
ब्रह्म कैसा है?
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(महात्मा मदनमोहन जी मालवीय)
ब्रह्म का पूर्ण और अत्यन्त हृदयग्राही निरूपण, वेद, उपनिषद् और पुराणों का साराँश, भागवत् के एकादश स्कन्ध के तीसरे अध्याय में किया हुआ है।
राजा जनक ने ऋषियों से पूछा- हे ऋषिगण! आप लोग ब्रह्म ज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं। अतएव आप मुझे यह बताइये कि जिनको नारायण कहते हैं, उन परब्रह्म परमात्मा का ठीक स्वरूप क्या है?
पिप्पलायन ऋषि ने उत्तर दिया—हे नृप! जो इस विश्व के सृजन, पालन और संहार का कारण है, परन्तु स्वयं जिसका कोई कारण नहीं है, जो स्वप्न, जागरण और गहरी नींद की दशाओं में भीतर और बाहर भी वर्तमान रहता है। देह, इन्द्रियाँ, प्राण और हृदय आदि जिससे संजीवित होकर अर्थात् प्राण पाकर अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं, उसी परम तत्त्व को नारायण जानो। जैसे चिनगारियाँ अग्नि में प्रवेश नहीं पा सकतीं वैसे ही मन, वाणी, आँखें, बुद्धि, प्राण और इन्द्रियाँ उस परम तत्त्व का ज्ञान ग्रहण करने में असमर्थ हैं और वहाँ तक पहुँच न सकने के कारण उसका निरूपण नहीं कर सकतीं।
वह परमात्मा कभी जन्मा नहीं, न वह कभी मरेगा, न वह कभी बढ़ता है और न घटता है। जन्म-मरण आदि से रहित वह सब बदलती हुई अवस्थाओं का साक्षी है एवं सर्वत्र व्याप्त है, सब काल में रहा है और रहेगा, अविनाशी है और ज्ञान मात्र है। जैसे प्राण एक है तो भी इन्द्रियों के भिन्न होने से आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, नाक सूँघती है, इत्यादि भावों के कारण एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होते है, ऐसे ही आत्मा एक होने पर भी भिन्न-भिन्न देहों में अवस्थित होने के कारण भिन्न प्रतीत होता है।