँग कर पेट भर सकते हैं। प्रार्थना नहीं कर सकते। प्रमाद और प्रेम यह दोनों तो एक दूसरे के विरोधी तत्व हैं जहाँ एक होगा वहाँ दूसरा ठहर नहीं सकता।

आज देखते हैं कि असंख्य मनुष्य ईश्वर पूजा का कर्म काण्ड करते हैं पर उन्हें रत्ती भर भी लाभ नहीं होता। कारण यह है कि वे प्रथम, आत्मा को जानने का कष्ट नहीं करते और व्यर्थ की तोता रटन्त में अपना समय बर्बाद करते हैं।

सच्चा भक्त अपनी आत्मा के दिव्य मन्दिर में परमात्मा का निरन्तर दर्शन करता है। ईश्वर उसके बिलकुल निकट है। अपने दिलदार को दिल में छिपाये हुए वह निहाल बना रहता है। प्रभु का पावन चित्र उसके हृदय पर अंकित होता है। वह व्यर्थ की उलझनों में नहीं पड़ता वरन् अनुभव करता है कि—”दिल के आइने में है तस्वीरें यार, जब जरा गर्दन उठाई देख ली।” वह ईश्वरीय प्रेम का दिव्य समुद्र अपने चारों ओर लहराता हुआ देखता है और उसमें आनन्द के गोते लगाता है। ऐसे ईश्वर परायण भक्त की आन्तरिक ज्योति उसके बाहरी आचरण में स्पष्ट दिखाई देने लगी है। अपने को आत्म भाव से देखने वाला, ईश्वरीय अखण्ड ज्योति के प्रत्यक्ष दर्शन करने वाला, मनुष्य महात्मा—बन जाता है। वह तुच्छ स्वार्थों और इन्द्रिय लालसाओं में वशीभूत होकर दुष्कर्म नहीं करता। पवित्रता और प्रेम की अजस्र धारा उसके आचरणों में से निर्झरिणी की तरह झरती है, उसके लिए अमुक विधि से प्रार्थना करने की बाधा नहीं रहती। चाहे जिस तरीके से और चाहे जब वह प्रार्थना करता रह सकता है, उसकी हर एक पुकार प्रभावशाली होती है और निश्चित परिणाम उपस्थित करने की पूर्ण सामर्थ्य रखती है।

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