
काया में हमने क्या पाया
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हे बहिर्मुखी, अन्तर्मुख हो!
यह वास्तु जगत माया-निर्मित,
काया में हमने क्या पाया!
कुछ श्वास, चेतना, स्पन्दन,
वैभव ने जिसको ललचाया!!
क्षण भंगुर सिन्धु तरंगों सा,
अस्थिर, उच्छ्रवास पुँज, जीवन!
यह समय उधेड़ बुन करता
कर्मों से नियति-सुदृढ़-जीवन!!
कर्त्तव्य किया फल मिलने पर-
पागल! फिर क्यों दुख हो, सुख हो?
हे बहिर्मुखी, अन्तर्मुख हो!
कलिका-संपुट में ओस-बिन्दु,
कुछ क्षण भर का इतिहास लिए!
जिसका मिट जाना ही परिचय-
है स्निग्ध, मधुर मृदु ह्रास लिये!!
पावस-रजनी, घनघोर घटा,
झंझावातों का वेग प्रबल
विद्युत अस्तित्व बता देती,
पल में चमका कर छोर सबल!!
स्मिति जैसी यह ज्योति लिए-
मानव! जगती के सम्मुख हो!
हे बहिर्मुखी, अन्तर्मुख हो!!
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*समाप्त*